‘स्त्री की सच्चाई से पुरुषवर्चस्व डरता है' अगर में यह बात कहती हूँ तो ऐसा ही लगेगा जैसे कह रही हूँ कि राजा-प्रजा से डरता है। यह बात ...
‘स्त्री की सच्चाई से पुरुषवर्चस्व डरता है' अगर में यह बात कहती हूँ तो ऐसा ही लगेगा जैसे कह रही हूँ कि राजा-प्रजा से डरता है। यह बात झूठ भी नहीं। अब यह दीगर बात है कि मेरी बात का स्त्री-समाज के बहुलांश को भी विश्वास न हो। वे निश्चित ही विश्वास करना भी नहीं चाहेंगी क्यों कि बहुत सी सच्चाईयों को अपनी अन्दरूनी तहाँ में दबाकर ऊपर से लज्जा का पर्दा डाले रही हैं। और अपनी दिनचर्या में यह ढर्रा अम्दत में शुमार कर लिया। मैं जीने की आदत को जीना नहीं मानती क्योंकि जीवन को दायरों में बाँधकर मनुष्य का जीवन नहीं जिया जा सकता। बहरहाल यह भी जानती हूँ कि ऐसा कुछ कहना स्त्री की शलीनता और समाज की मर्यादा के खिलाफ� है, मगर मैं कहना चाहती हूँ कि स्त्री जिससे टूटकर प्यार करना चाहती है, उसी को छिवाये रहने में जिन्दगी का गला घोंटती रहती है क्योंकि उसके लिये परम्परा की मर्यादा और अक्षत शील इसी प्रक्रिया का नाम है।
इसमें अपने लिये नहीं, वह पिता पति और पुत्र के लिये उत्सर्ग होती रहती है। और निश्चित तौर पर उसे यह नि-भाव मनुष्य से शील स्त्री बनाता है। नैसर्गिक प्रवृत्तियों के मुहानों को वह जहाँ बन्द करती है, वहीं से पौरुष/मर्दानगी की शुरूआत होती है। अपने पुरुष के लिये खुद को स्थगित या समाप्त करते जाना ऐसा त्याग माना जाता है, जिसकी एवज उसे पूज्य माँ पवित्र देवी, अलौकिक सती और लक्ष्मी होने का अभिनन्दन मिलता है। ‘त्याग स्त्री का' समाज द्वारा रची गयी कोई साजिश हो सकती है, इस बात को स्त्री ही सुनना नहीं चाहती और अपने रास्ते चलती हुयी अपनी नैसर्गित अधिकार वृत्ति छोड़ती चली जाती है। क्षमता का विलुप्तीकरण।
प्रशंसा और तरीफों का प्रलोभन उसके लिये सबसे बड़ी पूँजी रही है। निसन्देह वह इस मामले में धरती के जीव जन्तुओं के मुकाबले सबसे कच्ची निकली। बच्चे की अपेक्षा भी वह कमजोर सिद्ध हुयी क्यों कि दो चार बार में वह भी समझ लेता है कि श्री मावक उसकी तारीफ सिर्फ अपने लिये कर रहे हैं। कुत्ते बिल्ली तोता मैना पालतू होकर भी तारीफों से प्रभावित नहीं होते। अपने रूप रंग की भी उन्हें परवाह नहीं होती। वे जानते हैं कि जहाँ वे हैं, अपनी भावना के महत्त्व के कारण हैं। वफादारी उनकी ईमानदारी का सबूत है। और सच में मालिक को इन पशुपक्षियों से गद्दारी की उम्मीद नहीं होती।
यदि दुनिया में बेवफा होने का सबसे बड़ा खतरा किसी से है, तो वह स्त्री के अलावा कोई और नहीं। पुरुष का दुश्मन कितना ही नज़दीकी हो, स्त्री के मुकाबले दूर की चीज़ है। औरत जितनी करीबी होती है, उतनी ही दहशत का विषय है। जितनी प्यारी लगती है, उतनी ही गद्दार होने की आशंका... अतः उसको साधो और बाँधो रखना पुरुष का अभूततपूर्व पराक्रम माना गया है
