जैक लंडन अंग्रेजी से अनुवाद : इन्द्रमणि उपाध्याय एक तीली आग वह सुबह ठिठुरन और कोहने भरी थी। शीत और कोहरा अपने चरम पर था जब उस आदमी ने प्...
जैक लंडन
अंग्रेजी से अनुवाद : इन्द्रमणि उपाध्याय
एक तीली आग
वह सुबह ठिठुरन और कोहने भरी थी। शीत और कोहरा अपने चरम पर था जब उस आदमी ने प्रमुख यूको पगडंडी को छोड़ पहाड़ी पर चढ़ना प्रारम्भ किया जहाँ से बाँस के इलाके को जाने वाली कभी कभार उपयोग में लाई जाने वाली पगडंडी के हल्के से चिन्ह थे। वह एक खड़ी और सीधी चढ़ाई थी। ऊपर पहुँच उसने अपनी साँस को सामान्य करने के लिए हाथ घड़ी को देखने का बहाना बनाया। सुबह के नौ बज चुके थे। सूरज का कोई अता-पता नहीं था, हल्का-सा आभास भी नहीं, जबकि आकाश में बादल का टुकड़ा तक नहीं था। एक साफ-सुथरा दिन होने के बावजूद चारों ओर की हर वस्तु ढकी-मुँदी थी। एक ऐसी घनी चादर जिससे दिन अन्धेरे से भरा था और यह सूरज की अनुपस्थिति के कारण था। इस सच्चाई से आदमी कतई परेशान न था। सूरज की अनुपस्थिति का वह आदी था। उसने पिछले कई दिनों से सूरज को नहीं देखा था। वह अच्छी तरह जानता था कि अभी और भी कई दिन इसी तरह बीतेंगे जब दक्षिण में सूरज कुछ देर के लिए निकल फिर ओझल हो जावेगा।
आदमी ने मुड़कर पार किए रास्ते को देखा। करीब एक मील पीछे, तीन फुट बर्फ के नीचे यूको छिपा-दबा था। जमी बर्फ के ऊपर कई फुट की हल्की बर्फ की परत पड़ी थी। चारों तरफ सफेद शुद्ध बर्फ के फाहे जमी बर्फ को ढँके थे। उत्तर और दक्षिण, जहाँ तक उसकी दृष्टि जा रही थी, सब तरफ सफेदी थी, बस दूर दक्षिण में उसे स्पूस ;बर्फीलीद्ध प्रदेश का वृक्षद्ध को छोड़कर जो उत्तर तब आड़े-तिरछे होते चले गए थे। वह वास्तव में आदमी द्वारा पार की जा चुकी मुख्य पगडंडी थी, जो दक्षिण में पाँच सौ मील दूर चिलकूट घाटी से होते समुद्र तक और फिर सत्तर मील उत्तर में डासन और फिर एक हजार मील दूर चुलाटो से होते अंत में डेढ़ हजार मील दूर बेरिंग समुद्र के तट पर बसे सेंट मिचेल शहर तक जाती थी।
बाल सी महीन रहस्यमयी सुदूर तक जाने वाली पगडंडी, आकाश से अनुपस्थित सूर्य, भयंकर शीत, एकाकीपन और अलौकिकता से आदमी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, इसीलिए नहीं कि वह इस सबका आदी था। सच यह था कि वह इस इलाके के लिए अजनबी था। यहाँ की हड्डी जमाने वाले शीत )तु का उसका यह प्रथम अनुभव था। उसकी समस्या यह थी कि वह पूर्णतः कल्पना-शून्य था। जीवन के दैनिक कार्यों में वह तेज तर्रार था लेकिन केवल वस्तुओं को लेकर, उनके महत्व को लेकर नहीं। शून्य से पचास डिग्री निम्न का अर्थ अस्सी डिग्री जमी बर्फ होता है, इस सच का उसके लिए मात्र इतना अर्थ था कि कड़कड़ाती ठंड है, कुछ ज्यादा ही है और परेशान करने वाली है, बस। इसके आगे वह यह नहीं सोच पाता कि तापमान पर निर्भर दुर्बल प्राणी होने के कारण मनुष्य ताप और शीत के हल्के परिवर्तन के बीच ही जीवित रहने में समर्थ है। इसी से जुड़ी मनुष्य की मरणशीलता तथा सृष्टि में मनुष्य के स्थान जैसी बड़ी बातें सोचना उसकी सीमा के बाहर है। शून्य से पचास डिग्री नीचे का तात्पर्य बर्फ से रक्त हमने से बचने के लिए मेकोसिन, चमड़े की जैकेट, कन्टोपा तथा मोटे कंबल की आवश्यकता होती है, लेकिन पचास डिग्री शून्य का अर्थ उसके लिये मात्र पचास डिग्री शून्य है बस। तापमान की इस गिरावट से जुड़े जो भी अन्य अर्थ होते हैं उसके मस्तिष्क में इस विषय मे कोई विचार ही नहीं था।
जैसे ही आगे बढ़ने के लिए वह मुड़ा, उसने जानबूझकर जोर से थूका। थूकने के बाद जो जोर की आवाज हुई, उससे वह चौंक गया। उसने दोबारा थूका और उसने पाया कि बर्फ पर गिरने से पहिले हवा में जोर की चटपटाहट फैल गई। शून्य से पचास डिग्री नीचे, थूकने पर चटचटाहट होती है, वह जानता था लेकिन यहाँ तो थूक हवा में ही चटपटा रहा था। इसमें कोई सन्देह नहीं था कि तापमान पचास डिग्री शून्य से ज्यादा ही नीचे था, बहुत ज्यादा, इसका उसे कोई अन्दाज नहीं था। तापमान के ऊपर नीचे से उसे कुछ लेना-देना न था। उसे हेंडरसन खाड़ी के बाईं ओर पहुँचना था, जहाँ लड़के राह देख रहे होंगे। वे इंडियन क्रीक ;खाड़ीद्ध से होते हुए गए थे, जबकि वह चक्कर लगाकर जा रहा था क्योंिकि वह काटी हुई लकड़ी के लट्ठों को यूको के झरनों से पहुँचाने की राह की तलाश में निकला था। वह शाम के छे बजे तक कैंप पहुँच जावेगा, तब तक लड़के वहाँ पहुँच चुके होंगे, वे लकड़ियों को जलाकर रखेंगे, तापने के लिए, साथ ही गर्मागरम खाना थी उसकी प्रतीक्षा में होगा। दोपहर के भोजन के लिए उसने अपनी जैकेट में से उभरे बंडल को हाथों से थपथपाया। रूमाल से बाँधकर उसने पैकिट को शर्ट के नीचे अपनी देह से लगाकर रखा था। ब्रेड को जमने से बचाने का यही एक सुगम रास्ता था। मोटी तली सैंडविचैस को याद कर वह मुस्करा दिया।
ऊंचे स्प्रूस वृक्षों के बीच वह चल पड़ा। पगडंडी पर बहुत सारे हल्के निशान थे। पिछली स्लेज ;बर्फ पर फिसलने वालीद्ध गाड़ी से निकलने के बाद एक फुट बर्फ गिर चुकी थी। वह प्रसन्न था कि उसके पास स्लेज का अतिरिक्त बोझ नहीं था। सच यह था कि उसके पास रूमाल से बँधे भोजन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। हालाँकि शीत की विकरालता से उसे आश्चर्य हो रहा था। ठंड दरअसल बहुत अधिक है, यह निष्कर्ष निकालते हुए उसने ठिठुरते हाथों से अपने गालों और जमी नाक को जोर से रगड़ा। वह एक घनी दाढ़ी-मूँछों वाला आदमी था, लेकिन उसकी बढ़ी दाढ़ी उसके गालों और जमी जा रही लम्बी नाम की बर्फीली हवा से रक्षा करने में असमर्थ थी।
