मृणाल डा 0 रमाशंकर शुक्ल मृणाल को मैंने सशरीर नहीं देखा। आज तक नहीं। हां, एक तस्वीर नेट के पन्ने पर जरूर झिलमिलाती रहती है। धूप में खड़...
मृणाल
डा0 रमाशंकर शुक्ल
मृणाल को मैंने सशरीर नहीं देखा। आज तक नहीं। हां, एक तस्वीर नेट के पन्ने पर जरूर झिलमिलाती रहती है। धूप में खड़ी। पीली साड़ी में लिपटी। बालों के लट बायीं ओर फहराते हुए से। पूरी ताकत लगा जैसे धूप से लड़ कर उसके दिल का राज झांक रही हो। निर्निमेष। वह आज तक वैसे ही उसी धूप से लड़ रही है। उसकी तस्वीर वैसी ही निश्चेष्ट अभी भी नेट के पन्ने के एक किनारे अडिग है।
नेट की दुनिया का अपना रहस्य लोक है। भांति-भांति के जीव। अनसुने नाम, गांव, करतब। अनंत महिलाएं और अनंत पुरुष। अनंत तस्वीरें। इन तस्वीरों के पीछे छिपे अनंत राज। कहना मुश्किल कि वाल पर दर्ज पहचान सही ही है। फ्लर्ट करती महिलाएं और झूठी प्रशंसा करते पुरुषों का समुदाय। शब्दों से खेलते लोग। प्रतीकों, बिम्बों, उपमानों और अलंकारों की दुस्संप्रेषणीय उक्तियां। तस्वीरों में हूर दिखती लड़कियां सुरसा निकलें तो चौंकने की जरूरत नहीं। वैसे ही भरोसा परोसते पुरुष यदि कालनेमि के रूप में प्रकट हो जायें तो भी आश्चर्य नहीं।
मुझे इन तस्वीरों से हमेशा डर लगा। तकनीकी जानकारी न होने के कारण मित्रों ने जो कुछ बता दिया, उसके आगे की सोच गया। लाग आउट किये बगैर बंद कर दिये तो हैंक हो जायेगा। क्या पता किसी आतंकी ने ही आपकी साइट का इस्तेमाल कर लिया हो! पकड़े तो आप ही जाओगे! कितना फ्लर्ट करती हैं लड़कियां, मालूम? कोई चाहे जितना भी प्रलोभन दे, झांसे में न आना और भूलकर भी अपना ई-मेल नंबर न देना।
कहते हैं कि यजमान पढ़ा-लिखा नहीं है तो पुरोहित के अनुसार चलना ही पड़ेगा। मैंने अपने इन पुरोहितों से भी ज्यादा सजग साधना नेट पर करनी शुरू कर दी। नेट खोलना और अपनी बात लिख देना। दूसरों की बात पढ़ लेना। स्तरीय रहा तो टिप्पणी मार दी, वरना फूट लिये।
नेट का बाजार वाह्य बाजारों से ज्यादा लुभावना है। किसी को देखने-निहारने की कोई वर्जना नहीं। कुछ भी देखो, कुछ भी बोलो, कुछ भी लिखो, पत्थर की मूरत पर अर्घ्य देने जैसा खेल। हां, वहां छेड़ने की मनाही जरूर है। सजा केवल इतनी कि आप या तो ब्लाक कर दिये जाओगे या फिर मित्रता से खारिज। कोई लाठी लेकर आपके दरवाजे मारने नहीं दौड़ा आयेगा। पर मेरे सिर पर पुरोहितों का मंत्र हमेशा तारी रहा, जो आज भी कायम है।
साहित्य से लगाव होने के कारण मैं भी ‘गौरैया' साहित्यिक समूह का सदस्य बन गया था। हजारों साहित्यकारों का जमघट गौरैया की समृद्धि का तो प्रमाण दे ही रहे थे, साथ साहित्यक के सत्यानाश की कहानी भी गढ़ रहे थे। गौरैया में सार्थक कम, निरर्थक चर्चाएं ज्यादा होतीं। कुछ लेखक दो पंक्तियों की कविता लिखते और साथ में एक फोटो नत्थी कर देते। पता चलता कि शाम होते-होते सैकड़ों टिप्पणियां अंकित हो गयीं। सबमे फिकरे, कटाक्ष, सवाल, जवाब वगैरह तो होते, पर कविता पर नहीं, बल्कि फोटो पर। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि डांट-डपट तक भी मामला पहुंच गया। मैंने खुद भी कई बार हस्तक्षेप कर सुलह-समझौते की कोशिश की। कई बार कामयाब भी हुआ और कई बार खामोश भी। शातिर कवि किसी को लक्ष्य करं प्रेम काव्य लिखते और एक उन्मद तस्वीर चस्पा कर देते। बस, चखचख शुरू हो जाता।
