भगवान शिव और शक्ति का मिलन ही सृष्टि की उत्पत्ति का कारण बना. शिवपुराण में वर्णण है कि अपने भक्तों के कल्याणार्थ वे धरती पर लिंग-रुप में ...
भगवान शिव और शक्ति का मिलन ही सृष्टि की उत्पत्ति का कारण बना. शिवपुराण में वर्णण है कि अपने भक्तों के कल्याणार्थ वे धरती पर लिंग-रुप में निवास करते हैं. जिस-जिस स्थान पर भक्तजनॊं ने उनकी पूजा-अर्चना,तपश्चर्या की ,वे उस-उस स्थान विशेष में आविर्भूत हुए और ज्योतिर्लिंग के रुप मे सदा-सदा के लिए अवस्थित हो गए. वैसे तो पूरे भारतवर्ष में अनेकों पुण्यस्थानों में वे अपने भक्तों के द्वारा पूजे जाते रहे हैं,लेकिन द्वादश ज्योतिर्लिंग को अधिक प्रधानता प्रदान की गयी है. हम द्वादशज्योतिर्लिंग की विस्तार से चर्चा करने के पूर्व संक्षेप में यह भी जान लें कि वस्तुतः लिंग क्या है और इसका प्रथम प्रादुर्भाव कहाँ से हुआ ?.
शिव लिंग से ही प्रथम ज्योति और प्रणव की उत्पत्ति हुई. लिंगपुराण में वर्णण आता है कि एक दिन बह्मा और विष्णु के बीच यह विमर्श चल रहा था कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? चर्चा चल ही रही थी कि अकस्मात उन्हें एक ज्योतिर्लिंग दिखायी दिया. उसके मूल और परिणाम का पता लगाने के लिए ब्रम्हाजी ऊपर आकाश की ओर उड चले और विष्णुजी नीचे पाताल की ओर. परन्तु उस आकृति के ओर-छोर का पता नहीं लगा पाए. श्री विष्णु ने वेद नाम के ऋषि का स्मरण किया. वे प्रकट हुए और उन्होंने समझाया कि प्रणव में “अ” कार ब्रह्मा है, “उ” कार विष्णु हैं और ’म” कार श्री शिव हैं. ”म”कार का बीज ही लिंगरुप मे सबका परम कारण है.” शिवं च मोक्षे क्षेये च महादेवे सुखे” इस्का अर्थ हुआ कि आनन्द, परम मंगल और परमकल्याण. जिसे सब चाहते हैं और सब का कल्याण करने वाला है,वही शिव है.
हम यहाँ द्वादशज्योतिर्लिंग की संक्षेप में चर्चा करने जा रहे है. भगवान भोलेनाथ के स्मरण मात्र से सारे पाप क्षय हो जाते हैं. हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है।[1] ये संख्या में १२ है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन,उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर।[क] हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिङ्गों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है।[2]
आइये हम क्रमशः ज्योतिर्लिंगों के उद्भव आदि के बारे में चर्चा करते चले.
1/- श्री सोमनाथ
यह ज्योतिर्लिंग सोमनाथ नामक विश्व प्रसिद्ध मन्दिर में स्थापित हैं. यह मान्दिर गुजरात प्रान्त के काठियावाड क्षेत्र में समुद्र के किनारे स्थित है. चन्द्रमा ने भगवान शिव को अपना स्वामी मानकर यहाँ तपस्या की थी.. यह क्षेत्र प्रभास क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है.यह वह क्षेत्र भी है जहाँ श्रीकृष्णजी ने जरा नामक व्याध के बाण को निमित्त बनाकर अपनी लीला का संवरण किया था. कथा-चन्द्रमा ने दक्षप्रजापति की 27 पुत्रियों के साथ अपना विवाह रचाया था लेकिन वे केवल रोहिणी से अत्यधिक प्रेम करते थे. शेष 26 पत्नियों ने अपने व्यथा-कथा अपने पिता से कही. उन्होंने चन्द्रमा को क्षय रोग से ग्रसित होने का शाप दे दिया .शाप से शापित चन्द्रमा ने शिव को प्रसन्न करने के लिए कडा तप किया. शिव ने प्रसन्न होकर चन्द्रमा को पन्द्रह दिनों तक घटते रहने और शेष दिन बढते रहने का वरदान दिया.