सचाई यह भी है कि हमारे पुरुषों, महापुरुषों, संत महात्माओं, साधू सन्यासियों, चिन्तकों और दार्शनिकों की समझ में स्त्री का रहस्य आया ही नहीं। वे कभी आशंकाओं में रहे, कभी अनिश्चितताओं मे। कभी उसे नरक की खान कहाँ तो कभी जननी का जनमभूमि से ऊपर माना। महान गिनी समझकर लिखित रूप में पुरुष वर्ग को ‘खबरदार होशियार' किया। भयभीत लोगों ने कभी औरत पर वार किया तो कभी वे विराम होकर जंगलों में भागे। गंदगी की खान को जुगुटसा का रूप बताया और कभी पत्थर की देवी के रूप में उसे पूजा।
कोई माने या न माने, हमने माना, पुरुष के लिये सबसे बड़ी चुनौती स्त्री ही है। उसको वश में करने के लिये वह जिन्दगी भर यहाँ वहाँ के कुलावे जोड़ता है कि किसी तरह औरत के वजूद को तोड़ सके। सबसे पहले जरूरी लगा, उसकी चेतना को सुलदिया जाये। चेतना, जो स्त्री के अपने लिये है। कितना-कितना शोध करना पड़ा होगा हमारे ऋषि-मुनियों को, वशिष्ठ विश्वामित्रों को, गौतम और याज्ञवल्क्यों को, जिन्होंने ऋृंगार और वैराग्य को अपना विषय बनाया, वे क्रमशः कभी और भयभीत रहे होंगे। वे जो भी थे, ऐसी शब्द-विद्या विकायें बनायीं जो स्त्री-जीवन के लिये सुनहरे जाल का काम करने लगीं क्यों कि उनमें शील का चमक और पवित्रता की तरलता थी। यहीं से स्त्री की स्वतंत्रता का पराभव होने लगा क्यों कि वह हिरजी की तरह फंस गयी। पराजय का मुख्य कारण रहा जीवन-प्रसंगों में कहीं भी उसकी राय का नहीं होना। उसकी भावनात्मक-विधियों की सिरे से अनुपस्थिति। सांस्कृतिक गरिमा का शब्दजाल उसे अपना ही पहचान पत्र लगने लगा। क्यों न लगता, उसकी योग्यता ऋषियों और राजगुरुओं के मुकाबले क्या थी? न लिख सकती थी, न लिखे हुये को जारी होते समय पढ़ने की पात्रता रखती थी। औरतें वेद नहीं पढ़ेगीं' यह नियम पवित्र मले माना गया हो, गलत अवश्य था।
अज्ञान के अंधकार में मर्यादा और इज्जत के साथ रहती औरत कैसे जान पाती कि उसके शरीर को अनुपम आनन्द की खान और सौन्दर्य का अप्रतिम रूप क्यों माना जा रहा है? देह ऐसी अद्भुत है कि इसे जीतने के लिये उसके रहवर तमाम अम्सन, व्यायाम और कुश्ते शिलाजीत का सेवन करते हुये आजमाइश की कसरतें करते हैं। वह तो चुपचाप रहने की आज्ञा तले गुरुजनों के उपदेशों को मानती हुयी अपनी ही ‘सुन्नत' में लगी हुयी थी। अपने शरीर की स्वामाविक व्याख्या उसने सुनी और पाया कि वह पुरुष के मुकाबले खाने में दो गुनी, हिम्मत में चारगुनी और काम में आठ गुनी ज़्यादा है। इसलिये ही उसे अपनी कामनाओं वासनाओं का शमन करना है।
सुमुखि, सुन्दरी, पयोधरा और क्षीणकटि स्त्री, पुरुष की काम्या होती है, निसन्देह उसने खुद को इसी पैमाने से नपा। और फिर यह भावना उसके मन मस्तिष्क पर नशे की तरह तारी हो गयी। अब शक्ति के स्वामी, लक्ष्मी के मालिक और ज्ञान के तथाकथित पुरोधा वीर्यवानों के रूप में स्त्री को अपनी सम्पत्ति बनाने में सफल हो गये। आदर्श परम्परा में यह शुमार किया गया कि वह अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को उन नीति नियमों के अनुसार संचालित करे तो पुरुषों द्वारा, पुरुषों के लिये और पुरुषों की हैं।
आज्ञाकारिनी, अनुगामिनी, जिसे अर्धांगिनी भी कहा गया। धर्मपत्नी से इतर जहाँ भी उसका वजूद रहा, वहाँ वह रक्षिता (रखैल) वेश्या (रंडी) के नाम से जानी गयी। यह शब्दकोष भी पुरुष द्वारा रची गयी लिपि से निकला ‘योनिमाक' को दबे छिपे कोनों में बसर करने के लिये बाध्य रहना है, ये बस्तियाँ, बदनाम बस्तियाँ... यह बटवारा स्त्री ने तो नहीं ही किया था।
रखैल और वेश्या मालिक की हुकूमत के बाहर औरत थी, क्या इसलिये ही उसे घृणास्पद माना और मर्द उसे गंदी नाली मानकर अपने ही उसे गुलाम या पालतू बनाया गया। दास भावना से प्रेरित ये औरतें किसी पत्नी के मुकाबले क्यो अनैतिक और अश्लील थीं? इनकी दिनचर्या किसी पत्नी से अलग तो नहीं। केवल एक निष्ठुता ही श्रेष्ठ होती है? वरन् जब भी मालिक आये ये तीनों प्रकार की स्त्रियों खुशामद और पुरुष के मनोरंजन में खुद को हाजिर रखती हैं। यह कार्य-व्यापार एक आदत है क्यों कि प्रभु और ईश्वर जैसा मालिक तर्कातीत होता है। संशय यहाँ लागू करना वर्जित है। एतराज करना पाप और अपराध। चेतना का शून्य हो जाना, इसे हम मैटाफिजीकल स्यूसाइड कहें तो कहते रहें। लगभग आत्महत्या माने तो मानते रहें। वह इस्तेमाल की चीज हैं, जिसे स्त्री-देह कहते हैं।
फिर स्त्री का दिमाग कहाँ रहा? कहते हैं कि गार्गी ने सिर उठाकर ऋषियों से प्रश्न किये थे। इसी उत्साह में आज तक लड़कियों के नाम गार्गी रखे जाते हैं, जब कि गगीर्याँ हजारों साल पहले की गार्गी की तरह पुरुष सत्ता से हुक्म पाती हैं- प्रश्न मत करो गार्गी, नहीं तो सिर को धड़ से अलग कर दिया जायेगा। नाम सीता भी होता है लड़कियों का, क्या इसलिये कि रोज-रोज अपने सतीत्व की अग्नि परीक्षा दें? और अंत में किसी रावण के लिये उनके ऊपर लांछन लगाकर देश निकाले की सजा सुनायी जाये। अनुसुईया, अहल्या, लक्ष्मी पार्वती के नामें से जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री ने कब सोचा कि देवी स्त्रियों ने अनुसूइया के रूप में पर पुरुषों को बच्चों के रूप में देखा। अहल्या को शाप मिला, पत्थर हो गयी। लक्ष्मी जी का काम विष्णु के पाँव पलोटना है। पार्वती ने वर के लिये उपवास की प्रथा डाली, कन्या को कठिन से कठिन तपस्या से गुजारा सिर्फ पति को अपने कंधों पर लादकर वेश्या के घर तक ले गयी, क्योंकि उस वेश्या पर पति का दिल आ गया था।
उफ् यह अनाचार... मानो युग-युग से आँखों पर पट्टी बाँधने वाली गाँधारी बिलबिला उठी हो और आँखें खोलकर समाज की संस्कृति को देखा हो। आँखें खोलकर देखना जरूरी लगा, क्योंकि चेतना ने करबट लिया। और विचार करने के बाद फैसला किया कि शाण्डिलिनी ने परमपद के लोभ में दोहरा तिहरा अपराध और पाप किया है। उसने वेश्या का स्तर गिराया है और स्त्री को तो खैर कहीं का नहीं छोड़ा। पत्नी के बँधक होने का ऐसा घृणास्पद उदाहरण... क्या उसे नहीं पता था कि कुन्ती ने किसी पति की परवाह नहीं की, न सूर्य की न पांडु की। वरुण मरुत की भी नहीं। निश्चित ही इनमें से न कोई अग्नि था, न हवा और जल। ये सब हाड़ माँस के आदमी होंगे, क्योंकि कुन्ती भी मनुष्य का मूल रूप स्त्री थी। सन्तान संसर्ग से होती है, हम सब जानते हैं। फिर भी हम इन्हीं मिथकों को छाया में चले और आदमी की सन्तानों को वैधता देने के लिये देवताओं के नाम लेते रहे क्यों कि हमारे धर्म में कुछ हो न हो, खुद को धोखे में रखने और उस धोखे को मान्यता देने का चलन खूब है। आजादी के बाद तक की स्त्रियाँ इस चलन से सहमत रहीं।
‘निखालिस न्रमजाल!'
