डॉ0 ज्योति सिन्हा का आलेख : रिमझिम बरसेला सवनवा. (कजरी गीतों में विषय वैविध्य- एक दृष्टि) डॉ 0 ज्योति सिनहा प्रवक्ता - संगीत भारती मह...
डॉ0 ज्योति सिन्हा का आलेख : रिमझिम बरसेला सवनवा.
(कजरी गीतों में विषय वैविध्य- एक दृष्टि)
डॉ0 ज्योति सिनहा
प्रवक्ता-संगीत
भारती महिला पी0जी0 कालेज, जौनपुर एवं रिसर्च एसोसियेट
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान
राष्ट्रपति निवास शिमला, हिमांचल प्रदेश
डॉ0 ज्योति सिन्हा लेखन के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक सरोकारों की प्रगतिवादी लेखिका साहित्यिक क्षेत्र में भी अपने निरन्तर लेखन के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्रा-पत्रिाकाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाती रही हैं। संगीत विषयक आपने पॉच पुस्तकों का सृजन किया है। आपके लेखन में मौलिकता, वैज्ञानिकता के साथ-साथ मानव मूल्य तथा मनुष्यता की बात देखने को मिलती है। अपने वैयक्तिक जीवन में एक सपफल समाज सेवी होने के साथ महाविद्यालय में संगीत की प्राघ्यापिका भी हैं ! आपको जौनपुर के भजन सम्राट कायस्थ कल्याण समिति की ओर से संगीत सम्मान, जौनपुर महोत्सव में जौनपुर के कला और संस्कृति के क्षेत्रा में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। संस्कार भारती, सद्भावना क्लब, राष्ट्रीय सेवा योजना एवं अन्य साहित्यिक, राजनीतिक एवं इन अनेक संस्थाओं से सम्मानित हो चुकी डॉ0 ज्योति सिन्हा के कार्यक्रम आकाशवाणी पर देखें एवं सुने जा सकते हैं। आप वर्तमान में अनेक सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्व होने के साथ अनेक पत्रिाकाओं के सम्पादक मण्डल में शोभायमान है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में संगीत चिकित्सा (2010-12) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
रिमझिम बरसेला सवनवा......
(कजरी गीतों में विषय वैविध्य- एक दृष्टि)
कुछ लिखना है, पर क्या लिखूं ? यह तय कर पाना मुश्किल लग रहा था। किस विषय का चुनाव करूँ? किस मुद्दे को उजागर करूँ अथवा किस अज्ञात तथ्य से परीचित कराऊँ। समझ नहीं पा रही थी। वर्तमान मुद्दों पर बात नहीं करना चाह रही थी क्योंकि गर्मी से बेहाल मन, मस्तिष्क किसी तनावपूर्ण बात को कहने, लिखने का साहस नहीं कर पा रहा था। उसे कुछ सुकून व शीतलता की आकांक्षा थी और इस लिए इन सबसे दूर कुछ शान्त भाव का विषय जो नयापन लिये हो और जिसे लिखते-पढ़ते समय मन उल्लास व उत्साह से भर सके। ऐसे में सहसा यह ख्याल आया कि सावन आने वाला है जो इस भीषण तपिश से राहत ही नहीं प्रदान करेगा बल्कि अपनी मखमली हरियाली से मन मयूर को नाचने के लिए विवश कर देगा और फिर सावन नाम आते ही ‘कजरी‘ गीतों का उनसे जुड़ जाना स्वाभाविक ही है। अतः यही विचार दृढ़ हुआ कि ‘कजरी‘ गीत के विषय में कुछ लिखा जाये जिसे पढ़कर सुधी पाठकों का मन उमंग से भर उठे। इस लेख में कजरी गीतों की विषय विविधता पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। गाँवों में जब युवतियाँ सावन में पेड़ों पर झूला झूलते समय समवेत स्वर में कजरी गाती है तो ऐसा लगता है कि सारी धरती गा रही हैं, आकाश गा रहा है, प्रकृति गा रही है। न केवल मानव प्रभावित है बल्कि समस्त जीव-जन्तु भी सावन की हरियाली व घुमड़-घुमड़ कर घेर रहे बादलों की उमंग से मदमस्त हो जाते हैं।
