एक फ़क़ीर की कुटिया है ...."सुख़न सराय" हाल ही में वाणी प्रकाशन , दिल्ली से मुनव्वर राना की नई ग़ज़लों का संग्रह "सुख़न सराय...
एक फ़क़ीर की कुटिया है ...."सुख़न सराय"
हाल ही में वाणी प्रकाशन , दिल्ली से मुनव्वर राना की नई ग़ज़लों का संग्रह "सुख़न सराय " प्रकाशित हुआ है जो कि ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों के लिए एक नायाब तोहफ़ा है ! मुनव्वर साहब के इस लाजवाब मज़्मुए क़लाम के बारे में लिखने की ज़ुर्रत कर रहा हूँ क्यूंकि जहाँ तक ग़ज़ल की दुनिया का सवाल है उसमे मेरी हैसियत एक जुगनू की भी नहीं है ! इस ख़ूबसूरत गुलदस्ते के बारे में लिखने का सोच ही रहा था कि ख़याल आया कि इसे पढ़ने के बाद कहीं लोग ये तो नहीं कहेंगे कि एक जुगनू कैसे सूरज पे तनक़ीद कर सकता है वगैरा - वगैरा और मेरे ज़हन में दो मिसरे उछलने लगे : ----
काहे का वो तब्सरा , काहे की तमहीद !
जुगनू जब करने लगे ,सूरज पर तनक़ीद !!
(तब्सरा =टिप्पणी ,तमहीद =भूमिका,तनक़ीद= समीक्षा,आलोचना )
शाइरी से त-अल्लुक़ रखने वाला शायद ही कोई ऐसा शख्स हो जो कलंदर सिफ़त शाइर मुनव्वर राना के नाम से वाकिफ़ ना हो ! उनके बहुत से शेरी- मज़्मुए मंज़रे आम पे आ चुके है जैसे ग़ज़ल गाँव, पीपल छाँव, मोर पाँव, घर अकेला हो गया , सब उसके लिए ,बदन सराय ,माँ , फिर कबीर ,मुहाजिरनामा और नए मौसम के फूल ! "सुख़न सराय" में मुनव्वर राना की तक़रीबन 100 ग़ज़लें है और ज़यादातर वे है जो उन्होंने पिछले तीन-चार सालों में कही है ! दो साल पहले मुनव्वर साहब के घुटनों का ओपरेशन हुआ जिसकी वज्ह से उन्हें इस दौरान बहुत ज़ियादा वक़्त अस्पताल में बिस्तर पे गुज़ारना पड़ा और "सुख़न सराय" की बहुत सी ग़ज़लें उन्होंने इसी दरमियान कही ! उनके घुटनों का ओपरेशन डाक्टर्स को कई मरतबा करना पड़ा मुनव्वर साहब ने ख़ुद पे गुज़रे इस दर्द को भी यूँ शाइरी बनाया : --
दुश्वार काम था तेरे ग़म को समेटना !
मैं ख़ुद को बाँधने में कई बार खुल गया !!
मिट्टी में क्यों मिलाते हो मेहनत रफ़ूगरों !
अब तो लिबासे जिस्म का हर तार खुल गया !!
आज के दौर में हर इन्सान ग़म का मारा है और किसी भी चहरे को देखो तो उसका तबस्सुम बुझा हुआ मिलता है !इसी ख़याल को मुनव्वर राना ने क्या ख़ूब मतले की शक्ल दी है: --
मसर्रतों के खज़ाने ही कम निकलते हैं !
किसी भी सीने को खोलो तो ग़म निकलते हैं !!
अपने जीवन के 59 सावन देख चुके मुनव्वर राना की शाइरी का रंग अब पूरी तरह सूफ़ियाना हो गया है ! कलंदर होना यूँ तो एक स्वतः होने वाली प्रक्रिया है मगर एक कलंदर बादशाह को भी कलंदर बना सकता है ---
बादशाहों को सिखाया है कलंदर होना !
आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना !!
हमको मालूम है शोहरत की बलंदी हमने !
क़ब्र की मिट्टी का देखा है बराबर होना !!
ज़िंदगी की एक तल्ख़ हक़ीक़त है ये भी है कि एक दिन हम सबने मिट्टी ओढ़ लेनी है और फिर भी हमारे बीच बड़ी कड़वाहटें है हम एक- दूसरे से जलन रखते हैं ,आपस में लड़ते रहतें हैं ..मुनव्वर साहब ने इस सच्चाई से भी ग़ज़ल के शे'र निकाले हैं :---
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गये !
