बुद्धिजीवी के घर में डा 0 रमाशंकर शुक्ल नहीं यह वाक्य नहीं था। संभाषण नहीं था। अभी-अभी जो कानों में घुसा था, वह शब्द नहीं था और शब्दों...
बुद्धिजीवी के घर में
डा0 रमाशंकर शुक्ल
नहीं यह वाक्य नहीं था। संभाषण नहीं था। अभी-अभी जो कानों में घुसा था, वह शब्द नहीं था और शब्दों का समूह भी नही। ताजा गलाया गया लोहा था, जो कानों से उतरकर पूरे अस्तित्व को खाक करता जा रहा था। नही, नहीं, खाक कर देता तो ठीक ही था, वह तो केवल तड़पा रहा था। वे अंतरात्मा से जल रहे थे। चाहते तो उस जलन को दूसरे पर भी उलीच देते वह भी जलता, भष्म होता और जलन की तासीर महसूस करता। लेकिन उसका जलना क्या केवल उसी का जलना होता। उसके जलने का भी हिस्सा तो उन्हीं का था। तब जलन दोगुनी होती, जिसका असर उस घरौंदे पर भी पड़ सकता था, जिसे उन्होंने बड़े प्यार से वर्षों मिलकर बनाये थे।
आकाश अपने में नहीं थे। जल रहे थे। कहां तो निकलना था। सबसे संपर्क कर जिम्मेदारियां सौंपनी थी। यात्रा आने में 72 घंटे ही तो बचे थे। दिल्ली कार्यालय से लेकर लोकल सामाजिक कार्यकर्ताओं के फोन लगातार बज रहे थे। सभी तैयारी का हाल जानने को व्यग्र। क्या हुआ, कितना हुआ!
उत्तर देने की सामर्थ्य नहीं है आकाश में। वे केवल जल नहीं रहे, बल्कि उस हवा की आशंका से भी सिहर उठ रहे हैं, जिसकी लपटों में घरौंदे और परिंदों के भी झुलस जाने का खतरा था। उन्होंने बड़ी मुश्किल से मोबाइल उठाई और साइलेंट मोड में डाल दिया। यह सोचकर कि प्रकृतस्थ होने के बाद मिस्ड नंबरों से फिर संपर्क कर लूंगा। लेकिन चिंता का वेग चिता से ज्यादा लपटदार होती है। वह और झुलसती जाती है। झुलसने वाला आदमी चाहे भी तो उससे किनारा नहीं कर सकता। रात को उन्होंने मोबाइल का स्विच आफ कर दिया।
वह आंख बंद किये पड़े रहे। कानों में पत्नी के आखिरी वाक्य सांय-सांय करते हुए रह-रह कानों में घूस कर झकझोरने लगते-‘वह सांची तो एक दिन हमारा घर ही बरबाद कर देगी।'
‘अरे, सांची से मेरी व्यस्तता का क्या लेना-देना?'
‘देख रही हूं न, वह आपके दिल-दिमाग में कैसे छाई है! तभी तो आपका ये नजरिया है मेरे प्रति!़़़़़़़़़़़़़़़़मैंने तो कभी नहीं पूछा कि आप उनसे क्यों बात कर रहे हैं और क्यों उनके घर जाते हैं और क्यों उनसे मिलते हैं़़़़़़़़़़़़़़़़़'
‘अब तुम अपने विश्वास का सर्वनाश करने पर उतर आई हो। यह आरोप लगाते हुए समझ रही हो कि मेरे पर क्या गुजरेगी?' चीख पड़े थे आकाश। और इसी आखिरी वाक्य के आगे वे निरुत्तर हो गये थे। इसके बाद तो वे यह भी भूल गये कि उन्हें इतनी विशाल यात्रा का प्रभारी बनाया गया है। हजारों साथियों की काबिलियत से ऊपर मानते हुए। यह भी कि यात्रा की पूरी तैयारी अभी श्ोष है।
सांची का उनसे क्या रिश्ता है, आकाश भी नहीं जानते। बस इतना कि वह पढ़ाई के दिनों में एक साथ सीनियर थी। लेकिन, एमए प्रथम वर्ष के बाद बीएड करने लगी। इसलिए फाइनल में साथ आ गयी। शादी-शुदा तो आज के 18 साल पहले ही थीं। आज उसके दो बेटे हैं। एक बीटेक आखिरी साल और दूसरा प्रथम वर्ष में। उनके पति निहायत सज्जन और परोपकारी आदमी। भगवान ने गजब की जोड़ी बनाई। हमेशा दूसरों के लिए जीने वाले ये दोनों प्राणी किसी के न तो अजनवी हैं और न ही स्वार्थी। सांची शिक्षिका होने के साथ ही सहायक श्ौक्षिक कार्यक्रमों में लगातार सिरकत करतीं। कभी इस जिला तो कभी उस जिला। एकदम मौलिक। जहां घुसी, वहां की जैसे सारी पीड़ा सोख लेंगी। सबको हंसाना, तरह-तरह के गुर सिखाना, बच्चों के साथ अठखेलियां करते हुए लगातार व्यस्त हो जाना। आप खड़े होकर उनके केवल करतब देखो। जैसे घर उनका है और आप बुलाये गये हैं। आकाश उन्हें सीनियर होने के नाते बड़ी बहन या फिर सीनियर का ही दर्जा देते थे। लेकिन, जिस तरह का अक्सर वे मजाक कर जाया करती थीं, उससे बहन के रिश्ते से ज्यादा मित्र का रिश्ता महसूस होता।
एक बार उन्होंने पूछ ही लिया था, ‘आप इस तरह बोल जाया करती हैं, कुछ सोचती भी हैं!'