लोक साहित्य की एक सशक्त विधा है- लोकगीत। संवेदनशील हृदय की अनुभूतियों की संगीतात्मक-भावाभिव्यक्ति ही लोकगीत है, जिसका उद्भव लोक जीवन के सामूहिक क्रिया-कलापों, सामाजिक उत्सवों, रीतिरिवाजों, तीज-त्यौहारों इत्यादि से हुआ। लोकगीतों की परम्परा मौखिक है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जाती है। इन लोक गीतों में जहाँ अपने अपने युग का सच छुपा है, वहीं उसमें मानव जाति की स्मृतियां, जीवन-शैली, सुख-दुःख, संघर्षों की गाथायें और जीवन के प्रेरक तत्व छुपे हुए हैं।
इन लोकगीतों को विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है जैसे धार्मिक गीत, संस्कार गीत, ऋतु गीत, जातिगीत, श्रमगीत आदि।
इनमें ऋतुगीत के अर्न्तगत भी प्रायः दो ऋतुओं के गीतों का उल्लेख मिलता है। वर्षा ऋतु के गीत एवं बसन्त ऋतु के गीत। बसन्त ऋतु के समय गाये जाने वाले गीतों में मुख्य रूप से बसन्त के उल्लास व प्राकृतिक दृश्य का चित्रण मिलता है। कोयल की कूक, वृक्षों में नये पुष्पों का आना, होली पर्व का उल्लास आदि का वर्णन रहता है। फाग, फगुआ, होली, धमार, चैती इत्यादि बसन्त ऋतु के गीत है। वहीं वर्षा ऋतु के गीतों के अन्तर्गत बारहमासा, छहमासा, चौमासा, सावन, झूला, मल्हार, चांचर, आल्हा एवं कजरी इत्यादि गीत गाये जाते हैं। इन गीतों में ‘कजरी‘ का महत्व सर्वोपरि है तथा इसकी लोकप्रियता इसी से है कि इसे ऋतुगीतों की ‘रानी‘ भी कहा जाता है। पावस ऋतु में काले बादलों का उमड़-घुमड़ कर आना, बिजुरी का चमकना, दादुर-मोर-पपीहे की पुकार, मानव मन को ही नहीं, समस्त जीव-जन्तु को प्रभावित करती है। शस्य श्यामला धरती की हरियाली को देखकर मन मयूर नाच उठता है और हमारे भाव गेय रूप में अभिव्यक्त होकर ऋतुगीतों के रूप में आकार लेते हैं।
देखा जाये तो अधिकांश लोकगीत किसी न किसी ऋतु या त्योहार के होते हैं। वर्षा ऋतु के आने पर लोगों के मन में जिस नये उल्लास व उमंग का संचार होता है, उस भाव की अभिव्यक्ति करती है-कजरी। ऋतुगीतों की श्रेणी में वर्षागीत के अन्तर्गत सावन में गाया जाने वाला यह गीत प्रकार विशेष लोकप्रिय है। इसका सम्बन्ध झूला से है। सावन में पेड़ों पर झूले पड़ जाते हैं पेड़ों की डालियों पर मजबूत डोर के सहारे पटरा लगाकर झूला तैयार किया जाता है। कुछ युवतियां पटरे पर बीच में बैठती हैं और कुछ युवतियों पटरे के दोनों किनारों पर खड़े होकर झूले को ‘पेंग‘ मारती हैं और झूले को गति देती हैं। झूला झूलते समय स्त्रियाँ समवेत स्वर में उन्मुक्त भाव से कजरी गाती हैं। जब काले-कजरारे बादल घिरे हो, बरखा की भीनी-भीनी फुहार पड़ रही हो, पेड़ो पर झूले पड़े हों, मन उमंग से मदमस्त हो, ऐसे में भला मन की अभिव्यक्ति गीतों में कैसे नहीं उतरेगी ? इन गीतों से व पावस की हरियाली से सम्पूर्ण वातावरण रोमांच से पूरित रहता है।
‘कजरी‘ नाम के विषय पर दृष्टि डाले तो वस्तुतः सावन में काले कजरारे बादलों के कारण इसका नाम ‘कजरी ‘ पड़ा। परन्तु इसके नामकरण के संदर्भ में अनेक मत पाये जाते हैं। श्री लक्ष्मी नारायण गर्ग की पुस्तक ‘निबन्ध संगीत‘ में पृष्ठ सं0 97 पर शंभुनाथ मिश्र जी ने कजरी के नामकरण के संदर्भ में लिखा है कि ‘‘कहा जाता है कि कजरी का नामकरण सावन के काले बादलों के कारण पड़ा है। ‘भारतेन्दु के अनुसार मध्य प्रदेश के दादुराय नामक लोकप्रिय राजा की मृत्यु के बाद वहां की स्त्रियों ने एक नये गीत की तर्ज का आविष्कार किया जिसका नाम ‘कजरी‘ पड़ा। कुछ लोग कजरी-वन से भी इसका सम्बन्ध जोड़ते हैं। डा0 बलदेव उपाध्याय के विचार में आजकल की कजरी प्राचीन लावनी की ही प्रतिनिधि है। कजरी का सम्बन्ध एक धार्मिक तथा सामाजिक पर्व के साथ जुड़ा हुआ है। भादों के कृष्णपक्ष की तृतीया को कज्जली व्रत-पर्व मनाया जाता है। ये स्त्रियों का मुख्य त्यौहार है। स्त्रियाँ इस दिन नये वस्त्र-आभूषण पहनती हैं, कज्जली देवी की पूजा करती और अपने भाइयों को जई बांधने के लिए देती है। उस दिन वे रातभर जागती हैं एवं कजरी गाती हैं। इसे रतजगा भी कहते हैं।‘‘
वास्तव में कजरी या कजली शब्द संस्कृत के कज्जल से निष्पन्न है। सम्बन्ध भेद से इसका अर्थ कज्जली देवी, काले बादल तथा उमड़ती-घुमड़ती घटाओं से है जबकि विषय वस्तु की दृष्टि से कजरी वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला एक लोकगीत का प्रकार है जिसमें श्रंगार रस के संयोग-वियोग दोनों पक्षों का विराट तत्व निहित हैं। यद्यपि कजरी हर क्षेत्र में गाई जाती है परन्तु काशी (बनारस) व मिर्जापुर की कजरी विशेष प्रसिद्ध है। मिर्जापुर की कजरी तो सर्वप्रिय हैं इस सम्बन्ध में एक कहावत प्रसिद्ध है कि ‘‘लीला रामनगर की भारी, कजरी मिर्जापुर सरनाम‘‘।
यहाँ कजरी तीज को कजरहवा ताल पर रातभर कजरी उत्सव होता है जिसे सुनने के लिए काफी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं। मिर्जापुर की कजरी का अपना एक अलग रंग है। अनेक शायरो ने कजरी गीतो की रचना की जिसमें वफ्फत, सूरा, हरीराम, लक्ष्मण, मोती आदि के नाम पुराने शायरों में लिए जाते रहे हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं से इस विधा को समृद्ध किया। कजरी के दंगल अथवा अखाड़े भी होते हैं जिनमें प्रतियोगिता होती है। विरहागीतों के दंगल के समान ही इन दंगलों में भी विशाल जन समुदाय के समक्ष प्रश्नोत्तर रूप में पूरी रात कजरी गीतों का गायन किया जाता है।
काशी अथवा बनारस की कजरी परम्परा का अपना अनूठा ढंग है, कजरी का अलग रंग है। यहां भी स्त्रियां झूले के साथ कजरी गीत गाती हैं तथा व्यापक स्तर पर कजरी के दंगल होते हैं। स्त्री पुरूष दोनों ही इसमें भाग लेते हैं। गाने वालियों को गौनिहारिन कहते हैं। कजली के दंगल में पेशेवर शायरों व गौनिहारिन के बीच बड़े मोहक सवाल-जवाब होते हैं। किसी जमाने में, कजली दंगल में शायर मारकण्डे श्यामलाल, भैरो, खुदाबख्श, पलटु रहमान तथा सुनीरिया गौनिहारिन का नाम विशेष उल्लेखनीय रहा है। इन दंगलों में दोनों पक्षों के बीच नोंक-झोंक भी चलता है।
आज आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमारी सभ्यता व संस्कृति पर भी इसका गहरा असर पड़ता है। इन गीतों पर फिल्मी धुनों व तर्जों का भी प्रभाव पड़ा है। टी0वी0 व सिनेमा के साथ-साथ कम्प्यूटर के बढ़ते प्रभाव ने इन दंगलों में जन समूह की संख्या भी सीमित कर दिया है। सम्पूर्ण पूर्वी उत्तर प्रदेश तो सावन में इन कजरी गीतों से गुंजायमान रहता ही है। भोजपुरी क्षेत्रों में भी कजरी गाने की विशेष प्रथा है। विशेष रूप से स्त्रियां सावन में झूला लगाती है और झूलते हुए कजरी गाती हैं। दोपहर अथवा रात्रि में अपने दैनिक कार्यों से खाली होकर युवतियां जब झूले के साथ टीप के स्वरों में कजरी की तान छेड़ती है तो खेत खलिहान, घर-बगीचा सब ओर इन गीतों का स्वर फैल जाता है और वातावरण को रागमय रसमय बना देता है। उत्साह-उमंग की हिलोरे इन गीतों में स्पष्टतः दिखती है। कजरी के कई अखाड़े होते हैं। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (गंगा दशहरा) को अखाड़ों में ढ़ोलक का पूजन करके कजरी शुरू होती हैं और अनन्त चतुर्दंशी को समाप्त होती है। कजरी गीतों को विशेष लोकप्रियता प्राप्त है और इस कारण अधिक गाये जाने के कारण इसमें विषय विविधता की अपार सम्भावना है। शायद ही जीवन का कोई ऐसा पक्ष होगा जिसका उल्लेख इन गीतों में नहीं हुआ है।
