खुदा के दर्शन यशवन्त कोठारी हजरत मूसा ने एक अत्यन्त गरीब भेड़ चराने वाले गडरिये को निम्न प्रार्थना करते सुना- ‘‘ऐ खुदा आप कहां हैं ? म...
खुदा के दर्शन
यशवन्त कोठारी
हजरत मूसा ने एक अत्यन्त गरीब भेड़ चराने वाले गडरिये को निम्न प्रार्थना करते सुना-
‘‘ऐ खुदा आप कहां हैं ? मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं। मैं आपके जूते गांठ दूंगा। आपको अपनी बकरियों का दूध पिलाऊंगा।''
मूसा ने तुरन्त भेड़ चराने वाले को इस तरह बात करने पर डांटा। लेकिन तुरन्त खुदा ने मूसा को झिड़का-‘‘तुमने मेरे सच्चे सेवक को क्यों भगा दिया ?'' खुदा ने पैगम्बर मूसा को धर्म का आधार बताया और कहा- ‘‘मैं बीमार था तुम मुझे देखने नहीं आए। मैं भूखा था और तुमने मुझे खाना नहीं दिया।''
मूसा ने प्रति प्रश्न किया- ‘‘खुदा भला बीमार और भूखे कैसे हो सकते हैं ?'' खुदा ने पुनः कहा।
‘‘मेरा फलां बन्दा बीमार था। मेरा फलां बन्दा भूखा था। अगर तुम उनके पास जाते, उनकी मदद करते तो तुम वहां देख पाते।''
पैगम्बर मूसा की आंखें खुल गईं। वे दीन दुखियों की सेवा में लग गए।
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ओलिया का राज-पाट
यशवन्त कोठारी
निजामुद्दीन ओलिया और तत्कालीन सुल्तान एक-दूसरे को पसन्द नहीं करते थे। सुलतान ने दरगाह को मिलने वाली इमदाद पर रोक लगा दी। लेकिन निजामुद्दीन ने जनसहयोग से लंगर चलाया। सुलतान नाराज हो गया। मगर कुछ समय के बाद सुलतान गम्भीर रूप से बीमार हो गया। उसका पेशाब बन्द हो गया। सुलतान की मां जियारत करने ओलिया निजामुद्दीन की दरगाह पर आई।
हजरत निजामुद्दीन ने सुलतान को ठीक करने के लिए सम्पूर्ण राज-पाट के पट्टे की मांग की। राजमाता ने सुलतान को कहा। सुलतान ने सम्पूर्ण राजपाट निजामुद्दीन ओलिया के नाम कर दिया और शाही मोहर के साथ पट्टा लिख दिया। सुलतान के स्वास्थ में तुरन्त सुधार शुरू हुआ। प्रथम पेशाब का बर्तन तथाा पट्टा लेकर जब हजरत निजामुद्दीन के पास कारिन्दे पहुंचे तो हजरत ने राजपाट के पट्टे के टुकड़े-टुकड़े करके पेशाब के बर्तन में फेंक दिए और कहा-
‘‘दरवेशों के लिए राज-पाट का महत्त्व इतना ही है।'' और हजरत खुदा की इबादत करने में मसरूफ हो गए।
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अच्छा पैसा
यशवन्त कोठारी
महात्मा अबुल अब्बास ईश्वर में आस्था रखते थे। वे टोपी सीं कर अपना जीवन यापन करते थे। एक टोपी की आय में से आधी आय किसी याचक गरीब को देते तथा आधी आय से स्वयं का गुजारा करते थे।
अबुल अब्बास का एक धनी पर घमण्डी शिष्य था, उसने एक दिन महात्मा से पूछा- ‘‘भगवन् मेरे पास कुछ धर्मादे का पैसा है, मैं इसे दान करना चाहता हूं।''