आदमी के ठीक पीछे एक विशालकाय बड़े-बड़े झबरे बालों वाला कुत्ता चल रहा था जो अपने जंगली भाई भेड़ियों से मिलता जुलता था। कुत्ता भयंकर सर्दी से परेशान था। वह जानता था कि यह यात्रा का समय कतई नहीं था। आदमी की बुिद्ध से अधिक उसकी प्राड्डतिक वृत्ति विपरीत मौसम के बारे में उसे सचेत कर रही थी। सच यह था कि तापमान शून्य से पचास डिग्री से बहुत नीचे था, साठ डिग्री से ज्यादा बल्कि सत्तर से भी अधिक था। वास्तव में उस समय तापमान पचहत्तर डिग्री से नीचे था। सामान्यतः शून्य से बत्तीस डिग्री ऊपर पानी जमना प्रारम्भ हो जाता है। इसका अर्थ यह था कि एक सौ सात डिग्री बर्फ उस समय जम रही थी। कुत्ते को थर्मामीटर के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। संभवतः उसके मस्तिष्क में शीत की गहनता को लेकर मनुष्य की चेतना से कम ज्ञान था, किन्तु पशु की अपनी अंतर्निहित इंन्द्रियाँ थीं। उसमें इतनी समझ अवश्य थी कि आदमी के पीछे चलने में ही उसकी भलाई है। कुछ, कुछ देर बाद वह आदमी को प्रश्न भरी नजरों से देख लेता था कि किसी भी क्षण किसी न किसी कैंप में वह पहुँचेगा और आग जलावेगा। वह इसी उम्मीद में उसके पीछे चल रहा था। कुत्ता आग से मिलने वाली शांति-दायक तपन के बारे में अच्छी तरह जानता था। यदि उसे आग नहीं मिलती है, तो वह बर्फ के ढेर के नीचे हवा से बचने के लिए दुबककर रहना पसन्द करेगा।
कुत्ते की साँस से निकली हवा, उसके बालों पर गिरी बर्फ के साथ मिलकर जम रही थी। उसके जबड़े, नथुने और उसकी भौंहें हवा में मिल पूरी तरह सफेद हो चुके थे। आदमी की दाढ़ी और मूछों के लाल बाल ठीक कुत्ते की तरह सफेद थे, हालाँकि उसके चेहरे पर कुत्ते की बर्फ से ज्यादा बर्फ जम चुकी थी, जो हर साँस के साथ बढ़ती जा रही थी। आदमी तमाखू चबा रहा था। सर्द होंठों पर जमी बर्फ से तमाखू की पीक छोड़ते समय उसकी ठोढ़ी पर अटक जाती थी। उससे उसकी दाढ़ी और बढ़ती चली जा रही थी। यदि वह गिर पड़ता तो वह काँच के टुकड़ों की तरह अपने आप टूट कर बिखर जाती। उसे इसकी परवाह नहीं थी, क्योंकि यह तो देश के हर तमाखू खाने वाले को भुगतना ही पड़ता है। वह इसके पहिले दो बार ऐसी ठंड में निकल चुका था लेकिन वह जानता था कि वे यात्राएँ इतनी सर्द न थीं जैसी आज की है। उसे पता था कि थर्मामीटर का पारा साठ के आसपास था, जबकि उन यात्राओं के समय पचास पचपन के आसपास था।
वह बर्फीले जंगल में मीलों चलता चला जा रहा था। उसने एक चौड़े निगर के सिरे को पार किया, उसके बाद बर्फ के जमे झरने को। वह हेंडरसन की खाड़ी थी। उसे अन्दाज था कि उसे अभी दस मील और चलना है। उसने घड़ी देखी। दस बजे थे। वह एक घंटे में चार मील की रफ्तार से चल रहा था। उसने हिसाब लगाया कि वह साढ़े बारह के आसपास दोराहे पर पहुँच जावेगा। अपनी इस सफलता को लंच खाकर मनाने का उसने निश्चय किया।
अपनी दुम को निराशा में दबाए हुए कुत्ता उसके पीछे चलता जा रहा था, उस समय आदमी सोते ;छोटी नदीद्ध के साथ साथ मुड़ रहा था। पहिले निकली स्लेज के निशान साफ-साफ दिखाई पड़ रहे थे, लेकिन स्लेज के साथ दौड़ने वालों के पैरों के चिन्हों पर बर्फ की कई इंच बर्फ जम चुकी थी। यह स्पष्ट था कि उस शान्त जनशून्य इलाके में पिछले माह भर में कोई भी नहीं निकला था। आदमी एक सी चाल से चलता जा रहा था। वह सोचने विचारने वाले लोगों में नहीं था और फिर उसके पास सोचने को कुछ था भी नहीं, सिवाय इसके कि वह दोराहे पर लंच लेगा और शाम के छै बजे तक लड़कों के पास कैंप में होगा। वहाँ कोई बात करने वाल सहयात्री भी न था और यदि होता भी तो ओठों पर जमी बर्फ से बात करना संभव होता भी नहीं। अतः वह लगातार तमाखू चबाए जा रहा था और अपनी भूरी होती दाढ़ी को पीक से थूक थूककर बढ़ा रहा था।
चलते-चलते उसके मन में एक विचार बार-बार उठ रहा था कि आज ठंड कुछ ज्यादा ही है। इसके पहिले उसने ऐसी हड्डी जमाने वाली ठंड को कभी महसूस नहीं किया है। ठंड का विचार आते ही उसने अपनी सर्द ;जमीद्ध पिछली हथेलियों से अपने गालों और नाक को जमने से बचाने के लिए जोर जो से रगड़ा। वह ऐसा अपनी आप बीच-बीच में अनजाने ही करता जा रहा था, कभी एक हाथ से कभी दूसरे हाथ से लेकिन जैसे ही रगड़ना बंद कर हाथ नीचे करता वैसे ही उसके गाल फिर से सुन्न हो जाते और दूसरे ही क्षण नाक का सिरा सुन्न हो जाता। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसके गाल जम जावेंगे और यह विचार आते ही उसे पश्चाताप होने लगता कि उसने नाक रक्षक पट्टी की कुछ न कुछ व्यवस्था क्यों नहीं की। वह पट्टी नाक और दोनों गालों की आराम से रक्षा कर लेती। किन्तु अब सोचने से लाभ क्या था भला। आखिर बर्फीले गाल होते क्या हैं? बस इतना ही न कि उनमें रह-रहकर दर्द होने लगता है। यह कोई विशेष चिंतनीय न था।
हालाँकि आदमी का मस्तिष्क विचारशून्य था, फिर भी वह चलते-चलते जमी नदी में होते परिवर्तन को देख रहा था, मोड़, गोलाई, बीच-बीच में पड़े लकड़ी के लट्ठे, विशेषकर तब तब वह पैर रखता था। एक मोड़ पर वह घोड़े की तरह बिदका और तेजी से मुड़कर वह अपने पैरों के निशानों को रौंदता पीछे लौटा। वह जिस नदी को जानता था वह तल तक जमी थी। ध्रुवीय शीत में किसी भी नदी में पानी होने का प्रश्न ही नहीं था, लेकिन वह यह भी जानता था कि पहाड़ी के किनारे-किनारे झरनों से बर्फ के छोर पर पानी बहता रहता है। उसे भली भाँति पता था कि कैसी भी भयंकर ठंड क्यों न पड़े, ये झरने कभी बंद नहीं होते, ये हमेशा बहते रहते हैं। वह इनसे होने वाले खतरे से भी पूरी तरह परिचित था। ये फंदे हैं। बर्फ के नीचे पोखर या गड्ढा हो सकता है। तीन इंच गहरा भी और तीन फिट भी। कभी-कभार तो मात्र आधे इंच की बर्फ की परत ही रहती है, इन पर। कभी-कभी तो बर्फ के नीचे पानी, फिर बर्फ और फिर पानी भरा होता है और आदमी कुछ ही पलों में कमर तक पानी में अपने को पाता है।