शिव के इस स्थान पर प्रकट होने एवं सोम अर्थात चन्द्रमा द्वारा पूजित होने के कारन इस स्थान का नाम सोमनाथ पडा.
“सोमलिंगं नरो दृष्ट्वा सर्वपापात प्रमुच्यते ! लब्द्ध्वा फ़लंमनो॓Sभीष्टं मृतः स्वर्गं समीहिते!!
सोमनाथ महादेव के दर्शनों से प्राणि सभी पापों से तर जाता है,ऐसी मान्यता है.
2/-श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग
श्री मल्लिकार्जुन:- यह मद्रास ( अब चैन्नई) प्रान्त के कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत है,जिसे दक्षिण का कैलाश कहते है,पर अवस्थित है.
कथा- भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय़ अपनी भावी पत्नि की तलाश में विश्वभ्रमण को निकले. जब वे लौटकर आए तो उन्होंने देखा कि माता पार्वती और पिता शिव अपने छोटे प्रिय पुत्र श्री गणेश की शादी रिद्धि-सिद्धि से करने जा रहे हैं. नाराज होकर उन्होंने घर छोड दिया.और वे दक्षिण भारत के क्रौंच पर्वत जिसे श्रीशैल भी कहा जाता है, जा पहुँचे.माता-पिता अपने बेटॆ का विछोह सहन नहीं कर सके और वे भी उनके पीछे वहाँ तक जा पहुँचे.लेकिन कार्तिकेय वहां से अन्यत्र जा चुके थे. अब बेटे की तलाश में प्रत्येक शुक्ल पक्ष तक तथा मां पार्वती प्रत्येक पूर्णिमा को वहां रहकर अपने नाराज पुत्र के वपिस लौट आने की प्रतीक्षा करते थे.
जिस स्थान पर शिवजी रुके थे वह स्थान “मल्लिकार्जुन”कहलाया. यहां पर शिवजी का विशाल मन्दिर है. ऐसा उल्लेखित है कि
“अतः परं प्रवक्ष्यामि मल्लिकार्जुन सभंवम !
यं श्रुत्वा भक्तिमान श्रीमान सर्वपापैःप्रमुच्यते !!
अर्थात-मल्लिकाजुन के नाम का स्मरण करने मात्र से सारे पाप धुल जाते हैं.
३/- श्री महाकालेश्वर
महाकालेश्वर’:- यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर मे स्थित है.. उज्जयिनी का एक नाम अवन्तिकापुरी भी है. यह स्थान सप्तपुरियों में से एक है.महाभारत व शिवपुराण में इसकी महिमा गायी गई है. महाकालेश्वर का प्रसिद्ध मन्दिर क्षिप्रा नदी के तट पर अवस्थित है. यहां कुम्भ का मेला भी होता है
आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेस्श्वरम मृत्युलोके महाकालं लिंगत्रयं नमोस्तुते “स्वर्गलोक में तारकलिंग,हाटकेश्वर और पृथ्वीलोक में महाकालेश्वर स्थित हैं.” कथा- रत्नमाला पर्वत पर एक भयंकर दानव रहता था,जिसका नाम दूषण था. वह वेदों और ब्राह्मणॊं का घोर विरोधी था और उन्हें आए दिन परेशान करता रहता था.
उज्जैन में एक विद्वान ब्राह्मण के चार पुत्र थे,जो शिव के प्रबल उपासक थे.एक दिन दूषण ने उज्जैन नगरी पर अपनी विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया. चारों भाईयों ने शिव कि आराधना की. शिव ने प्रकट होकर दर्शन दिए. इन्होंने दूषण को सेना सहित मार गिराने के लिए शिव से प्रार्थणा की. शिव ने तत्काल ही दूषण को सेना सहित मार डाला. चारो भाईयों ने शिव को ज्योतिर्लिंग रुप में वहां अवस्थित रहने की प्रार्थणा की.
