कहानी जनलोकपाल बिल - डा 0 रमाशंकर शुक्ल प्राचार्य जी इन दिनों काफी सक्रिय हो गये हैं। जुलाई में यह पद पाने के बाद से लगातार विभिन्न क...
कहानी
जनलोकपाल बिल
-डा0 रमाशंकर शुक्ल
प्राचार्य जी इन दिनों काफी सक्रिय हो गये हैं। जुलाई में यह पद पाने के बाद से लगातार विभिन्न कालेजों, संस्थाओं संगठनों की ओर से आयोजित समारोहों और कार्यक्रमों में उन्हें बतौर मुख्य अतिथि न्योता जा रहा है। जून तक बिचारे बहुत बीमार थे। देश के नामी-गिरामी डाक्टरों को दिखा आये, पर कोई कुछ बता न सका। जब तक काम में जुटे हैं, रोग पूछता नहीं। अकेले हुए कि रीढ़ की हड्डी से सिर तक फटने लगता है। स्वतंत्र आदमी, लेकिन बुढ़ौती में पता नहीं क्यों इस रोग ने घेर लिया। अब गले में कालर पहनकर घर-बाहर घूमना उन्हें बहुत अखरता है। हालांकि इन दिनों इसकी जरूरत तभी पड़ती है, जब किसी कार्य में वे असफल हो जाते हैं।
बीएचयू, पूना, दिल्ली और अपने शहर के डाक्टरों ने उन्हें बताया कि आपको कुछ नहीं हुआ है। बस एक ‘एरिटेटिंग बाउल सिण्ड्रोम' के चलते आपको सारी परेशानियां घेर लेती हैं। वरना इस उम्र में भी आप सबसे खुशनसीब आदमी हैं कि आपको अभी तक सूगर, ब्लड प्रेशर और हर्ट की बीमारी नहीं है।
प्राचार्य जी के एक खास शिष्य है डा0 गर्ग। पढ़ाई के जमाने से ही गुरुदेव से जुड़े हुए हैं। पूरे 22 साल का साथ। बीच के पांच-छह साल तो अनबन के चले। यहां तक कि दोनों ने एक-दूसरे के साथ सह-मात का खेल भी खेला। बाद में गुरु को अपनी गलती का अहसास हुआ तो शिष्य को फिर से गले लगा लिये। गर्ग का मानना है कि प्राचार्य जी पूरे बच्चे हैं। मन इतना निर्मल कि अपने गोपन को भी थोड़ी संवेदना मिलने पर पिघला देते हैं। जिद पर उतर आये तो कब्र भी खोद डालेंगे। अब यह निर्मलता बहुतों के लिए चिढ़ का भी विषय बन जाती है। शहर के ही एक चर्चित नेता कम पत्रकार हैं त्रिपाठी जी। वे कहते हैं कि जो आदमी अपनी बात खुद नहीं हजम कर पाता, भला दूसरों के राज कैसे सुरक्षित रख सकेगा। यही कारण है कि बिना किसी अदावत के त्रिपाठी जी ने उनकी बेटी की नियुक्ति का मसला टाल दिया। डर था कि इत्तफाकन नियुक्ति न हो सकी तो प्राचार्य जी उन्हें सरे आम बेज्जत कर देंगे। वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जायेंगे। हां, यदि वे अपनी बेटी की नियुक्ति कराना ही चाहते हैं तो मेरे बेटे की नियुक्ति स्वयं कर लें और उनकी बेटी का मैं करवा दूंगा। लेकिन शर्त यह रहेगी कि बेटे की ज्वाइनिंग के दस दिन बाद ही उनकी बिटिया की नियुक्ति करा सकूंगा।
सच में, प्राचार्य जी अत्यंत भावुक, प्रिय, आत्मीय, परम हितैषी होने के बावजूद खतरनाक हैं। ऐसा बहुत लोग मानते हैं। स्वयं प्राचार्य जी हर उस किसी से प्रेम करने लगते हैं, जो सक्रिय हो, जज्बाती हो, दृढ़ हो। वे ईमानदारी खूब पसंद करते हैं, लेकिन थोड़ा-बहुत लेनदेन पुरस्कार के रूप में यदि हो जाता है, तो इससे कोई शिकवा नहीं रहती।
बताते हैं कि दस साल पहले प्राचार्य रहते एक बार बेरोजगारों का कल्याण करने का उन्हें ऐसा चस्का लगा कि जो भी दरवाजे आया, हाथ-पांव दबाया, घरेलू काम-काज में मदद की, उसे दिहाड़ी, अंशकालिक, तदर्थ आदि रूपों में नियुक्त कर दिया। बाद में इसमें से कई लोग उच्च न्यायालय की शरण जाकर परमानेंट हो गये। अजीब इत्तफाक है कि प्राचार्य जी इस प्रकार के मुकदमों में उसके वकील का इंतजाम खुद करते। इसके लिए सब्जी, सुर्ती, पांव-मालिस जैसे उत्कोच उनके लिए पर्याप्त थे। लेकिन नहीं, प्राचार्य जी अभागे भी कम नहीं हैं। प्राचार्य पद से हटाये जाने के बाद उनके द्वारा नियुक्त सारे लोग उनके दुश्मन हो गये या फिर कन्नी काटने लगे। अब वे सभी लोग फिर प्राचार्य जी के साथ हैं। उन्हें इन सबके पुराने व्यवहार बिल्कुल याद नहीं। ऐसा तो कोई बच्चा ही कर सकता है। फिलहाल चाहे कोई कुछ कहे, उन्हें फर्क नहीं पड़ता।
तो आजकल प्राचार्य जी काफी उत्साह में हैं। चार अप्रैल 2011 को टीवी पर समाचार देखकर उठे तो चेहरे पर एक जबर्दस्त बेचैनी थी। जल्दी से जल्दी घर से बाहर निकलकर पूरे शहर में फैल जाने जैसा कुछ महसूस हो रहा था। हड़बड़ी इतनी कि ठीक-ठीक कपड़ा भी नहीं पहन पा रहे हैं। फूल पैंट की जगह लोवर पहन लिए और सर्ट की जगह कुर्ता। एक पांव में दूसरा चप्पल तो दूसरे में कोई दूसरा। बाहर निकले तो बेटी का छोटा सा बच्चा ताली बजाकर हंसने लगा। मगर उनको अपनी खबर कहां। वे बिजली की गति से घर से सड़क पर आ गये।
लल्लू की हंसी बंद हो गयी। दौड़ता आया और हाथ पकड़कर खींच लिया, ‘ये क्या कर रहे हैं नाना?'
