रमाशंकर शुक्ल की कहानी : ब्रह्म तेजो बलं बलं

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कहानी ब्रह्‌म तेजो बलं बलं डा 0 रमाशंकर शुक्‍ल पिछड़े जनपद के छोटे शहरों का अपना सामाजिक स्‍वरूप होता है। आदमी सक्रिय है तो गांव की तरह...

कहानी

ब्रह्‌म तेजो बलं बलं

डा0 रमाशंकर शुक्‍ल

पिछड़े जनपद के छोटे शहरों का अपना सामाजिक स्‍वरूप होता है। आदमी सक्रिय है तो गांव की तरह हर कोई जान-पहचान का मालूम होता है। यह दीगर बात है कि नाम-पता वगैरह याद न आये। यहां न महानगरीय तरीके की ढर्रे वाली जिन्‍दगी होती है और न प्रगति की साफ-साफ तस्‍वीर। गांव और महानगर के बीच ये शहर वैचारिक और सांस्‍कृतिक स्‍तर पर भी हमेशा प्रगति और परंपरा के बीच द्वंद्व में झूलते रहते हैं। यहां न मनु की ‘परम शुचिता' वाली व्‍यवस्‍थाओं से गुरेज है और न ओशो के ‘संभोग से समाधि तक' तक की विचारधारा से। जो जैसा मिल गया, थोड़ी ना-नुकुर के बाद सब स्‍वीकार्य हो गया।

इसी तहर के एक पिछड़े जिले में परसुराम जी की जयंती मनायी जा रही थी। जिले का नाम कुछ भी रख सकते हैं, एक्‍स, वाई, जेड या फिर परसुरामपुर। चूंकि हम बात परसुराम की कर रहे हैं, इसलिए इसे परसुरामपुर ही कहते हैं। परसुराम की तरह इन शहरों का समूचा कार्य-व्‍यवहार भी हो सकता है। मतलब, एक तरफ अखंड तपस्‍या, समाधि तो दूसरी ओर मारकाट। श्रद्धा का हाल यह कि कहो तो पिता के लिए कुछ भी कर जायें। यहां तक कि मां की गर्दन तक उतार देें। यानी पुरुष प्रधान समाज। महिलाओं को छूट केवल इतनी कि वे महानगरों की तरह जींस-टॉप पहन कर स्‍कूटी से सड़कों पर फर्राटा भर सकती हैं। वह भी ग्रामीण इलाकों में तो बिल्‍कुल नहीं।

परसुरामपुर में 21वीं शताब्‍दी के प्रारंभिक दिनों में सरकार के फैसले से एक बड़ा परिवर्तन हुआ। सरकार के मुखिया यादव जी थे। पंडितों को रिझाने के लिए घोषणा कर दी कि अब ब्राह्‌मण विरादरी के भी भगवान यानी परसुराम जी की जयंती मनाई जायेगी। पहली बार ब्राह्‌मणों को मालूम हुआ कि उनके भगवान परसुराम हैं। बस उसी साल से ब्राह्‌मणों के अपने संगठन बनने लगे और अक्षय तृतीया के दिन भारी-तामझाम के साथ परसुराम जी याद किये जाने लगे। अहम बात यह थी कि परसुरामपुर जैसे जनपदों में बनने वाले संगठन में भले ही एक दर्जन ही लोग शामिल हों, पंजीकरण भी न हुआ हो और शहर के बाहर उसकी बू तक न हो, लेकिन संगठन के नाम के आगे ‘भारतीय‘, ‘राष्‍ट्रीय' या फिर ‘अंतर्राष्‍ट्रीय' जैसे व्‍यापक विस्‍तारबोधक शब्‍द जरूर लगाये जाते हैं और इनके राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष शहर के किसी गली-मोहल्‍ले में बड़े नेम प्‍लेट के साथ खपरैल में निवास करते हैं। हालांकि इन शहरों में दर्जनों राजनीतिक पार्टियों, स्‍वयं सेवी संगठनों, सांस्‍कृतिक संस्‍थाओं आदि के भी राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष कुछ इसी तरह शोभायमान रहते हैं, जिनके कार्य और सेवा का क्षेत्र कोई एक विभाग होता है, जहां से उनके जीविकोपार्जन के लिए पर्याप्‍त धन निकल आता है।

अक्षय तृतीया के ठीक एक दिन पहले यही कोई दोपहर का समय होगा। अखिल भारतीय ब्राह्‌मण महासभा नामक संस्‍था ने परसुराम जयंती का आयोजन किया। काहे कि दूसरे दिन अपेक्षाकृत धनाढ्‌य व रसूख वाले पंडितों के संगठन ने बड़े स्‍तर पर कार्यक्रम आयोजित किया था, और उसके मुख्‍य अतिथि थे शिक्षा मंत्री, जिन्‍हें बाद में लोकायुक्‍त की जांच में अरबों रुपये के घोटाले में लिप्‍त पाया गया और उन्‍हें कुर्सी गंवानी पड़ी। लेकिन पंडित कैसा भी हो, आखिर है तो अपनी विरादरी का ही! रहीम जी पहले ही कह गये हैं ः

कह रहीम सुख होत हैं, बढ़त देखि निज गोत

ज्‍यों बड़री अंखिया निरखि, आंखिन को सुख होत॥

और तुलसी बाबा तो चार हाथ आगे बढ़कर बता चुके हैं ‘पूजिय विप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुनगन ग्‍यान प्रवीना'

मंत्री आयेंगे तो खबर बड़ी होगी ही। महासभा ने इस बात को पहले ही भांप लिया था। अखबारों में उनकी खबर बड़े कार्यक्रम के आगे दब जाती। फोटो छपती या नहीं, गारंटी न थी।

तो पूर्व संध्‍या का कार्यक्रम तय हुआ। आयोजन स्‍थल शहर के मध्‍य स्‍थित जिले का प्राचीनतम महाविद्यलाय रखा गया। मैं आमंत्रित तो न था, किन्‍तु ब्राह्‌मण होने के नाते इस संगठन का स्‍वयंभू सदस्‍याधिकार प्राप्‍त था और हर सदस्‍य से जान-पहचान भी ठीक से थी। तड़के करीब आठ बजे मोबाइल पर संगठन के प्रचार मंत्री की काल आयी, ‘शाम को अमुक कालेज में तीन बजे आ जाइएगा। परसुराम जयंती मनाई जायेगी। और हां, आपको बोलना भी पड़ेगा।'

बाप रे। दो-दो मुश्‍किलें एक साथ। अव्‍वल तो मैं परसुराम के बारे में प्रचलित कथाओं के अलावा बिल्‍कुल कुछ न जानता था। दूसरा यह कि गैरजातीय विवाह के कारण ‘अधोतर' जैसे नाम से कुछ लोगों द्वारा विभूषित भी। मंच पर खड़ा कर दिया गया तो बोलूंगा क्‍या?