4/-श्री ओंकारेश्वर
श्री ऒंकारेश्वर-श्री अमलेश्वर;- यह ज्योतिर्लिंग भी मध्यप्रदेश में पवित्र नदी नर्मदा के पावन तट पर स्थित है. ओंकारेश्वर लिंग मनुष्य निर्मित नहीं है. इसे स्वयं प्रकृति ने इसका निर्माण किया है.इसके चारों ओर हमेशा पनी भरा रहता है. इस स्थान पर नर्मदा के दो भागों में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू सा बन गया है.इस टापू को मान्धाता या शिवपुरी भी कहते हैं. नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर की ओर और दूसरी दक्षिण की ओर बहती है. दक्षिणवाली धारा मुख्य धारा मानी जाती है. इसी मान्धाता पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर स्थित है. पूर्व काल में महाराज मान्धाता ने अपनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न किया था.
कथा-एक बार नारद मुनि विंध्याचंल पर्वत पर शिव को प्रसन्न करने के लिए तप कर रहे थे. उसी सम्य विंध्य मनुष्य रुप में उनके समक्ष प्रकट हुआ और कहने लगा कि उसके जैसा पर्वत और कहीं नहीं है. नारदजी ने तत्काल उसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि तुमसे बडा तो मेरु पर्वत है. इस बात से दुखी होकर उसने नर्मदा के तट पर शिव की कडी तपस्या की. शिव ने प्रसन्न होकर उसे अपने दर्शन देते हुए वर मांगने को कहा. पर्वत ने शिव से कहा कि वे ज्योतिलिंग के रुप में वहां विराजमान हो जाएं. ओंकारेश्वर मन्दिर नर्मदाजी के पावन तट पर,जो मध्यप्रदेश का मालवा क्षेत्र कहलाता है,पर अवस्थित है.
यदभीष्टं फ़लं तश्च प्राप्नुयान्नत्र संशयः एतत्ते सर्वमाख्यातमोंकार प्रभवे फ़लम !!
ओंकारेश्वर का नाम सुन लेने मात्र से सारे इच्छित फ़लों की प्राप्ति होती है.
५/श्री केदारनाथ
केदारनाथ;- यह ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय के केदार नामक चोटी पर अवस्थित है.यहां की प्राकृतिक शोभा देखते ही बनती है. उत्तराखंड के दो तीर्थ प्रधानरुप से जाने जाते हैं.-केदारनाथ-और बद्रीनाथ. दोनो के दर्शनों का बडा महत्व है. ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति केदानाथ के दर्शन किए बगैर बदरीनाथ की यात्रा करता है,उसकी यात्रा निष्फ़ल जाती है.
कथा;- धर्म के पुत्र नर और नारायण ने बदरीनाथ नामक स्थान पर शिव की कडी आराधना की शिवजी ने प्रकट होकर अपने लिए वर मांगाने को कहा तो उन्होंने शिवजी से प्रार्थना की कि हमें कुछ नहीं चाहिए. आप तो यहां शिवलिंग के रुप में अवस्थित हो जाएं,ताकि अन्य भतगण भी आपके दर्शनों के लिए याहां आते रहे,और पुण्य लाभ कमाएं..केदारनाथजी का मन्दिर हिमालय से प्रवाहित होती मन्दाकिनी नदी के पावन तट पर अवस्थित है.
अकृत्वा दर्शनं वैश्य केदारस्याधनाशिनः—यो ऋछेद तस्य यात्रा निष्फ़लतां व्रजेत..
६/- श्री विश्वेश्वर;-(विश्वनाथ);-
यह ज्योतिर्लिंग उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी काशी(बनारस) में स्थित है.कहा जाता है कि इस नगरी का लोप प्रलयकाल में भी नहीं होता,क्योंकि यह पवित्र नगरी को स्शिव अपने त्रिशूल पर धारण किए हुए हैं. इसी स्थान पर सृष्टि उतपन्न करने की कामना से भगवान विष्णु ने तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था. अगस्त्य मुनि ने भी इसी स्थान पर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया था. . कथा;- ऐसा कहा जाता है कि एक दम्पत्ति ने अपने माता-पिता को नहीं देखा था और वे उन्हें देखना चाहते थे. तभी आकाशवाणी हुई कि वे इसके लिए कठिन तप करे. लेकिन उचित जगह न मिलने के कारण वे तप नहीं कर पा रहे थे. तब शिव ने इस नगरी का निर्माण किया और स्वय़ं वहां अवस्थित हो गए.
