(गोवर्धन यादव) सन 1920 का दौर. गांधीजी के रुप में देश ने एक ऐसा नेतृत्व पा लिया था,जो सत्य के आग्रह पर स्वतंत्रता हासिल करना चाहता थ...
(गोवर्धन यादव)
सन 1920 का दौर. गांधीजी के रुप में देश ने एक ऐसा नेतृत्व पा लिया था,जो सत्य के आग्रह पर स्वतंत्रता हासिल करना चाहता था. ऐसे समय में गोरखपुर में एक अंग्रेज इंस्पेक्टर जब अपनी जीप से गुजर रहा था तो अकस्मात एक घर के सामने आरामकुर्सी पर लेटॆ अखबार पढ रहे एक अध्यापक को देखकर जीप रुकवाली और बडॆ रौब से अर्दली से उस अध्यापक को बुलवाने को कहा. पास आने पर उसने उसी रौब से पूछा;-“तुम बडॆ मगरुर हो. तुम्हारा अफ़सर तुम्हारे दरवाजे के सामने से निकल जाता है और तुम उसे सलाम नहीं करते.” उस अध्यापक ने जवाब दिया;-“जब मैं स्कूल में रहता हूँ, तब नौकर हूँ, बाद में अपने घर का बादशाह. अपने घर का बादशाह यह सख्सियत और कोई नहीं वरन उपन्यास सम्राट प्रेम्चन्द थे,जो उस समय गोरखपुर में सरकारी नार्मल स्कूल में सहायकमास्टर के पद पर कार्यरत थे.
(प्रेमचंद)
सन 1880 में बनारस के पास लम्ही में जन्में प्रेमचन्द का असली नाम धनपतराय था. बचपन से ही उन्होंने संघर्ष की जो दास्तां देखी,वो कालान्तर में साहित्य में प्रतिबिम्बित हुई. मात्र 8 वर्ष की अल्पायु मे मातृ-वियोग एवं पश्चात पिता द्वारा दूसरा विवाह अव चौदह वर्ष की आयु तक आते-आते पितृ-वियोग ने प्रेमचन्द कॊ जीवन के मझधार में अकेला छोड दिया. ऐसे में सौतेली मां एवं उसके दो बच्चों का भार भी उन्हीं के कंधो पर आ पडा.. पत्नि-पक्ष से भी उन्हें कोई सुखद अनुभूति नहीं हुई. पिताजी अपनी मृत्यु के पूर्व ही उनकी शादी उनसे उम्र में बडी लडकी से कर गए थे,जो बदसूरत होने के साथ ही जुबान की कडवी थी. अंततः प्रेमचन्द ने गृह-कलह से तंग आकर पत्नि को उसके मायके में छॊड दिया. घरवालों ने उन्हें दूसरी शादी करने हेतु जोर दिया. ना-ना करते वह शादी को तैयार हुए, पर एक शर्त के साथ कि विवाह वह किसी विधवा के साथ ही करेंगे. घरवालों कि नापसंदगी के बावजूद उन्होंने समाज के बंधे बंधाए नियमों को ठुकराकर व बिना घरवालों को बतलाए शिवरानी नामक एक महिला से शादी कर ली, जो कि विवाह के मात्र तीन-चार माह बाद ही विधवा हो गई थी.
इसमें कोई शक नहीं कि प्रेमचंद का जीवन दुखॊं व संघर्षों से भरा रहा. अपने जीवन में भोगे गए यथार्थ को ही पन्ने पर विविध रुपों में ढालकर अभिव्यक्त करते रहे.” उपन्यास सम्राट” की उपाधि से प्रसिद्ध प्रेमचंद का जीवन खुद एक जीता-जागता उपन्यास था, जिसमें जिन्दगी के अन्तरद्वन्दों के बीच एक कृष्काय व्यक्ति मजबूती के साथ खडा नजर आता है. वह स्वभाव से ही अन्तर्मुखी थे. सभा- सम्मेलनों में वे मुश्किल से जाते थे. यह वह दौर था जब लोग स्वतंत्रता आंदोलन में खुलकर भाग ले रहे थे. वहीं प्रेमचंद की कलम समाज की आंतरिक विसंगतियों व बुराई पर चला रहे थे. माता-पिता की असमय मृत्यु के कारण शिक्षा पाने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पडा. पिता की मृत्यु के समय वे बनारास में नवीं कक्षा में अध्ययनरत थे. ट्यूशन पढाकर व रात में कुप्पी के सामने बैठकर प्रेमचंद ने किसी तरह बी.ए. तक की शिक्षा ग्रहण की. सन 1900 के दौर में जीवकोपार्जन की खातिर उन्होंने स्कूल मास्टर की नौकरी ज्वाइन की, एवं 1901 से उपन्यास लिखना शुरु किया. कालान्तर में 1907 के दौर में वे कहानी भी लिखने लगे.