महात्मा ने कहा- ‘‘जिसे सुपात्र समझो उसे ही दान कर दो।'' धनी शिष्य ने एक अन्धे भिखारी को एक स्वर्ण मोहर दान में दे दी। दूसरे दिन धनी शिष्य पुनः उसी मार्ग से गुजरा तो देखा अन्धा भिखारी दूसरे भिखारी को कह रहा था-‘‘कल मुझे भीख में मोहर मिली, मैंने उससे खूब मौज-एश किया।'' धनी शिष्य को सुनकर बड़ा दुःख हुआ। वह पुनः फकीर अबुल अब्बास के पास गया और पूरी बात कह सुनाई। महात्मा ने उसे अपनी कमाई का एक सिक्का दिया और कहा-‘‘इसे किसी याचक को दे देना।''
शिष्य ने पैसा एक याचक को दिया और कौतूहलवश याचक के पीछे चला गया। उसने देखा कि याचक एक निर्जन स्थान पर गया और अपने कपड़ों में छुपे मृत पक्षी को निकाल कर फेंक दिया। धनी शिष्य ने पूछा कि तुमनेइस पक्षी को क्यों फेंक दिया ? तो याचक बोला-‘‘तीन दिन से मेरा परिवार भूखा था, आज हम इसी पक्षी का सेवन करते, मगर आपने मुझे एक सिक्का दे दिया अब इस पक्षी की मुझे जरूरत नहीं है।''
धनी शिष्य वापस हजरत अबुल अब्बास के पास आया और पूरी कहानी सुना दी। तब फकीर बोला-
‘‘स्पष्ट है कि तुम्हारा धन अन्याय और गलत विधि से कमाया गया है और इसी धन को तुमने अन्धे भिखारी को दिया परिणाम स्वरूप उसने धन का गलत उपयोग किया। जबकि मेरे द्वारा न्याय से कमाये गए एक पैसे ने एक परिवार को गलत काम से बचाया। अच्छे पैसे से ही अच्छा काम होता है।''
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लेखक का त्याग
श्यशवन्त कोठारी
वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिद्ध सन्त चैतन्य महाप्रभु का गृहस्थाश्रम चल रहा था। वे नाव से कहीं जा रहे थे। हाथ में अपनी लिखी न्याय सम्बन्धी पुस्तक की पाण्डुलिपि थी। नाव पर उनके बालसखा श्री रघुनाथ पंडित भी थे। बातचीत में ग्रन्थ की चर्चा चल पड़ी। निमाई पंडित (चैतन्य प्रभु का नाम) पुस्तक के अंश सुनाने लगे। अंश सुन-सुनकर रघुनाथ का दुःख बढ़ता गया। निमाई पंडित ने कारण पूछा तो बोले-‘‘भाई, मैंने बड़े परिश्रम से दीधीति नामक न्याय-विषयक ग्रन्थ लिखा है, मगर तुम्हारे ग्रन्थ के सामने मेरी पोथी बेकार है ?'' इसी वेदना से मुझे दुःख हो रहा है।
निमाई पंडित ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘इस साधरण सी बात से तुम दुःखी हो मित्र। तुम्हारे सुख के लिए मेरे प्राण भी प्रस्तुत हैं, इस पोथी का क्या है ?'' यह कहकर निमाई पंडित ने वषोंर् की साधना स ेतैयार अपना न्याय विषयक ग्रन्थ गंगा में बहा दिया। रघुनाथ पंडित का दीधीति ग्रन्थ आज भी इसी कारण श्रेष्ठ है।
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सज्जन का स्वभाव
यशवन्त कोठारी
एक महात्मा नदी में खडे़-खड़े स्नान कर रहे थे। तभी देखा कि एक बिच्छू जलधारा मे बहा जा रहा है। उन्होंने उसे बचाने के लिए हाथ में उठा लिया। बिच्छू ने तुरन्त अपने स्वभाव के अनुसार हाथ पर डंक मारा, हाथ हिला और बिच्छू वापस जल में गिर गया। महात्मा ने बिच्छू को पूनः उठा लिया। बिच्छू ने पुनः डंक मारा और जल मे गिर गया। एक शिष्य ने पूछा-‘‘आप बार-बार बिच्छू को क्यों बचा रहे हैं ?''