लेकिन बोलने के लिए सोचने की कहां जरूरत होती है। आम तौर पर बोलता वह है, जो ‘बड़ा व्‍यक्‍ति हो'। विषय ज्ञान हो या न हो। वह जो बोलेगा, सब बड़ा ही होता जायेगा। फिर जो बड़ा होगा, उसने दुनिया बहुत देखी होगी, उसी पर बोलता चला जायेगा। घंटे-दो घंटे बोलते जाना उसके लिए कौन बड़ी बात। शब्‍द भी तो फुटबाल जैसे होते हैं। अच्‍छा खेलने वाला ऐसा नचाकर खेलेगा कि सब वाह-वाह करने को बाध्‍य हो जायें। बोलने के लिए वैसा ही जीना जरूरी थोड़े है। फिर जो जियेगा, उसे बोलने की क्‍या जरूरत! वह तो मौन हो जाता है। उसके आचरण बोलते हैं। यह दीगर बात है कि उसे सुनने वाले न मिलें। अन्‍ना को कौन सुन रहा है। गांधी को कौन सुन रहा है! एक बात से और परेशान था कि जिसके प्रति श्रद्धा न हो, उसकी सराहना कैसे की जाये।

बचपन से ही रामलीला से जुड़ा होने के कारण परसुराम को एक विष्‍ोश कारण से जानता आया हूं। बल्‍कि कई साल तक परसुराम से भिड़ा भी हूं। भले ही यह भिड़ंत अभिनय के दौरान वाक्‌युद्ध के ही रूप में क्‍यों न रही हो। मैं लक्ष्‍मण बनता और गांव के ही एक जानकीराम परसुराम बनते थे। बनते क्‍या थे, निजी जिंदगी में भी उनका व्‍यवहार बहुत कुछ परसुरामी ही था। पांच फीट से भी कम की काठी, पूरी तरह से गठी हुई। चेहरे पर गुस्‍सा अपने पूरे राेब के साथ झलकता। अक्‍सर लोग उन्‍हें देखकर ललचा जाते कि काश! यह व्‍यक्‍ति मुझसे मुस्‍कुराकर बात कर ले, पर शायद ही यह किसी को नसीब होता। जानकीराम की एक साइकिल थी। सोलह इंच की। मैंने जब से होश संभाला है, उन्‍हें उसी साइकिल पर हमेशा सवार पाया। कभी साइकिल को बगल में लेकर रेंगते हुए तो कभी बैठकर दनादन पांवदान मारते हुए जानकीराम। कभी गमछे में जानकीराम तो कभी धोती कुर्ते में जानकीराम। चेहरे पर गुस्‍सा वही। आंख में एक विचित्र सी निष्‍ठुरता। पता नहीं कैसे इतनी छोटी सी काठी में इतना खम था कि सतफुटा जवान भी एक बार उन्‍हें देखकर सिहर उठता। ऐसा भी नहीं कि जानकीराम काफी चौडे़ रहे हों, अगर उनके चेहरे के स्‍थान पर किसी किशोर का चेहरा लगा दिया जाता तो कोई कह नहीं सकता था कि यह चौदह वर्षीय कोई मासूम छरहरा लड़का नहीं है। बहरहाल, जानकीराम हर तीसरे दिन अपनी शाश्‍वत सवारी से परसुरामपुर की कचहरी में दाखिल हो जाते।

इसी गांव के निवासी मेरे सगे बड़े मामा की भी काठी ठीक ऐसी ही थी। खौफ के मामले में तुलसी दास की यह पंक्‍ति याद आ जाती- ‘को बड़ छोट कहत अपराधू।‘ वे भी जानकीराम की तरह पूरे कचहरीबाज। कभी परस्‍पर मुकदमे के दरम्‍यान दोनों जन का आमना-सामना होता तो कभी दूसरे तरह के प्रकरणों को लेकर। माना जाता कि दोनों क्‍या दीवानी और क्‍या फौजदारी, सभी प्रकार के मुकदमों के पूरे पंडित हो चुके हैं। महज आठवीं पास इन दिग्‍गजों के पास इतने तरह के कानूनी ज्ञान कि बड़ा से बड़ा वकील भी एक बार चकरा जाये।