पर मृणाल इन बहसों में कभी न दिखी। गौरैया में वह नजर तो रोज आती, किन्तु जैसे दाना चुग कर उड़ जाती। उसके पंजो के निशाल नेट स्क्रीन पर बने रहते। एक तस्वीर धूप से लड़ती हुई एक कोने में अडिग रहती। आज भी। महिला-पुरुष साहित्यकारों की मंडी में मृणाल पता नहीं क्यों एकदम अलग लगती। जैसे वह मुझे बुला रही हो कि आओ कुछ बताना है। उधर से गुजरते हुए मैं प्रतिदिन उसके पास मिनटों ठिठकता और कुछ न कुछ कह कर आगे बढ़ जाता। वह कहना, उसके कहे के आधार पर होता या फिर उसकी व्याख्या होती।
इस तरह दिन-माह बीतते गये। नेट बाजार से निकलकर अक्सर मैं सब भूल जाता। कबीर की पंक्ति याद आती, ‘पूरा किया बिसाहुणा, बहुरि न आवौं हट्ट।' तब फक्र होता कि मैं नेट बाजार से निर्लिप्त हूं। भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है।
लेकिन नहीं, मृणाल दिमाग के किसी न किसी कोने पर अडिग झांक ही जाती। क्यों? इतनी बड़ी मंडी में आखिर कौन है यह जो पीछा करती चली आयी है एकांत तक। उस एकांत तक, जहां मैं कभी-कभी फुरसत के क्षणों में खुद से नीरव आत्मालाप किया करता।
यह मेरे लिए चिंता का विषय था। आज आदमी के पास कितनी मुश्किल से वक्त मिलता है। वह लगातार रचने में व्यस्त है। यश, धन, काम, धर्म आदि का अहर्निस सृजन मानव का जैसे स्वभाव बन चुका हो। न वह उससे निकलना चाहता है और न ही ये सब उसे उबरने देते हैं। इहलोक के षड्कर्मों का मकड़जाल। इनसे बच निकलने वाला ही युधिष्ठिर माना जायेगा। फंसने वाला अभिमन्यु। मैं बाहर निकल आया था, किन्तु मृणाल की स्मृतियों के साथ।
एक दिन कुछ मिनट नहीं, बल्कि कई मिनट उस संघर्ष-चित्र के सामने खड़ा हुआ। माउस गणेश का हो या कंप्यूटर का, चपल होता ही है। मित्रता के द्वार पर दस्तक दे बैठा।
दूसरे दिन नेट पर लिखा था, 'मृणाल ने आपके मित्रता का अनुरोध स्वीकार कर लिया है। मृणाल की वाल पर लिखें'।
मैंने वाल खोला। निरुद्देश्य लिख दिया,
‘वक्त की धूप है
मत लड़ो
एक मुकम्मल छांव
जिन्दगी के लिए
ज्यादा जरूरी है।'
दूसरे दिन जवाब हाजिर था ः
छांव की तलाश
बीमार किया करते हैं
हमें तो उस आग का जवाब देना है।'
मालूम हो गया कि मृणाल अपने नाम (कमल नाल) की तरह कोमल नहीं है। बल्कि मृणाल धर्म जैसी है। कमल चाहे चाहे जितना मुलायम हो, पर सूर्य से प्यार तो वही करती है। जिस सूर्य के आगे अनंत ग्रह-नक्षत्र हार कर छिप जाते हैं, उसका वह बेचैनी के साथ इंतजार करती है। उसका सामना करते हुए अपने अस्तित्व को बचाये रखती है। शायद इसीलिए वह देवता के सिर अर्पित होती है।
लेकिन नहीं, लंबे समय तक संवाद के बाद जितना जान सका हूं, मृणाल किसी देवता के सिर अर्पित होना नहीं चाहती। वह आज भी सूरज का सामना करते हुए अपनी जड़ बनाये रखना चाहती है। उसी के साथ और भी बहुत कुछ़़ ...............।
जहां तक मैं जान सका हूं, मृणाल को ऊपर वाले ने सब कुछ दे रखा है। भरपूर भरोसे का पति, शावक सी फुदकती बेटी के साथ ही किताबों का भरा-पूरा संसार। उस संसार के अवगाहन से भरी आत्मा। चिंतन का इतना विशाल आकाश कि चिंता के लिए अवकाश ही नहीं। फिर भी मृणाल का दर्द रोज नेट के पन्ने पर फैल जाता है- अकथ कहानी सा। क्यों? क्यों? क्या है मृणाल का दर्द!!