महात्मा बोले-‘‘वत्स। बिच्छू का स्वभाव डंक मारना है और मेरा स्वभाव इसे बचाना है। जब यह कीडा अपना स्वभाव नहीं छोड़ता तो मैं अपना मानवीय स्वभाव कैसे छोड़ दूं। सज्जन का स्वभाव तो बचाना ही है। ''
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मृत्यु शाश्वत सत्य है
यशवन्त काठारी
किसा गौतमी का इकलौता पुत्र मर गया था। वह पगला गई और पुत्र को पुनः जिलाने की प्रार्थना के साथ भगवान बुद्ध के चरणों में गिर पड़ी। भगवान बुद्ध ने कहा-
‘‘मैं तुम्हारे बच्चे को जिला दूंगा। तुम गांव में जाकर कुछ सरसों के दाने ऐसे घर से मांग लाओ, जिस घर में आज तक कोई मृत्यु नहीं हुई हो।''
गौतमी बच्चे के मृत शरीर को अपने सीने से चिपकाये घर की तरफ दौड़ पड़ी, मगर हर घर में कभी-न-कभी किसी न किसी की मृत्यु हो चुकी थी। किसा को किसी घर से सरसों के दाने नहीं मिल सके। हर घर से एक ही जवाब मिला तो किसा गौतमी को समझ आया कि जो जन्मता है वह मरता है। मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य है जो अटल है। उसने बच्चे का दाहकर्म किया और भगवान बुद्ध की शरण में आ गई। भगवान बुद्ध ने कहा-
‘‘हम सब मरेेंगे। हमें जन्म मरण से मुक्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। जब जन्म ही नहीं होगा तो मृत्यु स्वयं ही मिट जाएगी।''
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आगे कौन हवाल!
यशवन्त कोठारी
श्रृंगार के अप्रतिम कवि बिहारी आमेर गए। आमेर के राजा सवाई जयसिंह एक नई, कम उम्र की रानी ब्याह लाये थे ओर रानी के रूप, सौन्दर्य में ऐसे मगन थे कि राज-काज सब भूल गए थे। सरकारी काम-काज ठप्प हो गया था। सभी मंत्री चिंतित थे, मगर कुछ करने में असमर्थ थे। बिहारी को प्रमुख मंत्री ने सब जानकारी दी और कवि से प्रार्थना की कि राजा को पुनः राज-काज की ओर प्रेरित करने का प्रयास करें। राजा को रनिवास से बाहर निकालने का कोई उपाय करें।
बिहारी रससिद्ध कवि थे, उन्होंने तत्काल सम्पूर्ण व्यवस्था का आकलन करके निम्न दोहा लिख कर राला के पास भिजवा दिया।
नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।
अली कली ही सौं बंध्यौ, आगे कौन हवाल ॥
राजा जयसिंह के पास ज्योंही बिहारी का यह दोहा पहुंचा, इस सरस उपदेश से राजा की आंखें खुल गईं। ‘आगे कौन हवाल' पद का गूढ़ार्थ समझकर राजा पुनः राज-काज में प्रवृत्त्ा हो गए तथा कवि बिहारी को स्वर्ण मुद्राओं से नवाजा गया।
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बुढ़ापा
यशवन्त कोठारी
पं․ नेहरू से एक वृद्ध व्यक्ति ने पूछा-‘‘ पंडित जी आप भी सत्त्ार के हैं और मैं भी। लेकिन क्या कारण है कि आप तरोताजा और जवान दीखते हैं और मैं बुढ्ढा।
नेहरू ने मुस्कराते हुए कहा-
‘‘तीन बातें हैं - पहली, मैं बच्चों से हिल मिल जाता हूं। इन्हें प्यार करता हूं और उनकी मासूमियत में जीवन की ऊर्जा पाता हूं। दूसरी बात हिमालय में मेरा मन बसता है। मैं प्रकृति का प्रेमी हूं और तीसरी बात ये है कि मैं छोटी-छोटी तथा ओछी बातों से ऊपर उठ सकता हूं और इसी कारण मेरी सेहत और मेरे विचार ढीले-ढाले नहीं हो पाते। मैं चुस्त-दुरुस्त और तंदुरुस्त रहता हूं।''
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सन्तन को कहा सीकरी सों काम
यशवन्त कोठारी
अष्ट छाप के प्रसिद्ध कवि कुंभनदास के कीर्तनों की ख्याति सम्राट अकबर के कानों तक भी पहुंची। असने कुंभनदास को बुलाने हेतु पालकी भेजी। बादशाह की आज्ञा सुनकर कुंभनदास को कष्ट हुआ। वे बोले-‘‘मैं साधारण मनुष्य हूं। बादशाह के यहां चलकर मैं क्या करूंगा ?''