ऐसा जिन स्त्रियों ने कहाँ, लोगों ने माना सिर फिरी हैं। त्रिकालदर्शी पुरुष अवसन्न से देखने लगे जैसे कलयुग ने करबट ली हो। उफ् ये स्त्रियों... जो धर्म अर्थ और मोक्ष के काबिल नहीं, धर्म पर टिप्पणी कर रही है।! इनके हिस्से तो सिर्फ ‘काम' आया था, जिसका कर्ता भी पुरुष ही था।
‘हमने ‘काम' में से ही धर्म और अर्थ खोज लिया है और मान लिया है कि ‘काम' में निष्क्रियता हमें पत्थर बना डालती है। अर्थ अर्थात छन हमें अपने शरीर के बूत पर मिलता है। सेवा, श्रम और सैक्स ही तो गुजर-बसर का जरिया है। रानी से बांदी तक स्त्री का स्तर इन्ही तीन बातों से गुजरता है। सामाजिक मान्यता में पत्नी हो, रखैल हो या रंडी वेश्या हो, अलग-अलग नामों द्वारा काम एक सा ही करती हैं। जर ज़मीन में हिस्सेदारी इनमें से किसी की नहीं। रहा मोक्ष, सो न उसको मोक्ष के योग्य समझा न उसे मोक्ष की दरकार। उसने खुद को ऐसे रूप में पाया, जिसे देखकर ऋषि-मुनियों की तपस्या का पाखंड खंडित हुआ, राजा लोग जोगी हो गये। बताइये मोक्ष की ताकत कहाँ है?
स्त्री ने ही अपना धर्म नये सिरे से निर्धारित करना शुरू किया क्यों कि पाया कि जब तक वह अपनी आत्मा को मारकर जीती रही है। इससे पैदा हुआ मानसिक तनाव, इसी दशा में अपनी इच्छा के विरुद्ध पुरुष के लिये समर्पण... अपमान का विष कब तक पिया जाये? तब तक, जब तक स्त्री का वजूद शून्य न हो जाये? भयावह शून्य!
सुनते आये है, साहित्य ने स्त्री को शून्य नहीं, मनुष्य माना। पढ़ने पर पता चला कि वह अधिकतर रचनाओं में ऐसी ही मनुष्य रही है, जो दीन तो है मगर दीन दिखती नहीं। उसकी अपनी आवाज तो है, मगर है अपने मालिक के लिये। उसमें संघर्ष की चेतना भी है, लेकिन है अपने पति और पुत्र के हित के लिये। ‘गोदान' की धनिया इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह स्त्री का पत्नी रूप हैं वेश्या या राजनर्तकी के रूप में चित्रलेखा (भगवती चरण वर्मा) को देख सकते है अपनी सारी इच्छाओं और आकांक्षाओं के बावजूद वह दो पुरुषों के बीच एक खिलौना है- भोगी बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि चित्रलेखा के शरीर पर बुरी तरह आसल है और मौका देखते ही हमला करते हैं। जागे बढ़िये समाज का आधुनिक रूप और राजनीति की गंदगी दिखाने वाला उपन्याय ‘राज दरबार' स्त्री को इतना ही महत्त्व देता है कि उसके शरीर पर रीझने और भोगने वालों का पराक्रम दिखाये। आधा गाँव' की स्त्रियों क्या कर दिखती हैं? मिसाले औरत हैं, मगर यहाँ मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि स्त्री में चेतना के नाम पर पुरुष की पक्षदारी ही जागी, वह मालिक की अभ्यर्थना में आई और उसकी लठैत बन गयी।
शान्त समाज में खलबली हुयी तब, जब स्त्री ने अपने आपको खुद व्यय करना शुरू किया। साफ तौर पर बताया कि 6हम ऐसे हैं, और अभी तक आय मुगालते में रहे कि स्त्री का असली चेहरा चित्रित कर दिया। ‘मित्रो मर जानी' ने अपना वजूद खोला, साहित्यकार और पाठक आँखें फाड़े देखते रह गये। मर्त्सन निन्दायें ओर गलियों... मिलो कब परवाह करने वाली थी? औरत जात अपनी देह की बात क्यों करती है? यह सवालों मेरी निगाह किसको बख्शती है? स्त्री साहित्यकार हो, कलाकार, अभिनेत्री, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, डॉक्टर, पुलिसकर्मी या खिलाड़ी सभी तो अपने सामने रुकावटें पाती हैं। बारबार