‘ऐंऽ, क्या हुआ?'
‘आप क्या पहने हैं और कहां जा रहे हैं?'
प्राचार्य जी ने अपनी हुलिया पर निगाह डाली तो चौंक पड़े। भागकर कमरे में आये। फिर से कपड़े पहनना शुरू कर दिये। लल्लू को पता है कि जनाब आज किसी बात से परेशान हैं। उसने टीचर की तरह खड़े होकर एक-एक चीज सलीके से पहनाते हुए तैयार किया। फिर भी बिना मोबाइल के दरवाजे तक पहुंच गये। अबकी उसने डांटते हुए कहा, ‘दिक्कत हो तो मैं भी साथ चलूं?'
प्राचार्य जी ने प्रकृतस्थ होने की कोशिश की। नन्हें से बच्चे की समझदारी और जिम्मेदारी पर मन ही मन खुश हुए। बदले में उसके सिर के बालों को सहलाकर आगे बढ़ गये।
एक घंटे बाद प्राचार्य जी कालेज के शिक्षकों और स्टाफ से घिरे हैं। सबको समझा रहे हैं, ‘देखो, वास्तव में देश को दूसरी आजादी की जरूरत है। अन्ना हजारे बूढ़ा शेर। कल दिल्ली के जंतर-मंतर पर मुर्दा देशवासियों में प्राण फूंकने जा रहा है। बहुत सो लिए। अब जागो और उसकी दहाड़ में अपनी दहाड़ मिला दो।'
चतुर्थ श्रेणी के कर्मी ऐसे सिर हिला रहे हैं, जैसे सब समझते हों। शामत ने धीरे से राजा से पूछा, ‘मामला क्या है? ये अन्ना कौन हैं? इन्हें क्या प्राब्लम है और क्यों जंतर-मंतर पर टोना-टोटका करने जा रहे हैं?'
शरीर से हट्टे-कट्टे राजा ने जोर से घुड़का तो शामत चुप हो गया। अब कौन पूछे अन्ना के बारे में।
प्राचार्य जी अब थोड़ा व्याख्यान की मुद्रा में आ गये, अपने देश का चार सौ लाख करोड़ रुपये बेईमान नेताओं ने घोटाला करके विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है। अगर वह पैसा वापस आ जाये तो देश की दो पंच वर्षीय योजनाओं के लिए सरकारी कोष की फूटी कौड़ी भी न लगानी पड़े। इसके अलावा आज जो देश का प्रत्येक नागरिक पैदा होते ही दस हजार का कर्जदार हो जा रहा है, तो काला धन आ जाने पर कर्ज खुद-ब-खुद समाप्त हो जायेगा। बल्कि बचे हुए धन से देश के 121 करोड़ लोगों को प्रति व्यक्ति ढाई-ढाई लाख रुपये भी दिये जा सकते हैं।'
डा0 पाण्डेय अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं। ज्ञान की बात में भला वे कैसे चुप रहेंगे, ‘अजीब बात है भाई। विदेशी बैंक हमारे ही धन को हमें ही ब्याज पर देते हैं और लाभ वे कमाते हैं।'
डा0 कर्नल अंशकालिक हैं तो क्या हुआ, एमपी का चुनाव लड़ चुके हैं। क्या मजाल कि उन पर किसी ने आज तक घपले का आरोप मढ़ा हो। बोले, ‘ये सही है कि यदि जन लोकपाल विधेयक पारित हो जाये तो सारे भ्रष्टाचारी सलाखों के पीछे होंगे। एक बार ऐसा हो ही जाना चाहिए।'
प्राचार्य जी पलटकर बोले, ‘केवल बतकही से थोड़े काम चलेगा। अन्ना का साथ तो सब लोग दो।'
‘डा0 कर्नल ने प्राचार्य जी को खुश करने की कोशिश की, ‘अरे तो इसमें कौन बड़ी बात है। आप आदेश तो कीजिए। का बोल जा थ, (डा0 सिंह का तकिया कलाम) न करें तो कहिए।'
‘हां, हां, बात सही है। हम सब तैयार हैं साब्। आप जो कहिए, हम करने को तैयार हैं।' सबने एक साथ समर्थन किया।
प्राचार्य जी को बड़ा शुकून मिला। वे कुर्सी से उठ खड़े हुए। दो मिनट चुप रहे। फिर बोले, ‘तो ठीक है। कल तीन बजे सभी लोग खजाना चौराहे पर पहुंचिये। अन्ना के समर्थन में हम सभी सांकेतिक उपवास करेंगे।'