‘‘हमें आदेश है और आपको चलना पड़ेगा।''
आज्ञा सुनकर कुंभनदास चलने को राजी हो गए। बोले-‘‘मैं पैदल ही चलूंगा। पालकी पर नहीं।'' और कुंभनदास पैदल ही बादशाह के पास पहुंचे। बादशाह अकबर उन्हें देखकर खुश हुआ बोला-
‘‘आप बहुत सुन्दर पद गाते हैं। मुझे भी सुनायें।'' कुंभनदास जले-भुने थे। बादशाह की अप्रसन्नता की परवाह न करते हुए गा बैठे।
सन्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पन्हैया टूटी, बिसरि गयो हरिनाम ॥
जाको मुख देखें दुःख लागै, ताको करनो पर्यो प्रणाम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिना, और सबै बेकाम ॥
बादशाह अकबर कुंभनदास की व्यथा समझ गए। कुंभनदास वापस प्रभु श्रीनाथजी की शरण में आ गए।
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दोष मत देखो
यशवन्त कोठारी
भगवान महावीर से एक शिष्य ने प्रणाम कर देशाटन की आज्ञा मांगी। महावीर ने धीर गम्भीर वाणी में पूछा-
‘‘वत्स! संसार में सभी प्रकार के लोग रहते हैं। बुरे लोग तुम्हें गाली देंगे। तुम्हारी निन्दा करेंगे।''
शिष्य बोला-‘‘भगवन! मैं समझ लूंगा कि वे अच्छे हैं, कम-से-कम उन्होंने मुझे मारा तो नहीं।''
महावीर-‘‘लेकिन वे तुम्हें मार भी सकते हैं।''
शिष्य-‘‘ तो भी मैं उन्हें भला ही समझूंगा क्योंकि वे मुझे लाठी से नहीं मारते।''
महावीर-‘‘कुछ लोग लाठी से भी मार सकते हैं।''
शिष्य-‘‘वे भी भले लोग ही होंगे क्योंकि वे हथियारों से नहीं मारते।''
महावीर-‘‘लेकिन चारे-उचक्के भी होते हैं, वे तुम्हें जान से भी मार सकते हैं।''
शिष्य-‘‘प्रभु! यह तो उनकी कृपा होगी क्योंकि अधिक जीवन यानी अधिक दुःख और आत्महत्या तोे पाप है, यदि कोई मार दे तो कृपा है।''
अब महावीर ने कहा-
‘‘वत्स! तुम परीक्षा में सफल हुए। सच्चा साधु-सन्त या संन्यासी वही है जो कभी भी बुरा नहीं सोचता। वह सबका भला ही चाहता है। तुम देशाटन के सर्वथा योग्य हो, प्रस्थान करो वत्स।''
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गरीब का अश्वमेध यज्ञ
यशवन्त कोठारी
महाभारत युद्ध की समाप्ति पर युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर वहां पर एक नेवला आया जिसका आधा शरीर सोने का था। नेवला मनुष्य की बोली में बोला-‘‘एक गरीब ब्राह्मण कई दिनों से भूखा था, एक रोज उसे कुछ गेहूं के दाने मिले। उसने उस गेहूं का सत्त्ाू बनाया- वह भोग लगाकर खाने बैठा था कि एक अतिथि आ गया। वह अतिथि बहुत भूखा था, ब्राह्मम ने अपना, अपनी पत्नी, पुत्र सभी का भाग ब्राह्मण को दे दिया और सब भूखे रह गए। नेवला आगे बोला-‘‘मैं उस सत्त्ाू के कुछ चूरे पर लोटा तो मेरा आधा भाग सोने का हो गया। अब मेैं महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ की भूमि में लोटने आया हूं ताकि मेरे शरीर का शेष भाग भी सोने का हो जाय।'' यह कहकर नेवला यज्ञ भूमि में लोट लगाने लगा। मगर उसके शरीर का शेष भाग सोने का नहीं हुआ। नेवला समझ गया कि गरीब ब्राह्मण के अनाज का मुकाबला सम्राट युधिष्ठिर का अश्वमेध यज्ञ भी नहीं कर सकता।
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जीव-दया
यशवन्त कोठारी
भगवान महावीर से गौतम ने पूछा-
‘‘भंते शाश्वत धर्म क्या है ?''