समझाया जाता है- तुम्हें क्या जरूरत थी बाहर जाने की? हरहाल में तुम्हें पति की जरूरत होती है क्योंकि वही तुम्हारी रक्षा सुरक्षा, गुज़रबसर, शासन अनुशासन की डोर सम्भाले रह सकता है। स्त्री नहीं मानती न इस राय को न इस आज्ञा को, न ऐसे चलन को। फिर कितना क्रूर संतोष हासिल होता है औरत की योग्यता को परखा देकर। यह अब ऐसी नहीं, जिसको पूजा जाये। यह घर की रानी, प्राण प्यारी और शब्दों से अब नहीं बहलती। इसको धार्मिक संस्कारों के इंजैक्शन भी दो, असर नहीं होता । हमारी सत्ता से इनकार करने की जुर्रत, अब इसे सुरक्षा नहीं, संरक्षण नहीं, सम्मान नहीं, सजा ही देनी होगी।
सजायें... यहीं से होता है उसका संघर्ष शुरू। वह सिर उठाकर कहने से बाज नहीं आती- हम औरतें हजारों सालों से मुँह माथा झुकाये चलते रहे हैं कि हमारे गर्दनें टूटने लगीं। हम बाहर आ रहे हैं, देखें तो खुली प्रतियोगितायें कैसा होती हैं। यहाँ शामिल होने की योग्यता हमारे भीतर है या नहीं... देखें तो। सच हमारी ज्ञानेद्रियाँ अब कर्मेन्द्रियों से तालमेल बिठाना चाहती हैं। हमारी क्षमता को व्यवहारिक रूप मिलना ही चाहिये। यह कोई खतरनाक बात नहीं, जैसा कि समझा जा रहा है, यह तो हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। हम सीता की तरह चौखट (लक्ष्मण रेखा) लाँघकर निकले हैं, मालुम है कि घर में रखने लायक न माने जायेंगे। लेकिन हमारे-तुम्हारे फैसलों का फैसला भी हो ही जाना चाहिये कि घर जो तुम्हारे माने गये, केवल तुम्हारे नहीं रहेंगे अब। केन्द्रीय ओर निर्णयक जगहों पर रहने का हक हमें भी है। यह सब कहते हुये हमें मालुम यह भी है कि अपने गर्म का खुलासा यदि हम आपके मन मुताबिक न करें तो हमारा और गर्भस्थ शिशु का बध जरूर होगा। लेकिन हमारा वजूद इन खतरों के आगे हैं क्योंकि हमने सब से पहले खुद को भयमुक्त किया है। लोकतांत्रिक आस्था सक्रियता और गतिशीलता की माँग करती है, और हम इस देश के वैध नागरिक तो हैं ही। नागरिक को समाज संस्कृति और राजनीति में हस्तक्षेप का अधिकार है। सो अब मर्यादायें क्या होती हैं, जो हैं उनमें संशोधन करने की सख्त जरूरत है। संस्कृति का असली अर्थ और व्याख्या क्या है हम जानते हैं हमें ध्यान में रखकर यहाँ कोई नियम नहीं बना। वरन् ऐसा होता कि जीने का अधिकार भी हमारे हाथ में न हो? हमारे धर्म की परिभाषा कोई स्वामी संत या शक्तिपीठ का शंकराचार्य क्या करेगा? स्त्री-धर्म की सच्ची परिभाषा स्त्री ही देगी। तब खुलासा यह भी होगा कि अब तक कुछ हर्ण ऋषियों, राजगुरुओं और पाखंडी ब्राह्मणों के दिमागी फितूर और अकड़ी हुयी जातियों के अपने जरूर स्त्री को अपनी राय पेश करते हुय देखकर या अपने निजी सोच समझ में डूबी पाकर किस खूंखार तरीके से शापित करते रहे हैं तथा मृत्युदंड देने से बाज नहीं आये।
अतः धार्मिक उपलब्धियाँ यही रहीं कि शापित स्त्री अपनी नस्ल में खुद ही अभिशाप का रूप होती चली गयी। कैसी उपलब्धियों है, जो जीने की हजारों सम्भावनाओं को खत्म कर देती हैं? ये सवाल वर्चस्व के खिलाफ स्त्री का बयान है और यह भी कि प्रतिरोध की एकता को लगातार दबाया जा रहा है। समूहा को बिखरा देने की कोशिश में इल्जाम नारों की शक्ल में आते हैं।