हम अपनी क़ब्रे मुकर्रर में जा के लेट गये ! !
तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे !
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गये !!
किसी ज़माने में मुशायरे के अपने आदाब हुआ करते थे ! मुशायरे का मंच शाइर और सामईन दोनों के इम्तेहान के लिए वाजिब जगह होती थी पर इन दिनों निश्चित तौर पे मुशायरों का मेयार गिरा है ! शाइर लोगों के स्वाद को देख के शे'र कहने लगे है और मंच पे शाइरी की जगह करतब होने लगे है तभी तो मुनव्वर साहब कह्ते हैं :----
ये कौन कहता है इंकार करना मुश्किल है
मगर ज़मीर को थोड़ा जगाना पड़ता है
मुशायरा भी तमाशा मदार शाह का है
यहाँ हर एक को करतब दिखाना पड़ता है
जिस मौज़ू (विषय ) के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता मुनव्वर उसमे से भी शे'र निकाल लेते है !उनको पढ़ने के बाद ये बात दावे के साथ कही जा सकती है कि मुनव्वर एक मंझे हुए गोताखोर की माफ़िक मौज़ुआत के समन्दर से नए - नए ख़याल के गुहर (मोती) निकालने का हुनर रखते है ! गेसू ए ग़ज़ल की गिरफ़्त में आये मुझे तक़रीबन बीस बरस हो गये पर मैंने कभी मिट्टी को आकार देने वाले मेहनतकश फ़नकार (कुम्हार ) पर किसी शाइर को शे'र कह्ते नहीं सुना मगर जब मुनव्वर साहब का ये मतला "सुख़न सराय " में पढ़ा तो बस बार - बार पढता रह गया !
मैं इसके नाज़ उठाता हूँ सो यह ऐसा नहीं करती !
यह मिट्टी मेरे हाथों को कभी मैला नहीं करती !!
इसी ग़ज़ल में मुनव्वर साहब हिन्दुस्तान की ज़मीन की ख़ासियत यूँ बयान करते है :---
शहीदों की ज़मी है जिसको हिन्दुस्तान कह्ते है !
ये बंजर हो के भी बुज़दिल कभी पैदा नहीं करती !!
शायरी में दो चीज़ें बड़ी अहम् होती है किसी बात का दावा और फिर उसकी दलील अगर शाइर एक मिसरे में कुछ कह रहा है तो दूसरे मिसरे में उसकी दलील भी देता है ! अपनी एक ग़ज़ल में मुनव्वर राना किसी को मारने को भी जायज़ ठहराते है ..आप उनकी शानदार दलील पे वाह किये बगैर नहीं रह सकते :---
मैं चाहता नहीं था शिकारी को मारना !
ऐसे मगर शिकारी भी चिड़िया न छोड़ता !!
इस शे'र को हमारे सुरक्षा बल मानवाधिकार वालों के सामने एक ढाल के रूप में रख सकते है !
मुनव्वर साहब अपनी शाइरी में पाकीज़ा रिश्तों के रंगों से ऐसी तस्वीर बनाते है कि सुनने वाले को ये एहसास हो जाता है कि इस रिश्ते की इतनी अहमियत है ! ग़ज़ल में क़ायनात के सबसे पाक लफ़्ज़ "माँ " का रिवायत की पटरी से अलग हट के इस्तेमाल भी मुनव्वर साहब ने शुरू किया ! बेटा चाहें कितनी भी उम्र का हो जाए अपनी माँ के लिए वो बच्चा ही रहता है इस एहसास को अलफ़ाज़ देना मुनव्वर राना से बेहतर कौन जानता है :----
कल अपने आप को देखा था माँ की आँखों में !
ये आईना हमे बूढ़ा नहीं बताता है !!
और अपने दुश्मन से लिपटने का मशविरा भी मुनव्वर राना के अलावा कौन दे सकता है :---
लिपट के देखिये इक रोज़ अपने दुश्मन से !
यह तजरूबा कोई अपना नहीं बताता है !!
मुनव्वर राना की शाइरी अपने आप में एक रिवायत है , आदमी को बहुत सी बीमारियाँ लग जाती है उनको भी ग़ज़ल में ले आना ये हुनर सिर्फ़ और सिर्फ़ मुनव्वर राना को ख़ुदा ने अता किया है !