बहरहाल, बड़े मामा रामलीला में कभी रोल नहीं किये। न ही मैदान में गये। बस मैदान के सामने बने अपने ‘बंगले‘ में बैठे रहते। बंगला माने अधिकारियों वाला बंगला नहीं, बिल्‍क फूस का बना हुआ मड़हा। जैसे शतचंडी यज्ञ आदि आयोजनों में बनाया जाता है। इसे बंगला नाम तो इसलिए दिया गया था कि गांव वालों पर रौब गालिब करने के सारे समीकरण यही बनते। मामा जी खुद पुलिस थे, न्‍यायाधीश भी और जल्‍लाद भी। इसलिए गांव की कोल-भील आदि जातियाें के लोगों ने अधिकारियों के बंगले से निकलने वाली हवा जैसा व्‍यवहार देखकर बंगला नाम रख दिया था। बचपन से जानकीराम को लगातार परसुराम की भूमिका में देखते-देखते अब आदत सी हो गयी। मुझे परसुराम और जानकीराम में कोई फर्क नहीं नजर आता। गांव के बहुत से लोग उन्‍हें परसुराम भइया भी कहते हैं। क्रोध के साथ वे सच्‍चे अर्थों में जेहादी भी। लड़ते रहना उनका धर्म। कितनों को उन्‍होंने मारा और कितनों ने उन्‍हें मारा। इसकी कोई गिनती नहीं। मार खाने पर उन्‍हें कोई माख नहीं, पर मार लेने पर दूसरे दिन गांव भर में करेजा कुछ ज्‍यादा ही चौड़ा कर चलते। ब्राह्‌मणत्‍व की सुरक्षा उनके लिए सर्वाधिक अहम रहती। यह दीगर बात थी कि इसका उद्‌देश्‍य महज अपने पट्‌टीदारों को नींच साबित करना रहता। वह भी किसी ब्राह्‌मण ही नहीं, बल्‍कि किसी भी जाति के सामने। किसी तरह के व्‍यक्‍ति के सामने। बड़े आराम से किसी चमार को बैठाकर उसी से हुंकारी भराते कहते -‘ये किसी भी नजरिये से बाभन कहलाने लायक हैं? सब करम तो चमारे का ही करते हैं। अरे इनके हाथ का तो पानी भी पीने लायक नहीं है।‘ जानकीराम का भी मड़हा मामा जैसा ही था, लेकिन उसे बंगला नहीं कहा जाता था। उसे बखरी कहा जाता। बखरी में भी स्‍वामी का ही भाव निहित होता है, पर अधिकृत अधिकार से थोड़ा कम।

जानकीराम ने किसी क्षत्रिय का बध नहीं किया था। न ही उन्‍होंने अपनी मां और भाइयों का गला फरसे से काटा था। उनके भाइयों के अनुसार, उन्‍होंने गला दूसरे तरीके से काटा था। जानकीराम की खुद की मां बचपन में मर गयी थीं। बाप ने दूसरी शादी कर ली। दूसरी मां से दो बेटे और पांच बेटियां हुईं। और कुछ ही दिन बाद पिता चल बसे। बिमाता से जानकीराम की नहीं पटनी थी। दोनों की प्रकृति एकदम अलग। न तो जानकीराम को बेर कहा जा सकता है आैर न ही बिमाता को केर(केला)। हां, एक नदी थी तो दूसरा पहाड़। एक अपनी समूची प्रकृति के साथ गांव थी तो दूसरा समूचा जंगल। गांव और जंगल का मेल नहीं हुआ। बिमाता की उम्र जानकीराम से कुछ ही ज्‍यादा रही होगी। उनके दोनों बेटे जब तक किशोर होते जानकीराम ने पल्‍ला झाड़ लिया। शायद यह साेचकर कि कौन इनके भरण पोषण के झमेले पाले। सो वे अलग हो गये। अलग ही नहीं हो गये, नया घर बनाया तो बिमाता के घर से काफी दूर। पूरी सावधानी के साथ कि यदि उनके ऊपर बज्रपात भी हो और वे चीखें-चिल्‍लाएं तो जानकीराम के कानों तक न पहुंचे। सौतेले भाइयों का गला जिस तरह से उन्‍होंने काटा, वह था पिता की अधिक से अधिक संपत्‍ति पर कब्‍जा जमाना। और उसी के उत्‍पाद तथा ग्राम समाज आदि की भूमि पर कब्‍जा कर या फिर विवाद पर मुकदमेबाजी कर उन्‍होंने काफी जमीन बना ली। सुनते हैं कि परसुराम कभी किसी के आगे झुके नहीं। जानकीराम भी किसी के आगे नहीं झुके। यहां तक कि इस समय वे पचासी के हो गये हैं, फिर भी पुरानी अकड़ कायम है। वह साइकिल आज भी पूरी ठसक के साथ उनकी सवारी बनी हुई है। कहने वाले कहते हैं कि न साइकिल बूढ़ी हो रही है और न जानकीराम। लेकिन, उम्र की इस ढलान पर जो धक्‍का यदि किसी ने दिया तो वह थे उनके खुद के बड़े पुत्र। जानकीराम जितने उग्र, पुत्र उतने ही शांत। लेकिन नफरत में पुत्र ने पिता को मात दे दी। इसी पुत्र को जानकीराम के लिए धनुष यज्ञ के दिन का राम कहा जा सकता है। सुनते हैं कि राम ने जब परसुराम के पौरुष को चुनौती दी और परसुराम को राम के ब्रह्‌म रूप का ज्ञान हुआ तो वे सारा क्रोध्‍ा शांत कर चिर समाधि में चले गये थे। लेकिन, यहां पुत्र ने पिता को चुनौती दी तो जानकीराम को ब्रह्‌मज्ञान नहीं हुआ, बल्‍कि एक हताशा-सी मन के भीतर घर कर गयी। वे घर छोड़ दिये। लेकिन गांव न छोड़े। घर से सौ मीटर की दूरी पर अपने लिए एक नया बैठक बनवा लिया। उसमें पानी-गुड़ के साथ सुर्ती, जर्दा, सुपारी, लवंग आदि सब कुछ रहता। हालांकि उनके दरबार में पहले जैसी चहल-पहल नहीं रही, फिर भी जब गांव में कोई बवंडर उठता है तो जानकीराम का यह बैठका काफी हरा-भरा नजर आता है।

