हीरालाल प्रजापति की ग़ज़लें

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ग़ज़ल 32 क़ुतुब मीनारें लाओ या एफिल टावर लाओ II सब ठिगने सब  बौने  कोई  कद्दावर लाओ II अब बन्दर मत स्वाद जानने अदरख का रखना , पत्थर  में   ही...

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ग़ज़ल 32
क़ुतुब मीनारें लाओ या एफिल टावर लाओ II
सब ठिगने सब  बौने  कोई  कद्दावर लाओ II


अब बन्दर मत स्वाद जानने अदरख का रखना ,
पत्थर  में   हीरा  तलाशने  दीदावर  लाओ II


गर्दन दुश्मन की उतारने  चक्कू छुरी नहीं ,
फरसे तलवारों को पैना करवाकर लाओ II


कुछ चीजें सोना-माटी जिस मोल मिलें ले लो ,
कुछ सामान भाव -ताव कर ठहराकर लाओ II


इतना शर्मीला है जो कि चड्डी पहन हगे ,
उसको बेहोशी में भी मत नन्गाकर  लाओ II


[ दीदावर=पारखी ,जोहरी  ]

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ग़ज़ल 33  

गर्म  दोपहर  को  बर्फानी  माहताब   रहूँ II

सर्द  रातों  को  गर्मागर्म  आफताब  रहूँ II

 

अपनी तासीर है ऐसी कि प्यासे को पानी ,

सख्त मैकश को बियर व्हिस्की रम शराब रहूँ II

 

उनकी चोली नहीं कुरता न सही कम अज कम ,

उनकी चाहत में उनकी जूती या जुराब रहूँ II

 

जाने क्या है कि ज़माने को मैं जंचूं  लेकिन ,

उनकी नज़रों में सबसे बद -बुरा -ख़राब रहूँ II

 

खुद को भी मैं न मयस्सर हूँ एक पल के लिए ,

उनके हर हुक्म को हर वक्त दस्तयाब रहूँ II

[दस्तयाब=उपलब्ध ]

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ग़ज़ल 34

नाखुश  मैं  अपने  आप  से रहता हूँ आजकल II

अच्छा हूँ खुद को पर बुरा कहता हूँ आजकल II

 

कल  तक  मैं  सख्त  बर्फ  की सफ़ेद झील था ,

नीली नदी  की  धार सा  बहता  हूँ आजकल II

 

तूफ़ान को पहले मैं  हिमालय   की  तरह था ,

अब  रेत  के  घरौंदों  सा  ढहता हूँ आजकल II

 

चिढ़ता था तहे दिल से खुशामद से अपनी  मैं ,

सब गालियाँ भी प्यार से सहता हूँ आजकल II

 

तासीर  मेरी  कैसे  यकायक  बदल  गयी  ?

हीरा हूँ  मगर कांच से कटता  हूँ आजकल  II

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ग़ज़ल 35

पहले सी हम में तुम में मोहब्बत न अब रही II

इक दूसरे की दिल में वो इज्ज़त न अब रही II

 

गिन्नी में ओ दीनार में तुलते थे पहले हम ,

धेले की कौड़ी भर की भी इज्ज़त न अब रही II

 

इक दूसरे के बिन कभी रहना न था मुमकिन ,

इक दूसरे की कोई ज़रुरत न अब रही II

 

मुद्दत से सो रहे हैं सख्त पत्थरों पे हम ,

मखमल के बिस्तरों की वो आदत न अब रही II

 

इतना किया है हमने मुश्किलों का सामना ,

कोई भी मुसीबत हमें आफ़त न अब रही II

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ग़ज़ल 36

शायद  मेरे जैसा इस दुनिया  में  कोई और नहीं II

सबपे अपने अपने छत  हैं  मेरा   कोई ठौर नहीं II

 

डाकू चोर लुटेरों की इस दुनिया में न कोई कमी ,

लेकिन चित्त चुराने वाला कोई माखनचोर नहीं II

 

ज़र ज़मीन इंसान जानवर सच कहता हूँ फलक तलक ,

सब काबू में कर लोगे पर दिल पर कोई ज़ोर नहीं II

 

उसको छोटे छोटे कीट पतंगे साफ़ साफ़ दीखते ,

हम जैसों पर उसकी पैनी नज़रें करती गौर नहीं II

 

मनवाकर रहता है अपनी वो हर बात ज़माने से ,

एक हुक्मराँ  ही तो है वो चाहे सर पर मोर नहीं II

 

               [   ]

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ग़ज़ल 37

मुरझा चुका जो फूल दोबारा खिलेगा क्या ?