उसके बिदकने का यही कारण था। उसने पैरों के नीचे टूटती बर्फ को टूटते सुन लिया था। भयंकर शीत और तापमान में पैरों के भीगने से उत्पन्न समस्या से वह बखूबी परिचित था। अधिक से अधिक उसे पहुँचने में देरी ही तो होगी। रुककर आग जलाना ज्यादा आवश्यक था। आग में अपने मोजे, मेकोसिन जैकिट सुखाना जरूर था। कुछ दूर तक वापिस लौट, वह रुका, नदी और उसके तट को गौर से देखने के बाद उसने निश्चय किया कि पानी का बहाव दाहिनी ओर है। कुछ देर नाक और गालों को रगड़ता वह सोचता रहा फिर बाईं ओर मुड़ गया। धीरे-धीरे संभल-संभल कर आगे बढ़ रहा था, हर कदम रखने के बाद, वह होने वाले परिवर्तन को भी देख रहा था। जैसे ही वह खतरे से बाहर हुआ, तमाखू के नए टुकड़े को उसने दाँत से तोड़ मुँह में रखा और अपनी चार मील प्रति घंटे की रफ्तार पर आगे चल दिया।
अगले दो घंटों में उसे कई बार इस प्रकार के जल फंदे मिले। प्रायः इन बर्फ ढके गड्ढों डबरों पर जमी बर्फ की पर्त पतली हल्की झोल भरी होती है, जो खतरे का संकेत था। एक बार तो वह बाल-बाल बचा और अगली बार खतरे की गंभीरता को समझने के लिये कुत्ते को जबर्दस्ती आगे चलने को बाध्य किया, हालाँकि कुत्ता जाना नहीं चाहता था। वह बार-बार पीछे मुड़ रहा था, लेकिन जब आदमी ने उसे बाध्य किया तो सामने के सफेद टुकड़े को पार करने वह तेजी से बढ़ा और जैसे ही बर्फ टूटी वह बमुश्किल तेजी से कूदकर बर्फ पर आ गया। उसके अगले दो पैर भीग गए थे और पैरों पर लगा पानी कुछ ही पलों में बर्फ में बदल गया। कुत्ते ने तेजी से अपने पैरों और पंजों को जुबान से चाटना शुरू कर दिया क्योंकि पंजों में जमी बर्फ उसे जोरों से चुभ रही थी। आत्मसुरक्षा की यह एक सहज वृत्ति थी बस। जमी बर्फ पंजों में घाव कर देती, हालाँकि कुत्ते को इसका ज्ञान न था उसने तो मात्र अपनी मूल प्रवृत्ति से प्रेरित हो बर्फ को जीभ से चाटा था, लेकिन आदमी को इसका ज्ञान था इसलिए उसने अपने दाहिने हाथ का दस्ताना उतारा और कुत्ते के पंजे पर जमी बर्फ के कण साफ करने लगा। उसने अपनी उंगलियों को एक मिनिट से अधिक बाहर रखना उचित नहीं समझा, लेकिन इतनी ही देर में शून्य होती उंगलियों पर उसे आश्चर्य हुआ। ठंड वास्तव में बहुत तीखी और तेज थी। हाथ को दास्ताने में जल्दी से डाल छाती पर जोर-जोर से हाथ मारने लगा, ताकि हथेली में जमा खून तेजी से दौड़ने लगे।
बारह बजे, दिन अपनी पूरी रोशनी के साथ था फिर भी अपनी शीतकालीन यात्रा में सूरज दूर दक्षिण में क्षितिज को प्रकाशित करने में असमर्थ था। हेंडरसन खाड़ी और उसके बीच धरती का बहुत बड़ा टुकड़ा उनके बीच में था जहाँ आदमी भरी दोपहर में खुले साफ आसमान के नीचे बिना परछाईं के चल रहा था। ठीक साढ़े बाहर बजे दोराहे पर जब वह पहुँ गया तो आदमी को अपनी स्पीड पर प्रसन्नता हुई। यदि वह इसी तरह चलता रहा तो छै बजे तक वह लड़कों के पास निश्चित पहुँच जायेगा। उसने पहिले जैकिट और फिर कमीज के बटन खोले और भीतर से अपना लंच पैकिट बाहर निकाल लिया। हालाँकि मिनिट के चौथाई भाग में उसने यह सब कर लिया था लेकिन उन पन्द्रह सेकेंड में ही उसकी खुली उंगलियाँ ठिठुर गईं। दस्ताना न पहिन कर उंगलियों को पैर पर जोर-जोर से खून के बहाव को बनाये रखने के लिये मारने लगा। वहीं पड़े बर्फ जमे लकड़ी के लट्ठे पर वह खाना खाने बैठ गया। पैर पर हाथ मारने से उठा दर्द इतनी जल्दी समाप्त हो गया कि उसे आश्चर्य होने लगा। खाने का उसे समय ही नहीं मिल पाया। उसने एक हथेली को जल्दी से दस्ताने में डाला और दूसरे हाथ को खाने के लिये खुला छोड़ दिया। जब उसने खाने की कोशिश की तो बर्फ से जमे होंठ और मुँह ने उसका साथ देने से इन्कार किया।
आग जलाकर बर्फ पिघलाने की उसे याद ही नहीं रही थी। उसे अपनी मूर्खता पर हँसी आई। हँसते हुए ही ठंड से सुन्न होती उंगलियों पर उसका ध्यान गया। साथ ही बैठते समय उसके पैरों की उंगलियों में जो दर्द शुरू हुआ था, धीरे-धीरे कम हो रहा था। उसके पंजे सुन्न हैं या गर्म, उसकी समझ में नहीं आ रहा था। उसने उन्हें मेकोसिन से ढँक लिया, यह सोचते हुए कि वे वास्तव में सुन्न हैं।
उसने जल्दी से दूसरा दस्ताना भी पहना और खड़ा हो गया। उसे थोड़ा-थोड़ा डर लगने लगा था। जोर-जोर से वह खड़े-खड़े कदमताल करने लगा ताकि पैरों में हल्का सा दर्द वापिस आ जावे। ‘‘बड़ी भयंकर ठंड है'', उसके मन में तेजी से विचार कौंधा। सल्फर खाड़ी में मिला आदमी वास्तव में सच कह रहा था कि इस समय जंगल में बहुत ज्यादा ठंड पड़ती है। उस समय तो जोरों से हँसकर उसने उत्तर दिया था। सच यह है कि आदमी को किसी को भी हल्के से नहीं लेना चाहिए। इसमें कोई शक ही नहीं है कि ठंड भयंकर है। तेजी से कदमताल के साथ वह हाथों में गर्मी लाने के लिए तेजी से चलाता रहा। कुछ आश्वस्ति के बाद उसने जेब से माचिस आग जलाने के लिए निकाली। एक खोह में से उसने लकड़ियाँ इकट्ठी कीं, जहाँ पिछली बसंत में नदी से बहकर आई सूखी लकड़ियाँ पड़ी थीं। सावधानी के साथ उसने धीरे-धीरे लकड़ियाँ जलाकर फूँक फूँक कर आग बढ़ाने का प्रयास किया। कुछ ही देर में लकड़ियों ने अच्छी आग पकड़ ली। आग से उसने अपने चेहरे, हाथों और कपड़ों पर जमी बर्फ को पिघलाना शुरू किया। आग की गर्मी के बीच ही उसने अपना लंच खाया। कुछ देर के लिये ही सही, उसने ठंड को पराजित कर दिया था। आग से कुत्ता भी राहत महसूस कर रहा था। वह आग के बिल्कुल पास, लेकिन जलने से दूर आराम से बैठा था।
