ग़ज़ल 42 हर वक़्त न बनकर राम रहो।। मौका मौका घनश्याम रहो।। पानी भी रहो शरबत भी रहो , कभी चाय कभी-कभी जाम रहो।। बरगद का गर्मी...
ग़ज़ल 42
हर वक़्त न बनकर राम रहो।।
मौका मौका घनश्याम रहो।।
पानी भी रहो शरबत भी रहो ,
कभी चाय कभी-कभी जाम रहो।।
बरगद का गर्मी में साया ,
सर्दी में अलाव या घाम रहो।।
कभी खार-ए-बबूल-ओ-नागफणी,
कभी गुल ;गुलशन ;गुलफाम रहो।।
दहलीज़ पे मंदिर मस्जिद की ,
ग़र ख़ास रहो पर आम रहो।।
कोशिश न कभी अपनी छोड़ो ,
ग़र बाज़ दफ़ा नाकाम रहो।।
ग़ज़ल 43
मुझको हैरत है यह हुआ कैसे ?
लोमड़ी हो गई गधा कैसे ?
इंसां इंसां नहीं रहा बाक़ी ,
उसको तुम कह गए ख़ुदा कैसे ?
जो न चपरास के भी क़ाबिल था ,
आला अफ़सर वो फ़िर बना कैसे ?
लोग उस रोग से सब ही तो मरें ,
वो मरा साफ़ बच गया कैसे ?
जो अकड़ता था ख़ुदा के आगे ,
आगे बन्दे के वो झुका कैसे ?
ग़ज़ल 44
कुछ भी तो यहाँ पर नहीं नया दिखाई दे।।
जो था यहाँ पे वो भी तो गया दिखाई दे।।
हर तरफ़ अफ़रा तफ़री का माहौल है काबिज़ ,
जो टहल रहा था वो भागता दिखाई दे।।
बस्ती में लुटेरों की डाकुओं को है हैरत ,
हर कोई आज भीख मांगता दिखाई दे।।
उस नाज़नीं का मुझको रिझाने की गरज से ,
अब भी दुपट्टा गिरता सरकता दिखाई दे।।
देता था वतन पे जो कभी अपनी जान को ,
शादी के बाद मौत से बचता दिखाई दे।।
ग़ज़ल 45
न कंस न लंकेश से बदनाम मुफ़्त में।।
मिलते हैं यहाँ कृष्ण के संग राम मुफ़्त में।।
दिल से करोगे काम तो पाओगे शर्तिया ,
मेहनत का सिला साथ में ईनाम मुफ़्त में।।
हैं मातहत वो तेरे जो करते हैं बंदगी ,
वरना किसी को कौन दे सलाम मुफ़्त में।।
मुंहमांगी तनख्वाह पे नौकर रखेगा कौन ?
मिलते सहूलियत से जब ग़ुलाम मुफ़्त में।।
वो चाहता है तुमको रिंद -पेशा बनाना ,
जो रोज़ पिलाता है मय के जाम मुफ़्त में।।
भरमार जब न थी तो बहुत ख़ास थे ये आम ,
बिकते थे फ्रिज के साथ कभी आम मुफ़्त में।।
ग़ज़ल 46
दिन से काली रात होता जा रहा हूँ।।
जीत से मैं मात होता जा रहा हूँ।।
जिनके साए से भी बचना है उन्ही के ,
हर घड़ी बस साथ होता जा रहा हूँ।।
जिनकी उँगली भी न था कल आज उनका ,
सीधे दाँया हाथ होता जा रहा हूँ।।
हुस्न के इक रेग्जिसताँ पे मैं बदरू ,
धूप में बरसात होता जा रहा हूँ।।
उनका दूल्हा बन न पाया हूँ लिहाजा ,
उनकी अब बारात होता जा रहा हूँ।।
जो समझता ही नहीं शीरीं जुबां को ,
भूत को इक लात होता जा रहा हूँ।।
गहरी ख़ामोशी उदासी को फिसलकर ,
इक हँसी की बात होता जा रहा हूँ।।
ग़ज़ल 47
खूब ठहरा बस अब तो चलने दो।।
अपना अरमान मत कुचलने दो।।
मुझको शम्मा की आग दे ठंडक ,
