पर मज़हब के बाट से , भाषा को मत तोल .......... बीते साल राजस्थान की साहित्यिक राजधानी बीकानेर में कवियत्री सुमन गौड़ के पहले काव्य - संग्रह ...
पर मज़हब के बाट से , भाषा को मत तोल ..........
बीते साल राजस्थान की साहित्यिक राजधानी बीकानेर में कवियत्री सुमन गौड़ के पहले काव्य - संग्रह "माँ कहती थी " का लोकार्पण हुआ ! किताब के विमोचन के साथ एक मुख़्तसर सा मुशायरा भी रखा गया ! काव्य -संग्रह का इजरा (विमोचन ) प्रख्यात शाइर वसीम बरेलवी के कर - कमलो द्वारा समपन्न हुआ ! ये आयोजन हमारे मुल्क की सबसे बड़ी ताक़त हमारी गंगा - जमुनी तहज़ीब का एक अनूठा उदाहरण था कि हिन्दी की एक कवयित्री के "काव्य -संग्रह " का इजरा उर्दू के किसी शाइर के हाथों हुआ हो मगर अगले ही दिन जब साहित्य के कुछ स्वयंभू कर्णधारों की टिप्पणियाँ मुख्तलिफ़ - मुख्तलिफ़ जगह पढ़ने और सुनने को मिली तो मन बड़ा आहत हुआ !
अपने आप को शब्द का उपासक कहने वाले ,अपने नाम के आगे साहित्यकार लिखने वाले इन अदीबों की मानसिकता देखकर मुझे लगा कि साहित्य के मोहल्ले की गलियाँ इतनी संकरी तो नहीं होती , साहित्य तो विशाल सागर की तरह होता है जो तमाम छोटी - बड़ी भाषाओं की नदियों को अपने अन्दर समो लेता है ! एक महोदय ने लिखा कि हिन्दी की कवियत्री के काव्य -संग्रह का लोकार्पण और उर्दू का मंच , किसी ने कार्यक्रम में अपनी ग़ैर-हाज़िरी की वजह ये बताई कि क्यों जाए ऐसे समारोह में क्या इन्हें हिन्दी का कोई साहित्यकार नहीं मिला विमोचन के लिए वगैरा - वगैरा ! इस आयोजन से मुत-अल्लिक़ और भी बहुत सी भद्र - अभद्र बातें कही गयी ! क़लम के इन पुजारियों द्वारा किये गये इस तरह के तब्सरे को सुन बड़ा अजीब लगा और तब मेरे दिल से बस यही दुआ निकली कि हे ईश्वर इन लोगों के ह्रदय और मस्तिषक की धमनियों को थोड़ा बड़ा कर दे ताकि छोटी सोच का जो लहू इनमें जम चुका है वो मुहब्बत के दरिया की तरह खुलकर बड़ी सोच में तब्दील हो रवानी के साथ बहने लगे ! भाषा को धर्म की तुला ,मज़हब की मीज़ान से तोलने वाले ऐसे लोग हमारे मुल्क के हर हिस्से में पाये जाते हैं ! इस तरह के लोग के शब्द साधकनहीं है हाँ शब्द के सौदागर ज़रूर है अगर शब्द के सही मायनों से ये लोग वाकिफ़ होते तो इस तरह की बातें इनके ज़हन में आती ही नहीं !
इतिहास में ये तो साफ़ - साफ़ लिखा है कि सिन्धु नदी के पार रहने वाले हिन्दू हो गये ,यहाँ का नाम हिन्दुस्तान पड़ गया ! उस पार से आने वाले लोगों का उच्चारण इस तरह का था जिसमें में स को ह कहा जाता था ! अमीर खुसरो के ज़माने में (13 वीं सदी ) हमारे देश में बोले जाने वाली ज़ुबान का नाम हिन्दवी था जो कि हमारी देसज भाषाओं और अरबी फारसी का मिश्रण था ! मध्य काल तक हमारी ज़ुबान का नाम हिन्दवी रहा फिर वक़्त के साथ -साथ इसे ज़बान ए हिंद , हिंदी , ज़बान -ए- दिल्ली , रेख्ता , गुजरी , दखनी , ज़बान -ए -उर्दू- ए -मुअल्ला कहा जाने लगा ! 18 वीं सदी तक हमारे मुल्क में बोले जाने वाली ज़ुबान का नाम हिन्दवी ही था ! उर्दू तो तुर्की ज़ुबान का लफ़्ज़ है जिसका लफ्ज़ी मायने लश्कर है ,यानी वो ज़ुबान जो सैनिक छावनियों में बोली जाए !