“इत्येवं प्रार्थितस्तेन विश्वनाथेन शंकरः
....लोकानामुपकारार्थं तस्थौ तत्रापि सर्वराट”
ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिशाली-भगवान शिव इसी काशी नगरी मे निवास करते हुए अपने भक्तों के दुख दूर करते हैं.
“ विषयासक्तचितोअपि व्यक्तधर्म्रतिर्नरः
....इह क्षेत्रे मृतः सोअपि संसारे न पुनर्भवेत.”
. इस पवित्र नगरी की महिमा है कि जो भी यहां प्राणी अपने प्राण त्यागता है,उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है
७/-श्री त्र्यम्बेकश्वर-
यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के नासिक जनपद में अवस्थित है.जो माहात्म्य उत्तर भारत में पापविमोचिनी गंगा का है,वैसा दक्षिण में गोदावरी का है.जैसे इस धरती पर गंगावतरण का श्रेय तपस्वी भगीरथ को है वैसे ही गोदावरी का प्रवाह ऋषिश्रेष्ठ गौतम की घोर तपस्या का फ़ल है.इसी पुण्यतमा गोदावरी के उल्गम स्थल के समीप अवस्थित त्र्यम्बकेश्वर भगवान की भी बडी महिमा है.गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भोलेनाथ शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर के नाम से विख्यात हुए.
कथा;-सह्याद्री जनपद में एक दयालु साधु गौतम अपनी पत्नि अहल्या के साथ रहते थे. वहां निवास कर रहे अन्य लोग इनसे ईर्षाभाव रखते थे और उस स्थान से निकाल देना चाहते थे. एक दिन सभी ने एक युक्ति निकाली और इन पर आरोप जड दिया कि इनके द्वारा किसी गाय का वध किया गया है.इस पापाचार के लिए वे वहां से निष्कासित कर दिए गए. दुखी गौतम ने कठिन तपकर शिव को प्रसन्न किया. जब शिव ने वरदान मांगने को कहा तो गौतम ने सभी को माफ़ करने एवं पास ही एक नदी के प्रकट होने की बात शिव से की. शिव ने गोदावरी को वहां पकट होने को कहा तो उसने शिव से विनती की कि आपको भी मेरे तट पर स्वयं विराजित होना होगा. गोदावरी की प्रार्थना सुनकर स्शिव वहां ज्योतिर्लिंग के रुप मे विराजमान हो गए.
“अतः परं प्रवद्यामि माहात्म्यं त्र्यम्बकस्य च
....यच्छुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते मानवःक्षणात”
अर्थात-त्र्यम्बकेश्वर महादेव के नाम स्मरण करने,उनकी लीलाएं सुनने से सारे पाप धुल जाते हैं.
८/- श्री वैद्यनाथ
यह ज्योतिर्लिंग बिहार प्रान्त के सन्याल परगने में स्थित है.
कथा- एक बात राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर भगवान शंकर के दर्शन प्राप्त करने के कठिन तप किया. उसने अपने नौ सिर एक-एक करके शिवलिंग पर चढा दिअ. जब वह अपना दसवां सिर काटकर चढाने के उद्दत हुआ ही था कि भगवान शिव अति प्रसन्न हुए और उसके सामने प्रकट हुए.उन्होंने उसके कटे हुए नौ सिर जोड दिए और वर मांगने को कहा.रावण ने वर के रुप में भगवान शिव से उस लिंग को अपनी राजधानी लंका में ले जाने की आज्ञा मांगी. शिव ने यह वरदान तो दे दिया,लेकिन एक शर्त लगा दी. उन्होंने कहा,तुम इसे ले जा सकते हो,किन्तु रास्ते में तुम इसे कहीं रख दोगे तो वह वहीं अचल हो जाएगा और फ़िर तुम इसे उठा नहीं सकोगे. रावण ने बात को स्वीकार कर उस लिंग को उठाकर लंका की ओर चल पडा. चलते-चलते एक जगह रास्ते में उसे लघुशंका करने की आवश्यकता महसूस हुई.उस समय उसे एक अहिर गाएं चराता द्दिखाई दिया. उसने उसे प्रलोभन देते हुए कहा कि वह शिवलिंग को थोडी देर के लिए थाम कर रखे. थोडी देर तक तो वह अहिर उसे थामे रहा,लेकिन भार अधिक लगने पर उसे संभाल न सका और विवश होकर भूमि पर रख दिया. जब रावण लौटा तो वहां कोई नहीं था. कहते हैं स्वयं भगवान विष्णु ने अहिर का रुप धारण कर शिव लिंग को लंका जाने से रोकने का सफ़ल प्रयास किया था,क्योंकि वे जानते थे कि यदि शिव लंका पहुंच गए तो फ़िर रावण और लंका अजेय हो जाएगी और राम-रावण के होने वाले युद्ध मे राम उसे पराजित नहीं कर पाएंगे.