प्राचार्य जी की आंखें वैसे तो हैं छोटी-छोटी, पर पारखी जबदस्त हैं। किसी व्यक्ति से दो मिनट बात कर लें, उसकी खूबी उन्हें मालूम हो जाती है। अब उस खूबी की वे सराहना कर उसी प्रकार सींचने लगते हैं, जैसे कोई अपनी बागवानी में पौधे को सींच-पोस कर हरा-भरा करता है। आज की तारीख में उनकी बागवानी में इस तरह के सैकड़ों-हजारों पौधे लहलहा रहे हैं। उसे लहलहाने में उन्हें चाहे जो भी करना पड़े, करने से नहीं चूकते। तो एक पौधा हैं सरस जी। पूरे कम्युनिस्ट। संकोची, शर्मीले किन्तु दृढ़, जबर्दस्त अध्येता, जागरूक और क्रांतिकारी। रचनात्मक कार्य के लिए उनका तन और धन दोनों हाजिर। प्राचार्य जी के ही महाविद्यालय में गणित के प्रवक्ता है। खजाना चौराहे पर उनकी कपड़े की दुकान है। स्वार्थ में कभी समझौता नहीं करते, चाहे बड़ा नुकसान ही क्यों न हो जाये। इन दिनों वे शहर से बाहर हैं, पर प्राचार्य जी को फोन पर ही निश्चिंत होने का आश्वासन दे दिये।
दूसरे दिन साढ़े तीन बजे जब उपवासी लोग खजाना चौराहा पहुंचे तो वहां पहले से ही दो चौंकियों पर गद्दा, चादर, मसनद के अलावा सड़क के किनारे करीब पचासेक कुर्सियां सजी थीं। सभी विराजमान हो गये।
सरस की भांति डा0 गर्ग भी प्राचार्य जी की बागवानी के सिंचित पौधा थे। वे भी चार बजे पहुंचे।
गर्ग और प्राचार्य जी की संगति कुछ खास है। दोनों में कुछ खास की समानता भी है। अगर प्राचार्य जी की नजर पारखी है तो गर्ग की कैमरा। कहते हैं कि गर्ग की आंखें आटोमेटि फिल्म डायरेक्टर हैं। किसी को बतियाते, चलते, हंसते, साजिश करते या फिर कुछ भी करते देख लें तो उसका हूबहू चलचित्र कहीं भी बयां कर सकते हैं। इतना ही नही, उनकी आंखें आदमी की खोपड़ी की भी डायग्नोसिस कर आती हैं।
उनके विरोधी इसे दूसरे शब्दों में ‘कुत्ता वृत्ति' बताते हैं। माने सूंघकर सुराग ढूंढ लेना। काम तो बड़ा है, अभिधार्थ बड़ा अपमानजनक। एकाध बार कुछ खास मित्रों ने अमुक-तमुक द्वारा दिये गये इस तकमे के बारे में बताया था और गर्ग रात भर विचारे भी। आखिर में एक वाक्य से मन को समझा कर शांत हो गये कि ‘हे ईश्वर, इन्हें माफ करना। इन्हें नहीं पता कि ये क्या कर रहे हैं।'
यह दीगर बात है कि गर्ग दूसरों के लिए इससे भी ज्यादा मारक टिप्पणी कर रहे होते हैं तो उन्हें नहीं पता होता कि वे क्या कह रहे हैं।
गर्ग की आंखें डायग्नोसिस कर रही हैं। देख क्या रहे हैं कि मंच पर झक्क सफेद बाना में बैठे कुमार मिश्रा का चेहरा हर आये नये उपवासी को देखते ही पूरे बल के साथ खिलने लगता है। गुलाब के फूल सा मुखड़ा हद से ज्यादा खिलकर लाल हो जाता है। चेहरे से एक आत्मीयता प्रदर्शित करती स्वागती भाषा लपक कर आगत को अपनी ओर खींच लेती है। इस कदर कि औरों की तरह वह आंख उठाकर देखने से भी संकोच करने लगता है। गर्ग भी इसका शिकार होते-होते बचे।
उन्होंने पाया कि उस गुलाब से भी ज्यादा लाल चेहरे से एक जबर्दस्त सगापन लिये हुए दो-तीन वाक्य उनकी ओर दौड़े हैं- ‘अहहहा। आइए, आइए डा0 गर्ग स्वागत है।' एक हाथ लपककर आगे बढ़ा है। नर्म-नाजुक, रुई के फाहे-सा। स्त्री के हाथ का भ्रम कराते हुए।
गर्ग इस स्वागत के आगोश में बंधे जा रहे हैं। सम्मान के कसीदे में विचित्र सा सम्मोहन है, पर छठी इंद्री खींच कर छुड़ा रही है। पूरे तीन-चार मिनट की रस्सा-कसी के बाद छठी इंद्री को सफलता मिली। अब वे मुक्त हैं। प्राचार्य जी का पैर छुए और चुपचाप मंच की आखिरी पंक्ति में जाकर बैठ गये।