अंग्रेज़ों ने हम पर तक़रीबन दो सौ साल राज किया उस वक़्त तक हमारे यहाँ ज़ुबानो का आपस में कोई झगड़ा नहीं था हमारी रोज़मर्रा की ज़ुबान हिन्दुस्तानी ही थी उसका नाम हिंदी - उर्दू नहीं था ! उस वक़्त हिन्दी और उर्दू दोनों ज़बानों में सगी बहनों का सा रिश्ता था और अंग्रेज़ों को बाहर का रास्ता दिखाने में हमारी इस साझा तहज़ीब ने अहम् रोल अदा किया पर जाते - जाते अंग्रेज़ इन्तेकामन मुल्क को बांटने के साथ- साथ ज़ुबानों को भी अलग करने में कामयाब हो गये और फिर दोनों ज़ुबानें मज़हबों में तब्दील हो गई! आज़ादी के बाद हिन्दी को हिन्दुस्तान की राष्ट्र भाषा का दर्जा मिल गया उधर पाकिस्तान में उर्दू कौमी ज़ुबान हो गई ! धीरे- धीरेदोनों बहनों को फिरकापरस्तों की ऐसी नज़र लगी कि आज तक लाख शक्कर ख़ाने के बावज़ूद दिल की कड़वाहटें दूर नहीं हो पायी है !
वक़्त ने अगर कड़वाहट के ये ज़ख्म धीरे - धीरे भरे तो हमारे मुल्क की बदचलन सियासत ने फिर से इसे हरे कर दिये और हिन्दी को हिन्दू,उर्दू को मुसलमान कर दिया ! हमारा साहित्य , हमारा अदब मुद्दतों सेइसी कोशिश में लगा है कि ज़बानें मज़हबी आकाओं की ज़ाती जागीर ना बने पर इस सच्चाई से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि इस इलाके में इमानदाराना कोशिशें ज़रा कम हुई ! हमारी गौरवशाली गंगा-जमुनी तहज़ीब अगर एक बहता हुआ दरिया है तो हिन्दी - उर्दू उसके दो ख़ूबसूरत किनारे है!बचपन में अपनी माँ को स्वेटर बुनते हुए देखता था वो ऊन के दो अलग - अलग रंग के गोलों को सलाइयों की मदद और अपने हाथों के हुनर से ऐसे बुनती थी कि फिर वो रंग आपस में गुँथ जाते थे ! उर्दू और हिंदी का मुआमला भी ठीक ऐसा ही है ये दोनों ज़ुबाने हमारे लहू में इस तरह से घुली हुई है कि आप लाख कोशिश करें इन्हें अलग कर ही नहीं सकते! मिसाल के तौर पे उर्दू के मशहूर शाइर अनवारे इस्लाम का ये मतला देखें :--
सगे भाई हैं उनमें प्यार भी है
मगर आँगन में इक दीवार भी है
इस शे'र में से हिन्दी और उर्दू को कोई कैसे अलग कर सकता है एक और उदाहरण देता हूँ मुनव्वर राना का एक मतला है: --
न जाने कैसा मौसम हो दुशाला ले लिया जाए
उजाला मिल रहा है तो उजाला ले लिया जाए
दोनों ज़ुबानों के महारथी चाहें कितना भी मश्क़ करते रहे वे तय नहीं कर सकते कि ये शे'र कौनसी ज़ुबान का है और हक़ीक़त यही है कि ये शे'र हमारी गंगा - जमनी तहज़ीब वाली हिन्दुस्तानी ज़ुबान का है अगर हम इसी पे गौर करने लगें कि इसमे किस ज़ुबान के कितने लफ्ज़ हैं तो शाइरी का मज़ा किरकिरा हो जाता है ! पिछले दिनों महाराष्ट्र के बैतूल में दो जिस्म से जुडी हुई बहनों को ऑपरेशन से अलग किया गया मगर कुछ दिनों के बाद उनमे से एक ज़िन्दा नहीं रही उर्दू - हिन्दी जुबानें भी एक जिस्म और दो धड़ों वाली बहने है अदब के बड़े-बड़े चारागारों ने अपना ज़ोर लगा लिया और सियासी भेडियों ने भी अपनी कोई कसर नहीं छोड़ी इन्हें अलग करने की मगर ये इस तरह गुंथी हुई है कि अल्हेदा हो ही नहीं सकती! हमारे राष्ट्र कवि जिन्होंने हिन्दी का परचम पूरे विश्व में फहराया उनकी एक कविता के कुछ अंश मैं यहाँ रख रहा हूँ :---
कलम, आज उनकी जय बोल !