स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है, ऐसा ही नया नारा है, जो पुरुषों की ओर से उसका ध्यान हटाकर टुच्ची और घटिया बातों की ओर मोड़ने की कोशिश में है। लेकिन स्त्री समाज के लिये संघर्ष करती हुयी स्त्री को यह भी समझ में आ गया है कि जो दुश्मन का रूप हो गयी हैं, वे स्वामी या शासक का प्रतिरूप हैं। एक तरह से घर के मुखिया के लिये स्वाभिमत्म से भरी हुयी, क्योंकि इसी वफादारी से उनकी अपनी जगह सुरक्षित रहेगी। सास ननद को लेकर जो बातें होती हैं, सहकर्मी स्त्री की छवि बारे में जो बताया जाता है, वह छवि कहीं असुरक्षा से ही बनती है, दीनता की ओर ले जाने वाली। अग्रेजों का जमाना याद करिये, साहबों की कृपा के लिये देशी सिपाही अपने ही सिपाहियों, किसानों और स्वतंत्रता सेनानियों पर जमकर जुल्म ढाते थे। एक ही धर्म के लोग अपने-अपने धार्मिक ठेकेदारों के लिये कितनी बेरहमी से खून-कत्ल कर डालते हैं।
एक और दाँव... स्त्री से सौदे बाजी, जिसके तहत कुछ रियायतें और कुछ प्रलोभन दिये जाते हैं। कहाँ जा सकता है हमारे तथाकथित मालिक दयनीय रूप से अतीत जीवी हैं। वे आज भी स्त्री को उसके सौन्दर्य की महत्ता की याद दिलाते हैं और की याद दिलाते हैं और अनायास की तरह सायास बाजार में उतर देते हैं। बाज़ार फिर उसके शरीर के कपड़े उतारने लगता है। कवि बिहारी अपनी कविताई के साथ बाज़ार बालाओं के बीच उपस्थित दिखते हैं। उनकी पंक्तियों पुरुषों ने हृदयंगय कर ली हैं- अपने तन के जान के यौवन नृपति प्रवीन।
स्तन मन नैन नितम्ब को बड़ौ इजाफा कीन॥
फिर दहशतनाक जड़ता क्रूर नियमों भरी पवित्र सरोवर में सड़ांध, स्त्री की प्रशंसाओं भरे षड्यंत्र... कैसे छुटकारा मिले? मुक्ति के रास्ते में स्त्रियों का लेखन उन रेशों की पड़ताल करने लगा औरत को खींचलिया जाता है। नैना साहनी, जैसिका लाल, शिवानी भटनाकर, प्रियदर्शिनी मट्टू और मधुमीता शुक्ला अपनी मर्यादा को बदलने की धुन में लफँगी कहलाई और मृत्युदंड की भगीदार हुयीं। इनमें से ज़्यादातर मामलों में स्त्री के लिये स्त्री ही लड़ी और असलियत का पर्दा फाश् हुआ। स्त्री के लिये लिखने वाली स्त्री भी ऐसी ही नई तलाशों में निकली है कि यथास्थिति में बदलाव आये। मैं फिर कहती हूँ, रचनाओं में इतनी ही निर्मीकता चाहिये, जितनी कि निधि शुक्ला (मधुमीता की बहन) में देखी गयी। मुझे मालूम है औरत की बेवाक कलम का चलना, सिर से कफन बाँधकर निकलने जैसी बात है, क्यों कि नंगी सच्चाइयों का अम्यस्त हमारा समाज नहीं। घबराना इस बात से भी नहीं है कि हमारे लिखे को कभी स्त्री-विमर्श कहकी मखौल में उड़ा दिया जाता है तो कभी ‘नया शगूफा' कहकर अस्वीकृत कर दिया जाता है। सब निश्चित ही वर्चस्व वादी लेखन को असुविधाओं में डालता है। अब जो स्त्री है, वह घोषणा करती है- मैं माँ हूँ, बहन हूँ, पत्नी हूँ, रखैल वेश्या हूँ, किसी भी नाम से पुकारों, मैं तो बस स्त्री हूँ।
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मैत्रेयी पुष्पा
सी-8, सेक्टर 19
नोएडा-201301
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साभार - साक्षात्कार पत्रिका
कितनी सही बात कही है मैत्रयी जी ने कि बेबाक कलम चलाना औरत के लिए सर पर कफ़न बाँध कर चलने जैसा है.
जवाब देंहटाएंहमारे धर्म में कुछ हो न हो, खुद को धोखे में रखने और उस धोखे को मान्यता देने का चलन खूब है।
जवाब देंहटाएंkam se kam 'istriyon' ke mamle me to aisa hi hai
pranam.
VICHARNIYA..
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