जो भस्म हो चुका वो कोयला जलेगा क्या ?

 

है जिसके पास खुद ही सख्त तंगी ओ कमी ,

इनकार के सिवाय मांगकर मिलेगा क्या ?

 

हाथी भी जहाँ छोड़ते हों अपने पसीने ,

चीटों  के ठेलने से वाँ पर्वत हिलेगा क्या ?

 

तलवार से भी जिसकी खाल उधड़ नहीं सकी ,

नाखून से उस आदमी का मुँह छिलेगा क्या ?

 

जिसने ज़मीन पर न कभी पाँव रखे हों ,

काँटों पे अंगारों पे वो पैदल चलेगा क्या ?

 

आते ही जिसके गुंचे लोग नोच के रख दें ,

बेशक वो पेड़ बाँझ नहीं पर फलेगा क्या ?

 

औलाद का जो पेट न भर पायें ठीक से ,

तोहफे में उनको कुत्ते का पिल्ला जमेगा क्या II

 

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ग़ज़ल 38

मुँह बनाकर मत उन्हें कुछ मुस्कुराकर देखना II

अपने रूठों को किसी दिन यूं मनाकर देखना II

 

हमने माना कि तेरे हम्माम का सानी नहीं ,

फ़िर भी इक दिन खुल के बारिश में नहाकर देखना II

 

जो तुझे बेज़ायका लगता है उसको इक दफ़ा ,

सिर्फ तगड़ी भूख लगने पर तू खाकर देखना II

 

ग़ोश्त हड्डीदार तू हलुए सरीखा चाब ले ,

एक रूखी सूखी रोटी भी चबाकर देखना II

 

घंटों जिम में वेटलिफ्टिंग तू किया करता है रोज़ ,

एक दिन परिवार का ज़िम्मा उठाकर देखना II

 

टूट पड़ते फाकाकश को देख जूठन पे न हँस ,

एक दिन तू निर्जला चुपके बिताकर देखना II

 

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ग़ज़ल 39

शाह   लगते   फ़कीर  होते  है II

कुछ ही दिल से अमीर होते हैं II

 

अपने साधे से निशाने न लगें ,

उनके तुक्के भी तीर होते हैं II

 

लाखों कवि हैं जहाँ में पर कितने ?

सूर , तुलसी , कबीर होते हैं II

 

जितने कहते हैं ग़ज़ल उनमें फ़क़त ,

चार ग़ालिब दो मीर  होते हैं II

 

अनगिनत लोग हैं बलशाली मगर ,

सच में गिनती के वीर होते हैं II

 

असली शतरंज में कहाँ प्यादे ,

दर हक़ीक़त वज़ीर होते हैं II

 

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ग़ज़ल 40

उड़ा दे  मुझको गोली से या चाकू  घोंप दे मुझको II

तू रख दे शर्त कोई पर तू खुद को सौंप दे मुझको II

 

भटकता फिर रहा हूँ बीहड़ों में ज़िन्दगानी के ,

न दे बेशक कोई मंज़िल दिखा दे रास्ते मुझको II

 

न करना याद रब दी सौं गिला कोई नहीं होगा ,

भुलाना भूलकर भी मत खुदा के वास्ते मुझको II

 

न ऐसे खिलखिला के मुझसे कर बातें तू लग लग के ,

तज़ुर्बे अब नहीं करना बिखरते ख़्वाब के मुझको II

 

मेरी गज़ भर ज़ुबां है मुझको ऐसा लोग कहते हैं ,

ग़ज़ल भी मैं कहूं तो आगे बढ़कर टोक दे मुझको II

 