भोजपुरी लोकगीतों के अन्तर्गत कजरी गीतों का विषय वैविध्य देखते ही बनता है। जीवन के कितना निकट है। इसका भी प्रमाण हमें मिलता है। सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक स्थिति का चित्रण, प्रकृति-चित्रण, राष्ट्रप्रेम, पर्यावरणीय चेतना, मंहगाई, नशाखोरी, सामाजिक बुराइयों के साथ ही स्त्री की स्थिति-परिधि, संयोग वियोग का पक्ष, पीहर के प्रति प्रेम, परदेश गये पति की वेदना, हास परिहास, झूला लगाने से झूलने तक की बात, सखियों से ससुराल की चर्चा, गवना न कराये जाने का खेद भी प्रगट है। प्रेम का विशद् चित्रण के साथ-साथ नकारा, अवारा पति के कार्य व्यवहार के प्रति स्त्रियों के प्रतिरोधी स्वर भी इन गीतों में दिखाई देता है। इन सभी बातों का वर्णन कजरी गीतों को हृदयस्पर्शी बना देता है।
सर्वप्रथम धार्मिक स्थिति पर गौर करें तो पाते हैं कि लोकजीवन में राम-सीता, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, हनुमान-गणेश, दुर्गा मईया, शीतला मईया आदि की आराधना सर्वोपरि रही है। अतः यह धार्मिक अभिव्यक्ति कजरी गीतों में भी दिखाई देती है। वृन्दावन में राधा-कृष्ण के साथ गोप-गापिकाओं के झूला-झूलने व कजरी गाने का उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए यह कजरी देखिए जिसमें कृष्ण के गाय चराने व बांसुरी बजाने का सुन्दर वर्णन है-
‘‘हरे रामा गउवा चरावे घनश्याम
बजावे बंसुड़िया रे हरी.........
सोने की थारी में जेवना परोसो
हरे रामा जेवे कुंज के बनवा
बजावे बंसुड़िया रे हरी...............''
इसी प्रकार एक गीत में गोपिकायें माता यशोदा से कृष्ण की शिकायत करती हैं और कहती हैं कि-
‘‘बरिजो बरिजो यसोदा मईया
आपन कृष्ण कन्हईया ना......
सोने की थारी में जेवना परोसो
जेवना ना जेवे ना कि,
बरिजो बरिजो यसोदा मईया
आपन कृष्न कन्हईया ना...............''
राधा-कृष्ण के झूला-झूलने का वर्णन तो प्रायः कई गीतों में मिलता है-
‘‘झूला परे कदम की डारी
झूले कृष्ण मुरारी ना...''
तथा-
‘‘हरि-हरि वृन्दावन में झूले
कृष्णमुरारी रे हरि..।''
तथा-
‘‘हरे रामा हरी डाल पर बोले
कोईलिया कारी रे हरी....
सोने की थारी में जेवना परोसली हो रामा
हरे रामा जेवे कृष्ण मुरारी'
जेवावे राधा प्यारी रे हरी...''
इसी प्रकार राम-सीता के जीवन के विविध पक्षों का वर्णन कजरी गीतों में मिलता है। झूला झूलने का वर्णन तो है ही साथ ही राम जनम, विवाह, वन-गमन इत्यादि रोचक प्रसंगों का भी उल्लेख इनमें हैं। भगवान राम लोक जीवन में इतने व्याप्त है कि उनके जीवन के प्रत्येक पक्ष की अभिव्यक्ति इनमें भरी है-
एक गीत में सीताजी के झूला-झूलने का उल्लेख देखिए-
‘‘झूला झूले मोरी प्यारी बारी जनकदुलारी ना,
सुही सुकुमारी, रूप उजारी, राज दुलारी ना
कि झूला झूले मोरी प्यारी....... ''
एवं
‘‘सिया संग झुले बगिया में राम ललना‘'
एक गीत में सीता के फुलवारी में नहीं आने पर राम की व्याकुलता का उल्लेख है-
‘‘सीता भूल गई फुलवरिया
राम जी व्याकुल भईले ना.....''
