मंजरी शुक्ल की कहानी - प्रतिशोध

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दूर से आती आवाज़ को कभी गौर से सुनना नहीं पड़ा और जो सामने था उसकी स्पष्ट आवाज़ कभी कानों में आई नहीं। क्या, क्यों और कैसे शब्दों का कोई अर...

दूर से आती आवाज़ को कभी गौर से सुनना नहीं पड़ा और जो सामने था उसकी स्पष्ट आवाज़ कभी कानों में आई नहीं। क्या, क्यों और कैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं रह गया था। किसी शान्त नदी के किनारे या उफ़नते समुद्र के ज्वर भाटे उसे एक सा ही सुकून देते थे। उसे खुद भी नहीं पता होता कि उसकी पहचान क्या थी और अपने अस्तित्व की खोज तो उसने जैसे दनिया को जानने और समझने के साथ ही शुरू कर दी थी। पर दुनिया वालों ने उसे एक नाम दे दिया था " गौरी "।

नाते रिश्तेदारों के नाम पर घर में एक बूढ़े काका थे जो उसके लिए तो सब कुछ थे पर वो उनके लिए कुछ नहीं। सुबह से गाय - भैसों की सानी तैयार करने के साथ ही उसके पैरों में भी मानो विधाता ने चक्कर बाँध दिए थे। शायद उसे बचपन से ही जानवरों के बीच में रखते हुए काका ने भी अपनी ही एक गाय के नाम पर बिना कोई माथा पच्ची करे उसका पड़ोसियों के चीखने चिल्लाने पर नाम रख ही दिया था और कभी उसे फिर इंसान की श्रेणी में नहीं रखा ।

जैसा कि आम तौर पर होता हैं कि हमेशा अपनी थाली से ज्यादा घी पड़ोसी की थाली में दिखाई देता हैं वैसे ही अपने घर की बातों को ढकने की कोशिश और दूसरे के जीवन की बखिया उधेड़ने में जो परम आनंद कुछ लोगो को आता हैं वो शायद सारे संसार की दौलत पाकर भी नहीं आ सकता। गाँव की चौपाल से लेकर बरगद के पेड़ के नीचे हुक्का गुडगुडाते लोग जिनकी उम्र हरी नाम भजने की थी वो गौरी की ही चर्चा करते रहते। अब अगर और किसी की बहु बेटी बारे में इतना रस लेकर चर्चा करते तो कान के नीचे झन्नाटेदार झापड़ खाना पड़ता पर उस बेचारी का तो इस भरे पूरे संसार में ऐसा कोई न था जो उसकी ढाल बनकर आगे आता। प्रत्यक्ष में सभी उससे सहानभूति रखते और उसके दिन रात जानवरों की तरह काम करने पर अफ़सोस जताते पर हर आदमी जानता था कि ये दुःख काका के पास मुफ्त की नौकरानी पाने का हैं जो इन बदनसीबों के हिस्सों में नहीं आया।

घर से पत्नी की गाली खाकर पीठ झुकाकर निकलते और सड़क पर आते ही शेर बनने का स्वांग रचने में तो ये सभी महानुभव इतने माहिर हो गए थे रंगमंच के कलाकार भी इनके आगे पानी भरते नज़र आते। उधर वो दुबली पतली गौरी को इन सब बातों से कोई सरोकार नहीं था। अगर कभी कोई औरत आते - जाते उस पर ताना मारती या कटाक्ष भी करती तो वो अनसुना करके आगे बढ़ जाती थी। क्योंकि वो जानती थी कि सभी के मन में उसके और उसके माता पिता के बारे में जानने की उत्सुकता रहती थी और बचपन से ही उसके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। नंगी पीठ लिए झोपड़ी के बाहर ठेले पर सोने से ही उसके बचपन की शुरुआत उसे याद हैं। जब उसके कानों में पड़ता कि कोई नन्ही बच्ची गुड़िया के लिए मचली और उसने रो रोकर सारा घर सर पे उठा लिया और हारकर उसकी माँ को दो कोस दूर जाकर गुड़िया लाकर बच्ची को देना ही पड़ी तभी उसने खाना खाया तो वो घंटो बकरी चराते हुए सोचती कि क्या होती हैं "जिद"।