अब चलते हैं ब्राह्‌मण महासभा के कार्यक्रम की ओर। संगठन ने अपना प्रचार मंत्री बहुत चुनकर बनाया था। दूर संचार के सेवनिवृत्‍त प्रमोटी अफसर पद से सेवानिवृत्‍त थे। किसी ने कभी उन्‍हें फूहड़ लिबास में न देखा। खटाऊं की धोती पर मटका का कड़क कुर्ता। धवल बालों के बीच लालिमा से युक्‍त ललाट। ललाट पर श्‍ौव त्रिपुण्‍ड। घनी मूंछों के बीच चभुवाए हुए दोनों ओठ। ओठ के भीतर मघई पान की गिलौरी। वह भी पीक से भरी हुई। यही उनकी चिर-परिचित पहचान। जानकीराम की तरह प्रचारमंत्री जी भी करीब 25 साल से एक स्‍कूटर की सवारी कसने वाले आदमी। सुबह का पूरा समय पूजा में और शाम को आठ किलोमीटर दूर पहाड़ी में बसी दुर्गा मां के मंदिर में। इस नियम में आज तक उन्‍होंने कोई नागा न किया। घर में कोई अनहोनी हो भी गयी और शुद्धक पड़ गया तो भी। मां के मंदिर के सामने जाकर हाथ जोड़ लेते और चौराहे का पान दबा घर लौट आते। उनकी स्‍कूटर के माथे पर दुर्गा मां की सिंदूरी से ऊॅ लिखा रहता है। पुलिस और चोर, दोनों इस वाहन को समान रूप से सम्‍मान देते हैं। उसे कोई नहीं रोकता। एक बार किसी के कहने पर प्रचार मंत्री ने उसे बेचने का मन बना लिया, पर पूरे परसुरामपुर में खरीदार न मिला। जो भी देखता, हाथ जोड़ लेता, पर कारण न बताता। एक बार बहुत पूछने पर एक सज्‍जन ने बताया कि ‘डरता हूं भइया और कुछ नहीं।'

‘काहे का डर?'

‘धार्मिक गाड़ी ठहरी। पचीस साल से दुर्गा मइया के दुआरे जाकर निश्‍चित समय पर खड़ी होती आयी है। क्‍या पता हम खरीदें और यह पूजा वाले समय दुर्गा मंदिर चल पड़े। तब तो कर चुके हम अपना कारोबार।' यह बात जंगल की आग की तरह ऐसी फैली कि प्रचार मंत्री उसे और वह प्रचार मंत्री जी को मजबूरी में झेल रहे हैं।

वही स्‍कूटर आज सड़क पर फर्राटा भरती दौड़ी जा रही थी। मुझे देखते ही चोंय की आवाज से खड़ी हो गयी। ध्‍यान गया तो प्रचार मंत्री जी घूर रहे थे। रिश्‍ता और उम्र दोनों में बड़े, सड़क पार कर पांव छुआ, पर आशीर्वाद की आवाज कानों में न घुली। समझ गया कि पान दबाये बैठे हैं। थूकने का मतलब तीन रुपये की हत्‍या।

इसारे से बैठने का हुक्‍म मिला। खाली तो न था, पर बैठना पड़ा।

सभागार सलीके के साथ दुरुस्‍त था। एक तरफ की कुर्सियां बीआईपी और दूसरी ओर सामान्‍य। गरीब-अमीर अपनी हैसियत समझते हुए आसन ग्रहण कर सकें, इसका पूरा अवकाश्‍ा था।

आयोजन का पूरा भार प्राचार्य त्रिपाठी जी पर था। खान-पान के शौकीन आदमी। तंबाकू का सेवन डायरेक्‍ट न करते। जला कर करते। हमारे एक ठाकुर अध्‍यापक ने बाद में उसका मर्म समझाया था, ‘तुम जो खैनी चूने में मल कर खाते हो, बहुत फूहड़ लगता है। सुबह सोकर उठो तो मुंह सड़ा सा गंधाता है। हम और त्रिपाठी उसे पवित्र कर ग्रहण करते हैं।'

मैंने थोड़ा डरते हुए पूछा था, ‘सिगरेट को आप पवित्र मानते हैं सर?'

‘धाऽऽऽत्‌' जोर से दहाड़े। ‘बेवकूफ कहीं का। सिगरेट कहकर उसका अपमान न करो। अग्‍निहोत्र है, अग्‍निहोत्र। अग्‍नि में जली हुई कोई भी चीज अपवित्र नहीं रह जाती।'

गुरुदेव को जब भांग का नशा चढ़ा रहता तो पूरा विश्‍व बेर के समान उनकी जबान से आकार ग्रहण करने लगता था। गंगाघाट पर एक बार उन्‍होंने मुझे भांग की करामात बताई। ‘भोलेनाथ और पार्वती, दोनों ने एक साथ चढ़ा ली। फिर क्‍या हाल हुआ, सुनो ः

एक समय कैलाश सो संकर आवत हैं सननम्‌ सननम्‌

खाये हैं भांग धतूर में ब्‍याकुल बात करैं रररम्‌ रररम्‌

नाचत हैं गौरी शिव शंकर पांव कहैं झननम्‌ झननम्‌

कवि सेवक ताहि विचारि कहैं एक नाग कहै फननम्‌ फननम्‌॥'

उसी दिन गुरुदेव ने अपने और त्रिपाठी में फर्क भी बताया था, ‘हम दोनों घनिष्‍ठ मित्र हैं। आज भी। वह आधा ब्राह्‌मण और मैं आधा क्षत्रिय। पूछो कैसे?'

मेरे मुंह से जमूरे की तहर बक्‍क से निकल गया ‘कैसे?'

‘वो ऐसे कि मैं ठाकुर होकर भी केवल भांग और सिगरेट का नशा करता हूं। बाकी पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ, दान वगैरह सब ब्राह्‌मणों का ही काम है। भांग भी तो ब्राह्‌मण ही पीते हैं!'

‘जी, सो तो है।'

‘सो क्‍यों, शंकर जी से बड़ा कौन भंगेड़ी गंजेड़ी होगा जी!'

‘हां, सर।'

‘वे ब्राह्‌मण ही तो थे? गोसाईं क्‍या होता है? ब्राह्‌मण ही न!'

‘जी।'

‘तो समझ लो मैं पूरा ब्राह्‌मण। अब पूछो त्रिपाठी कैसे ठाकुर हुआ?'

‘जी कैसे?'

‘देखो, वह डटकर शराब पीता है। सिगरेट का चैनल स्‍मोकर है। गोश्‍त आदमी का भी दे दो पलक झपकते साफ कर देगा।'

‘हैं?'