एक गीत में कैकई के कोप भवन में जाने व राम को वनवास दिये जाने का भी उल्लेख है-
‘‘केकई पड़ी रे कूप भवन में
राम के बनवा देई द ना.....
सोने के थारी में जेवना परोसो
जेवना ना जेवे ना कि
केकई पड़ी रे कूप भवन में
राम के बनवा देई द ना.....''
और बनवास मिलने के बाद माता कौशिल्या के दुख का उल्लेख भी है। वो सोनार से रामजी के लिए सोने का खड़ाऊं बनाने को कहती है क्योंकि राम बन जाने वाले हैं-
‘‘सोनरा गढ़ि दे सोने के खड़ऊवा
राम मोरा बन में जईहें ना......
सोने के थारी में जेवना परोसो
जेवे राम लखन दुनो भईया
सीता चंवर डोलइंहे ना...........''
रामभक्त हनुमान जो लोगों के आराध्य है, की महिमा का बखान भी इन गीतों में है-
‘‘हरि हरि राम भगत हनुमान
जगत में न्यारा रे हरी...........
ओही हनुमान से सीता खोजि लाये रामा
हरि हरि ओही हनुमान लंका जारे रे हरी
हरि हरि राम भगत हनुमान.........''
और फिर बन से आने के बाद तक का वर्णन भी इन गीतों में हैं। राम-सीता के मोहक रूप का वर्णन इस गीत में देखिए-
‘‘सखि हो आये राम ललनवा
झूले जनक पलनवा ना.............
सिर पर सोभे मोर मुकुटवा
कान में कुंडल ना, कि
सखि हो सीता के मन भावेे
सुन्दर राम ललनवा ना.......
एक ओर राम दुसर ओर लक्षुमन
बीचवा में सीता ना कि सखी होई
लागे झांकी जइसे, सुरूज चनरमा ना.....
सखि हो..............''
भगवान शंकर का वर्णन भी कई गीतों में मिलता है, जैसे-
‘‘बंसिया बाज रही रे कदम तर
ठाढ़े सिव संकर भगवान.......
केहर से आवे सिव संकर जी
केहर से आवे भगवान..........
पश्चिम से आवे सिव संकर जी
पुरूब से आवे भगवान कि
बंसिया बाज रही रे कदम तर
ठाढ़े सिव संकर भगवान...........''
इस प्रकार लोक जीवन में सभी के आराध्य राम-सीता, शिव पार्वती राधा-कृष्ण इत्यादि का उल्लेख इन गीतों में मिलता है।
सामाजिक दृष्टिकोण से देखे तो परिवार के रिश्तों की खट्टी-मीठी नोकझोंक, पति-पत्नी का प्रेम, ननद-भौजाई व देवर का हास-परिहास, सब कुछ इन गीतों में देखने को मिलता है। प्रायः स्त्रियां सावन में अपने ‘नईहर‘ आती है, झूला झूलती हैं, सखियों के साथ कजरी गाती हैं। भाई भी अपनी बहन को लेने के लिए बहन के घर जाता है। परन्तु एक नवविवाहिता ‘नईहर‘ जाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि वह सावन में अपने पति के संग रहना चाहती है, इसी भाव की अभिव्यक्ति इस कजरी में है-
‘‘मोरे भईया अइले अनवईया हो,
सवनवा में ना जईबों ननदी।
सोने के थारी में जेवना परोसो
चाहे भईया जेवे चाहे जाये..........'
सवनवा में ना जईबो ननदी
सजना के संग हम झुलबो झुलनवा
हंसि-हंसि गईबो कजरिया
सवनवा मे ना जईबो ननदी.....''
सावन में जहाँ सभी स्त्रियां अपने नईहर जाती है ऐसे में भाई को वापस भेज देना, पति-पत्नी के प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है।
जहां प्रेम है वहीं दुःख भी है। पति के बिना सावन का महीना पत्नी के लिए असह्य पीड़ा भी देता है। इस कजरी में पत्नी का दुःख कैसे चित्रित है, देखिये-
‘‘चढ़त सवनवा अईले मोरा ना सजनवा रामा
हरि हरि दारून दुःख देला दुनो जोबनवा रे हरि........
सोरहो सिंगार करिके पहिरो सब गहनवा रामा
हरि हरि चितवत चितवत धुमिल भईल नयनवा रे हरि...