चलचित्र चल रहा है। मुख्य आयोजक प्राचार्य जी कुमार मिश्रा के आभामंडल और लपकती आत्मीय भाषा के धक्के से धंसे जा रहे है। मन में खीझ उठती है कि उनकी पर्सनालिटी ऐसी क्यों न हुई कि आगंतुक बरबस उनके आभामंडल में कैद हो जाये। अभी तक व्यक्तित्व को ही सर्वस्व मानने वाले प्राचार्य जी को पहली बार रूप और परफारमेंस की कीमत मालूम हुई। अन्यथा कुमार साहब का निजी क्या कुछ है। ज्ञान, पद, प्रतिष्ठा और घनत्व के मामले में प्राचार्य जी के समक्ष कहां टिकते।
आगंतुकों की निगाह काफी देर बाद प्राचार्य जी की ओर जाती है, तब तक आने, बैठने, मिलने का क्रम भंग हो चुका होता है। भीड़ को चीरकर केवल पैर छूने जाना प्रगतिवादियों के बीच में पिछड़ापन माना जायेगा। सो वे जहां हैं, वहीं से हाथ जोड़कर काम चला ले रहे हैं।
कुमार मिश्रा का एक संगठन है- ‘नासं'। नासं का अर्थ अब सरस वगैरह संस्कृत के ‘नाशम्' से लेते हैं। वैसे तो नासं का पूरा नाम है नागरिक संगठन, पर आमतौर पर इस संस्था का प्रयोग तभी किया जाता है जब चुनाव वगैरह में किसी पक्ष के विपक्षी के जनाधार का सर्वनाश करना होता है। एक तरह से यह कुमार का ब्रह्मास्त्र है, जिसे वे प्रायः हर चुनाव में प्रयोग करते हैं। ऐन चुनाव के पहले नासं सक्रिय होता है और एक पंपलेट निकालता है, जिसमें राष्ट्रवाद की चासनी में विपक्ष के राष्ट्रविरोधी, समाजविरोधी, जन विरोधी चरित्रों के अलावा उसके निजी जीवन की तमाम चौंकाने वाली सूचनाएं होती हैं। ये सूचनाएं ऐसी होती हैं कि आम नागरिक को विपक्षी के सर्वांग निकृष्ट होने का शत-प्रतिशत भरोसा प्रदान कर देती है। परिणामतः वोट की दिशा बदल जाती है। विपक्षी ढेर हो जाता है। इसके बाद यह संगठन कोबरा की तरह अपने बिल में गुम हो जाता है। पंपलेट के अलावा कुमार साहब कुछ समाजसेवी पास में रखते हैं, जो एक समूह बनाकर शहर के गली-कूचों में इस प्रकार मार्च करते हैं, जैसे गांधी जी के कार्यकर्ता आजादी के आंदोलन में जन जागरूकता के लिए किया करते थे।
अब यदि आज यह संगठन फिर सक्रिय हुआ है तो निश्चित है कि कोई बात होगी। बात क्या होगी, सूबे की विधानसभा का चुनाव महज छह माह बाद होना है और सरकार के एक मंत्री इसी शहर विधान सभा से चुनाव लड़ेंगे। कुमार मिश्रा से उनके घनिष्ठ संबंध बन गये हैं। तभी तो पुरुष टीम के लिए नासं और महिला टीम के लिए उन्होंने अपनी पत्नी के नेतृत्व में एक दूसरा संगठन खड़ा करा दिया है। सरस जैसे लोग जो संस्कृत के नाशम् से अर्थ निकाल रहे हैं तो निश्चित है कि उसी मंत्री के किसी बड़े विपक्षी का नाश होना तय है।
डा0 गर्ग की कैमरा आंख एक-एक उपवासी की ओर घूम रही है। इसमें मिलावटखोर, फर्जी प्रमाणपत्र पर नियुक्ति पाने वाले शिक्षक, पूरी अर्हता रखने के बावजूद अंशकालिक मजूरी करने वाले प्राध्यापक भी नजर आ रहे हैं। दर्जनों लोग ऐसे हैं, जिन पर कभी बेईमानी का धब्बा नहीं लगा। दूसरा भी प्रश्न है, शायद बेईमानी का मौका न मिला। बेईमानी अपरिभाषित शब्द है। कई शिक्षक, प्राध्यापक आ रहे हैं, उपवास में शामिल हो रहे हैं। कई ऐसे हैं जो कक्षाओं में न पढ़ाने के लिए कुख्यात हैं। एक जनाब कुछ इस तरह हाथ जोड़ते, मुस्कुराते मंच की ओर बढ़े, जैसे शहीद होने को स्वयं महात्मा गांधी पधार रहे हैं। ये जनाब अपने बेटे की बीएचयू में नियुक्ति कराने की आड़ में वहां के वाइस चांसलर को एक कार्यक्रम में डेढ़ लाख रुपये विश्वविद्यालय को दान देने की घोषणा की थी। सब चौंक गये थे। बाद में सच उजागर हुआ।
गर्ग को चुहल सूझती है, ‘भाई कितना दे दिया जाये कि आप लोग उपवास से उठ जायेंगे?'