लंच खाने के बाद, आदमी ने पाइप निकाला। उसे तमाखू से भरा और आराम से पाइप का आनंद लेने लगा। कुछ देर बाद उसने बिना उंगली वाले दस्तानों को पहिना, अपने कनटोपे के दोनों सिरों से कानों को ढका और दोराहे के बाएँ जाने वाली पगडंडी पर चल दिया। कुत्ता आग को छोड़कर नहीं जाना चाहता था, इसलिए किकिया कर वापिस चलने की जिद कर रहा था। आदमी संभवतः भयंकर शीत से परिचित न था, शायद उसके पूर्वज भी वास्तविक शीत से शून्य से एक सौ सात डिग्री से कम शीत की भीषणता के बारे में अपरिचित थे, किन्तु कुत्ता जानता था। उसके पूर्वजों को अनुभवजन्य ज्ञान था जिसे कुत्ते ने वंश परम्परा से प्राप्त किया था। वह भलीभाँति जानता था कि इस रक्त जमा देने वाली शीत में चलना खतरे को न्यौता देना था। उसके अनुसार यह समय किसी भी गड्ढे में दुबककर बैठे रहने और आकाश से बादलों के साफ होने की प्रतीक्षा का था, क्योंकि बादल ही हैं जो ठंड लाते हैं। सच्चाई यह थी कि कुत्ते और आदमी के मध्य विशेष आत्मीय संबंध नहीं थे। उनके बीच मालिक और गुलाम का संबंध था। कुत्ते ने मात्र मालिक के कोड़े की थपथपाहट ही जानी थी। कोड़े की सपाक-सपाक... जिसे सुन वह कांय...कांय... कर उठता था। ऐसे संबंध होने के कारण कुत्ते ने आदमी को शीत की गंभीरता के बारे में बताने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया। आदमी की भलाई से उसे कुछ लेना देना न था, वह तो स्वतः की रक्षा के लिए जलती आग के पास जाना चाहता था। आदमी ने जोर से सीटी बजाई और हाथ को कोड़े की तरह लहरा कर सपाक...सपाक... आवास निकाली, परिणामस्वरूप कुत्ता तेजी से घूमा और आदमी के पीछे चलने लगा।
आदमी ने तमाखू का एक टुकड़ा मुँह में रखा और अपनी दाढ़ी को फिर से जमी बर्फ से बढ़ाने का काम शुरू किया। इसके साथ ही उसकी छोड़ी साँस ने उसकी मूँछों भौंहों और बरौनियों पर बर्फीली चादर ओढ़ाना शुरू कर दिया। हेंडरसन के बाईं ओर झरनों का अभाव था, करीब आधेक घंटे तक चलते रहने के बाद भी उसे एक भी झरना नहीं मिला। और फिर...। वहाँ, जहाँ एक भी चिन्ह न था, जहाँ ठोस जमी बर्फ दिख रही थी, आदमी का पैर गड्ढे में पड़ा। गड्ढा गहरा न था, फिर भी घुटनों तक वह भीग गया। बमुश्किल वह उस गड्ढे से निकल पाया।
अपने आपसे वह बेहद नाराज था। उसने अपने भाग्य को कोसा। वहाँ उसने छै बजे तक कैंप पहुँचने का निश्चय किया था और अब इस दुर्घटना के परिणामस्वरूप वह एक घंटे देर से पहुँ पायेगा, क्योंकि उसे फिर से आग जलाकर अपने जूतों और पैंट को सुखाना पड़ेगा। इस तापमान में यह अत्यावश्यक था, इतना तो उसे अच्छी तरह पता ही था। वह किनारे की ओर मुड़ा और बर्फ पारकर जमी नदी के तट पर चढ़ गया। छोटे-छोटे स्प्रूस झाड़ों के नीचे उगी झाड़ियों के पास सूखी लकड़ियों से बर्फ पर एक चबूतरा सा बना लिया, ताकि बर्फ का प्रभाव जलती आग पर न पड़े, लकड़ियों के ऊपर उसने छोटी-छोटी लकड़ियाँ व टहनियाँ, फिर बर्च (एक पेड़ विशेष) की छाल के एक टुकड़े को उसने जेब से निकाल कर माचिस की तीली से जलाया। बर्च (जो कागज से भी जल्दी आग पकड़ता है) को लकड़ियों पर रख उस पर सूखी घास और छोटी-छोटी लकड़ियाँ रख दीं।
सारा काम वह पूरी सावधानी से कर रहा था, क्यों कि आग बुझने की पूरी आशंका उसे थी। धीरे-धीरे आग की लौ जैसे-जैसे बढ़ने लगी, वैसे-वैसे उसने बड़ी और मोटी लकड़ियाँ आग पर रखनी शुरू कर दीं। वह अच्छी तरह जानता था कि उसे असफल नहीं होना है। यदि आदमी के पैर गीले हों और तापमान पचहत्तर डिग्री से नीचे हो तो पहली बार में ही आदमी को आग जलाने में सफलता मिलनी चाहिए। आग न जल पावे और पैर सूखे हों तो आधा मील दौड़कर आदमी रक्त के दौर को बढ़ाकर ठीक कर सकता है। गीले और बर्फ जमते पैरों की गर्मी पचहत्तर डिग्री नीचे के तापमान में दौड़ने से वापिस नहीं लौट सकती। भले ही कितनी ही तेजी से दौड़ा जावे, गीले पैर बजाय गर्म होने के और जल्दी बर्फ से जम जावेंगे।
आदमी को यह अच्छी तरह पता था कि पिछले मौसम में सल्फर खाड़ी में मिले बूढ़े से उसने यह सुन रखा था। आज उसकी दी सलाह उसके काम आ रही थी। मन ही मन उसने उस बूढ़े को धन्यवाद दिया। उसके पैरों के पंजे पूरी तरह बेजान हो चुके थे। आग जलाने के लिए उसे दस्ताने उतारने पड़े थे, जिससे उसकी उंगलियाँ तत्काल सुन्न हो गई थीं। प्रति घंटे चार मील चलने से उसका फेफड़ा तेजी से रक्त को बाहर की ओर तेजी से फेंकता रहा था, लेकिन जैसे ही वह रुकता, फेफड़ों की गति भी धीमी हो जाती। भयंकर शीत का सामना उसके शरीर का रक्त नहीं कर पा रहा था। रक्त भी जीवित था, कुत्ते की तरह जो अपने को शीत से बचाने कहीं छिप जाना चाहता था। जब तक वह चार मील प्रति घंटे की स्पीड से चल रहा था तब तक फेफड़ा किसी तरह ना नुकुर करता हुआ भी रक्त को बाह्य नसों में फेंक रहा था, लेकिन अब वह भी ऊपरी शरीर में आने से बचने के लिये सुकुड़ने लगा था। शरीर के बाह्य हिस्से इसे अच्छी तरह समझ रहे थे। उसके गीले पैर सबसे पहिले सुन्न हो गये। फिर उसकी खुली उंगलियाँ भी तेजी से सुन्न हो गईं हालाँकि वे अभी जमी नहीं थीं। नाक और गाल तो पहिले ही जम चुके थे। पूरी त्वचा भी धीरे-धीरे रक्त की कमी से ठंडी होना शुरू हो गई थी।
