एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य : देश सुधारने का मेढ़कों से मिला मंत्र

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हम लोग देखते, पढ़ते और सुनते आ रहे हैं कि दिनों-दिन देश की दशा खराब होती जा रही है, कबाड़ होती जा रही है। ऐसे में हर जागरूक और ईमानदार भारती...

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हम लोग देखते, पढ़ते और सुनते आ रहे हैं कि दिनों-दिन देश की दशा खराब होती जा रही है, कबाड़ होती जा रही है। ऐसे में हर जागरूक और ईमानदार भारतीय का कर्तब्य है कि वह कुछ करे अथवा न करे लेकिन कम से कम इतना जरूर करे कि सोचे। क्या सोचे ? यही कि देश कैसे सुधरे ? केवल इतने से देश सुधर तो नहीं जाएगा। फिर भी देश के बारे में सोचने वालों में नाम तो आ ही जायेगा। आजकल जहाँ एक ओर देश के बारे में सोचने वालों के लाले हैं वहीँ दूसरी ओर कहीं नाम आ जाये तो कई काम अपने आप बन जाते हैं। लोग नाम लाने के लिए एड़ी से चोटी का जोर लगाते रहते हैं। नाम आये तो, चाहे किसी भी काम में ही सही।

हम सोचते-सोचते देश की राजनैतिक व्यस्था के बारे में सोचने लगे। कहने को जिसे राजनीति कहा जाता है वहाँ नीति का नामोनिशां नहीं दिखता। फिर भी लोग नीति क्यों जोड़े हुए हैं ? राज तो सही है। राज करते है तो कहे। इसमें कोई आपत्ति नहीं है। यदि सच में नीति होती तो देश की दशा खराब नहीं होती। देश में नीति कैसे आये ? नेताओं के बिना सुधरे देश कैसे सुधेरेगा ?

फिर हम शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के बारे में सोचने लगे। जड़ से लेकर ऊपर तक समस्या ही समस्या है। देश में कई अशिक्षित शिक्षक हैं। हमारी व्यवस्था इतनी भ्रष्ट है कि शिक्षा देने के लिए अशिक्षित शिक्षक मौका पाते हैं और भरपूर लाभ कमाते हैं। अशिक्षित शिक्षक का मतलब होता है कि जिस चीज अथवा विषय का शिक्षक बनना है उसके बजाय किसी दूसरी चीज में ज्यादा शिक्षित होना।

सोचते-सोचते हमें लगने लगा कि दरअसल देश में व्यवस्था तो है ही नहीं। जिसे हम व्यवस्था कहते अथवा सोचते हैं वह अव्यवस्था है अथवा दुर्व्यवस्था है। व्यवस्था से किसी चीज की स्थिति अथवा दशा बिगड़ती थोड़े है, सुधरती है। और यहाँ तो पूरे देश की ही स्थिति खराब है। यदि व्यवस्था खराब नहीं है तो व्यवस्था खराब करने वाले देश की दुर्दशा के जिम्मेदार हैं। आखिर ये कौन-कौन से लोग हैं ? जिनके सुधरने से देश सुधर सकता है।

सोचते-सोचते हमने एक-एक कर देश की सारी समस्याओं व व्यस्थाओं के बारे में सोचा। शासन, सुशासन, कुशासन, प्रशासन आदि के बारे में सोचा। नेता कहते हैं कि हम सुशासन देंगे। हो सकता है देते भी हों। लेकिन जनता को कुशासन ही अधिक मिलता है। प्रशासन संभालने वाले कहते है कि हम क्या करें ? हमारा शासन थोड़े है। पर यानी दूसरे का शासन है। हम तो मोहरे हैं। इसलिये जो और जैसा कर पाते हैं करते हैं। हमारी नहीं चलती। हमारे ऊपर भी तो कोई है। अपना पेट ही नहीं भरता ऊपर से ऊपर वाले भी मुँह बाए रहते हैं।

आगे हम सोचने लगे कि गरीब, अमीर, शासक, प्रशासक, नेता, अभिनेता सबके पास पेट है। लेकिन किसी का भरता है और किसी का नहीं भरता। आखिर ऐसा क्यों है ? किसी का भरता ही नहीं और किसी का भरकर नहीं भरता। मानो पेट, पेट न होकर सागर हो। इतने में हमें लगा कि कहीं हम भटक तो नहीं गए। हमें तो देश के बारे में सोचना था। हम पेट के बारे में क्यों सोचने लगे ? पेट के कारण ही लोग देश को भुला देते हैं। इसलिए इसे बढ़ने नहीं देना चाहिए। यदि सच में कोई देश के बारे में सोचना चाहता है तो यह जरूरी है।

हमारा मन थोड़ा व्यथित हुआ था लेकिन फिर शांत हो गया क्योंकि मुझे लगा कि पेट के बारे में सोचने से भी देश के बारे में ही तो सोचना हुआ बशर्ते पेट को बढ़ने न दिया जाय और केवल अपने ही पेट के बारे में न सोचा जाय। देश के सारे पेट मिलकर देश के पेट बनते हैं। यदि देश के सारे पेट भरे होते तो देश की दुर्दशा न होती। लेकिन दुर्भाग्य बश कई लोगों ने अपना पेट बढ़ा-बढ़ाकर सागर बना लिया है।