शायद जिद प्यार से ही पैदा हुई होगी या प्यार ही जिद के माता पिता होंगे क्योंकि अगर कभी उसका मन सड़क पर बिकती गुड की ढेली खाने का किया तो बदले में उसे काका की लाठी ही मिली और फिर वो भूसे के कमरे के अँधेरे कोने में अपनी गन्दी फटी फ्राक से आँसूं पोंछते हुए फूट फूट कर रोटी रहती। जब सड़कों पर वो निकलती थी तो गली मोहल्ले के सारे बच्चे उसे गन्दी परकटी कहकर चिढ़ाते थे क्योंकि उसके बाल हमेशा काका ही जैसे तैसे काट देते थे और सड़क के कूड़ेदान से पड़ी हुई गन्दी फटी फ्राक उसके लिए ले आते थे। जब कभी उसका मन काका से दूर कही भाग जाने का होता तो सड़क के किनारे पर बना शिव जी के मंदिर के बाहर भीख मांगता अँधा धनिया, जो उसका ही हम उम्र था याद आ जाता।

धनिया के पास आँखें नहीं थी पर दुनिया उसने आँख वालों से भी बेहतर तरीके से देख ली थी। धनिया अँधा होने के साथ गरीब भी था और ये समाज की नज़रों में सबसे बड़ा अभिशाप था। जहाँ जान पहचान भी जात , नौकरी और खेती बाड़ी भी पूछ के ही की जाती हो वहाँ पर कौन उस बेसहारा बच्चे से बात करता। मगर गौरी के आँसूं केवल अँधा धनिया ही देख पाता और पोंछ पाता। गौरी बचपन से ही जान गई थी कि शिवलिंग के अलावा अगर उसे किसी के आगे रोना हैं तो वो केवल धनिया ही हैं जो हमेशा उसे समझाता कि कैसे काम ना करने पर उसकी सौतेली माँ ने गरम चिमटे से उसकी आँखे फोड़कर उसे घर से बाहर निकाल दिया था और गौरी यह सुनकर सिहर जाती ।

जब वह धनिया का दुःख सुनती तो उसे अपना दुःख कम महसूस होता और वो यहाँ वहाँ से जैसा भी संभव हो पाता उसके लिए रोटी का प्रबंध कर देती। कब वो जवान हो गई ये भी उसे पता नहीं चल पाया। बचपन का दुःख उसके साथ ही बड़ा हो गया और आँसूं और ज्यादा बहने के अभ्यस्त हो गए। इन दो बातों के अलावा उसे कभी कुछ समझ में नहीं आया कि जवानी किसे कहते हैं और बचपन कैसे बीतता हैं। एक दिन कूएं से पानी लाते समय वो वही कीचड़ में फिसलकर गिर पड़ी और मिट्टी का घड़ा गिरकर टूट गया। पत्थर की रगड़ से उसके हाथ और पैर बुरी तरह छिल गए। किसी तरह से कूएँ की मुंडेर का सहारा लेकर खड़ी हुई और लंगडाती हुई घर की ओर चल दी। रास्ते में चौपाल पर बैठे लोगो के कटाक्षों से दुःख और क्षोभ के कारण उसके आँसूं बहने लगे पर उन्हें पोंछने वाला वहाँ कोई नहीं था।

उसका मन हुआ कि चीख-चीख कर उन सब बूढों से पूछे कि आज उसका भी बाप या भाई होता तो इस तरह से उस अकेली औरत पर कोई इतने फिकरे करने की हिम्मत कर सकता था पर आँसुओं ने मानो जुबान को तालू से चिपका दिया था। रास्ते पर अपने दर्द को सहती और अपमान के कडवे घूँट पीती वो सर से पैर तक भीगी हुई लंगडाते हुए अपने घर की ओर ऊँची नीची पगडण्डी पर चलती हुई सर झुकाए हुए चली जा रही थी। आज बीस सालों में उसे पहली बार घर से कूएँ की दूरी का बहुत ही कटु एहसास हो रहा था। घर पर पहुँचते ही उसने देखा की काका बरामदे में ही चारपाई पर बैठे हुए बीड़ी फूँक रहे थे। आज जीवन में पहली बार गौरी को काका ही अपने पिता के समतुल्य लगे ओर उसके अन्दर का लावा आँसुओं के क्रदन के रूप में फूट पड़ा । वो काका की ओर दौड़ी ओर उनकी गोद में सर रखकर बच्चों की तरह जोर जोर से रोने लगी। बहुत देर तक रोने के बाद अचानक उसे एहसास हुआ कि जिसे पिता समझकर वो रो रही थी , वह उसके बदन पर जहाँ तहां हाथ फेर रहा था।