जब शिवलिंग वहां एक बार स्थापित हो गया तो निराश हो कर रावण लंका लौट आया,.तत्पश्चात ब्र्ह्मा,विष्णु आदि देवताओं ने उस लिंग का पूजन किया और अपने धाम को लौट गए. “अतः अरं प्रवक्ष्यामि वैद्धनाथेस्श्वरस्य हि...ज्योतिर्लिंगस्य माहात्म्यं श्रूयतां पापहारकम” वैद्धनाथ की पवित्र कथा सुनने मात्र से ही पापियों के पास क्षय हो जाते हैं.
९/- श्री नागेश्वर
यह ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त में द्वारिकापुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है.
. कथा:- किसी समय सुप्रिय नामक वैश्य था,जो बडा धर्मात्मा,सदाचारी और शिवजी का भक्त था. एक बार नौका पर सवार होकर वह कहीं जा रहा था. अकस्मात दारुक नामक राक्षस ने उसकी नौका पर आक्रमण कर दिया.उसने सुप्रिय सहित सभी यात्रियों को अपने जेलखाने में डाल दिया. चुंकि वह शिवभक्त था,सो जेल में भी शिवाराधना करता रहा.
जब इस बात की खबर दारुक को लगी तो उसने अपने सैनिकों को उसका वध कर देने की आज्ञा दी. शिव वहां पकट हुए और उन्होंने अपना पाशुपतास्त्र सुप्रिय को देकर अंतर्ध्यान हो गए. उसने उसे दिव्यास्त्र से सभी का वध कर अपने सहयात्रियों को उस कारागार से मुक्त करवाया. भगवान शिव के आदेशानुसार ही इस लिंग का नाम नागेश पडा.
“एतद्धश्श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात....सर्वान्कामानियाध्दीमा महापातकनाशनान” अर्थात- जो भी मनुष्य इस कथा का श्रवण करेगा उसके सभी पाप नष्ट हो जाएंगे.
१०/- श्री भीमशंकर:
-यह ज्योतिर्लिंग पूना के उत्तर की ओर करीब 43 मील की दूरी पर भीमा नदी के पावन ताट पर अवस्थित है. यहां “डाकिनी”ग्राम का पता नहीं लगता. शंकर्जी यहां पर सह्याद्रि पर्वत पर अवस्थित हैं. भगवान शिव ने यहां पर त्रिपुरासुर का वध करके विश्राम किया था. उस समय यहां अवध का भीमक नामक एक सूर्यवंशी राजा तपस्या करता था. शंकरजी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिया. उसके बाद से इस ज्योतिर्लिंग का नाम “श्रीभीमशंकर” पडा.
कथा:- रावण के भाई कुम्भकरण के पुत्र भीमासुर ने भगवान विष्णु और अन्य देवताओं से इस बदला लेने की ठानी कि उन्होने उसके परिवार और प्रियजनों की हत्या का वध किया था. प्रतिशोध की आग में जलते भीमासुर ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया. ब्रह्मा ने प्रकट होकर उसे अतुलित बलशाली होने का वरदान दे दिया. अब उसने वरदान पाकर देवलोक से देवताऒं को स्वर्ग छोड देने पर मजबूर कर दिया. अपनी विशाल सेना लेकर वह एक दिन कामरुप्रदेश के राजा पर आक्रमण कर दिया जो संयोग से शिवभक्त था. उसने राजा से शिवलिंग को उखाड फ़ेंकने को कहा. जब राजा ने इनकार कर दिया तो उसने अपनी तलवार निकालकर शिवलिंग पर वार किया. जैसे ही उसकी तलवर शिवलिंग से टकराई, शिव स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने उसे मार डाला.दानव भीमासुर का वध करने के कारण इस ज्योतिर्लिंग का नाम भीमाशंकर के नाम से जगप्रसिद्ध हुआ.