अंशकालिक अध्यापकों का एक ऐसा समूह वहां जमा है, जो अपनी ईमानदारी के चलते आज तक पक्की नौकरी से वंचित है। यह समूह व्यंग्य का निहितार्थ समझता है। सो एक जोरदार ठहाका गूंज उठा।
तभी वास्तविक कैमरा लिए एक अखबार का फोटोग्राफर आ पहुंचा। कुमार साहब और भी चौडि़या गये हैं। उनके सागिर्द सरक कर आगे आ रहे हैं। प्राचार्य जी और धंसे जा रहे हैं। लोगों के भीतर एक बेचैनी उठ रही है। लपलपाती छपास लालसा मचलती है, पर कैसे कैमरे के सामने आ जायें। कैमरे वाले को ही अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नमस्कार ठोंक दिये। कैमरा उधर घूम गया। कुमार साहब बेचैन, ‘अरे भाई साहब, ऐसा लीजिए कि चौराहा और बैनर साफ दिखे। कैमरामैन घूमता है। छूट रहे हिस्से में से फिर किसी ने नमस्कार ठोंका है। अब वह सावधान है। हर तरफ से तस्वीर ले रहा है। छापेगा उसी को, जो मीडिया के हिसाब से होगा। सौ-पचास किसी ने जेब में डाल दी होती तो दूसरी बात थी।
उपवास कार्यक्रम का एक रजिस्टर बनाया गया है। लोग आ रहे हैं और अपने समर्थन का हस्ताक्षर व फोन नंबर लिख रहे हैं। झक् सफेदी में पधारे एक शिक्षक हस्ताक्षर करने को झुके कि गर्ग ने फिर टहोका भरा, ‘सिंह साहब, सबको बता दिये हैं न कि जिसने अपनी एक भी कक्षा न छोड़ी हो, वही हस्ताक्षर करेगा। काहे कि हजारे के साथियों ने चौधरी अजीत सिंह, उमा भारती, मेनका गांधी वगैरह को लौटा दिया है।'
निहितार्थ समझ में आते ही एक ठहाका फिर हवा में तैर जाता है।
सांझ ढलने को है। मीडिया के कैमरामैन आ रहे हैं। उपवासियों में छपास की एक बेचैनी सुनामी की तरह उमड़ती है, फिर मसोसते हुए लौट जाती है।
गर्ग पत्रकार भी रहे हैं। प्राचार्य जी ने उन्हें विज्ञप्ति तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। साथ में बता भी गये, ‘कालेज के तत्वावधान मे लिखिएगा।'
समाचार लिखा गया। प्रमुख लोगों के नाम शामिल कर लिये गये। प्राचार्य जी ने पढ़ने को मांगा। देखे और सहमत हो गये। लेकिन कुमार साहब को चैन कहां, ‘अरे डा0 गर्ग, जरा इधर दिखाइये तो। कुछ छूट तो नहीं रहा?'
अब वे विज्ञप्ति का मुआयना रहे हैं, जैसे खुद संपादक हों, ‘ऐसा कीजिए कि इसमें नागरिक संगठन का संयुक्त तत्वावधान डाल दीजिए। कुछ नाम छूट गये हैं, उन्हें लिख लीजिए।'
गर्ग विवाद क्यों करें। जगह नहीं है, फिर भी शब्दों की भीड़ में चींटियों सरीखे आकार में पांच नाम घुसा डाले। कुमार साहब संतुष्ट नहीं हैं, ‘फलां-ढेमका का नाम लिखे हैं कि नहीं?'
‘भाई साहब, ज्यादा से ज्यादा दस नाम छपना है। जागरण में तो पांच ही छपेगा। हम पहले से ही 35 नाम लिख चुके हैं। अब आपै बताओ हम क्या करें?'
‘हां-हां, सही कह रहे हैं। अब भेज दीजिए।'
गर्ग चले गये। कुमार साहब साथियों से पूछ रहे हैं, ‘क्या भाई, सभी अखबारों के फोटोग्राफर आ चुके हैं न!'
‘हां, हां, सभी तो आ के जा चुके।'
कुमार साहब खड़े हो गये। बगल में बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष भी। कुमार साहब जितने धवल व मोटे हैं, अध्यक्षजी उतने ही लंबे और स्लेटी, पर हैं समाजसेवी, सहज, दृढ़ तथा भावुक। बिचारे राष्ट्रीयता पर जान छिड़कते हैं। कुमार साहब उन्हें बराबर का सम्मान देते हैं। तभी तो जब कोई आंदोलन होता है, दसियों वकीलों को लेकर वे हाजिर रहते हैं।
अध्यक्ष जी तन गये। दम के साथ सांस अंदर खींचे और एक गरजती आवाज गड़गड़ा गयी-‘भारत माता कीऽ․․․․'
‘जय।' लोग हड़बड़ी में बोल पड़े। फिर सावधान हो गये। अरे नारा लग रहा है। अब उपवास स्थगित होगा।
अध्यक्ष जी जारी हैं, ‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो'।
‘फांसी दो, फांसी दो'।
‘अन्ना हजारे तुम संघर्ष करो'।
‘हम तुम्हारे साथ हैं।
‘जन लोकपाल बिल लाना है'।
‘देश को बचाना है।'
‘अन्ना नहीं ये आंधी है'।
‘भारत का ये गांधी है'।
‘․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․'।
‘․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․'।
दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी। प्राचार्य जी, कुमार साहब और पूर्व बार अध्यक्ष के बयान के साथ दसेक नाम। जोरदार फोटो। ऐं, यह क्या, वकीलों ने भी कचहरी में उपवास रखा था?
लेकिन आज कहां होगा? पता नहीं। दूसरे दिन ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्र जागा। कई तहसीलों में अधिवक्ताओं ने उपवास रखा। रूट मार्च हुआ। तीसरे दिन की सुबह अखबार आंदोलनों से पट गये।
नासं की एसएमएस मोबाइलों पर हाजिर- ‘अपराह्न 3․30 बजे लोहिया चौराहा पर उपवास। अवश्य शामिल हों।'
प्राचार्य जी ने साथियों को फोन पर बताया, ‘चार बजे लोहिया चौराहे पर उपवास के लिए आ जाइए।'
चार बजे लोग पहुंचे तो देखते क्या हैं कि कुमार साहब और उनकी मंडली पहले से ही मंचासीन है। हर जगह नासं का बैनर। अरे, यह क्या हो गया? प्राचार्य जी के कालेज का नाम कहां गायब हो गया और ये लोग साढ़े तीनै बजे क्यों आ गये?