जो अगणित लघु दीप हमारे ..तूफ़ानों में एक किनारे,
जल-जलकर बुझ गए किसी दिन-
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल !
क़लम ,आज उनकी जय बोल!
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ,..उगल रही लपट दिशाएँ,
जिनके सिंहनाद से सहमी-
धरती रही अभी तक डोल!
क़लम , आज उनकी जय बोल !
दिनकर जी ने भी अपने काव्य को रचते हुए किसी भाषा विशेष से परहेज़ नहीं किया इसी तरह उनकी बहुत सी कविताओं में हिन्दी के साथ उर्दू अल्फ़ाज़ का मिश्रण है ! हिन्दी के एक और सशक्त हस्ताक्षर सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन "अज्ञेय " की कविताओं पे भी अगर हम
नज़र डालें तो वे भी इस मिली -जुली हिन्दुस्तानी ज़ुबान के मोह से बाहर नहीं निकल पाये मगर उनके बहुत से अनुयायी हिन्दुस्तानी भाषा को दो हिस्सों में करने की कोशिश में आज तक लगे हुए हैं ! उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ अपनी बात के पक्ष में बतौर साक्ष्य रख रहा
हूँ :---
मेरी छाती पर ..हवाएं लिख जाती है ....महीन रेखाओं में ...अपनी वसीयत .....और फिर हवाओं के झोंके ही ...वसीयतनामा उडा कर ...कहीं और ले जाते है --------
क्या हम कर सकते हैं इसमें से हिन्दी और उर्दू को अलग ...नहीं कभी नहीं ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं फिर भी हम क्यूँ नहीं एक ऐसा माहौल तैयार कर पाते जिसमें दोनों ज़ुबाने खुलकर सांस ले सकें ! उर्दू के शाइरों के यहाँ भी हिन्दी के प्रयोग की हज़ारों मिसालें हैं ! मशहूर शाइर वसीम बरेलवी के गीतों पर नज़र डालें तो ये सोचने पे मजबूर होना पड़ता है कि उर्दू का शाइर किस ख़ूबी से गीत को हिन्दी - उर्दू के महलों से हिन्दुस्तानी ज़ुबान के खुले आसमान में ले जाता है :--
तुझको सारे मन से चाहा ,चाहा सारे तन से
अपने पूरे पन से चाहा और अधूरेपन से
पानी की इक बूँद कहाँ और कहाँ भरी बरसात
सजन मैं भूल गयी ये बात .......
वसीम बरेलवी का एक और गीत बतौर ए ख़ास :--
आँख कहे है दिन निकला है , दिल ये कहे है रात
भला मैं मानूं किसकी बात ...
औरत के सम्मान से बढ़कर औरत की मजबूरी
मर्द को पूरा करने ही में औरत हुई अधूरी
जन्म - जन्म उसकी हो जाए जिसको थमा दो हाथ ...भला मैं मानूं किसकी बात ..