मृणाल ने कभी इसकी परतें नहीं खोलें। हम बात करते। नेट के पन्ने पर देश-दुनिया के चित्र नेट-गाड़ी से आते-जाते रहते। अक्सर वह चुप रहती और मैं बोलता रहता। उस छोर से अक्सर एक शब्द निकलता ‘जी'। ‘जी'। ‘जी'।
क्या वह मेरी हर बात से सहमत थी! नहीं। वह अधिकतर असहमत होती। जब असहमत होती, तब उधर से ही शब्दों का रेला चलता। इतना कि मेरे शब्द धकियाते हुए एक किनारे खड़े हो जाते। कभी फोन और कभी चैट पर बात करते हुए भी वह अपनी जड़ों को टटोलती रहती। बेटी ने क्या पढ़ा, धोबी ने क्या दिया, रिक्श्ो वाला कब आयेगा? कार में क्या खराबी आयी, दूरदर्शन पर क्या प्रस्तुत करना है, कहानी का अंत किस मुकाम पर हो। वगैरह-वगैरह। चैट पर तीव्र स्पीड और फोन पर तेज र्फ्तार शब्द-वाक्य-पद-पैरा। बोलते-बोलते ठहाके लगा देना और ठहाके के बीच अचानक गंभीर हो जाना। सब कुछ अचानक। लेकिन, सब कुछ बहुत व्यवस्थित।
मानव मन की परतों को भला कौन खोल पाया है आज तक। खुद मन का निर्माता भी नहीं। किन्तु पर्वतों की रहस्यमयी परतों में भी एक परत जरूर मिलती है, जहां से शीतल जल का झरना फूट पड़ता है। तो क्या झरना फूट पड़ने पर पर्वत का अस्तित्व खत्म! न्न नहीं। उसका पर्वतत्व नहीं चुकता, बल्कि झरना उसका �ाृंगार बन जाता है। पर्वत पूरे अनुशासन के साथ उस झरने को अपने वन प्रांतों और जीवों की प्यास बुझाने का जिम्मा दे देता है और रात के घने सन्नाटे में अपनी झील से अलौकिक तरन्नुम में बात करता है।
मृणाल की परतों से भी एक दिन एक झरना फूटा था, ‘जानते हो, इस दुनिया में मुझे अब कुछ प्रभावित नहीं करता।'
क्यों?
पता नहीं, शायद इन सबसे ऊपर उठ चुकी हूं।
हां, हो सकता है। यह ठहराव की उम्र तो है ही। मैंने कहा था।
उसे यह ठीक न लगा। बोली, ठहराव नहीं। मैं तो आज भी प्रवाहित हूं। बस प्रवाह का मार्ग बदल गया है। मुझे राम धुन बहुत अच्छी लगती है। यहां तक कि सोयी अवस्था में भी मेरी सांसों में राम धड़कता है।
मैं खामोश था। बोलने का मतलब, उसकी परतों का खुलना बंद हो जाना।
जानते हो, मुझे तब बहुत कष्ट होता है, जब कोई आदमी के साथ जातियों और वर्गों के आधार पर व्यवहार करता है। मेरे परिवार के लोग भले शहर और महानगरीय कल्चर में पले-बढ़े हों, पर विचार वहीं परंपरागत ही हैं। ब्राह्मण होने का क्या मतलब है कि औरों से नफरत करो? .............और पता नहीं ये कैसे धार्मिक हैं कि पेड़-पौधों को जल चढ़ाओ, व्रत रखो, त्योहार मनाओ, ऊंच-नीच का ध्यान रखो़...................। बकवास। हा हा हा हा हा़............ हां, सही बता रही हूं। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।
....हां सही बात़़.............
मैं तो अपने यहां के नौकरों को भी भइया कहकर बुलाती हूं। उनको सम्मान देती हूं। अब ये क्या मतलब हुआ कि आप के पास पैसे हैं तो बिना पैसे वालों का अपमान करोगे!
सही कहा आपने।
मेरी जिज्ञासा खड़ी हो गयी, आप इतनी उच्च शिक्षा लेकर घर में क्या कर रही हैं। क्यों नहीं विश्वविद्यालय या डिग्री कालेज में प्रयास करतीं?
मृणाल ने एक झटके से इसे परे कर दिया, क्या करेंगे नौकरी करके। हसबैंड का ट्रांसफर हो गया तो मुझे नौकरी छोड़ देनी पड़ेगी।
क्यों? आपके परिवार के लोग इतना पिछड़ी मानसिकता के हैं?
नहीं तो। किसी के दबाव में थोड़े ही छोड़ूंगी, खुद छोड़ दूंगी। पैसे की खातिर अपना परिवार बरबाद कर दूं। सब बिखर जायेगा।
मृणाल का द्वंद्व बाहर आ गया। दोनों बातें एक साथ कैसे संभव है।
मृणाल का सद्यः प्रस्फुटित निर्झर बाधित हो गया।
वह मेरे लिए आज भी भोर की मृणाल है, जो अंधेरे और सबेरे के बीच अधखुली है।
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पुलिस अस्पताल के पीछे
तरकापुर रोड, मीरजापुर।
मो0- 09452638649
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