‘और क्‍या। और सुनो, लड़कियों का जबर्दस्‍त शौकीन है। पढ़ाई तो उसी दिन छोड़ दी, जिस दिन नौकरी मिली। और जानते हो, कभी अपना वेतन नहीं छूता। खाने-पीने की तलब लगी तो फांसना शुरू कर देगा। तो केवल गोश्‍त और दारू मांगने के कारण वह ब्राह्‌मण है।'

उस दिन गुरुदेव की गंगा रात बारह बजे तक बहती रही और मैं जंभाइयां लेते हुए अर्द्धनिद्रित सा मुक्‍ति की कामना कर रहा था।

यही कोई पांच साल बाद गुरुदेव की बात तब सही समझ में आयी, जब उन्‍होंने बेचारे शर्मा जी को मृत्‍योपरांत श्रद्धांजलिस्‍वरूप मेरे सामने ही जमकर बेलौस गाली देते हुए सुना। वह भी बहकते पांव और लड़खड़ाते कदमों के साथ। शर्मा जी को पूरा परसुरामपुर हिन्‍दी का आचार्य शुक्‍ल और महर्षि के रूप में याद करता था।

इसी के करीब साल भर बाद त्रिपाठी जी जेल की हवा खा रहे थे। मालूम हुआ कि इस छोटे से महाविद्यालय से दो साल में दो करोड़ दूहा है। और जो दूहा, उसे सीधे पीते रहे, किसी को एक घूंट भी छूने न दिये।

जेल जाने से पहले उसी प्राचार्य ने संगठन के महत्‍वपूर्ण पदाधिकारी होने के नाते ब्राह्‌मणों के भगवान की स्‍मृति में यह आयोजन कर विरादरी को गौरव की याद दिलाई। मुख्‍य अतिथि के लिए यहां भी कम जद्‌दोजहद नहीं किया गया। प्रतिद्वंद्वी यदि कोई सूबे का मंत्री बुला रहा है तो यहां भी वैसा ही कोई ढाल होना चाहिए कि नहीं! ब्राह्‌मण मंत्री न मिलें कोई बात नहीं, उनके परिवार का ही कोई मिल जाये। और परसुराम जी की कृपा से मिल भी गया। कैबिनेट मंत्री के परिवार से एक मेडिकल अफसर। बाद में ये मंत्री जी भी लोकायुक्‍त की रिपोर्ट पर बर्खाश्‍त किये गये।

मुख्‍य अतिथि महोदय एक सधे हुए व्‍यक्‍ति। मंत्री जी ने यह कालेज उन्‍हें एक जागीर के रूप में सौंप दिया था। प्राचार्य जी दिन भर कालेज की नौकरी करते तो शाम को उनके दरबार में हुजूर बजाते। काहे कि यह अफसर का ही वरदहस्‍त था कि कई साल से आयोग से चयनित प्रिंसिपल यहां आकर ज्‍वाइन न कर सका था और त्रिपाठी जी मजे से प्राचार्य पद की शोभा बढ़ा रहे थे। अब अनधिकार आप बहुत कुछ हासिल कर रहे हैं तो बदले में कुछ तो खोना ही पड़ेगा। वैसे भी एक समझदार आदमी एक ही जगह ऐसा चुनता है, जहां झुकने से हर जगह ताल ठोंकने का खम हासिल हो जाये तो क्‍यों सबके सामने वह झुके। अफसर बाबू में यह कूव्‍वत थी। आज तक यदि प्राचार्य का कोई अफसर, प्राध्‍यापक, छात्र नेता या शासन कोई बाल बांका न कर सका था। इसलिए उनके प्रति श्रद्धा का होना स्‍वाभाविक था। दोनों जन में एक सुलझा हुआ समझौता था, वह यह कि आप इधर-उधर से जो मिले उससे काम चलाइए। बाकी की नियुक्‍ति वगैरह का हिसाब-किताब मेरा।

वसूली का अपना सिद्धांत होता है। सभी जानते हैं कि कर्जदारों से वसूली में सरकारी खजाने से कई गुना ज्‍यादा वसूली करने वाले के खाते में जमा होता है। अन्‍यथा तहसीलदार से लेकर अमीन तक का जो वेतन है, उससे परिवार का भरण-पोषण भी नहीं हो सकता। ऐसे में यदि उनके यहां लाखों के बैलेंस, कारों-हवेलियों, गहनों की लंबी फेहरिस्‍त है तो क्‍या यह वसूली सिद्धांत की बरक्‍कत नहीं है ? मैं ऐसे सैकड़ों लोगों को जानता हूं कि मंहगाई के इस जमाने में महज दस-बारह हजार वेतन वाले दो से तीन वर्ष में बिना किसी कर्ज के भारी मात्रा में जमीन, लाखों का बैलेंस, कई मंजिला मकान, वजनी गहने, कारें आदि खड़े कर लिए हैं। सौभाग्‍य से उसमें से बहुत बड़ी संख्‍या ब्राह्‌मण विरादरी की ही हैं। अफसर महोदय उन्‍हीं में से एक थे और इसीलिए काफी आदरणीय और विशिष्‍ट माने जाते। परसुरामपुर के मंत्री जी वाले विभागों के अधिकारियों-कर्मचारियों के स्‍थानांतरण, पोस्‍टिंग, चतुर्थ और तृतीय श्रेणी में नियुक्‍ति, प्राचार्य और लेक्‍चरर पदों पर आयोग से चयन वगैरह का परोक्ष अधिकार इन्‍हीं अफसर के पास सुरक्षित रहता।

मंत्री का पद कोई सरकारी नौकरी जैसा तो है नहीं कि आज ज्‍वाइन किये और 62 वर्ष की उम्र में ही रिटायर हुए! क्‍या पता कब सरकार चली जाये। और सरकार चली गयी तो कल तक झुक-झुक कर सलाम बजाने वाले लोग पहचानते तक नहीं। इसलिए जितने का मौका है, उसे ठीक से भुना लेना ही समझदारी है। इसमें यदि आदमी भावुक हुआ तो कुछ नहीं कर पायेगा।