पाकिस्तान की मशहूर शाइरा परवीन शाकिर ने भी हिन्दवी में शे'र कहे :--
खुली आँखों में सपना झांकता है
वो सोया है के कुछ -कुछ जागता है
तेरी चाहत के भीगे जंगल में
मेरा तन मोर बन के नाचता है
कहने को तो ये दोनों शे'र उर्दू के और उर्दू की शाइरा के है मगर इसमे से हिन्दी को कैसे अलग किया जा सकता है
पदमश्री बेकल उत्साही के ये मिसरे एक और मिसाल है हमारी इस गंगा-जमुनी भाषा की :-
रूप तुम्हारामैं बन जाऊं तुम मेरे दरपन बन जाओ
आज की रात मैं टूट के बरसूँ झूम के तुम सावन बन जाओ
धर्म का ऐसा पैराहन हो, दो हो जान तो एक ही तन हो
नेह की मैं चोली बन जाऊं प्यार का तुम दामन बन जाओ
क्या इन दोनों ज़ुबानों में फ़र्क समझने वाले इस शाइरी में से हिन्दी -उर्दू को अलग कर सकते है !
मशहूर शाइर शकील बदायूनवी की शौहरत में हिन्दी का उर्दू से कहीं ज़ियादा हाथ है मगर इस तरह के तो सवाल ही नहीं उठने चाहिए ! इसी तरह अगर हम हिन्दी फिल्मों से अगर उर्दू को अलग करके देखें तो पीछे कुछ बचता ही नहीं है ! हम किसी सियासी या अदबी तक़रीर ( भाषण ) को भी देखें तो बिना दोनों ज़ुबानों के कोई तक़रीर मुकम्मल ही नहीं होती ! जब सब - कुछ शीशे की तरह साफ़ है तो फिर भी कुछ लोग अपनी अलग पहचान बनाने के चक्कर में भाषाओं का नुक्सान क्यूँ कर रहें हैं !
हिन्दी और उर्दू में जो आंतरिक रसायन है वो हम हिन्दुस्तानियों की रगों में लहू के साथ दौड़ता है ! ना तो तथाकथित हिन्दी वाले उर्दू के इस्तेमाल से बच सकते है और ना ही उर्दू को अपनी अचकन की अन्दर वाली जेब में चूने की डिबिया में बन्द रखने वाले कभी हिन्दी का प्रयोग किये बिना रह सकते हैं ! मुनव्वर राना ने सच ही कहा है :--
सगी बहनों का रिश्ता है जो उर्दू और हिन्दी में
कहीं दुनिया की दो ज़िन्दा ज़बानों में नहीं मिलता
हर ज़ुबान का अपना - अपना कलेवर होता है ! भाषा चाहें कोई भी हो उसकी लिपि भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती ! फिराक़ गोरखपुरी ,अली सरदार जाफरी जैस अदीबों ने एक बार ये मशविरा दिया था क्यूँ ना हिन्दी -उर्दू की लिपि यानी रस्मुल ख़त को एक ही देवनागरी कर दिया जाए ताकि इसका प्रचार - प्रसार और ज़ियादा हो सके मगर ये मशविरा धरातल पे अपने पाँव भी ना रख सका ! ज़ुबान और रस्मुल- ख़त (लिपि) में जिस्म और रूह का सा सम्बन्ध होता है ! उर्दू ज़ुबान की अगर सबसे ख़ूबसूरत कोई बात है तो वो है इसकी नज़ाकत और नफ़ासत ! ये दोनों चीज़ें ही उर्दू की रस्मुल - ख़त में लिपटी हुई हैं ! उर्दू में अगर तल्फफुज़ को दरकनार कर दिया जाए तो ज़ुबान का सारा हुस्न ख़त्म हो जाता है इसलिए भाषा की लिपि में बदलाव को कोई भी बर्दाशत नहीं करेगा ! इस मरज़ का एक इलाज़ ये भी है कि क्यूँ ना हम दोनों हिदुस्तानी ज़ुबानों को सीखें और अपने बच्चों को भी सिखाएं ! क्यूँ नहीं हमारे सूबों की हुकूमतें इस तरफ़ संजीदा होती है ! जब नई नस्ल अंग्रेज़ी, फ्रेंच , जर्मन सीख सकती है तो उसे अपने मुल्क की ज़ुबान सीखने में परहेज़ क्यूँ ? इन दोनों ज़ुबानों की नाज़ुक हालत के लिए उर्दू और हिन्दी के ही बड़े- बड़े मठाधीश भी जिम्मेवार है ! दोनों ही ज़ुबानों की साहित्य अकादमियों ने भी सिवाय अपने चंद लोगों को ख़ुश करने और अपनी जेबों की सेहत संवारने के अलावा कोई ख़ास रचनात्मक काम नहीं किया ! दोनों भाषाओं के स्वयम्भू हितेषियों का भाषा के प्रति लगाव मैंने बड़े क़रीब से देखा और फिर मुझे मजबूर होना पड़ा ये कहने को :--
उर्दू - हिन्दी को मिले , ऐसे ठेकेदार !