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ग़ज़ल 41

इक हथकड़ी सा कांच का कंगन लगा मुझे II

आज़ादियों  का  तोहफ़ा  बंधन लगा मुझे II

 

इस तरह साफ़ हो रहे हैं पेड़ शहर से ,

दो गमले जहाँ पर दिखे गुलशन लगा मुझे II

 

तन्हाई दूर होगी ये आया था सोचकर ,

मेले में और भी अकेलापन लगा मुझे II

 

जब तक गरीब था कमाई में लगा रहा ,

बनकर अमीर सबसे बुरा धन लगा मुझे II

 

बच्चों के ऐसे तौर तरीक़े हैं आजकल ,

बचपन में एक ख़ास बूढापन लगा मुझे II

 

माँ की अलोनी रोटियों में भी जो स्वाद था ,

होटल का चटपटा भी न भोजन लगा मुझे II

 

पत्थर भी पिसा देखता भूखे की नज़र से ,

आटा  कभी लगा कभी बेसन लगा मुझे II

[   ]

COMMENTS

BLOGGER: 9
  1. भाई हीरा लाल जी .....आपकी पहली ग़ज़ल ही पढ़ रहा था कि इस शे'र से आगे जाने का मन नहीं किया ..

    इतना शर्मीला है जो कि चड्डी पहन हगे ,
    उसको बेहोशी में भी मत नन्गाकर लाओ II

    भाई जान ....आज ग़ज़ल इस लिए मकबूल है कि वो पूरी सदियों की दास्तान सर दो मिसरों में बयान कर देती है ....किसी आत को सलीके से कहना ही शाइरी है ....

    इतना शर्मीला है जो कि चड्डी पहन हगे ,.....ये सब क्या है भाई .....

    ग़ज़ल बड़ी सिन्फे -नाज़ुक है ...सिर्फ़ रदीफ़ क़ाफ़िया लगा लेना ग़ज़ल कहना नहीं है भाई ...शे'र का अपना मिज़ाज होता है ..उस्ताद शाइर तो ग़ज़ल में कुत्ता लफ्ज़ भी इस्तेमाल करने को एब मानते है ...

    बड़ी माज़रत के साथ ...कह रहा हूँ भाई ...ग़ज़ल से उसकी नफासत मत छीने ....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ग़ज़ल बड़ी सिन्फे -नाज़ुक है ...सिर्फ़ रदीफ़ क़ाफ़िया लगा लेना ग़ज़ल कहना नहीं है भाई ...शे'र का अपना मिज़ाज होता है ..उस्ताद शाइर तो ग़ज़ल में कुत्ता लफ्ज़ भी इस्तेमाल करने को एब मानते है ...

      आगे पढ़ें: रचनाकार: हीरालाल प्रजापति की ग़ज़लें http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_2106.html#ixzz20tj8Cs7Y

      हटाएं
    2. जनाब हीरालाल जी

      आपकी रचनाएँ आप ही का नहीं हम सब का दर बयां करती हैं
      और बेशक आप एक बड़े ही अच्छे रचयिता हैं ....
      सदैव सुभकामना आपके लिए ....
      आपकी रचनाओं से और मित्रों को अवगत कराऊंगा..

      अपना स्नेह बनाये रखियेगा और थोडा सा आशीर्वाद दीजियेगा
      अच्छा जी नमस्ते

      हटाएं
  2. बहुत सुंदर गजलें है ! लिखते रहें ! शुभकामनाऎं !

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रजापति जी 41 नंबर की ग़ज़ल बहुत अच्छी है । बाक़ी ग़ज़ल के शेर भी सुंदर हैं ।

    डॉ. मोहसिन खान
    अलीबाग (महाराष्ट्र)

    जवाब देंहटाएं
  4. बेनामी3:11 pm

    Hiralal jee Aapki gazalen sunder hain.

    जवाब देंहटाएं
  5. shishirkumar srivastava4:33 pm

    Aata kbhilga kabhi besan lga kabhi besan lga mujhe. vah bhee khoob kahi ---dhanyabad.

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: हीरालाल प्रजापति की ग़ज़लें
हीरालाल प्रजापति की ग़ज़लें
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