महावीर बोेले-‘‘अहिंसा शाश्वत धर्म है।''
गौतम-‘‘अहिंसा से किसकी रक्षा होती है ?''
महावीर-‘‘सब प्राणियों की रक्षा अहिंसा से होती है।''
‘‘किसी प्राणी पर शासन मत करो, उसे गुलाम मत बनाओ। किसी को दास-दासी मत बनाओ। किसी भी प्राणी को परेशान मत करो। किसी के भी प्राणों को मत हरो। यही जीव-दया है। शाश्वत सत्य है।''
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जीवन का आधार
श्यशवन्त कोठारी
ऋषि से गृहस्थाश्रमगामी शिष्य ने पूछा-‘‘गुरुजी, कृपया बतायें कि जीवन में प्रमुख क्या है ?''
ऋषि ने सहज होकर कहा-‘‘प्रेम, ज्ञान, करुणा, दया और उदारता से जीवन में आनन्द पाया जा सकता है।''
ऋषि ने फिर कहा-
‘‘प्रेम के आधार से जीवन जीने योग्य होता है। प्रेम से प्रेम करो। अकेलापन भाग जाएगा। सारे संसार को अपना समझो। ज्ञान से प्रेरणा प्राप्त करो। जीव को जानो, जगत को जानो और ब्रह्मा को जानो। करुणा और दया के बिना काम नहीं चलता। प्राणियों तक पहुंचने का मार्ग है करुणा और दया। और उदारता के बिना कैसा जीवन। छोटी और ओछी बातों से ऊपर उठो। हो सके तो तृष्णा और क्रोध को जीतने का प्रयास करो। वत्स! गृहस्थ जीवन में इन्हीं बातों का महत्त्व है।''
वत्स ने गुरुजी की आज्ञा मान गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया।
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दीपक
यशवन्त कोठारी
अस्ताचलगामी सूर्य अपने सम्पूर्ण आवेश के साथ चल रहा था। सूर्य के रथ के अश्व भी थक गए थे। अपना अवसान समीप जानकर अचानक सूर्य के मन में विचार आया-
‘‘मेरे मरने के बाद संसार को आलोकित कौन करेगा ? क्या होगा विश्व का ? क्या दुनिया में सर्वत्र अंधकार ही व्याप्त हो जाएगा।'' सूर्य ने अपनी चिन्ता सभी के सामने रखी। सब नतमस्क, मौन, अचानक नन्हें दीपक ने कहा-
‘‘महाराज, क्षमा। आपके बाद इस विश्व को मैं आलोकित करूंगा। अन्धकार को अपने तले रखकर विश्व को प्रकाश दूंगा।'' सूर्य देवता नििश्ंचत होकर पृथ्वी की गोद में सो गए।
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सर्वस्व दान
यशवन्त कोठारी
भगवान महावीर नगर में विहार कर रहे थे। श्रेष्ठी वर्ग ने श्रेष्ठतम वस्त्र, आभूषण, हीरे-मोती, जवाहरात उनके पात्र में डाले। मगर प्रभु ने सब कुछ वहीं फेंक दिया। नगर की बाहरी सीमा में आने पर एक अत्यन्त गरीब स्त्री ने प्रभु को देखा, एक पेड़ की ओट में होकर उस स्त्री ने अपने शरीर का एकमात्र अधोवस्त्र उतार कर प्रभु के पात्र में डाल दिया। प्रभु ने वस्त्र को अंग वस्त्र के रूप में पहन लिया। यह देखकर शिष्य ने पूछा-
‘‘भगवन् श्रेष्ठतम दान को छोड़कर आपने यह जीर्ण शीर्ण अधोवस्त्र क्यों स्वीकार कर लिया।''
प्रभु ने मुस्कराते हुए कहा-
‘‘वत्स! इस स्त्री ने अपना सर्वस्व मुझे दान कर दिया, जबकि नगर के श्रेष्ठी वर्ग ने अपने वैभव का एक अत्यन्त अल्प भग ही दान में दिया था। सर्वस्व दान तो अत्यन्त दुर्लभ है और इसी कारण मैंने दुर्लभ वस्त्र को धारण किया है।''