जिनके घर की आबरू ,अंगरेज़ी अख़बार !!
अमीर खुसरो और कबीर से लेकर आज की हमारी इन दोनों ज़ुबानों के हिन्दी - उर्दू नाम ही बस अलग -अलग हुए है बाकी इनकी रूह तो वही है जिसे कभी हिन्दवी कहा जाता था ! निदा फ़ाज़ली यूँ तो उर्दू के शाइर माने जाते है मगर उन्हें इस बात पे भी फ़ख्र है कि वे हिन्दुस्तानी ज़ुबान के शाइर है ! निदा फ़ाज़ली ने आज भी खुसरो और कबीर की रिवायत नहीं छोड़ी है वे अरबी ,फारसी के कठीन लफ़्ज़ों की बजाय हमारे गली मोहल्ले में बोले जाने वाले आम बोल-चाल के लफ़्ज़ों को अपनी शाइरी में इस्तेमाल करते है ! अमीर खुसरो की ज़मीन पे कहा उनका ये मतला :--
मंदिर भी था उसका पता मस्जिद भी थी उसकी ख़बर
भटके इधर ,उठके उधर खोला नहीं अपना ही घर
कबीर की ज़मीन पे कहे उनके ये मिसरे भी हमे फिर से उर्दू - हिन्दी के फासले को मिटा कर हिन्दुस्तानी ज़ुबान के पुराने ज़ायके से रु-ब-रु करवाते हैं :--
ये काटे से नहीं कटते ये बाँटे से नहीं बँटते
नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या
काश निदा साहब की ये बात मेरे उन मित्रों को समझ आ जाए जो इन दोनों सगी बहनों ( हिन्दी-उर्दू ) के रिश्ते के बीच में मज़हब की दिवार बनाना चाहते हैं !
नस्ले -नौ की नुमाइंदगी करने वाले युवा शाइर बुनियाद हुसैन "ज़हीन " के दो मिसरे मुझे यहाँ याद आ रहें हैं :--
तहज़ीबों की बात है , लफ़्ज़ों को मत तोल !
उर्दू - हिन्दी छोड़ दे , हिन्दुस्तानीबोल !!
ज़हीन भाई का ये मशविरा हमारेअहद के तमाम अदीबों / साहित्यकारों को समझ में आ जाए तो वो दिन दूर नहीं जब इस मुल्क में भाषाएँ सबसे पहले मुहब्बत का पुल बनाएंगी जो कि आज अलगाव की एक बड़ी वजह बनी हुई है !
हमारे हिन्दुस्तानी अदब / साहित्य की एक अजीब सी ख़ूबी है कि इसमे कोई भी अदीब या साहित्यकार अकेला एक ज़ुबान के मुगालते में अदब की पटरी पे अपना सफ़र नहीं कर सकता अगर उसे सच में साहित्य - सेवा करनी है /अदब की सच्ची ख़िदमत करनी है तो उसे इन दोनों ज़ुबानों को गले लगाना होगा और ये स्वीकार करना होगा कि हिन्दुस्तान में बिना हिन्दवी के अदब का भला नहीं है !