उधर का रूख़ नहीं करते जो रस्ता छोड़ देते हैं !
जो कमरा छोड़ देते हैं वो कमरा छोड़ देते हैं !!
मोहब्बत के लिए थोड़ी सी रुसवाई ज़रूरी है !
शक्कर के डर से बुज़दिल लोग मीठा छोड़ देते हैं !!
अगर हम सब (हिन्दू-मुसलमान ) मिलकर मुनव्वर साहब की तरह ये कहें तो यक़ीनन सियासत की दुकान बन्द हो सकती है : ---
अगर मंदिर तुम्हारा है अगर मस्जिद हमारी है !
तो फिर हम आज से यह अपना दावा छोड़ देते हैं !!
मुनव्वर राना की शाइरी में खुद्दारी का सर कहीं झुकता नहीं है अगर किसी ने अपनी अना गिरवी रख दी है तो इनके शे'र सुनकर अना को वो शख्स वापिस वहाँ से छुडवा सकता है जहाँ उसने पहले उसे गिरवी रख दिया था :---
मेरी अना का क़द ज़रा ऊँचा निकल गया !
जो भी लिबास पहना वह छोटा निकल गया !!
वह सुब्ह सुब्ह आये मेरा हाल पूछने !
कल रात वाला ख़्वाब तो सच्चा निकल गया !!
आदमी ग़लतियों का पुतला है और ज़ाहिर सी बात है उससे गुनाह भी जाने-अनजाने में हो जातें है ! इन्सान में ख़ूबियाँ है तो ख़ामियां भी है मगर गुनाह को स्वीकार कर लेने की हिम्मत हर किसी में नहीं होती --
किरदार पे गुनाह की कालिख लगा के हम !
दुनिया से जा रहे हैं ये दौलत कमा के हम !!
इसी ग़ज़ल का ये शे'र लिबासे-ज़िंदगी के न जाने कितने टाँके खोल देता है ---
क्या जाने कब उतार पे आ जाए यह पतंग !
अब तक तो उड़ रहे हैं सहारे हवा के हम !!
कई बार सूरते-हाल ऐसे हो जाते है कि किसी का बस नहीं चलता चाहें उस इलाके का कोई महारथी भी क्यूँ ना हो ! अस्पताल में गुज़ारे दिनों में ऐसा ही कुछ महसूस किया मुनव्वर साहब ने और फिर उस अहसास को यूँ ग़ज़ल बना दिया : ---
चारागरी की सोच से बाहर का हो गया !
छोटा सा ज़ख्म दिल के बराबर का हो गया !!
(चारागर -डाक्टर )
क़फ़स और परिंदों को लेकर हज़ारों शे'र कहे गये है मगर इसी ग़ज़ल का ये शे'र समन्दरों से भी ज़ियादा फैलाव लिए हुए है :---
जो देर थी क़फ़स से निकलने की देर थी !
फिर आसमाँ सारा कबूतर का हो गया !!
मुनव्वर साहब की शख्सीयत की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है की वे जिससे भी मिलते है या तो उसे अपना बना लेते है या सामने वाला उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व से हमेशा के लिए चिपक जाता है :---
लहजे में ख़ाकसारी का चुम्बक है इसलिए !
जो शख्स भी मिला वो मुनव्वर का हो गया !!
"सुखन सराय " में जो ग़ज़लें है उनमें ऐसे -ऐसे मौज़ुआत आपको मिलेंगे जिनके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता कि क्या इनको भी ग़ज़ल बनाया जा सकता है ?
मिसाल के तौर पे उनकी एक ग़ज़ल के ये दो शे'र :--
किसी दिन मेरी रुसवाई का यह कारण न बन जाए !
तुम्हारा शहर से जाना मेरा बीमार हो जाना !!
वो अपना जिस्म सारा सौंप देना मेरी आँखों को !
मेरी पढ़ने की कोशिश आपका अख़बार हो जाना !!
मुनव्वर राना अपनी शाइरी में लफ़्ज़ों की कसीदाकारी से ग़ज़ल के लिए ख़ूबसूरत रेशमी दुपट्टा बनाते है ! नए - नए काफ़ियों के बेल-बुटे जब मुनव्वर साहब उस दुपट्टे पे टाँकते है तो दुपट्टा हवा में लहराने लगता है और ग़ज़ल उसे ओढ़ के इतराने लगती है :---
दुनिया के सामने भी हम अपना कहें जिसे !