हम यही सब सोच रहे थे। लेकिन कोई हल नहीं मिल रहा था। सोचने का कोई तारतम्य नहीं था। कोई ढंग नहीं था। बस सोचे जा रहे थे। जो भी मन में आता था सोच डालते थे। सोचते-सोचते कुछ ध्यान नहीं था। केवल इतना ही ध्यान था कि हम देश के बारे में सोच रहे हैं।

सोचते-सोचते कई दिन बीत गए। इधर बारिश न होने से गर्मी वैसे ही बढ़ती ही जा रही थी जैसे पिछले चार-पांच वर्षों में मँहगाई बढ़ती रही है। गर्मी से परेशान लोग बर्षा चाह रहे थे। और मौसम विज्ञानियों की भविष्यवाणियाँ किसी नेता के चुनावीं वादों से अधिक कुछ और साबित नहीं हो रही थीं। मौसम विज्ञानियों को भी राजनीति में जोर आजमाइश करना चाहिए। इनकी राजनीति अच्छी चल सकती है।

हमारा छोटा भाई अक्सर इनकी नकल करते हुए कहता है कि आशमान में बादल छाए रहेंगे। कहीं-कहीं छिटपुट बूंदाबादी भी होगी। इसके साथ ही गरजने की आवाज भी सुनाई पड़ सकती है। बादल में बिजली की चमक भी दिखाई पड़ सकती है। कहीं-कहीं सूरज के निकलने की सम्भावना भी है और यदि सूरज निकला तो धूप होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। यदि बरसात नहीं हुई तो सूखा पड़ सकता है। यदि बरसात हुई तो कहीं-कहीं बाढ़ भी आ सकती है।

बरसात होने पर फसल अच्छी और सूखा पड़ने पर फसल के खराब होने की सम्भावना है। बरसात में बाहर निकलने वाले भीग भी सकते हैं। बरसात होने पर गर्मी से कुछ राहत मिलेगी। मौसम का हाल समाप्त हुआ।

खैर अपने समय पर बरसात हुई और इतनी हुई कि चारों ओर पानी भर गया। मेढ़कों के भी खुशी का ठिकाना न रहा। सब मिलकर इस तरह खुशी जाहिर करने लगे मानो कोई पार्टी चुनाव प्रचार कर रही हो। लगा आज सो ही नहीं पाएंगे। ‘टर्र-टर्र... से पूरा वातावरण पूर्ण हो गया।

मेढ़कों कि टर्र-टर्र सुनकर हमें पहले ‘दादुर धुनि चहु दिशा सुहाई। वेद पढ़ैं जनु वटु समुदाई’ की याद आई और फिर आशा जगी कि देश तो आसानी से सुधर सकता है। बशर्ते हम मेढ़कों की बोली को नजरंदाज न कर दें। क्योंकि मुझे लगा रहा था कि मेढ़क देश सुधारने का जैसे मूल मंत्र बता रहे हैं।

मुझे खुशी हुई कि मेढ़क जैसा जीव भी देश के बारे में सोचता है। देश की समस्याओं से रूबरू है। वह भी देश को सुधारना चाहता है। लेकिन उसके बश में कुछ नहीं है। इसलिए केवल संकेत दे रहा है।

मेरे गाँव में बाहर से एक औरत आई । उससे लोग पूंछते मेढ़क खाती हो तो कहती नहीं। लेकिन जब पूंछते 'टर्र' खाती हो तो कहती हाँ। बेचारा मेंढ़क देश का या किसी का क्या बिगाड़ता है ?  लेकिन लोग उसे भी जीने नही देते। वह तो जैसे पहले था वैसे ही आज भी है। बशर्ते मनुजों के प्रदूषण को छोड़ दिया जाय ।

सोचते-सोचते हम इस निर्णय पर पहुँच गए कि यदि देश का केवल एक वर्ग सुधर जाय तो देश सुधर जायेगा। देश की सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी। किसी को इस पर कोई आपत्ति अथवा आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

सच में देश सुधर जाये। बहुत सी समस्याएं समाप्त हो जाएँ। यदि देश का ‘टर’ वाला वर्ग सुधर जाए। सारे 'टर-टर'  वाले लोग सुधर जाएँ तो अपना भारत सुधर जायेगा। जो देश-समाज को सुधार सकते हैं, जिनसे देश सुधर सकता है वे यही तो हैं- वोटर, मिनिस्टर, मास्टर, डॉक्टर, बैरिस्टर, एडिटर, कलेक्टर और इंस्पेक्टर आदि ।

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डॉ. एस. के. पाण्डेय,

समशापुर (उ.प्र.)।

ब्लॉग: श्रीराम प्रभु कृपा: मानो या मानो

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रचनाकार: एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य : देश सुधारने का मेढ़कों से मिला मंत्र
एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य : देश सुधारने का मेढ़कों से मिला मंत्र
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