किन्तु वह सुरक्षित था। पैर की उंगलियाँ, नाक और गाल बर्फ से जमना प्रारम्भ ही हुए थे कि इस बीच आग की लपटें तेज होने लगी थीं। वह आग में लगातार उंगलियों की मोटाई की लकड़ियाँ डालता जा रहा था। अगले ही मिनिट में वह कलाई जितनी मोटी लकड़ियाँ डालने लगेगा और तब वह अपना गीला पेंट और गीले जूते उतार सकेगा और जब तक वे आग में सूखेंगे, वह अपने नंगे पैरों में जमी बर्फ को निकालने के बाद आराम से सेकेगा। वह आग जलाने में सफल हो गया था। वह अब सुरक्षित था। उसे फिर सल्फर खाड़ी के उस बूढ़े की सलाह स्मरण हो आई और वह सोच सोचकर मुस्कुराने लगा। उस अनुभवी बूढ़ने ने पचास डिग्री के नीचे तापमान में क्लोन डाइक प्रदेश में एकाकी यात्रा करने को पूरी तरह किया था। पर वह यहाँ था। अकेला था। दुर्घटनाग्रस्त भी हुआ लेकिन उसने अपने आपको बचा लिया था। कुछ पुराने खूसट बूढ़ी औरतों की तरह हो जाते हैं - उसने सोचा। सच यह है कि आदमी को होश दुरुस्त रखना चाहिये बस, फिर सब ठीक होता है। कोई भी आदमी जो वास्तव में आदमी है, निपट अकेले यात्रा कर सकता है। उसे आश्चर्य हुआ कि उसकी नाक और दोनों गाल बहुत तेजी से सुन्न हो रहे हैं। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसकी उंगलियाँ इतनी तेजी से सुन्न होंगी। वे बेजान थीं। बमुश्किल वह लकड़ी को पकड़ पा रहा था। उंगलियाँ उसे अपने शरीर से अलग लग रही थीं। क्योंकि वे उसकी आज्ञा मानने में असफल थीं। जब भी वह लकड़ी को पकड़ने की कोशिश करता तो वह गौर से देखता था कि उंगलियों ने लकड़ी को पकड़ा थी है अथवा नहीं। उसके और उंगलियों के बीच जो नसें थीं, वे बहुत दुर्बल हो गई थीं।
फिलहाल उसे इन सबकी विशेष चिन्ता नहीं थी। सामने अच्छी खासी जलती आग थी, चटकती, लपकती लौ थी जीवन को आश्वस्त करती। उसने अपने चमड़े के जूतों के फीते को खोलना शुरू किया। फीते बर्फ से जकड़े थे। मोटे जर्मन मोजे लोहे की म्यान की तरह उसके घुटनों तक चढ़े थे। जूते के फीते लोहे की छड़ों की तरह कठोर और उनकी गाँठ अग्नि दाह में जलने के बाद बचे लोहे की तरह थी। कुछ देर बाद उसने अपनी सुन्न उंगलियों से उसे खोलने का प्रयास किया। असफल होने पर अपनी मूर्खता पर स्वतः को झिड़कते हुए उसने चाकू निकाला।
इसके पहिले कि वह फीतों को काटना शुरू करता, वह घटना हो गई। उसकी अपनी गल्ती थी या बुिद्ध का अभाव। उसे स्प्रूस के नीचे आग नहीं जलाना चाहिये थी। खुले मैदान में आग जलानी थी उसे। लेकिन वृक्ष के नीचे लगी झाड़ियों से टहनियाँ तोड़कर आग में डालना आसान था यही सोचकर उसने वहाँ आग जलाई थी। आदमी ने यह नहीं देखा कि जहाँ वह आग जला रहा था ठीक उस स्थान के ऊपर वृक्ष की एक बर्फ से लदी शाखा थी। हफ्तों से हवा ठंठ से जमी थी, सो चल नही रही थी। हर शाखा बर्फ के बोझ से दबी हुई थी। डाल तोड़ते हुए हर बार उसने झाड़ को छोड़ा बहुत हिलाया था, हालाँकि उसके अनुसार तोड़ने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन वृक्ष को तो पड़ ही रहा था, जो विपत्ति के जन्म के लिये पर्याप्त था। ऊपर की एक शाखा ने हिलने से जमी अपनी सारी बर्फ नीचे गिरा दी। बर्फ नीचे की शाखा पर गिरी और इस प्रकार शाखा से प्रशाखा से होती होती पूरे वृक्ष की बर्फ बिना किसी पूर्व सूचना के ज्वालामुखी की तरह आदमी और आग पर गिर पड़ी। आग बुझ गई। जहाँ कुछ देर पहिले आग थी अब वहाँ बेतरतीब बर्फ पड़ी थी।
आदमी इस आघात से हड़बड़ा गया, जैसे उसने अभी-अभी मृत्यु दंड सुना हो। कुछ क्षण तक वहीं बैठा रहा उस स्थान को घूरता जहाँ कुछ देर पहिले आग जल रही थी। फिर उसने घबराहट पर काबू पाया। संभवतः सल्फर खाड़ी का वह खूसट बूढ़ा खूसट नहीं था, वह पूरी तरह सही था। यदि उसके साथ कोई साथी होता, तो वह अभी भी खतरे से बाहर होता। उसके साथी न उसके स्थान पर आग जला ली होती। पर ऐसा होना संभव न था, उसे ही फिर से आग जलानी होगी, और इस बार किसी भी प्रकार की गलती की संभावना नहीं होना चाहिए। अपने प्रयास में वह सफल हो भी जावे तब भी यह तो निश्चित था कि उसके पैरों की कुछ उंगलियाँ नहीं बचेंगी। उसके पंजे अब तक बुरी तरह सुन्न हो चुके होंगे। दूसरी बार आग पूरी तरह जलाने में कुछ तो समय लगना तय ही था।
ये विचार थे जो उसके मन में उठ रहे थे लेकिन इन पर सोचने-विचारने के लिये वह बैठा नहीं, बल्कि अपने को व्यस्त रखने की सोच रहा था। आग जलाने के लिए उसने जमीन तैयार करना शुरू कर दिया था। स्प्रूस से दूर खुले में जहाँ धोखेबाज वृक्ष आग को बुझा न सके। जमीन तैयार होने पर उसने घूम घूमकर टहनियाँ और सूखी घास इकट्ठी करना शुरू किया। उसकी उंगलियाँ इतनी अकड़ चुकी थीं कि वह उखाड़ नहीं सकता था बस टूटी पड़ी लकड़ियों को मुट्ठी भर कर एकत्र अवश्य कर सकता था। हालाँकि ऐसा करने से उसके हाथ में हरी घास और सड़ी गली टहनियाँ भी उठ कर आ रही थीं, लेकिन फिलहाल वह यही कर सकता था। वह दूरंदेशी से काम कर रहा था। आग जल जाने पर आवश्यक मोटी मोटी डालें भी एकत्र कर ली थीं। इस बीच कुत्ता शान्त बैठा आशा भरी निगाहों से उसे काम करता देख रहा था, क्योंकि वहाँ वही था जो उसके लिए आग की व्यवस्था कर सकता था, हालाँकि आग जलने में अभी देर थी।
जब पूरी तैयारी हो गई तो आदमी ने अपनी जेब से बर्च की छाल के टुकड़े को निकालने हाथ डाला। वह जानता था छाल वहाँ है। वह उसे उंगलियों से अनुभव नहीं कर पा रहा था लेकिन उसकी खरखराहट को सुन पा रहा था। उसने बहुत प्रयास किए किन्तु वह उसे पकड़ने में असफल हो रहा था। इस बीच उसे इस बात का अहसास हो रहा था कि तेजी से बीतते पलों के बीच उसके पंजे सुन्न होते जा रहे हैं। इस विचार से उसकी घबड़ाहट बढ़ रही थी। आशंका भरे भय से लड़ते हुए वह अपने को शान्त रखे था। उसने दस्ताने दाँत से पकड़ खींच कर निकाले और दोनों हथेलियों को जोर-जोर से पीठ पर मारने लगा। यह उसने बैठे-बैठे किया और फिर खड़े होकर पूरी ताकत से हाथों को चलाना जारी रखा। इस बीच कुत्ता बर्फ पर अपनी भेड़ियों जैसी पूँछ से अपने अगले पंजों को ढके बैठा था। उसके तेज कान सीधे खड़े थे और वह आदमी को एकटक देखे जा रहा था, जो पूरी शक्ति भर अपने हाथों में गर्मी लाने के प्रयास में लगा था। उसे कुत्ते से ईर्ष्या हो रही थी जो प्रड्डति जन्य स्वाभाविक झबरे बालों में सुरक्षित बैठा था।