यही कारण है कि उन्‍होंने मंत्री जी के मंत्रित्‍व काले में बिल्‍कुल भावुकता का परिचय न दिया। यहां तक कि कालेज में एक गैर विरादरी का युवक दोनों पैर से अपाहिज ह्‌वील चेयर से अंशकालिक कर्मचारी के रूप में काम करने आता। सोचा था कि जमीन पर पैर जानवरों की तरह घिसटते हुए चलता देख लोग सहानुभूति में परमानेंट कर देंगे। अब पाकेट में माल नहीं है, तो क्‍या तुम्‍हारा लंगड़ाना पैसा बन जायेगा! और ज्‍यादा काम कर देने से भी क्‍या होना है। उसका फायदा कालेज को भले मिल जाये, लेकिन अफसर को क्‍या मिलेगा! उस सिरफिरे को यह बात समझ में कभी न आयी। बस कंप्‍यूटर पर अपने हुनर का प्रदर्शन कर दिल जीतने में जुटा रहा। कभी न समझ पाया कि दिल और पैसे में फर्क होता है। पैसा न हो तो मां-बाप तक के दिल पत्‍थर हो जाते हैं। अफसर के हो गये तो कौन बड़ी बात।

आखिरकार हुआ क्‍या? लाख समझाने के बाद भी वह पैसा न जुटा पाया। नियमित पद विज्ञापित हुआ तो कई लोगों के समझाने के बावजूद महज ढाई लाख ही जुटा पाया, जबकि दर्जनों लोग सात से दस लाख लिये खड़े थे। आखिर अफसर जी कितने की मानवता दिखाते। आखिर में सबसे ऊंची बोली लगाने के हाथ वह पद लग गया।

महासभा के अध्‍यक्ष पद का पदाधिकारी चुनने में विश्‍ोष सतर्कता बरती गयी थी। इसके लिए एक पूर्व सांसद को पटाया गया था। क्‍योंकि छांव वाला वृक्ष जितना सघन होगा, राहगीर उतने ही वहां विश्राम करने को बाध्‍य होंगे। पूर्व सांसद जी विद्वान और आज की राजनीतिक व्‍यवस्‍था के लिए पूरी तरह अनफिट। उनमें साहित्‍य, संगीत, राजनीतिक सिद्धांत और माधुर्य का अद्‌भुत समन्‍वय है। लेकिन, वे भी ब्राह्‌मण शब्‍द की पक्षधरता के लिए बौद्धिक बाहुबली माने जाते हैं। इन तीन विशिष्‍ट लोगों के बाद कार्यकर्ताओं के बारे में अलग से जानकारी देने की जरूरत नहीं। क्‍योंकि, किसी भी व्‍यक्‍ति की खूबसूरती उसकी बलिष्‍ठ देह, सुघड़ चेहरे और वक्‍तव्‍यों से ही महसूस कर ली जाती है। बाकी हाथ, कान, पेट, पैर, जंघा, जंघों के बीच की मर्दानगी आदि की चर्चा नहीं की जाती।

कार्यक्रम शुरू हो गया। तीनों जन मंचासीन हो गये। परसुराम जी बगल में एक मेंज पर कांछनी लगाए धोती में अपने फरसे, धनुष, जटा-दाढ़ी के साथ हमलावर मुद्रा में सीसे के पीछे चित्र में बिराजमान हो गये। मानो क्रोध साक्षात्‌ देह धारण किये हुए प्राण डालने की प्रतीक्षा कर रहा हो। कि अभी सीसा चट्‌ से चटक जायेगा और परसुराम जी बाहर आकर क्षत्रियों को ललकारने लगेंगे। इसीलिए वहां किसी क्षत्रीय को नहीं बुलाया गया था। बस दो-चार परिचारक थे, जो क्षत्रियेतर थे। ताकि बातचीत के दौरान उन्‍हें बुरा न लगे। आज बिचारे इतिहास के वे प्राध्‍यापक भी नहीं थे, जो लंबे समय तक ब्राह्‌मणों के साथ रहने के कारण आम आदमी के बीच क्षत्रिय की बजाय ब्राह्‌मण के रूप में ख्‍यात हो चुके हैं।

संचालन का दायित्‍व एक मिश्रा जी ने संभाला। आम तौर पर यूरोपीय वेष-भूश्‍ो में माथे पर चंदन टांके दिखने वाले मिश्रा जी का बाना बदला हुआ था। लक्‌ पीली धोती पर पीला कुर्ता, माथे पर चंदन, गले में रूद्राक्ष की माला। स्‍वास्‍थ्‍य विभाग में छोटे कर्मचारी हैं। किसी ने कभी आफिस में उनके दर्शन नहीं किये। अखबार वाले उन्‍हें उनके विभाग वालों से ज्‍यादा जानते हैं। उन्‍होंने कर्मचारी संगठन के प्रति अपना आफिस टाइम समर्पित कर दिया है। वेतन सरकार से, काम राजनीति का। हरफन माहिर। कहिए मंत्र से पछाड़ें, कहिए गाली से। एक बार एक अधिकारी द्वारा उनके खिलाफ एक्‍शन लेने पर कई दिनों तक गिड़गिड़ाते हुए देखे गये थे। इसे वे ब्राह्‌मणों का अपमान मानते हैं।

उनके आह्‌वान पर मंचासीन तीनों विशिष्‍ट जनों ने परसुराम जी काे माल्‍यार्पण और दीप प्रज्‍ज्‍वलन कर आरती उतारी। एक-एक कर सारे विशिष्‍टों ने परसुराम जी को माला पहनायी। चंदन लगा और देवताओं का सारा हव्‍य अर्पित कर दिया गया। इतना सामान कि मैं चिंता में पड़ गया। दिमाग में पता नहीं क्‍यों एक तर्क अंखुआ गया कि भारत में रिश्‍वत का चलन देवताओं की देखादेखी शुरू हुई है। क्‍योंकि जब उनसे कोई काम कराना हो तो अनेक प्रकार के चढ़ावे चढ़ाने पड़ते हैं। तब फिर उनके भक्‍त भी बिना चढ़ावे के कोई काम कैसे करेंगे। आराध्‍य का अनुशरण ही तो जीवन की श्रेष्‍ठता है! महाजनो गतः येन पंडिताः। देवताओं से यह परंपरा पुरोहितों में आई होगी और वहां से राजाओं के यहां फिर राजा के अधिकारियों और अंत में कर्मचारियों के यहां। अगर वर्तमान नेताओं को शासन का पुरोहित मान लिया जाये तो उनके चढ़ावे पर किसी को एतराज न करना चाहिए।