मेरे एक तथाकथित हिन्दी के अदीब दोस्त ने मुझसे कहा कि यार ! तुम हिन्दी के आदमी होकर चौबीसों घण्टे उर्दू के गुणगान करते रहते हो ,तब मेरा उस मित्र से एक ही सवाल था कि सिर्फ़ पांच मिनट तक मुझसे हिन्दी में बात कर के दिखा दो और अगर इस दौरान तुम एक भी लफ़्ज़ उर्दू का नहीं बोले तो कबीर की कसम उर्दू बोलना और उर्दू की बात करना छोड़ दूंगा ! वही हुआ मित्र हर दूसरे जुमले में उर्दू बोलते रहे और बाद में शर्मिन्दा भी बहुत हुए ख़ैर अच्छी बात ये हुई कि उनको मेरी ये बात समझ में आ गई ..कि हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उर्दू और हिन्दी का मिश्रण हिन्दुस्तानी बोलते है पर पता नहीं कौनसा हमारा अहम् आड़े आ जाता है कि हम इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते इसी लिए मुझे लिखना पड़ा :---
घर से ले बाज़ार तक , बोलो हो दिन -रात !
उर्दू उसका नाम तो , अचरज की क्या बात !
मुनव्वर राना ने भी भाषा में भेद करने वालों को अपने एक शे'र से जवाब दिया था :--
अपनी ज़बान समझ कर अगर तूं न बोलता
मैं कुछ भी बोलता मगर उर्दू न बोलता
एक बहुत अच्छा संकेत इन दिनों ये है कि ग़ज़ल ने आगे आकर दोनों ज़ुबानों के बीच खड़े अवरोध ख़ुद हटायें है ! दोनों ज़ुबानों में लोग ग़ज़ल कह रहें हैं ! पिछले दिनों वसीम बरेलवी साहब ने अपनी एक तक़रीर में इलाहाबाद में कहा था कि ग़ज़ल की सतह पर ये दोनों भाषाएँ बहुत क़रीब आयी हैं मगर नस्र (गद्य ) में अभी फासला बना हुआ है ! नस्र लिखने वाले साहित्यकारों /अदीबों को इस फासले को मिटाना होगा ! ज़ुबान वही फलती -फूलती है जो अपने दरवाज़े दूसरी ज़ुबान के लिए खोल दे ! जब अंग्रेज़ी का लफ़्ज़ हॉस्पिटल अस्पताल हो सकता है ,ग्लास अगर गिलास हो सकता है तो और भी बहुत से शब्द एक दूसरे की भाषा में समाहित होने के लिए बैचेन है बस देरी है तो हम लफ़्ज़ों को बरतने वालों की ! क्यूँ नहीं हम अतीत की दिवार को मुहब्बत के रंगों से एक बार फिर रंगीन कर दे और मुनव्वर राना की तरह कहें :--
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है
ईश्वर करे वो दिन जल्द आये जब हम सब ये कहना बन्द कर दे कि वो हिन्दी वाला है, वो उर्दू वाला है और हम सब मंसूर उस्मानी के लहजे में एक साथ बोले :--
हिन्दी रानी देश की ,उर्दू जिसका ताज !
खुसरो जी की शाइरी ,इन दोनों की लाज !!
आख़िर में इसी दुआ के साथ कि हिन्दवी के दिन फिर से लौट आयें, दोनों ज़ुबानों के रिश्ते और भी पुख्ता हो ,दोनों भाषाओं के आकाओं के अहम् कांच के बर्तन की तरहचकना-चूर हो जायेँ और मुझे फिर से अपने एक दोस्त को ये ना कहना पड़े :--
तुझको तो है बोलना , तूं जो चाहे बोल !
पर मज़हब के बाट से ,भाषा को मत तोल !!
--
विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com
सीमा सुरक्षा बल परिसर
बीकानेर --9414094122
-
बचपन में अपनी माँ को स्वेटर बुनते हुए देखता था वो ऊन के दो अलग - अलग रंग के गोलों को सलाइयों की मदद और अपने हाथों के हुनर से ऐसे बुनती थी कि फिर वो रंग आपस में गुँथ जाते थे ! उर्दू और हिंदी का मुआमला भी ठीक ऐसा ही है |.............वाह विजेंदर जी बहुत अच्छा आलेख है
जवाब देंहटाएं