सांची ने धड़ से उत्तर फेंक दिया ‘ये झमेला आप लोग लेकर बैठो। मैं तो केवल एक इनसान हूं और आपसे केवल मित्रता का नाता है। औरत-मर्द, मित्र-प्रेमिका का खाका खींचते रहो। मेरे पास इन सब बातों के लिए कोई फुरसत नहीं।'
उस दिन के बाद उन्होने रिश्ते की बात कभी न की और न जानना चाहा। आकाश कुछेक बार उनके घर भी जा चुके हैं। सांची का घर में भी वैसा ही व्यवहार। पति भी उसी श्ौली में। ना काहूं से दोस्ती, ना काहूं से वैर। सांची केवल आकाश से ही नहीं, अपने सभी साथियों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार रखती है। पढ़ाई के दिनों के मित्रों को उन्होंने ढूंढ-ढूंढ कर निकाला है। सबके नंबर लिये और भूलने के लिए सबकी क्लास भी। सैकड़ों पुराने-पुरानी मित्रों के साथ सांची का निर्झर प्रेम और व्यवहार आज भी कायम है और उस पर तोहमत!
आकाश केवल सांची पर आरोप से नहीं विचलित थे, बल्कि उस विश्वास हनन पर भी विचलित थे, जो आज पत्नी की जुबान से फूटा था। इसलिए भी चौंके थे कि पति के चरित्र पर गंगा जल जैसा विश्वास का दावा करने वाली औरत ने अपनी बात मनवाने के लिए एक गंवारू अनपढ़ महिला की श्ौली आजमा ली थी। क्या उम्र के 42 वें पड़ाव पर पहुंचने के बाद औरत में इसी तरह की कड़वाहट बढ़ जाती है!
आकाश एकतरफा नहीं सोचते। उन्होंने फिर से मामले की तह खोलनी शुरू की।
तीन साल पहले गांव की नाट्य संस्था के संचालन से जो व्यस्तता शुरू हुई, वह दिनोंदिन बढ़ती गयी। किताबों का प्रकाशन और बवंडर, शिक्षक राजनीति, पत्रकारिता, साहित्य, अन्ना आंदोलन, चुनाव- हर जगह तो फसे ही हैं। रोज ही कोई न कोई जलसा, आंदोलन, गोष्ठी, अनशन, जुलूस, विमर्श आदि होता रहता और आकाश उसमें शामिल। कोई न कोई पकड़ ही ले जाता। कभी मंच पर वक्ता बना दिया तो कभी संचालन पकड़ा दिया।
इसके अलावा अपना भरा-पूरा परिवार और रिश्तेदारियां। सैकड़ों की संख्या में। हर कोई आकाश के आने पर ही संतुष्ट होगा। इस ‘आने' के पीछे का सच भी आकाश को पता है। भाइयों से कोई मतलब नहीं। पिता जीवित होते तो आकाश भी बहाना कर लेते। लेकिन, अब पिता की भूमिका तो निभानी होगी न। उम्मीदें नहीं तोड़नी चाहिए। खासकर बहनों के मामले में।
इन सारी व्यस्तताओं के बावजूद उन्होंने अपना एक स्वभाव बना लिया था। वह यह कि चाहे जहां जायें, पर भोजन घर आकर ही पत्नी के साथ करेंगे। क्यों? इसलिए कि उनके न होने पर पत्नी कुछ बनाती ही नहीं। अलसा जाती हैं। बच्चे शाम को पांच बजे ही खा लेते हैं और आठ-नौ बजते-बजते सो लेते हैं। फिर न भी सोयें तो इतनी तरह की चीजें खा चुके होते हैं कि भोजन की दरकार नहीं रह जाती। मानवीय स्वभाव है कि संवेदनशील आदमी अपनी सुविधाओं के मामले में बेहद असंवेदनशील होता है। उसके लिए दूसरे की संवेदना जरूरी होती है। और यह संवेदना आकाश ने सहजता से सहेज ली थी। फिर भी समय को लेकर दूसरे-चौथे महीने जब-तब पति-पत्नी के बीच खटास हो ही जाया करती थी।
आकाश ने कई बार समझाया, ‘देखो, दिन-रात मिलाकर 24 घंटे ही तो होते हैं। इसमें आठ घंटे कालेज, दो घंटे नित्यक्रिया, छह घंटे की नींद अनिवार्य है। बचे आठ घंटे में तुम्हारे समेत सारा जहां है। अब बताओ अलग से कहां समय पाऊं कि तुम्हें लाकर दे दूं। घंटे दो घंटे तो हम रोज ही साथ बैठ लिया करते है!'