इक ऐसा दोस्त हो कि सुदामा कहें जिसे !!
चिड़िया की आँख में नहीं पुतली में जा लगे !
ऐसा निशाना हो कि निशाना कहें जिसे !!
कल तक इमारतों में था मेरा शुमार भी !
अब ऐसा हो गया हूँ कि मलबा कहें जिसे !!
मुनव्वर राना की तक़रीर ऐसी है जिसकी दुश्मन भी दाद देते है और उनकी तहरीर वाकई एक इज़ाफा है !
आप अपने इर्द-गिर्द जिधर भी देखें ,आपको जितने भी पहलु नज़र आयें , सब के सब पहलु आप "सुखन सराय " की ग़ज़लों में मुनव्वर साहब के अशआर में लिपटे हुए देख सकते है ! इस ग़ज़ल के ये अशआर मेरी इस बात की ज़मानत देते हैं :---
चले सरहद की जानिब और छाती खोल दी हमने !
बढ़ाने पर पतंग आये तो चर्खी खोल दी हमने !!
पड़ा रहने दो अपने बोरिये पर हम फ़क़ीरों को !
फटी रह जायेंगी आँखें जो मुट्ठी खोल दी हमने !!
तुम्हारा नाम आया और हम तकने लगे रस्ता !
तुम्हारी याद आई और खिड़की खोल दी हमने !!
सच है कि रिवायत के मख़मली कालीन पे चलने वाली ग़ज़ल को मुनव्वर राना अपने साथ उबड़-खाबड़ रास्तों पे ले आये है मगर ये भी सच है कि मुनव्वर राना ने कभी ग़ज़ल को रुसवा नहीं होने दिया है !
उनके साथ रह कर ग़ज़ल ने आम आदमी की ग़मख्वारी की है , मुनव्वर साहब की सोहबत में ग़ज़ल ने फूटपाथ का दर्द समझा है ! निश्चित तौर पे हुस्न, शराब और जुल्फों की असीरी (क़ैद) से मुनव्वर राना ने ग़ज़ल को बेल पे छुड्वाया है ! रिवायत के महल में रहते -रहते ग़ज़ल का जो त-अल्लुक़ रिश्तों और संवेदनाओं से टूट गया था उसे फिर से मुनव्वर राना ने ज़िन्दा किया है !
" सुख़न सराय " की ये ग़ज़ल मेरी हर बात की तस्दीक करती है :---
फ़क़ीरों की ये कुटिया है फ़रावानी नहीं होगी !
मगर जब तक रहोगे हाँ परेशानी नहीं होगी !!
यह आंसू आपको रुसवा कभी होने नहीं देंगे !
मेरे पाले हुए हैं इनसे नादानी नहीं होगी !!
"मुनव्वर" में यक़ीनन कुछ न कुछ तो खूबियाँ होंगी !
ये दुनिया यूँ ही इस पागल की दीवानी नहीं होगी !!
जिस मज़्मुए -क़लाम में लाखों, करोड़ों रुपये के बहुमूल्य अशआर है वाणी प्रकाशन ने उसकी कीमत सिर्फ़ 100 रुपये रखी है ! वाणी प्रकाशन की वेब साईट www.vaniprakashan.in पे जाकर किताब मंगवाने का आसान रस्ता देखा जा सकता है ! एक और बात में गारंटी के साथ कहता हूँ कि "सुख़न सराय " अगर आप की बुक- सेल्फ की शान बनती है तो उसकी ख़ुशबू उस कमरे तक ही नहीं रहेगी बल्कि आपके घर के साथ -साथ आपका मोहल्ला भी महकने लगेगा ! आख़िर में अपने इस दोहे के साथ .....
ग़ज़लें "सुख़न सराय " की , सारी मानीख़ेज़ !
शब्द और अहसास की , गहरी दस्तावेज़ !!
विजेंद्र शर्मा
9414094122
munnabar sahab ki ghazalon se ru-ba-ru karaane ke liye dhanyawaad.
जवाब देंहटाएंसुखन सराय से परिचय कराने का शुक्रिया विजेंद्र जी। बेहतरीन समीक्षा। बधाई।
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