साजी सुनी सेज तड़फत बीतल रयनवा रामा
हरि हरि बैरी नाही निकले मोर परनवा रे हरि''
तथा-
‘‘रिमझिम बरसेला सवनवा, सईया बिना
सूना अंगनवा ना.....
सूनी अटरिया, सूनी सेजरिया
सूना भवनवा ना कि
रिमिझिम बरसेला.............''
तथा-
‘‘हरि हरि सईया गईले परदेस
पड़ल दुःख भारी रे हरी.....
एह पार बाग कि ओह पार बगईचा रामा
हरे रामा बीचे कोईलिया तड़पे....
पड़ल दुःख भारी रे हरि.......''
वही पत्नी के मायके अर्थात नईहर जाने पर पति के दुःख का उल्लेख भी कजरी गीतों में मिलता है-
‘‘मोरी रनिया अकेला हमें छोड़ गयी
मोसे मुख मोड़ गयी ना.......
रहे हरदम उदास, लगे भूख ना पियास
मोरा नन्हा करेजा अब तोड़ गयी
मोसे मुख मोड़ गयी ना......‘'
वह न केवल दुःखी है बल्कि पत्नी के नईहर जाने पर उलाहना भी देता है। सावन के महीने में भला कौन पत्नी अपने पति को छोड़कर नईहर जायेगी ? वह विवशता की अभिव्यक्ति इस गीत में देखिए-
‘‘हरे रामा सावन में संवरिया नईहर
जाले रे हरी.......
जउ तुहु गोरिया हो जईबु नईहरवा हो रामा
हरे रामा केई मोरा जेवना बनईहे रे हरी......''
पत्नी भी पति से अपने नईहर आने को कहती हैं। अपने ‘नईहर‘ का बखान भला कौन स्त्री नहीं करेगी। इस गीत में पति को आने के जिस भाव से वह कहती है निश्चय ही उसमें गर्वोक्ति का भाव भी निहित है। देखिए-
‘‘राजा एक दिन अईत अपने ससुरार में...
सावन के बहार में ना.....
जेवना भाभी से बनवईती,
अपने हाथ से जेवइति,
झूला डाल देती नेबुला अनार में
सावन के बहार में ना......''
सावन में रिमझिम फुहार, काली घनघोर घटा, सर्वत्र हरियाली, सुहाना मौसम, पति-पत्नी के प्रेम को अभिसिंचित कर देता है। पत्नी चाहती है कि पति उसके पास रहे परन्तु नौकरी करने वाले पति का भला नसीब कहा! उसे तो बारिश में भी नौकरी की चिन्ता है। एक गीत में नौकरी के लिए जाते पति को रोकने का प्रयास पत्नी कुछ इस प्रकार से करती है-
‘‘रतिया बड़ा कड़ा जल बरसे
कईसे नोकरिया जईब ना......
एक हाथे लेबो रेशम के छतवा,
एक हांथे लाली रूमाल कि,
गोरी हो धीरे-धीरे चली जईबो
हमरो जुलुम नोकरिया ना.......''
तथा रूठी पत्नी को मनाने का प्रयास पति करता है-
‘‘रूनझुन खोल ना केवडिया
हम बिदेसवा जईबो ना......
जब मोरे सईया तुहु जईब बिदेसवा
तु एतना करि द ना,
मोरे भईया के बोला द
हम नईहरवा जईबो ना.....''
और फिर पति के जाने के बाद घनघोर बारिश होने पर वह चिंतित हो उठती है-
‘‘सखि हो काली घटा घेरि आई
पिया घर नाहीं आये ना......
बदरा बरसे, बिजुरी चमके
घन घहराये ना......''
तथा-
‘‘ऐसो सावन में सखी रे, मोरे पिया
चले परदेस
जबसे गये मोर सुधियो ना लिन्ही
मन में होत कलेस.....
ऐसो सावन में.........''
और फिर उसकी व्याकुलता बढ़ जाती है। वह पति के बिना सावन के सुख से वंचित है। उसकी भावाभिव्यक्ति इस रूप में इस कजरी में उभर कर आई है-
‘‘रिमझिम बरसेला हो सवनवा
जियरा तरसेला हमार......
सब सखियन मिली कजरी खेले
हम बईठे मन मार....
एहि सावन में पिया घर रहिते
करती खूब बहार
रिमझिम बरसेला हो सवनवा
जियरा तरसेला हमार.......''
कुछ गीतों में पत्नी द्वारा पति से अपने लिये कुछ विशेष उपहार लाने की भी चर्चा मिलती है। एक गीत में वह मेंहदी लाने को पति से कहती है-
‘‘हमके मेंहदी मंगा द मोतीझील से
जाके साईकिल से ना.....
