इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि कृषि प्रधान देश में अनुमानित लक्ष्य से ज्यादा अन्न उत्पादन न केवल समस्या बन जाए, बल्कि उसके...
इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि कृषि प्रधान देश में अनुमानित लक्ष्य से ज्यादा अन्न उत्पादन न केवल समस्या बन जाए, बल्कि उसके खुले में पड़े रहने के कारण सड़ने की नौबत आ जाए। ऐसे ही हालात से रुबरु होकर ‘वी द पीपुल' नामक गैर सरकारी संगठन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल की। इस याचिका में लखीमपुर खीरी में एक हजार से भी ज्यादा बोरी जो गेहूं बारिश की वजह से सड़ गया था, उसे सचित्र साक्ष्यों के साथ न्यायालय में पेश किया गया और सरकार को अनाज के उचित भण्डारण के लिए न्यायालय से निर्देश देने की अपेक्षा की गयी थी। न्यायालय ने इस मामले की संवेदनशील मानवीय जरुरत को समझा और एक कदम आगे बढ़कर भारतीय दण्ड संहिता का दायरा बढ़ा दिया। इसके अनुसार अब अनाज की बर्बादी पर सार्वजनिक संपत्ति को हानि पंहुचाने संबंधी धाराओं के तहत जिम्मेबार सरकारी अधिकारियों पर मुकदमा पंजीबद्ध किया जा सकेगा। यह कार्रवाई आर्थिक अपराध शाखा करेगी। सार्वजनिक संपत्ति की बर्बादी को नए सिरे से परिभाषित कर उसमें अनाज को जोड़ते हुए नौकरशाहों की जिम्मेदारी तय करके उच्च न्यायालय ने देश के लिए एक नजीर पेश की है।
उत्तरप्रदेश में करीब 35 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने को विवश है। पूरे देश में ऐसी करीब 30-32 करोड़ आबादी है, जिसे ठीक से दो वक्त की रोटी नसीब नहीं हो पाती और 47 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में हैं। ऐसी एक दयनीय हालत का हवाला याचिकाकर्त्ता वी द पीपुल के वकील प्रिंस लेनिन ने अदालत में दिया। इस बावत कहा गया कि राज्य में हाल ही में तीन बच्चे भुखमरी का शिकार हुए हैं। जबकि सरकार किसानों से जो गेंहू खरीदती है, उसका बड़ा हिस्सा खुले में भगवान भरोसे पड़ा रहता है, जो बारिश के कारण बर्बाद हो जाता है। और यह अनाज इंसान की रोटी बनने की बजाय सड़ा - गलाकर नालियों में बहा दिया है। दिल दहला देने वाली इस पीड़ा के बरक्स न्यायमूर्ति देवीप्रसाद सिंह और सतीशचंद्र की संयुक्त पीठ ने आईपीसी का न केवल दायरा बढ़ाया बल्कि उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार को भी हिदायत दी की वह अनाज के भंडारण का उचित प्रबंध करे।
इस साल 842 लाख टन अतिरिक्त खाद्यान्न का उत्पादन हुआ है। यदि खाद्य और सार्वजनिक मंत्री केवी थॉमस की बात सही मानें तो इस समय उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में 66 लाख टन गेंहू खुले में पड़ा है। जबकि गैर-सरकारी सूत्रों पर भरोसा करें तो इस गेंहू की मात्रा 270 लाख टन है। यह आंकड़ा इसलिए भरोसे का लगता है क्योंकि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों की भण्डारण क्षमता महज 664 लाख टन की है। जाहिर है हकीकत पर पर्दा डाला जा रहा है। इस 66 लाख टन अनाज को चबूतरों पर बोरियों के ढेर लगाकर पोलीथीन से ढक दिया गया है, जो कि सुरक्षित भण्डारण का मान्य उपाय नहीं है। लिहाजा खाद्य मंत्रालय चाहता है कि ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश मनरेगा के तहत ग्राम पंचायत स्तर पर भण्डार-गृहों का निर्माण कराएं। जिससे स्थानीय स्तर पर ही अनाज का भण्डारण हो सके। दूसरी तरफ केवी थॉमस ने प्रधानमंत्री को सलाह दी है कि सरकारी समर्थन मूल्य पर गेंहू-चावल खरीदी के लक्ष्य को घटा दें। मसलन थॉमस चाहते हैं कि समर्थन मूल्य पर महज 250 लाख टन के करीब गेंहू-चावल खरीदे जाएं। बांकी अनाज को बाजार के हवाले छोड़ दिया जाए। सरकार न्यूनतम मूल्य का निर्धारण तो 25 फसलों का करती है, लेकिन खरीदती केवल गेहूं और चावल ही है। यही वजह है कि किसान इन फसलों के उत्पादन में दिलचस्पी लेता है। इसी वजह से गेहूं-चावल का देश में रिकार्ड उत्पादन संभव हो सका है। थॉमस की इस दलील को इसलिए नकारा जाना चाहिए क्योंकि यदि सरकार गेंहू-चावल जैसी फसलों की खरीद बंद कर देगी तो इनका उत्पादन भी प्रभावित होगा।