अब कार्यारंभ से पूर्व सकुशल संपन्‍नता के लिए कामना भी जरूरी थी। तीन पंडित खड़े हुए और स्‍वस्‍ति वाचन शुरू हुआ-‘स्‍वस्‍ति नः इंद्रो वृधत्‍स्रवा़़़़़़़़़़़़‘। दो लोग तो हाथ बांधे खड़े रहे, मगर मिश्रा जी का हाथ ऋचा की लय के साथ उदात्‍त, अनुदात्‍त, स्‍वरित के रिदम पर चल नहीं बल्‍कि दौड़ रहा था। मेरे बगल में बैठे सज्‍जन को गुस्‍सा आ रहा था-‘क्‍या हाथ हिला रहा है। जहां उदात्‍त होना चाहिए, वहां स्‍वरित मार दे रहा है‘। मैंने उन्‍हें समझाया, ‘चलिए, कुछ तो कर रहे हैं। दो लोग तो हथवउ नहीं उठा रहे हैं। जैसे यहां कोई ब्राह्‌मण नहीं है, फिर भी ब्राह्‌मण महासभा बना है कि नहीं !‘

सज्‍जन झल्‍ला उठे, ‘कैसी बात कर रहे हो यार। ये सब क्‍या आपको चमार समझ में आ रहे हैं?

मैंने विनम्रता से बताया, ‘सभी नहीं भाई, महज कुछ लोग‘।

‘ऐं, श्‍ोष लोग चमार हैं। हम चमार हैं?‘

‘आप चमार नहीं, शूद्र हैं।‘

‘देखिये मिस्‍टर, आप हद पार कर रहे हैं‘।

सज्‍जन का पारा गरम हो गया। आवाज थोड़ी ऊंची हो गयी। अगल-बगल वाले हमारी ओर मुखातिब हो गये-‘अरे क्‍या बात है भाई? आप लोगों में कौन शास्‍त्रार्थ होने लगा?‘

मैंने उसी विनम्रता से अपना पक्ष रखा-‘कुछ नहीं, बस मैंने इन्‍हें श्‍ाूद्र कह दिया, इसी पर झल्‍लाए जा रहे हैं।‘

‘हद है आप किसी को गाली दे रहे हैं और कह रहे हैं कि झल्‍ला रहे हैं।‘

‘नहीं भाई, मैं गाली नहीं दे रहा हूं। मैं तो वास्‍तविकता बता रहा हूं।‘

‘वो कैसे ?‘

‘अच्‍छा, आप बताइए स्‍मृतियों और संहिताओं को आप मानते हैं या नहीं ?‘

‘मानते हैं‘।

‘हम उनके द्वारा ही बनायी गयी सामाजिक व्‍यवस्‍थाओं में जीते हैं या नहीं?‘

‘बिल्‍कुल‘।

‘तो उसमें कहा गया है कि नहीं, जाति कर्म आधारित होती है?‘

‘पता नहीं, कहा होगा।‘

‘कहा नहीं होगा, बल्‍कि कहा है।‘

‘चलिए मान लिया, तो?‘

‘तो ये कि ये महाशय तो सरकारी नौकरी कर रहे हैं। नौकर का काम करना है सेवा। सेवा करने वाला मनु स्‍मृति में शूद्र कहा गया है। अधम चाकरी भीख निदान।‘

‘तब तो यहां सभी शूद्र हैं ?‘

‘यदि शास्‍त्र सच हैं तो यहां बैठे सभी लोग ब्राह्‌मणेतर हैं। जो लाेहे का काम कर रहा है, वह लोहार। जो जूते का कारोबार कर रहा है, वह चमार। जो गाड़ी चला रहा है, वह सूत। जो इंजीनियर है, वह बढ़ई़़़़़़़़़़़़। यह तो रही कर्म की बात। प्रवृत्‍ति के हिसाब से भी यहां कोई ब्राह्‌मण या विप्र ठहरता है?‘

‘क्‍यों?‘

‘वो ऐसे कि मनु महाराज ने साफ-साफ कहा है कि जन्‍मना जायते शूद्रः, संस्‍कारात्‌ जायते द्विजः, वेद पाठिनः विप्रः और ब्रह्‌मं जानाति ब्राह्‌मणः।‘

‘हां।‘

‘अब बताइए, यहां किसके भीतर संस्‍कार है। क्‍या जनेऊ धारण कर लेने मात्र से संस्‍कार हो गया ?‘

‘नहीं, उसके लिए तो कुरूप प्रवृत्‍तियों को समाप्‍त करना होगा।‘

‘अब यहां जितने लोग बैठे हैं, उनमें से कितनों को आप जानते हैं?‘

‘अऽऽऽ, प्रायः सभी को।‘

‘तो बताइए, उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी पहुंच कर ये लोग कोई भी द्विजत्‍व के संस्‍कार रखे हैं? और तो छोड़िए, ब्राह्‌मणों को गाली तो दूर, रे, ते जैसे शब्‍दों का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए- ब्राह्‌मणेति नैव म्‍लेच्‍छतैवपि भाष्‍यते। ‘