“ अतः परं प्रवक्ष्यामि माहात्म्यं भैमशंकरम::यस्य श्रवणमात्रेण सर्वाभीष्टं लभेन्नरः”
अर्थ;-इस चमत्कारी शिवलिंग की कथा सुनने मात्र से प्राणियों की हर मनोकामनाएँ पूरी होती है
११/- श्री सेतुबन्ध रामेश्वर-
कथा- सेतुबन्ध रामेश्वर की कथा सारा संसार जानता है. रावण द्वारा माता जानकी का हरण किया जा चुका था. रावण की लंका समुद्र से सौ योजन दूर थी.लंका पर आक्रमण करने से पूर्व समुद्र पर पुल बनाया जाना आवश्यक था. राम ने यहां बालुका से शिवलिंग बनाकर उनकी आराधना की थी और दिव्य शक्तियां प्राप्त करते हुए समुद्र को बाध्य किया कि उन्हें रास्ता दे दे. समुद्र ने मानवरुप मे प्रकट होकर उन्हें पुल बनाने का उपाय बतलाया था.
श्री राम द्वारा निर्मित यह ज्योतिर्लिंग सेतुबंध रामेश्वर के नाम से जाना जाता है. “ इति समाख्यातं ज्योतिर्लिंगं शिवस्यतु;;रामेश्वरामिधं दिव्यं श्रृण्वतां पापहारकम” अर्थ;- इस दिव्य ज्योतिर्लिंग की कथा के श्रवणमात्र से सारे पापों का क्षय हो जाता है.
१२/-श्री घुश्मेश्वर
यह बारहवां ज्योतिर्लिंग घुश्मेश्वर के नाम से जाना जाता है. यह ज्योतिर्लिंग मराठवाडा के औरंगाबाद से करीब 12 मील दूर बेरुस गांव के पास यह अवस्थित है.
कथा:- सुधर्मा नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नि सुदेहा के साथ देवगिरि पर्वत पर निवास करता था. सुदेहा इस बात को लेकर दुखी रहती थी कि उसके कोई संतान नहीं थी. संतान प्राप्ति के लिए उसने अपने पति से अपनी छोटी बहन घुषमा से विवाह करने को कहा. घुष्मा चुंकि शिवभक्त थी.उसने कुछ ही दिनों बाद एक पुत्र को जन्म दिया. बालक बडा हुआ. उसका विवाह बडी धूमधाम से हुआ. यह सब देखकर सुदेहा ने ईष्यावश उस का वध कर दिया. इस समय उसकी माता घुष्मा पार्थिव शिवलिंग बना कर पूजा कर रही थी. पूजा समाप्ति के बाद पार्थिव शिव लिंग को विसर्जित करने के लिए जब वह एक झील के पास पहुंची और उसने उसने जैसे ही शिवलिंग का विसर्जन किया,उसका पुत्र जीवित अवस्था में झील में से प्रकट हो गया .पुत्र के साथ स्वयं शिवजी भी थे. शिवजी ने सुदेहा के बारे में सब बतलाते हुए उसे सजा देने की बात की तो दयालु घुष्मा ने अपनी बहन के कुकर्मों को माफ़ कर देने को कहा.
“ घुश्मेशाख्य्ममिदं लिंगमित्थं जातं मुनीश्वराः ””तत्दृष्टवा पूजयित्वा हे सुखं संवर्द्धते सदा “
अर्थ;-घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करने से सुखॊं की प्राप्ति होती है.
--
गोवर्धन यादव
103,कावेरी नगर,छिन्दवाडा (म.प्र.) 480001
07162-246651, 9424356400
जय भोलेनाथ ..
जवाब देंहटाएंसावन की सुंदर प्रस्तुति ..
बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्द्धक !!
धन्यवाद
जवाब देंहटाएं