कुछ देर बाद उसे उंगलियों में संवेदना के संकेत मिलने लगे। उंगलियों में उठता हल्का दर्द क्रमशः बढ़ रहा था और फिर असह्य हो उठा, लेकिन दर्द बढ़ने के बावजूद वह सन्तुष्टि का अनुभव कर रहा था। दाहिने हाथ का दस्ताना उतार उसने जेब से बर्च की छाल निकाली। नंगी उंगलियाँ एक बार फिर सुन्न होनी शुरू हो गई थीं, फिर भी उसने हाथ से जेब से माचिस निकाली, लेकिन भयंकर शीत ने उंगलियों से उनकी कार्यशक्ति समाप्त कर दी थी। माचिस की तीली को दूसरी तीलियों से अलग करने की कोशिश में पूरी तीलियाँ उसके हाथ से बर्फ पर गिर गईं। उसने जब बर्फ से उन्हें उठाने की कोशिश की तो उसने पाया कि यह उसके वश में न था। उंगलियाँ तीलियों को छू तक नहीं पा रही थीं, पकड़ने की बात तो दूर। वह बेहद सावधान था। शून्य होते पैर, नाक और गाल के बारे में न सोचकर उसने पूरी शक्ति माचिस की तीलियों को उठाने में लगा दी। स्पर्श के स्थान पर उसने दृष्टि का प्रयोग करना बेहतर समझा। जब उसने देखा कि उसकी उंगलियाँ तीलियों के बिल्कुल पास हैं तो उसने पूरी शक्ति से उन्हें पकड़ा अर्थात् उसने उन्हें पकड़ने की तीव्र इच्छा की, क्योंकि उसके हाथ की नसें दुर्बल थीं और उंगलियाँ उसकी आज्ञा नहीं मान रही थीं। उसने दाहिने हाथ में दस्ताना डाला और हाथ को घुटने पर जोर जोर से मारना शुरू कर दिया। फिर उसने दस्ताने पहिने ही दोनों हाथों से तीलिया बर्फ सहित उठा अपनी गोद में डाल दीं। बहुत प्रयासों के बाद वह तीलियों को दस्ताने भरे हाथों के नीचे कलाई तक ले गया और फिर हाथों को मुँह के पास ले आया। जैसे ही उसने मुँह खोलने की कोशिश की, मुँह पर जमी बर्फ दरकी, लेकिन मुँह नहीं खुला। तब उसने पूरी इच्छाशक्ति एकत्र कर पूरी शक्ति लगाकर अपना मुँह खोल ही लिया। उसने निचले ओंठ को खोला और ऊपरी ओंठ को ऊपर की ओर मोड़कर तीलियों में से एक तीली को दाँतों से पकड़ने की कोशिश की। बमुश्किल वह एक तीली निकालने में सफल हुआ, जिसे उसने गोद में गिरा दिया। उसकी हालत अच्छी न थी। तीली उठाने में वह असमर्थ था। कुछ देर में उसे उपाय सूझा। तीली को एक बार फिर उसने दाँतों से पकड़ा और पैर पर घिसना शुरू किया। लगातार वह पैर पर घिसता रहा, तब कहीं जाकर वह तीली को जला पाया। तीली के जलते ही, दाँतों से पकड़े-पकड़े ही उसने बर्च की छाल को जलाने की कोशिश की। तीली से निकलती लौ से बाहर आती गंधक उसकी नाक से होती उसके फेफड़ों तक पहुँची, फलस्वरूप वह जोर-जोर से खाँसने लगा। परिणामस्वरूप जली तीली बर्फ पर गिर कर बुझ गई।
सल्फर खाड़ी का अनुभवी बूढ़ा सही था, उसे उस निराशा भरे पल याद आया कि पचास के नीचे तापमान पर सहयात्री का होना हितकर रहता है। उसने अपने हाथों को पूरी ताकत से फिर से चलाना शुरू किया लेकिन वे सुन्न पड़े थे। यह देख उसने दाँतों से दोनों दस्ताने खींच कर उतारे। हथेलियों के पिछले भाग से उसने बर्फ में पड़ी माचिस की स्ट्रिप को पकड़ा। उसके हाथों की माँसपेशियाँ अभी हिमाघात से बची थीं, इसलिये उसके हाथ स्ट्रिप को पकड़े रहने में सफल रहे। फिर उसने तीलियों की पूरी स्ट्रिप को पैरों पर घिसना शुरू कर दिया। वे जल उठीं। सत्तर की सत्तर गंधक भरी तीलियाँ एक साथ। लौ को बुझाने वहाँ हवा थी ही नहीं। जलती गंधक से बचने के लिए उसने अपने सिर को दूसरी ओर घुमा लिया और जलती तीलियों को छाल के पास ले गया। जब वह यह कर रहा था तब उसने अपने हाथों में जान की सनसनी लौटती महसूस की। उसका माँस जल रहा था, वह सूँघ सकता था। अपनी भीतर वह कहीं अनुभव कर रहा था। जान दर्द में परिवर्तित हुई और फिर दर्द असह्य होने लगा। दर्द के बाद भी वह उसे सहता रहा क्योंकि जलती तीलियों से अभी बर्च की छाल ने आग नहीं पकड़ी थी, क्योंकि छाल और आग की लौ के बीच उसका अपना जलता हाथ था, जो अधिकांश लौ को घेरे था।
जब दर्द उसकी सहनशक्ति के बाहर हो गया तो उसने अपने जुड़े हाथों को अलग कर लिया। जलती तीलियाँ बर्फ में सिसकती हुई गिरीं, लेकिन इस बीच बर्च की छाल ने आग पकड़ ली थी। सूखी घास और छोटी लकड़ियाँ उसने उस पर रखना शुरू कर दिया। चुन-चुनकर उठाकर रखने की स्थिति में वह नहीं था, क्योंकि वह हथेलियों से ही उठाने की स्थिति में था। टहनियों के साथ हरी घास और काई लगी लकड़ी भी चिपकी थी, जिसे वह दाँतों से खींचकर निकालने की कोशिश कर रहा था। अनाड़ीपन मिली सावधानी से वह आग को सुरक्षित रखने में व्यस्त था। वह जीवन ज्योंति थी और किसी भी कीमत पर उसे बुझना नहीं चाहिए था। इस बीच शरीर की ऊपरी सतह में रक्त प्रवाह के कम हो जाने से वह काँपने लगा था। जलती हुई उस छोटी-सी आग में अचानक हरी काई का बड़ा हिस्सा गिरा। उसने उंगलियों से उसे दूर करने का भरसक प्रयास किया, लेकिन उसके काँपते शरीर ने हाथों को कुछ अधिक ही धक्का दे दिया, जिससे आग की लौ का केन्द्र बिखर गया। जलती घास और जलती छोटी लकड़ियाँ तितर-बितर हो गईं। उसने उन्हें पास लाने की शक्ति भर कोशिश की लेकिन काँपती देह ने बिखरी जलती लकड़ियों को और बिखरा दिया। जलती लकड़ियाँ धीरे-धीरे बुझने लगीं और कुछ ही पलों में उनमें से लौ की जगह धुँआ निकलने लगा और वे बुझ गईं। अग्नि प्रबंधक असफल हो चुका था। उसने चारों ओर घोर निराशा में डूबते हुए तिनके की आशा में देखा। उसकी दृष्टि कुत्ते पर पड़ी जो बिखरी आग के पास बर्फ में परेशानहाल पीठ उठाए अपने सामने के दोनों पंजों को एक के बाद दूसरे को उठा रहा था। एक पैर से दूसरे पर वजन डालता वह उम्मीद लगाए बैठा था।