पत्नी ने साफ कर दिया, ‘इतना रोज नहीं मिलता। उसमें भी घर आते हो तो चार लोगों को साथ लिये हुए। दाखिल हुए, चाय-पानी किये-कराये और फिर किसी के साथ फूट लिये। ये काम, वो काम। कभी घर में हो भी तो कंप्यूटर पर बैठ गये। और इसी को तुम समय कहते हो?'
आकाश को इन सब बातों पर तर्क करना बेकार लगता। चुप हो लेते या फिर हूं, हां करके रह जाते।
एक बार पूछे थे, ‘अच्छा ये बताओ यदि मैं भी और लोगों की तरह परदेश रहता और तीन-चार साल बाद घर लौटता तब कैसे जीती?'
‘ये तो तब होता, जब उन लोगों की तरह हमारा भी परिवार होता। हम भी रह लेते। पऱ़़़़़़़़़़़़़़़़़़'
यह चेप्टर यही क्लोज करना जरूरी हो गया था। क्योंकि इस ‘पर' के पीछे बेहद कसैला अतीत है और वह भविष्य के लिए शुभ नहीं हो सकता।
लेकिन, आज की घटना ने अतीत की सभी घटनाओं को पीछे छोड़ दिया। आकाश भीतर सुलगते हुए चौकी पर पड़े रहे। एक-दो रिश्तेदार आये, एक-दो औपचारिक शब्दों के अलावा कुछ न बोले। घर में अन्य दिनों की अपेक्षा आज सन्नाटा था। आकाश ने दो किशोर साथियों को बुलाकर रजिस्टर, कागज-पत्तर, झंडा-पोस्टर कार्यकारी संयोजक के पास भेजवा दिया। साथ ही यह संदेश भी कि ‘इमरजेंसी में कानपुर चले गये। बोले हैं कि अपने स्तर से काम निबटाते रहेंं। समय मिलने पर जल्दी आ जाऊंगा।'
सांझ ढल गयी, रात हो गयी, आकाश घर से न निकले। मोबाइल साइलेंट अवस्था में आलमारी में पड़ा था। वे मौन थे। अंदर ही अंदर पड़ताल कर रहे थे कि समाज छोड़ दूं या परिवार! समाज में तो अनंत लोग हैं, पर परिवार में मेरे सिवा और कौन है? समाज मेेरे बगैर चल जायेगा पर परिवार बिखर जायेगा।
इसका मतलब कि उन्होंने पत्नी की बात मान ली? नहीं। वे इतने अंध आज्ञाकारी नहीं हो सकते। सब जानते हैं कि स्वतःस्फूर्त और मांगी जाने वाली स्थिति में बड़ा फर्क होता है। मांगते हुए छीनने की कोशिश करना तो और भी ज्यादा। पत्नी अब समय छीन रही थीं। अभी तक बाहर रहते हुए वे हमेशा पत्नी के साथ रहते थे, पर आज वे पत्नी के साथ घर में हैं, लेकिन बहुत दूर। बिल्कुल साथ नहीं।
डा0 रमाशंकर शुक्ल
पुलिस अस्पताल के पीछे
तरकापुर रोड, मीरजापुर, उत्तर प्रदेश
ई-मेल ः rs990911@gmail़com
प्रकाशित रचनाएं ः ‘ब्रह्मनासिका' ( उपन्यास), ‘ईश्वर खतरनाक है' और ‘एक प्रेतयात्रा' (काव्य संग्रह)
अभी तक बाहर रहते हुए वे हमेशा पत्नी के साथ रहते थे, पर आज वे पत्नी के साथ घर में हैं, लेकिन बहुत दूर। बिल्कुल साथ नहीं।
जवाब देंहटाएंसारा सार यहीं तो है।