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संघ में रहो
श्यशवन्त कोठारी
भगवान बुद्ध अपने संघ के साथ विहार कर रहे थे। संघ के एक तरुण सदस्य ने भ्रमण की आज्ञा मांगी। भगवान बुद्ध ने उसे ज्यादा आग्रह करने पर अनुमति प्रदान की। शिष्य ने घूमने के बाद एक सुन्दर, रमणीक, मनोरम स्थान पर योगाभ्यास करने की ठानी। शिष्य ने योगाभ्यास प्रारम्भ किया, मगर उसका मन योग, संन्यास में नहीं लगा। वह वापस भगवान के पास पहुंचा और बोला-
‘‘प्रभु ! मैंने ज्यों ही उस रमणीक स्थल पर ध्यान लगाने की चेष्टा की। मेरे मन मेें काम, क्रोध, मोह, हिंसा व वितकोंर् ने जन्म लेना शुरू कर दिया। मैं इन कुविचारों से स्वयं को रोक नहीं सका, कृपया मुझे इनसे बचने का रास्ता दिखाएं।''
प्रभु ने शांत चित्त्ा होकर कहा-
‘‘वत्स! जब तक मन में वैराग्य दृढ़ नहीं हो जाता है तब तक अकेले नहीं रहना चाहिए। अकेले में मन में तृष्णा और वितर्क पैदा होते हैं। संघ में रहो। संघ में रहकर मनुष्य अपने विचारों को विकृत होने से बचा सकता है।'' शिष्य पुनः संघ में लौट आया।
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सच्चाई का मजाक
यशवन्त कोठारी
1922 में पंडित जी अपने अनेक साथियों के साथ लखनऊ जेल में थे। एक दिन पंडित मोतीलाल नेहरू जेल का मुआयना करने गए तो रो पड़े। जवाहर लाल ने सांतवना देते हुए कहा-‘‘यहां दिन मजे से कट रहे है, आजकल तो मैं लोगों को फ्रेंच भाषा पढ़ा रहा हूं।''
फ्रेंच भाषा पढ़ने वाले सभी साथी नेहरू जी केा ‘बरगू' मास्टर कहा करते थें। महावीर त्यागी जी एक ऐसे छात्र थे, जिनका फ्रेंच उच्चारण शुद्ध नहीं होता था, इसलिए नेहरू जी अकसर उन्हें ‘डेमफूल' कहते थे। 1924 में उन्हें ‘चुगत' कह कर बुलाने लगे, इस प्रकार ‘बेवकूफ', ‘बदतमीज', ‘अनमैनरली' आदि उपाधियों से उन्हें विभूषित किया गया।
यहां तक त्यागी जी जब मंत्रिमंडल में शामिल हुए, तब भी उन्हें यदाकदा ये विशेषण सुनने पड़ते थे, अचानक जब वे मंत्रिमंडल से हट गए, तब त्यागी जी मिस्टर त्यागी के नाम से पुकारे जाने लगे, यहां तक कि बातचीत के दौरान ‘तुम' शब्द आप में परिवर्तित हो गया।
आखिर एक दिन त्यागी जी बिगड़ पड़े, ‘‘ अब तो मेरा तुम्हारा रिश्ता ही बदल गया, पहले आप ‘ तुम बेवकूफ हो' कहा करते थे और अब मैं ‘आप' ‘मि․ त्यागी' बन गया हूं।'' मुस्कराते हुए नेहरू जी बोले-‘‘क्या तुम्हें बेवकूफ कहलाना अधिक पसंद
है।''
‘‘हां, उसमें मुहब्बत और प्यार की बू आती थी।''
प्यार से देखते हुए नेहरूजी ने कहा -‘‘भाई, मुझे माफ करना, मैंने बेवकूफ कहना इसलिए बंद कर दिया था कि सच्चाई का मजाक तीखा होता है।'' इतना कहना था कि त्यागी जोरों से ठहाका मार कर हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए।
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यशवन्त कोठारी
86,लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर
जयपुर 302002 फोन 2670596
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