कुत्ते को देख उसके मन में एक असामान्य विचार कौंधा। उसे अचानक बर्फीले तूफान में फँसे उस आदमी की कहानी याद हो आई, जिसने एक हिरन को मारकर उसकी खाल ओढ़ कर अपने प्राण बचाए थे। वह भी तो कुत्ते को मारकर उसकी गर्म मृत देह में अपने हाथ डालकर उनमें पुनः रक्त संचार कर सकता है। यदि एक बार हाथ गर्म हो जाएँ तो दोबारा आग जलाना बहुत आसान हो जावेगा। उसने कुत्ते को आवाज दी, लेकिन उसकी आवाज में कुछ ऐसा भय व्याप्त था जिससे कुत्ता डर कर सहम गया। क्योंकि उसने आदमी की ऐसी आवाज कभी नहीं सुनी थी। कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है, उसकी सन्देह वृत्ति को खतरे का अहसास होने लगा। वह यह नहीं जानता था कि उसे किससे डरना है, लेकिन उसके मस्तिष्क में आदमी के प्रति सन्देह को जन्म दे दिया। उसने आदमी की आवाज पर अपने दोनों कान सीधे खड़े कर लिए। उसका हिलना-डुलना, अगले पंजों को बारी-बारी से उठाना गिराना तेजी से होने लगा। किन्तु आदमी के पास जाने की उसने कोई कोशिश नहीं की। आदमी घुटनों और हाथों के बल बैठ गया और धीरे-धीरे उसने कुत्ते की ओर चलना शुरू कर दिया। आदमी की इस विचित्र चाल से कुत्ते का सन्देह और बढ़ गया। वह आदमी से धीरे-धीरे दूर खिसकने लगा।
आदमी ने कुछ देर तक बर्फ में बैठ अपने को शान्त करने की कोशिश की। अपने दाँतों से एक बार फिर उसने दस्ताने पहिने और खड़ा हो गया। खड़े हो उसने यह देखने की कोशिश की, कि क्या वह वास्तव में खड़ा है, क्योंकि उसके पैरों की निर्जीवता ने उसे धरती से दूर कर दिया था। आदमी के खड़े हो जाने से कुत्ते के मन में उठ रही सन्देह की तरंगें शान्त हो गईं और जब उसने हंटर से निकलती सपाक...सपाक... की आवाज सुनी तो वह निश्चिंत हो गया और उसके पास आ गया। जैसे ही कुत्ता उसकी पकड़ की जद में आया, आदमी के पैरों ने साथ छोड़ दिया। गिरते-गिरते उसके हाथों ने कुत्ते को पकड़ने की कोशिश की। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसके हाथ पकड़ने में पूरी तरह असमर्थ हैं। उसके दोनों हाथ और उंगलियाँ पूरी तरह सुन्न हैं। एक क्षण को वह भूल गया कि वे बर्फ से पूरी तरह जम चुकी हैं। यही नहीं उनका वजन भी क्रमशः बढ़ता जा रहा है जो लगातार मृत होते जाने का सूचक है। यह सब कुछ ही पल में हो गया और इसके पहिले कि कुत्ता उसकी जद से बाहर भागे, उसने उसे अपनी बाहों में भर लिया। वह वहीं बर्फ पर कुत्ते को पकड़ कर बैठ गया, जबकि कुत्ता उससे कांय...कांय... कर छूटने की कोशिश कर रहा था।
फिलहाल वह यही कर सकता था कि उसके शरीर को अपने हाथों में घेर कर वहीं बैठा रहे। उसको विश्वास हो चुका था कि वह कुत्ते को मार नहीं सकता। मारने का कोई भी तरीका उसके पास नहीं था। वह अपने रक्तहीन, बेजान हाथों से न तो चाकू पकड़ सकता था न ही उसे बैंट से खोल ही सकता था और न ही अपने हाथों से कुत्ते का गला ही घोंट सकता था। उसने उसे छोड़ दिया। हाथों का घेरा हटते ही कुत्ता तेजी से कूदकर दुम दबाकर कांय...कांय... करता भागा। चालीस फीट दूर जाकर उसने आदमी को आश्चर्य से देखा। उसके कान सीधे खड़े थे।
आदमी ने अपने हाथों को ढूँढने के लिए नीचे देखा। उसने उन्हें कंधों से लटका पाया। उसे आश्चर्य हुआ कि अपने हाथों के होने को देखने के लिए आँखों का उपयोग करना पड़ रहा है। हाथों को उसने तेजी से हिलाना शुरू कर दिया, साथ ही दस्ताने में फँसी हथेलियों को जोर-जोर से पीठ पर मारने लगा। वह पाँचेक मिनिट तक पूरी शक्ति से तब-तक यह करता रहा, जब तक उसके फेफड़ों ने रक्त प्रवाह बढ़ा कर शरीर का कंपन बंद नहीं किया। इसके बाद भी उसके हाथों में जान का जरा-सा भी आभास नहीं हुआ। उसे लगा जैसे उसके कंधों से वजन लटका है। इस अहसास को उसने अपने भीतर से दूर करना चाहा, लेकिन वह इसमें सफल नहीं हुआ। वह बना रहा।
एक धुँधली-सी मृत्यु का भय उसके अन्दर अचानक जाग गया। यह भय उंगलियों और पंजे के शीत से जमने का नहीं, हाथ और पैर खोने का ही नहीं, वरन् जीवन और मृत्यु के बीच घटते फासले का था। उसके पास बचने के अवसर बिल्कुल भी नहीं हैं। आतंकित हो वह तेजी से मुड़ा और धुँधली पगडंडी पर दौड़ने लगा। उसे दौड़ते देख कुत्ता भी उठा और उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। आदमी आतंकित हो अंधों की तरह तेजी से दौड़ रहा था। जीवन में इसके पूर्व वह कभी इतना भयभीत नहीं हुआ था। बर्फ पर दौड़ते हुए जब उसका भय कुछ कम हुआ तो उसे अपने आसपास सब कुछ दिखने लगा - बर्फीली नदी का तट, बीच-बीच में पड़े लकड़ी के डूंडे, पत्तीविहीन एस्पन वृक्ष और आकाश। दौड़ने से उसमें कुछ विश्वास लौटा। अब वह काँप नहीं रहा था। उसे लगा यदि वह लगातार दौड़ता रहे तो हो सकता है उसके बर्फीले पैरों से बर्फ पिघल कर बह जाए, और फिर दौड़कर वह लड़कों के पास कैंप भी तो पहुँच सकता है। उसे पूरा विश्वास था कि वह हाथ पैरों की कुछ उंगलियों के साथ अपने चेहरे का भी कुछ हिस्सा खो देगा, लेकिन कैंप में लड़के उसे बचा लेंगे। इस विचार के साथ ही एक दूसरा विरोधी विचार उसके मन में उठ रहा था, वह कभी भी, किसी भी हालत में कैंप में लड़कों के पास नहीं पहुँच सकेगा। कैम्प मीलों दूर था तथा देह का जमना शुरू हो चुका है और थोड़ी देर में वह पूरी तरह पत्थर हो जावेगा और मर जावेगा। इस दूसरे विचार को वह फिलहाल पीछे रखे था। और उस पर अधिक सोचना नहीं चाहता था। लेकिन यह विचार पूरी शक्ति से आगे आना चाहता था, लेकिन हर बार वह उसे पीछे धकेल कर कुछ और सोचने लगता था।
उसे अपने लगातार दौड़ते रहने पर आश्चर्य हो रहा था। आखिर ये वही पैर थे जो इतने बेजान हो चुके थे कि जिन पर खड़े होना भी उसके वश में न था और वह बर्फ पर गिर गया था। दौड़ते हुए भी उसे यही लग रहा था कि वह वास्तव में हवा में चल रहा है और उसक धरती से कोई संबंध नहीं है। उसने कभी बहते पारे को देखा था उसे आश्चर्य हुआ कि पारे को धरती पर बहते हुए कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ होगा जैसा वह अनुभव कर रहा है।