डर ओर घबराहट से उसने अपने कांपते शरीर को काका की गोद से अलग किया जिसमे वासना के डोरे साफ़ नज़र आ रहे थे। उसे लगा ये धरती फट जाए और वह उसमे समा जाए। जीवन भर जानवरों की तरह काम करने के बाद लाते घूंसे खाकर भी वो केवल इस आदमी के पैरो में इसलिए पड़ी रही कि उसकी इज्जत ढकने के लिए कम से कम एक अँधेरे भूसे का कोना तो था पर अब वो क्या करे ..कहा जाए ? उसकी तन्द्रा तब टूटी जब काका का लिजलिजा स्पर्श उसे किसी केंचुले की भातिं अपने शरीर पर रेंगता महसूस हुआ।

जीवन भर जिस आदमी के सामने उसकी कभी आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई उसका हाथ छुड़ाने की कल्पना से ही उसका सर्वांग सिहर उठा। पर उसके आँखों के आगे अचानक शिवलिंग का स्वरुप आ गया और वहाँ बैठे धनिया की याद आते ही उसमे पता नहीं कहाँ की ताकत आ गई की वो काका को धक्का देकर सामने बने मंदिर की और दौड़ी। काका जैसे ही धक्का खाकर जमीन पर गिरा और गुस्से से आग बबूला होते हुए जितनी गालिया वो दे सकता था , गौरी को देते हुए उसके पीछे दौड़ा। हमेशा की तरह धनिया इस बार भी उसके पैरो की आवाज़ पहचान गया और उसने उसकी तरफ मुहँ घुमा लिया। पर जब तक धनिया कुछ समझ पाता गौरी उसके पैरो में गिर पड़ी और चीखने लगी - " मुझे इस दरिन्दे से बचा लो। तुम्हारे अलावा मेरी मदद कोई नहीं करेगा। "


धनिया ने हडबडाते हुए गौरी को एक हाथ से पीछे किया और काका की गालियों की ओर निशाना साधकर अपनी लाठी भरपूर ताकत से दे मारी। चोट ठीक सिर के बीचो बीच लगी। काका गिर पड़ा और खून रिसता हुआ गज भर फ़ैल गया। भीड़ जमा हो गयी. काका की गिरी देह समेत वहाँ चारो ओर सन्नाटा छाया था। धनिया की अंधी आँखों से आज लावे निकल रहे थे। उसके सामने सौतेली माँ द्वारा दिए जख्मों के अंधड़ भी चक्रवात से घूम रहे थे।

आज पहली बार उसका क्रोध फूटा था। प्रतीत हुआ कि उसने सौतेली माँ के भी जख्मों का जवाब दे दिया है। उस में जैसे अपने भीतर एक अज्ञात बल और सहारे का आभास हुआ। गौरी की कलाई पर उसका दबाव बढ़ गया। जैसे शक्ति के दो केंद्र परस्पर मिलकर चिंगारी फेंक रहे हों। धनिया के अंतर में कुछ विस्फोट हुआ और शब्द बिजली से कड़क उठे. " मंदिर में खड़े होकर तुममे से कोई झूठ नहीं बोलेगा वरना इस मासूम लड़की की आह तुम सबको ले डूबेगी। क्या इसकी जगह तुम्हारी बेटी होती तो तुम क्या यह नहीं करते ? अब यह तुम लोग तय करो कि इसे अस्पताल पहुँचाओगे या श्मशान घाट"?


एक खामोश अदालत के इस फैसले के आगे आज हर जुबान खामोश थी।
यह सुनकर जैसे सबको काठ मार गया। वे सभी निगाह झुकाकर बुत की भांति खड़े हो गए और धनिया चल दिया गौरी की बांह पकड़कर इन पत्थर के बुतों से बहुत दूर किसी ऐसे गाँव की तलाश में जहाँ इंसान बसते हो ..... 

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रचनाकार: मंजरी शुक्ल की कहानी - प्रतिशोध
मंजरी शुक्ल की कहानी - प्रतिशोध
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