जबसे मेंहदी ना मंगईब
तोहके जेवना ना जेबईबो
तोहसे बात करबो पंच में बइठाई के
बबरी नवाई के ना........''
तथा-
‘‘हमके सोने के मंगा द मटरमाला पिया
झुमका बिजली वाला पिया ना.......''
तथा-
‘'राजा मोरे जोग नथिया गढ़ा द
हरे सांवलिया........
मचिया बइठल मोरी अम्मा बढ़इतीन
तनी एक धनी समझा द,
हरे सांवलिया.........
हमरो कहनवा बबुआ, बहुआ ना मनिहें
बहु जोगे नथिया गढ़ा द, हरे सांवलिया....‘'
इस प्रकार कजरी गीतो में पति पत्नी के प्रेम, वियोग, नोकझोक का सुन्दर चित्रण मिलता है। परिवार के अनेक सदस्यों के बीच ये गीत एक सूत्र में पिरो कर रखते हैं।
ननद-भौजाई के रिश्ते में नोक-झोंक होना एक स्वाभाविक रीत है। परन्तु यही नोक-झोक, हास-परिहास के रूप में रिश्ते को मधुर व मजबूत बनाये रखता है।
अपने साथ कजरी खेलने, झूला झुलने जा रही ननद को भाभी किस तरह रोकती है, देखिए-
‘‘कईसे खेलन जइबो सावन में कजरिया
बदरिया घेरि आई ननदी,
तु तो जात हो अकेली
संग सखी ना सहेली
गुंडा छेक लीहे तोहरो डगरिया
बदरिया घेरि आई ननदी......''
फैशन के दौर में आधुनिकता के पीछे भागते हुए स्त्री-पुरूषों की मानसिकता का भी उल्लेख हुआ है। एक स्त्री के श्रृंगार का बड़ा रोचक उल्लेख इस कजरी गीत में है-
‘‘गोरी गहना पहिन के इतरात बा
बड़ा इठलात बा ना...........
बाल ककही से बनाये
सुरमा आंख में लगाये
मोरा देख-देख जिया पियरात बा......
चले अकड़ के कमरिया
मारे तिरछी नजरिया
बड़े नाज से कमर बलखात बा.......
लाली ओंठ प लगाये
माथे टीकुली सटाये
पान खाय के बहुत मुसकात बा
बड़ी ईठलात बा ना.........''
तथा-
‘‘गोरी गाना सुने रेडियो लगाय के
सखिन के बोलाय के ना......
देस-देस के खबर सुने घर में बइठकर
बड़ नाज से टेसनिया मिलाय के
सखिन के बोलाय के ना........''
वही आज स्त्रियों ने पुरूषों के प्रतिकूल व्यवहार के प्रतिरोध में भी आज अपनी आवाज मजबूत की है। अनेक गीतों में इस प्रकार के प्रतिरोध का स्वर सुनाई पड़ता है-
‘‘जांगरचोर बलमुवा जियरा के जवाल बा
पईसा बिना लचार बा ना........
अपने बाबा के कमाई, सारी दिहले लुटाई
अब त थरिया लोटा बेचे प तैयार बा
पईसा बिना लचार बा ना........''
तथा नसेड़ी पति के विरूद्ध उसकी भावाभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है-
‘‘सखि हो मोरा करम जरि गईले
पियवा मिलल गजेड़ी ना......''
तथा-
‘‘सुन ननदी के भाई भांग हमसे ना पिसाई
हमरा दरद होला नरमी कलाई में
भांग के पिसाई में ना.........''
कजरी गीतों में देश प्रेम व राष्ट्र प्रेम से भरे भावों की भी अभिव्यक्ति हुई है। महात्मा गांधी की मृत्यु से जहां सम्पूर्ण देश मर्माहत था, कजरी शायरो ने भी कजरी के माध्यम से जन-जन तक बापू के बलिदान की कहानी को प्रसारित किया-
‘‘हरि हरि बाबु जी की हो गई
अमर कहनिया रे हरी........
नाथु दुसमनवा मरलस, बाबुजी के जनवा रामा
हरे रामा मार दिया गोली से
दरद न जाने रे हरी..........
हरे रामा गये जहां से करके
नाम निसानी रे हरी.......''