दूसरी तरफ इस गेंहू को ठिकाने लगाने का फौरी उपाय निर्यात करना भी है। निर्यात में जबरदस्त घाटा उठाया जा रहा है। ईरान को 20 लाख टन गेहूं का निर्यात 778 रुपये िक्ंवटल के घाटे पर किया जा रहा है। दरअसल भारत सरकार को यह हानि इसलिए उठानी पड़ रही है, कयोंकि वह यह लाभ केवल विदेशी आयातकों को ही देना चाहती है। भारतीय निर्यातकों को यदि गेहूं निर्यात के लिए बुलाई आमंत्रण निविदा में शामिल किया जाता तो यह स्थिति निर्मित नहीं होती। ये निविदाएं राज्य व्यापार निगम के जरिए केंद्रीकृत व्यवस्था के अंतर्गत मांगी गईं। विदेशी आयातकों को सरकार कितने खुले हाथों से लूट की छूट दे रही है, यह इस बात से भी साफ होता है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं बंदरगाह पर ही उपलब्ध कराएगी। ज्यादातर गेंहू कांडला बंदरगाह से ईरान व अन्य देशों के लिए जहाजों पर लादा जाएगा। मसलन सरकार ने जो गेहूं 18,220 रुपये प्रति टन की लागत से खरीदा है। इसे बंदरगाह तक पहुचाने में 1,460 रुपये प्रति टन अतिरिक्त खर्च आएगा। यानि गेहूं का प्रति टन लागत मूल्य हो जाएगा 19,680 रुपये प्रतिटन। विदेशी आयातकों द्वारा बुलाई दरों में जो दर निगम ने मंजूर की है, वह है, 8,400 रुपये प्रति टन। जाहिर है सरकार को प्रति टन 11,280 रुपये की हानि उठानी होगी। यह राशि सरकार बतौर सब्सिडी देगी। जबकि सरकार इस खाद्यान्न को यदि भूखे, कम भूखे और कुपोषितों को उपलब्ध कराती तो इस खाद्यान्न से हरेक भारतीय नागरिक को 2200 कैलोरी उर्जा प्रतिदिन हासिल कराई जा सकती है। ऐसा यदि भारत सरकार करती है तो वह उस कलंक से भी छुटकारा पा लेगी, जिसके जरिए भूखे व कुपोषित 81 देशों की सूची में भारत 67 वें स्थान पर है।
अनाज के ज्यादा उत्पादन पर भारत सरकार को गर्व के साथ किसानों की पीठ थपथपाने की जरुरत थी, किंतु वह अपनी गलतियों और केंद्रीकृत अनाज भण्डारण की प्रणाली के चलते अनाज सड़ाने के काम में लगी है। सरकार को जरुरत है कि वह राज्य स्तर से लेकर ग्राम पंचायत स्तर तक विकेंद्रीकृत भण्डारण की जवाबदेही सौंपे। गेंहू उत्पादन में भारत अब चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। लिहाजा उसे गेंहू उत्पादन व भण्डारण को प्रोत्साहित करने की जरुरत है। सरकार प्रति वर्ष 484 रुपये प्रति िक्ंवटल खाद्यान्न, फल और सब्जियों के रखरखाव पर खर्च करती है। लेकिन भण्डारण में किसान की कोई भूमिका तय नहीं है। यदि सरकार किसान के पास ही सुरक्षित रखने के लिए आर्थिक मदद करे तो इस उपाय से न केवल उचित भण्डारण होगा, बल्कि अन्नदाता किसान फसल की हिफाजत अपनी संतान की तरह करेगा। क्योंकि उसके द्वारा उपजाये अनाज में खून-पसीने की मेहनत लगी होती है।
खाद्य मंत्रालय भी चाहता है कि मनरेगा के माध्यम से पंचायत स्तर पर भण्डार घरों का निर्माण बड़ी तादाद में कराया जाए। साथ ही ग्राम पंचायत के तहत ही किसान समूह बनाकर उन्हें भण्डारण की जिम्मेबारी सौंप दी जाए। पंचायत स्तर पर भूमि अधिग्रहण की समस्या भी नहीं रहेगी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के इसी गेंहूं-चावल को सीधा उठाकर वितरण किया जा सकेगा। इससे अनाज लदाई, ढुलाई के खर्च और यातायात में होने वाले छीजन से भी मुक्ति मिलेगी। सरकार को इस रखरखाव में अतिरिक्त धनराशि व्यवस्था करने की भी जरुरत नहीं है। क्योंकि जो राशि सरकार 484 रुपए प्रति िक्ंवटल खाद्यान्न के रखरखाव पर खर्च करती है, वही किसान को दे दी जाए। इस व्यवस्था से किसान की माली हालत में सुधार आएगा और उसे आर्थिक संकट के चलते आत्महत्या करने की जरुरत नहीं पड़ेगी। बहरहाल अदालत ने अनाज बर्बादी के लिए नौकरशाहों को दण्ड का जो प्रावधान किया वह उन्हें अब मजबूर कर सकता है कि वे अनाज भण्डारण की विकेंद्रीकृत प्रणाली वजूद में लाएं।
प्रमोद भार्गव
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
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