उर्दू में वे नवाबराय के नाम सेलिखते रहे,पर 1910 में अपनी कहानी “ सोजेवतन” की जब्ती के बाद उन्होंने प्रेमचंद के नाम से लिखना प्रारंभ किया. प्रेमचंद लंबे समय तक नौकरी नहीं कर सके. फ़रवरी 1921 में उन्होंने इस्तिफ़ा दे दिया. यह वह दौर था जब गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था. उनके आव्हान पर लोगों ने सरकारी नौकरियां- उपाधियां त्याग दी थी. 12 फ़रवरी 1921 को गोरखपुर में घटित चौरी-चौरा काण्ड जिसमें आंदोलानकारियों ने उत्तेजित होकर 21 पुलिसवालों सहित समूचे थाने को जला दिया था. प्रतिक्रियास्वरुप गांधीजी ने हिंसा की निंदा करते हुए असहयोग आंदोलन वापिस लेने की घोषणा कर दी. उस समय प्रेमचंद गोरखपुर में गवरमेंट नार्मल स्कूल में सहायक मास्टर के पद पर कार्यरत थे.
चौरी-चौरा काण्ड के ठीक चार दिन बाद 16 फ़रवरी1921 को प्रेमचंद ने सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया .तब उन्होंने अपना पूरा ध्यान साहित्य-रचना पर केन्द्रीत किया. सन 1923 में सरस्वतीप्रेस की स्थापना व सन 1930 में हंस पत्रिका के प्रकाशन एवं कालान्तर में वे “प्रगतिशील लेखक संघ” के अध्यक्ष बने. अपनी लेखनी के माध्यम से विभिन्न सामाजिक संस्थानों व विसंगतियों पर उपन्यास –नाटकों व कहानियों के माध्यम से प्रकाश डाला. उनके उपन्यासों में गोदान, गबन, निर्मला, सेवासदन, रंगभूमि, प्रेमाश्रय, प्रतिज्ञा, कायाकल्प, कर्मभूमि, अहंकार इत्यादि प्रमुख हैं. उपन्यास व कहानियों के अलावा उन्होंने कर्बला, संग्राम, प्रेम की वेदी इत्यादि नाटक भी लिखे.
प्रेमचंद ने 19 वीं सदी के अंतिम दशक से लेकर 20 वीं सदी के लगभग तीसरे दशक तक भारत में फ़ैली तमाम सामाजिक बुराइयों, समस्याओं पर कलम चलाई. चाहे वह किसानों –मजदूरों एवं जमीदारों की समस्या हो, चाहे छुआछूत अथवा नारी-मुक्ति का सवाल हो, चाहे नमक का दरोगा के माध्यम से फ़ैले इंस्पेक्टर राज का जिक्र हो, कोई भी अध्याय उनकी नजरों से बच नहीं सका. यही कारण है कि प्रेमचंद को हर शख्स अपने करीब पाता है और अलग-अलग रुपों में व्याख्या करता है. असहयोग आंदोलन के दौरान गंधीजी से प्रभावित होकर नौकरी से इस्तीफ़ा देने के कारण उन्हें गांधीवादी कहा, साम्यवादी अथवा वामपंथी कहा गया, तो समाज में व्याप्त छुआछूत व दलित की स्थिति पर लेखनी, चलाने के कारण उन्हें दलित समर्थक कहा गया, तो नारी-मुक्ति को प्रशय देने के कारण नारी समर्थक कहा गया. लेकिन अफ़सोस के साथ कहना पड रहा है कि उनके उपन्यास “रंगभूमि” की प्रतियों को जलाकर व “कफ़न” जैसी रचना को आरोपित कर उन्हें मानुवादी अथवा दलित विरोधी कहा गया. आज प्रेमचंद की प्रासंगिकता इसलिए भी कायम होती है कि आधुनिक साहित्य के स्थापित मठाधीशों के नारी=विमर्श एवं दलित-विमर्श जैसे तकिया-कलामों के बाद भी अंततः लोग इनके सूत्र, किसी न किसी रुप में प्रेमचंद की रचनाओं में ढूंढते नजर आ रहे हैं.
यद्दपि यह शख्स 18 अकटूबर 1936 को ही शारीरिक रुप से इस संसार को अलविदा कर गया- पर अभी भी साहित्यिक मंडलियों की चर्चा का केन्द्र बिन्दु है. वह आज भी साहित्य का केन्द्र-बिंदु बना” साहित्य-सम्राट” है. ऐसे साहित्य-सम्राट को हमारा शत-शत नमन—विनम्र श्रद्धांजलि
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गोवर्धन यादव
103,कावेरी नगर,छिन्दवाडा (म.प्र.) 480001
07162-246651,9424356400
एकदम सही लिखा है यादव जी...
जवाब देंहटाएंआपका आलेख अच्छा लगा.. यादव जी
जवाब देंहटाएंआलेख अच्छा लगा आपका...
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