पता चला कि कुमार साहब ने प्राचार्य जी और उनके सहयोगियों को चार बजे का ही समय बताया था। इसलिए कि बाद में आयेंगे तो अपने आप पीछे बैठेंगे। तब अखबारों की फोटो में वे सबसे ज्यादा चमकदार और अगुवा दिखने में सफल रहेंगे।
कुमार साहब यहां भी आगंतुक उपवासियों पूर्ववत शैली में स्वागत कर रहे हैं। पुराने समाजसेवी हैं। कहते हैं कि उन्हें चुनाव नहीं लड़ना। कोई लाभ का पद नहीं हथियाना। भगवान का दिया पूरी जागीर है। पुराने रईस परिवार के इकलौते वारिश। कई गांवों में सैकड़ों बीघा जमीन। इतनी कि उन्हें खुद ही सुध नहीं। कई कीमती भूखंडों पर लोग अवैध कब्जा कर रखे हैं, पर उन्होंने हटवाने की कोशिश नहीं की।
गर्ग को एक प्राध्यापक बता रहे हैं, ‘दरअसल, जनाब बड़े आलसी हैं। सुबह के दस बजे सोकर उठते हैं। सजने-संवरने में घंटों समय गुजरता है। भोजन के बाद फिर विश्राम करते हैं। दरबार तो शुरू होता है चार बजे के बाद, जो कि देर रात 12 बजे तक जारी रहता है। ऐसा नहीं कि सच्ची में ईमानदार हैं। ठीक से कहो तो सफेदपोश हैं। वर्ना कालेज की मैनेजरी मिली तो दो-दो सौ रुपये शिक्षक-अभिभावक शुल्क लिया जाने लगा। वो पैसा कहां जाता है, किसी को पता नहीं। कोई निर्माण भी नहीं हुआ कि सब खर्च हो गया। अलबत्ता कालेज को दो चपरासी जरूर जनाब के घर की चौबीस घंटे टहल बजाने के लिए तैनात रहते हैं। और ये क्या बतायेंगे यार, इनके कालेज में तो जमकर हेराफेरी हो रही है।'
गर्ग टालते हैं, ‘छोडि़ए भाई साहब। ये तो यूपी के सहायता प्राप्त कालेजों की आम बात है।'
‘अरे नहीं यार। अभी पिछले साल ही तो इनके सबसे प्यारे प्रिंसिपल और उसकी मंडली को बोर्ड मूल्यांकन में भारी घपले के लिए एडीएम ने रंगे हाथ पकड़ा था? सब कालेज की लड़कियों को बुलाकर अधिया दाम पर कॉपी जंचवा रहे थे। जो लोग निलंबित हो गये, जनाब उन्हें बहाल कराने की गरज से ही आजकल शिक्षा मंत्री की गणेश परिक्रमा कर रहे हैं। और यह कार्यक्रम, पत्नी को ब्राह्मण महिला सभा का अध्यक्ष आदि की कवायद आखिर क्यों हो रही है। इसके दो फायदे होंगे। एक तो मंत्री से चुनाव के समय दोहन करने को मिलेगा, दूसरे उनके शागिर्द कालेज में बहाल हो जायेंगे। हो क्या जायेंगे, समझो हो गये हैं। मंत्रिया ने जिला विद्यालय निरीक्षक को बुलाकर सहेज दिया है। बस बोर्ड मूल्यांकन पूरा होने दो, वह वापस आ जायेगा।'
अरे, ये लोग उझक क्यों रहे हैं? ओऽ, टीवी चैनल वाला आया है। कैमरामैन एक-एक तख्ती, बैनर, पोस्टर के साथ मंच और पब्लिक को कैमरे में कैद कर रहा है। कुमार साहब का चेहरा गुलाब होता जा रहा है। स्वागती भाषा लपलपा उठी। कैमरामैन तारीफों से गुदगुदा रहा है। प्राचार्य जी ने चश्मे को नाक की कोर पर स्थापित कर नजरें कैमरे वाले पर टिका दीं। लेकिन नहीं, उसने कुमार साहब के सामने अपना माउथ स्पीकर लगा दिया।
कुमार साहब गंभीर हो गये। राष्ट्रभक्ति का नूर टपकने लगा, ‘अन्ना जी अकेले नहीं हैं, पूरा देश उनके साथ हैं। वे परम कर्मयोगी और आचरणवान आदर्श हैं। यदि उन्हें कुछ हुआ तो अपने जिले से हजारों की संख्या में लोग जंतर-मंतर पर उपवास करने पहुंच जायेंगे। ․․․․․․․․․․․․․․․․आखिर लोकपाल बिल लाने में सरकार को दिक्कत क्या है?․․․․․․․․․․․․․जानते हैं, चार सौ लाख करोड़ रुपये घोषित तौर पर भ्रष्टाचारियों ने विदेशों में जमा कर रखा है। वह धन यदि अपने देश में लग जाये तो सभी जन्मजात दस हजारी कर्जदार ढाई लाख के मालिक हो जायेंगे और देश को दो पंचवर्षीय योजनाओं के क्रियान्वयन में फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं करना पड़ेगी․․․․․․․․․․․․․․।'
पीछे से आवाज आयी
‘देश को बचाना है।'
समवेत स्वर उभरा, ‘काला धन वापस लाना है।․․․․․․․․․․․․․जिन्दाबाद-जिन्दाबाद।․․․․․․․․․․․․․लोकपाल बिल लाना है।․․․․․․․․․․․․देश का यह गांधी है।'
रुको-रुको प्रिंट मीडिया के लोग आ गये। रिपोर्टर नहीं हैं यार, कैमरामैन हैं। इधर बैठो, बज्रासन पर बैठ जाओ तो चेहरा साफ आ जायेगा। ․․․․․․․․․․․․․․अरे भइया, इधर से लोगे तो पूरा चौराहा आ जायेगा․․․․․․․․․․․․।
कैमरे वाले अपने-अपने परिचय के हिसाब से कैमरे को आड़ा-तिरछा कर तस्वीरें खींच रहे हैं। हो गया। वे विज्ञप्ति खोज रहे हैं। गर्ग को निभानी थी ये जिम्मेदारी।
‘अरे भाई कार्यक्रम पूरा होने दीजिए, तब न बनेगी रिपोर्ट!'