इस प्रकार प्रायः सभी भावों से भरी कजरी गीतों की एक लम्बी श्रृंखला है। शायद ही ऐसा कोई विषय बचा होगा, जिस पर कजरी न लिखि गई हो। वस्तुत कजरी गीतों का वर्ण्य विषय प्रेम है। इन गीतों में श्रृंगार रस की अजस्रधारा प्रवाहित है।
कजरी गीतों का महत्व लोकगीतों में ऋतुगीतो के अन्तर्गत अतिविशिष्ट है। कारे कजरारे मेघो का वर्णन, कुंओ पनघट पर पानी भरती गोरिया, बाग-बगीचा में झूला झूलती नवयौवनायें, साथ ही कमाने अथवा चाकरी को गये परदेस पति के दुःख व वियोग से पीड़ित प्रोषित पतिका स्त्री के आंसुओं से गीतों में वेदना की धारा भी प्रवाहित है। इसी भाव का ब्रज का ‘निबरिया‘ लोकगीत एक ऐसा गीत है जिसमें परदेस जाने को लेकर पति-पत्नी के बीच संवाद है। पावस ऋतु में विशेष रूप से यह गीत गाया जाता है जिसमें पत्नी का वियोग, पति के बिना जीवन की निरर्थकता का चित्रण परिलक्षित होता है।
वास्तव में कजरी में लोकजीवन की अभूतपूर्व झांकी मुखरित हो उठी है। प्रायः भारत के प्रत्येक क्षेत्र में ऋतुगीतों का प्रचलन है परन्तु कजरी जैसी मनभावन, सोहावन गीत शैली पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार की सर्वप्रमुख शैली है जिसे सावन के महीने में गाया जाता है। यद्यपि यह मुख्यतः स्त्रियों का गीत है परन्तु पुरूष भी कजरी गाते हैं, आनन्द उठाते हैं। शास्त्रीय संगीत की श्रेणी उपशास्त्रीय संगीत के अन्तर्गत कजरी को विशेष स्थान प्राप्त है तथा ऋतु विशेष के कार्यक्रमों के अन्तर्गत अधिकांश उच्च श्रेणी की गायिकाये कजरी गीतों का गायन करती है। इनमें सुश्री पद्मश्री गिरिजा देवी, शुभा मुद्गल, सविता देवी आदि का नाम प्रमुख है।
भोजपुरी प्रदेश में नागपंचमी को पचईया भी कहते हैं जो युवतियों के लिए भी विशेष त्यौहार रहता है, झूले पड़ जाते हैं। इस दिन अनेक स्थानों पर कजरी की प्रतियोगिता होती है। समाज में सौहार्द व प्रेम बनाये रखने में कजरी गायको का भी विशेष महत्व रहा है। उन्होंने समाज की हर बुराई की ओर लोगो का ध्यान आकर्षित किया व उनमें जागरूकता उत्पन्न की। अन्य विषयों के अतिरिक्त भजन, कजरी व निरगुनिया कजरी गाने का भी प्रचार है।
एक विशेष प्रकार की ककहरा कजरी का गायन भी प्रचार में है जिसमें ‘क‘ से ‘ज्ञ‘ तक प्रत्येक अक्षर पर पंक्तिया लिखि जाती है। उदाहरण के लिए ककहरा कजरी की कुछ पंक्तियां इस प्रकार है, जो गांधी जी की मृत्यु पर लिखी गई-
‘‘क से कृष्णचंद के छंईया,
दुखवा हमहन के हरवइया।
स्वतन्त्र भारत के करवईया,
सो दिखलाते आज नहीं
‘ख‘ से खादी को अपनाये
‘ग‘ से गांधी शान्ति पढ़ाये।
‘घ‘ से घूमघूम देश जगाये
‘च‘ से चक्र सुदर्शन लाये।
रघुपति राघव के रखईया
सो दिखलाते आज नहीं।''2
स्पष्ट है कि कजरी गीत वैविध्यपूर्ण है। विषय वैविध्य, शिल्पगत वैशिष्ट्य के कारण यह गीत प्रकार अत्यन्त लोकप्रिय है तथा मुख्यतः स्त्री कंठों में विद्यमान इस ऋतुगीत शैली की एक सुदीर्घ परम्परा है। आज इसे सुरक्षित व संरक्षित करने की महती आवश्यकता है क्योंकि इनमें समाज का समूचा सांस्कृतिक, सामाजिक वातावरण जीता है।
संदर्भ ग्रंथ सूची-
1. समस्त गीत स्व0 सीतारानी, ग्राम-भरखर, पोस्ट-मोहनियां, जिला-भभुआ द्वारा संग्रहित है।
2. निबन्ध संगीत-श्री लक्ष्मी नारायण गर्ग, 2 सं0 100।
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