कैम्प में लड़कों के पास, दौड़कर पहुँचने के उसके सिद्धान्त में सबसे बड़ा दोष यह था कि उसके पास उतनी सहनशक्ति शेष नहीं थी। कई बार वह डगमगाया, लड़खड़ाया और फिर अंत में गिर गया। उसने जब उठने का प्रयास किया तो उससे उठते नहीं बना। उसे कुछ देर बैठकर आराम करना चाहिए। उसने निश्चय किया कि अगली बार बजाए दौड़ने के वह केवल चलेगा, बिना रुके चलता रहेगा। बैठे-बैठे जब उसकी साँस सम हुई तो उसने अपने आपको तरोताजा और ऊर्जा से भरा पाया। अब वह काँप नहीं रहा था। उसे अपनी सीने और पेट में पर्याप्त गर्मी भी लग रही थी। इसके बाद भी जब उसने गालों और नाक को छुआ तो वे पूरी तरह जमे और बेजान थे। दौड़ने मात्र से उनमें रक्त संचार नहीं होने वाला और न ही हाथ पैरों की गलन कम होने वाली है। तभी उसके मन में विचार कौंधा - कहीं शरीर के गलने की मात्रा बढ़ तो नहीं रही है। उसने इस विचार को दबाने के लिए कुछ और सोचना शुरू किया। वह आतंकित होने से बचना चाहता था, क्योंकि आतंक का परिणाम वह देख चुका था। किन्तु यह विचार बना रहा, तब-तक जब-तक उसके सामने अपनी बर्फ से पूरी तरह जम चुकी देह की कल्पना को उसने साकार नहीं कर दिया। यह बकवास है! पूरी तरह बेवकूफी भरी बकवास। इस पगलाने वाले विचार से बचने के लिए बदहवासी में वह पगडंडी पर फिर से दौड़ने लगा। बीच में थक जाने पर वह रुका, लेकिन फिर वही बर्फीली देह आँखों के आगे आ गई। वह फिर दौड़ने लगा।
उसकी इस सारी भागदौड़ में कुत्ता उसके पीछे-पीछे बराबरी से चल रहा था, दौड़ रहा था। जब वह दूसरी बार गिरा तो कुत्ता उसके सामने अपनी पूँछ से अगले पंजों को ढँककर उसे उत्सुकता से देखता बैठा रहा। कुत्ते को निश्चिंत और सुरक्षित देख वह क्रोध से उफन पड़ा और कुत्ते को गालियाँ तब तक बकता रहा, जब तक कुत्ते ने अपना सिर बर्फ से सटाकर अपने दोनों कान फैला नहीं दिए। इस बार आदमी में ठंड से काँपना जल्दी शुरू हो गया। बर्फ से हो रहे इस युद्ध में वह पराजित हो रहा था। शीत अपने हिम बाणों से उसके पूरे शरीर पर लगातार आक्रमण कर रही थी। पराजय का विचार आते ही वह डगमगा कर उठा और दौड़ने लगा। बमुश्किल वह सौ फिट ही दौड़ पाया होगा कि वह फिर लड़खड़ाया और सिर के बल गिर गया। यह उसका अंतिम प्रयास था। जब उसकी साँस बराबर हुई और उसने अपने पर काबू पा लिया तो वह किसी तरह बैठ गया और उसने पूरी गरिमा के साथ मृत्यु का सामना करने के बारे में सोचना शुरू कर दिया। हालाँकि गौरवपूर्ण मृत्यु का विचार सरलता से मन में न तो उठा और न ही उसे सहजता से उसने स्वीकारा। उसके मन में दरअसल यह विचार आया कि गईन कटी मुर्गी की तरह व्यर्थ दौड़कर वह अपने को केवल मूर्ख बना रहा है। बिना सिर की मुर्गी की उपमा ही उसे अपने भागने पर सही लगी। बहरहाल सच यही था कि उसका बर्फ का शिलाखंड हो जाना निश्चित है। अतः इस हिमानी मृत्यु को ढंग से ही स्वीकारना चाहिये। मन में उठे इस शांतिप्रद विचार के साथ ही उसे नींद का हल्का सा झोंका आया। नींद में मौत उसे एक सदि्वचार लगा। यह एक प्रकार से एनस्थेशिया (बेहोशी का इंजेक्शन) लेना था। बर्फ में जम जाना उतना कष्टप्रद अथवा बुरा नहीं है, जितना लोग कहते हैं, उसने सोचा। इससे कहीं अधिक घटिया और दुखदायी रास्ते हैं मृत्यु के पास जाने के।
उसने अपनी मृत देह को ढूँढते लड़कों को देखा। उसने अपने को अचानक उनके बीच पाया, जो पगडंडी पर उसे खोजते चले आ रहे थे। उनके साथ वह भी अपने शव की खोज में शामिल था। चलते-चलते उन्हें एक मोड़ मिला और वहीं मोड़ के बाद उसने अपने को बर्फ पर पड़े देखा। वह अपनी देह के साथ नहीं था। उसकी देह उसकी नहीं थी। वह देह से अलग उन लड़कों के साथ खड़ा अपनी देह को बर्फ में पड़ा देख रहा था। ठंड बहुत अधिक है, का विचार उसके मन में उस क्षण था। जब वह लौटकर अपने घर जाएगा तो लोगों को वास्तविक ठंड क्या होती है, बतलाएगा। वहाँ से बहते हुए वह सल्फर खाड़ी के अनुभवी बूढ़े के सामने पहुँच गया। वह उसे स्पष्ट देख रहा था। बूढ़ा आराम से पाइप पीता, गर्म कपड़ों की गर्माहट में आराम से था।
‘‘तुम बिल्कुल सही थे, बुढ़ऊ, तुम दरअसल सही थे'', उसने फुसफुसाकर सल्फर खाड़ी के बूढ़ से कहा।
और फिर आदमी को जोर से नींद का झोंका आया, जो उसके जीवन की सर्वाधिक संतोषप्रद और आरामदायक नींद थी। कुत्ता उसके सामने प्रतीक्षा में बैठा था। धीरे-धीरे बचा खुचा शेष दिन शाम में बदल गया। आग जलाने की वहाँ कोई कोशिश नहीं हो रही थी। कुत्ते ने किसी भी आदमी को इतनी देर तक, इस तरह बर्फ पर बैठे नहीं देखा था, जो आग जलाने का कोई प्रयास नहीं कर रहा हो। शाम जब गहराने लगी, तब आग की जरूरत महसूस करते कुत्ता अपने अगले पैरों को उठा-उठाकर गुर्राने लगा। आदमी उसे डाँटेगा इस उम्मीद में उसने अपने कान धरती पर फैला दिए, लेकिन आदमी शान्त रहा। कुछ देर बाद कुत्ते ने जोर-जोर से भौंकना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद वह आदमी के पास पहुँचा और तब उसे मृत्यु की गंध आई। मृत्यु को देख वह उल्टे पाँवों पीछे लौटा। कुछ देर बाद चमकते तारों भरे ठंडे आकाश के नीचे उसने आकाश की ओर मुँह करके जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। फिर वह मुड़ा और कैम्प की ओर जाने वाली पगडंडी पर चलने लगा जहाँ उसे आग और भोजन देने वाले उपस्थित थे।
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रचना समय अप्रैल 09 में पूर्व प्रकाशित. अनुमति से पुनर्प्रकाशित
रचना समय अप्रैल 09
संपादक - हरि भटनागर
सहयोग - बृजनारायण शर्मा
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