नहीं, विज्ञप्ति तैयार है। कुमार साहब ने दोपहर में ही तैयार करा ली थी। वेल टाइप्ड। फोटोस्टेट के साथ हस्ताक्षर भी। बाकायदा नासं के पैड पर।'
अखबार वाले खुश। चलो झमेला खत्म। वे फूट लिये।
ओ हो, ये टीवी वाला तो बचा ही रह गया था। ये चैनल थोड़ा बड़ा है। कभी इस साइड तो कभी उस साइड। ये वैनर तो वो तख्ती। कैमरे की नजर लगातार घूम रही है। बाइट कौन देगा?
मंच के पास पहुंचा तो कुमार साहब लपके। पर नहीं, वह तो प्राचार्य जी के सामने खड़ा हो गया। माउथ स्पीकर उनके मुंह के पास सटा दिया।
अब प्राचार्य जी बोल रहे हैं, ‘यह अभियान जनपद के शिक्षकों, बुद्धिजीवियों समेत सभी वर्गों का है। चालीस साल से जानबूझ कर लोकपाल बिल लटकाया जा रहा है। हमारी असहमति बिल के पूर्व निर्धारित प्रारूप और काले धन की वापसी को लेकर है। मीडिया से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सरकार की लीपापोती से परेशान है। आखिर यह क्या हो रहा है? ․․․․․․․․․․․․․․सरकार को घुटने टेकने ही पड़ेंगे। अभी तो यह एक ट्रेलर है, आगाज अभी बाकी है․․․․․․․․․․․․․․․․।'
इतने में डा0 कर्नल चीखने लगे, ‘ तख्त बदल दो, ताज बदल दो।'
समवेत स्वर उभरा, ‘बेइमानों का राज बदल दो।'
‘लोकपाल बिल पर?'
‘सारा भारत एक है।'
‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो।'
‘फांसी दो, फांसी दो।'
फिर भी प्राचार्य की बागवानी मुरझाई सी नजर आयी। गर्ग ने देख लिया था कि उनकी कंपनी के किसी भी व्यक्ति का नाम शामिल लोगों में दर्ज नहीं था।
आईबीएन 7 पर अन्ना के अनशन और देश में उठते ज्वार का लाइव कास्ट चल रहा है। कांग्रेस के अंदरखाने पर पल-पल कैमरा घूम जा रहा है। सिब्बल कुछ कह रहे हैं तो दिग्विजय कुछ। सरकार की ओर से कहा गया है कि अन्ना अनशन तोड़ दें तो मांग मान ली जायेगी। अन्ना अड़े हैं। कह रहे हैं कि अधिसूचना जारी होने के पहले नहीं टूटेगा अनशन। गर्ग गुस्से से भस्म हो रहे हैं। उनका वश चलता तो कूद कर दिल्ली पहुंच जाते और अन्ना की बगल में बैठ जाते। हद हो गयी है, सारे बेईमान एक ईमानदार पर चौतरफा दबाव बना रहे हैं। चलो देखते हैं आगे होता है क्या?
शिक्षक मित्र का फोन आया, ‘क्यों न हम लोग भी कैण्डिल जुलूस निकालें। आपके नेतृत्व में?'
‘अरे नहीं यार, इण्टर कालेजों के अध्यापकों को आप नहीं जानते? वे शामिल होंगे भला?'
‘क्यों नहीं? हम और कन्नोजिया तो आपके साथ हैं ही।'
‘बाकी की भीड़ कहां से आयेगी?'
‘आपके कालेज के लोग तो आ ही जायेंगे।
‘चार के अलावा किसी पर भरोसा नहीं। वंशीधर अभी दोपहर को ही बोल रहे थे, ‘अब अन्नै देश सुधारेंगे क्या? भगोड़ा है मिलेट्री का। वीर अब्दुल हमीद शहीद हो गया और ये ट्रक के नीचे से भाग निकला।' मिश्रा जी का मानना है कि सब बकवास है। कुछ नहीं होगा। ये देश ऐसे ही चलता है। यहां हर आदमी हम्माम के नीचे नंगा है।' शिक्षकों के मंडलीय मंत्री जब जिला विद्यालय निरीक्षक कार्यालय के भ्रष्टाचार पर कुछ नहीं बोल रहे हैं, तो देश के भ्रष्टाचार पर क्या खाक बोलेंगे। बोर्ड परीक्षा के उड़नदस्ते में प्राथमिक शिक्षकों को शामिल करने का विरोध किया तो कितने शिक्षक साथ खड़े हुए?'
मित्र ने उकसाया, ‘आप ही तो कहते हैं कि महाभारत का युद्ध जीतने के लिए एक कृष्ण और पांच पांडव पर्याप्त हैं। यह महाभारत नहीं तो और क्या है?'