तब तक मिश्रा जी प्रथम वक्‍ता को परसुराम जयंती पर बोलने के लिए मंच पर बुला चुके थे। ये थे पांडेय जी। इनकी खोपड़ी का आकार शरीर की अपेक्षा इतना बड़ा है कि लोग बाग इसे खोपड़ी की बजाय खोपड़ा कहते सुने जाते हैं। और कुछ लोग तो विषखोपड़ा नाम से ही पुकारते हैं। इस खोपड़ा पर चिपकी चिर परिचित खिचड़ी दाढ़ी। कुछ लोग इन्‍हें कर्ण के भी नाम से पुकारते हैं। उसका कारण यह है कि शायद ये माता-पिता के विवाह के पहले ही गर्भ में आ गये थे। चेहरे पर बुढ़ौती का लुक कुछ इस कदर चस्‍पा हो गया है कि लोग इन्‍हें इनके पिता के बड़े भाई के रूप में जानते हैं। लेकिन नहीं। पांडेय जी उम्र से नहीं हारे हैं। उनके भीतर जवानी की रवानी खूब छलकती है। बड़े पुराने पत्रकार हैं। हाजिर जवाब में कोई शानी नहीं। मस्‍खा लगाने में तो पिता को बहुत पहले ही पछाड़ चुके हैं। बड़े से बड़ा और अपरिचित से अपरिचित अधिकारी के भी दरबार में यदि पहुंच जायें तो चंद मिनट में उसे गदगद कर देंगे। यह दीगर बात है कि कुछेक सिरफिरे अधिकारियों ने गदगद होने की बजाय तुरंत दफा होने का फरमान जारी कर दिया। ऐसे अधिकारी राक्षस रहे होंगे। अन्‍यथा कोई अपनी प्रशंसा सुनकर किसी को धकियाएगा थोड़े ही। जब बड़े से बड़ा देवता भी अपनी तारीफ सुनकर तुरंत मनोकामना पूरी कर देता है, तो आदमी की क्‍या बिसात।

पाण्‍डेय जी ने सृष्‍टि के प्रारंभ से अद्यतन ब्राह्‌मणों की गौरव गाथा का बखान किया। उनकी बातों में बड़ा दम था। सभी मुग्‍ध हो अपने पूर्वजों का शौर्यगान सुन रहे थे। सौभाग्‍य से मेरी बारी न आयी। मैं बहुत खुश था कि कम से कम गाली और धक्‍के खाने से बच गया। अध्‍यक्ष जी डायस पर आ गये। फूल से सुकुमार इस वृद्ध ने कितना पढ़ा है! कितने साक्ष्‍य हैं इनके पास। कैसे राजनीति और शास्‍त्र को एक साथ साधा होगा! अपार विस्‍मय। भाषा में कितना लालित्‍य, संस्‍कृत के जटिल श्‍लोकों का भी कितना सरल संप्रेषण! अद्‌भुत।

बोलते गये, ‘एक तरफ विश्‍वामित्र की अपान सेना और दूसरी ओर महामुनि वशिष्‍ठ का छोटा सा दंड। सारे अस्‍त्र-शस्‍त्र निस्‍फल साबित हुए। हां हंत! बेकार में जीवन भर घनघोर तपस्‍या की। ‘घिक्‌ बलं क्षत्री बलं, व्रह्‌म तेजो बलं बलम्‌। एकेन व्रह्‌म दंडेन सर्वास्‍त्राणि हतानि मे!' खुद विश्‍वामित्र स्‍वीकार कर लिया।'

पास बैठे बुजुर्ग की आंखों से खुशी और गौरव के आंसू निकल आये। तालियों की तड़तड़ाहट से सभागार गूंज उठा। मेरे मस्‍तिष्‍क में हजार ज्‍वार-भांटे फूटे ‘आखिर यह बात लिखी किस विरादर के लेखक ने थी! वशिष्‍ठ से विश्‍वामित्र का झगड़ा तो केवल ब्रह्‌मर्षि अर्थात्‌ ऋषियों में ब्राह्‌मण की मान्‍यता प्रदान करने की थी। कामधेनु तो उसी झगड़े की एक पड़ाव मात्र थी। मान लिया कि कठोर तपोव्रतधारी विश्‍वामित्र को वशिष्‍ठ इसलिए ब्रह्‌मर्षि की उपाधि नहीं दे रहे थे कि उनके भीतर का अहंकार समाप्‍त न हुआ था। लेकिन यही तर्क तो परसुराम के साथ भी होना चाहिए था। बार-बार अपने बल का दर्प बखानने वाले परसुराम को ब्रह्‌मर्षि छोड़िये, उससे भी ज्‍यादा भगवान, बल्‍कि नारायण का अवतार तक करार दे दिया गया। जबकि बेचारे परसुराम अपने ही मूलावतार राम को पहचान तक नहीं रहे। लगातार गरिया रहे। छोटे भाई और क्षत्रियों को भी अपमानित कर रहे! चलो मान भी लें कि राम के शक्‍ति प्रदर्शन के बाद उन्‍हें ज्ञान हुआ और वे चिर समाधि में चले गये तो सवाल खड़ा होता है कि उसके पहले परसुराम जी को ज्ञान न था क्‍या? फिर जो खुद भगवान या ब्रह्‌म हो, उसमें इतना क्रोध कहां। परसुराम तो राम के ज्ञान से तो हारे न थे, बल्‍कि उनकी शक्‍ति के आगे हताश हो गये। अब ऐसे में एक गुंडे को दरबे में छिपने के अलावा चारा ही क्‍या बचता है!

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लेखक परिचय

डा0 रमाशंकर शुक्‍ल

जन्‍म- 04 मई 1971

शिक्षा- एम0ए0 (हिन्‍दी), पी-एच0डी, शास्‍त्री, पत्रकारिता में स्‍नातकोत्‍तर डिप्‍लोमा

प्रकाशन- विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक लेख, कविताएं प्रकाशित।

‘ब्रहमनासिका' (उपन्‍यास), ‘ईश्‍वर खतरनाक है' तथा ‘एक प्रेतयात्रा' (काव्‍य संग्रह) प्रकाशित। उत्‍तर प्रदेश माध्‍यमिक शिक्षक संघ की 2011 की पत्रिका ‘स्‍वर्ण विहान' का संपादन।

दैनिक जागरण वाराणसी एवं जमशेदपुर में एक दशक तक वरिष्‍ठ उप संपादक।

संप्रति ः स्‍वतंत्र लेखन- साहित्‍य एवं पत्रकारिता।

ए0एस0 जुबिली इण्‍टर कालेज, मीरजापुर में हिन्‍दी अध्‍यापक

संपर्क- पुलिस अस्‍पताल के पीछे, तरकापुर रोड, मीरजापुर, उत्‍तर प्रदेश।

मो0- 09452638649

ई मेल- rsshuklareach@rediffmail़com

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रचनाकार: रमाशंकर शुक्ल की कहानी : ब्रह्म तेजो बलं बलं
रमाशंकर शुक्ल की कहानी : ब्रह्म तेजो बलं बलं
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