बात संडे की फिक्स हो गयी। शनिवार की दोपहर न्यूज चैनलों में अनशन और सरकार के बीच की मानने न मानने का ड्रामा निर्णायक मोड़ पर दिखने लगा। गर्ग को लगा कि गाड़ी पटरी पर आ रही है। एक धक्का लगाने की जरूरत भर है। मोबाइल उठाये और लोकल सभी नंबरों पर काल करने लगे- ‘भइया आज शाम छह बजे शहीद उद्यान से कैण्डिल जुलूस निकलेगा। अन्ना हजारे आपको बुला रहे हैं।'
प्राचार्य जी से बोले, ‘सर, तैयार हो जाइए। संडे का इंतजार नहीं किया जा सकता। उस दिन कुछ और कर लेंगे। आज पचास लोगों को आप तैयार कर लीजिए, पचास हम ले लेंगे। जुलूस के लिए सौ काफी हैं। आपके नेतृत्व में ही यह जुलूस निकलना है।
बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष का बेटा उजाला का ब्यूरो चीफ है। यंग है। वो आयेगा तो ठीक रहेगा। आखिरकार जुलूस में शिक्षक, अधिवक्ता, पत्रकार, डाक्टर, इंजीनियर, समाजसेवी-सभी वर्गों के लोग शामिल होंगे तभी तो इसका प्रभाव पड़ेगा। अन्य अखबारों के रिपोर्टर तो पीक आवर में हैं। भला वे कहां फुर्सत पायेंगे। उजाला के यंग मित्र के पास भी फुर्सत नहीं। पिता को नेतृत्व का सुझाव दे दिया।
गर्ग ने महिला मित्रों और साथियों को अपनी पत्नियों व बच्चों को भी लेकर आने का सुझाव दिया। शाम को छह बजे अपनी दो बच्चियों, भतीजी-भतीजे को लेकर शहीद उद्यान जा पहुंचे। प्राचार्य जी की मंडली अभी नहीं पहुंची थी। शहीद उद्यान बंद था। भारत है। जागने का काम देर से होता है। सोने का काम पहले। लेकिन नहीं, लोग आना शुरू कर चुके हैं। पहली खेप में महाविद्यालय के दस चपरासी 30 तख्ती के साथ प्रकट हो गये। गेट खुल गया। उम्मीद जागी। प्राचार्य जी आ गये। लोग जमा हो रहे हैं। अब संख्या डेढ़ सौ के पार हो गयी है। बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और प्राचार्य जी शहीदों की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण कर कैण्डिल जला रहे हैं। जुलूस सजने लगा। सबसे पहले राष्ट्रध्वज लिए एक लिपिक। फिर दोनों छोटी बच्चियां, फिर प्राचार्य और अध्यक्ष जी। दो की कतार बनी। कैंडिल जलने लगे। ज्योति से ज्योति जलने लगी। देखते ही देखते करीब दो सौ कैण्डिल जल उठे। संयोग से बिजली गुल हो गयी। कैण्डिलों के प्रकाश ने अंधेरे को रोक दिया।
गर्ग बोले, ‘शांति मार्च होगा। नारे नहीं लगेंगे। बौद्धिकों का आंदोलन है।'
प्राचार्य जी बोले, ‘जनता बहरी हो गयी है। जगाने के लिए चिल्लाना पड़ेगा।'
पीछे से डा0 कर्नल ने ललकारा, ‘भारत माता कीऽ।'
‘जुलूस गरजा, ‘जय'।
अंधेरे और बहरेपन को चीरता यह काफिला जिधर से गुजरता है, लोगों की नजरें थम जाती हैं। बच्चे आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं। मनोवैज्ञानिक विकिरण हो रहा था। जज्बात छलक रहे हैं। रास्ते में कितने ही लोग कैण्डिल लिए काफिले में शरीक हो गये। डा0 कर्नल और गर्ग लगातार चीख रहे हैं-‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो, लोकपाल बिल लाना है, काला धन वापस लाओ, अन्ना हजारे नहीं यह आंधी है, केंद्र सरकार होश में आओ․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․।'
जुलूस चिल्ला रहा है। जनता खिंची आ रही है। काफिले की संख्या पांच सौ के करीब पहुंच चुकी है। कि एक झुण्ड अचानक जुलूस में शामिल होकर उन्माद की हद तक नारेबाजी करने लगा। एक जबर्दस्त उफान पूरे माहौल में तारी हो गया। इतने में लोहिया चौराहा आ गया। नारे, समर्थन, जिन्दाबाद, चेतावनी गूंज रही है। डा0 गर्ग गदगद हैं। प्राचार्य जी और अध्यक्ष जी गदगद हैं। इतनी जबर्दस्त सफलता पर उन्हें दूसरी आजादी की तस्वीर नजर आ रही है। देश बदलेगा। लोग बदलेंगे। चोट्टे फांसी पर लटकाए जायेंगे। आम आदमी का जटिल जीवन सरल हो जायेगा।
लेकिन अरे, यह क्या? क्या बोला जा रहा है? कौन बोल रहा है?
एक आवाज फिर गूंजती है और एक झुंड समर्थन कर रहा है, ‘हमारा विधायक कैसा हो?'
‘प्राचार्य जी जैसा हो'।
‘प्राचार्य जी-अन्ना हजारे'।
‘जिन्दाबाद, जिन्दाबाद।'
डा0 कर्नल लगातार चीख रहे हैं। अंशकालिकों की जमात समर्थन कर रही है। गर्ग दौड़े, प्राचार्य जी दौड़े-‘रुको-रुको। ये क्या कर रहे हो आप लोग?'
फिर भी नारे गूंजे जा रहे हैं। प्राचार्य जी ने डा0 कर्नल के मुंह पर हाथ रखकर आवाज दबाने की कोशिश की। फिर भी जोश मंद नहीं हो रहा। रोकते-रोकते भी तीन बार गों-गों की आवाज में जिन्दाबाद निकल ही गया। गर्ग निराश हैं। हतप्रभ हैं। लोग बिखर रहे हैं। आस्था का सैलाब बिखर रहा है।
अमित क्षुब्ध हैं, ‘यह तो कफन की राजनीति हो गयी।'
गर्ग का मन कसैला है, ‘प्राचार्य को खुश करने का यह एक और प्रकार का भ्रष्टाचार है। तेलपनिया भ्रष्टाचार।
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