हूँ शरारा ब - शौक़ जलने दो।।
सूखे पतझड़ में काट ले जाना ,
फस्ले गुल है अभी तो फलने दो।।
नर्म लफ्जों का खूब असर देखा ,
मुझको लहजा मेरा बदलने दो।।
लोग कमबख्त बदनसीब कहें ,
उसके लिक्खे को फ़िर से लिखने दो।।
भूल जायेंगे वो तलाक फ़लाक ,
एक कमरे से मत निकलने दो।।
मामला हक का पेशे ख़िदमत है ,
मांगने ,छीनने ,झपटने दो।।
ग़ज़ल 48
रोको मत बह जाने दो।।
अश्कों को ढह जाने दो।।
अब क्या डर मरते-मरते ,
सब सच-सच कह जाने दो।।
अपनी जान बचाओ हमें ,
मरने को रह जाने दो।।
दर्द निवारक अब मत दो ,
कुछ गम तो सह जाने दो।।
छूट गया था जो कल वो ,
आज मिला गह जाने दो।।
पेंट, शर्ट, गंजी ले लो ,
चड्डी तो रह जाने दो।।
सब कुछ जल भुन गया मेरा ,
मुझको भी दह जाने दो।।
ग़ज़ल 49
इस कदर नीचता नंगपन छोड़ दो।।
लूटलो सब कमजकम कफ़न छोड़ दो।।
इसमें रहकर इसी की बुराई करें ,
ऐसे लोगों हमारा वतन छोड़ दो।।
हो बियाबान के दुश्मनों कुछ रहम ,
यूं लहकते महकते चमन छोड़ दो।।
उनकी खातिर जो चिथड़ों लपेटे फिरें ,
एक दो कीमती पैरहन छोड़ दो।।
दम हो जाकर दिखाओ जलाकर उन्हें ,
उनके भूसे का पुतला दहन छोड़ दो।।
ले लो ले लो मेरी जान तुम शौक़ से .
मेरा मर मर के जोड़ा ये धन छोड़ दो।।
नाम ही नाम हो ज़िन्दगी न चले ,
ऐसा हर शौक़ हर एक फ़न छोड़ दो।।
ग़ज़ल 50
दो वक़्त रोटियों का अगर इंतजाम होता।।
भूखों में ही सही पर कहीं एहतिराम होता।।
बर्दाश्त जो न होती मुझमें वो प्यास होती ,
हाथों में इक मेरे भी लबरेज़ जाम होता।।
साजिश न थी ज़रूरी मुझे मारने की मुझसे ,
तेरा हँस के 'जान दे दो ' कहना तमाम होता।।
संजीदगी से अपने फ़न को अगर मैं लेता ,
दुनिया में आज मेरा हर सिम्त नाम होता।।
मुझसे निकाह पढ़ने महबूबा मान जाती ,
होता किसी का नौकर ग़र काम धाम होता।।
क्या आदमी नहीं वो होता जो यार मेरे ,
होता किसी का ख़ादिम या फ़िर ग़ुलाम होता।।
ग़ज़ल 51
तलब में दोस्ती की दुश्मनों में जा पहुँचे।।
चले थे मस्ज़िदों को मैकदों में जा पहुँचे।।
उड़ा के रख दिया सब कुछ शराब खोरी में ,
बड़े मकाँ से सड़े झोपड़ों में जा पहुँचे।।
ऐसा लगता था कि होटल में ठहरे सैलानी ,
'स्वर्ग 'लिक्खे हुए कितने घरों में जा पहुँचे।।
काम की चाल से कछुओं को लजाते अफ़सर ,
यूं ही सरकारी कई दफ्तरों में जा पहुँचे।।
हमने सच पाए सब इल्ज़ाम नीचता वाले ,
जब परखने के लिए कुछ बड़ों में जा पहुँचे।।
दूर रह के हुए जो वाकिआत आपस में ,
तलाक भूल फ़िर हम बिस्तरों में जा पहुँचे।।
मिला न काम हमें जब किसी महकमे में ,
तो नौकरी के लिए तस्करों में जा पहुँचे।।
[ डॉ. हीरालाल प्रजापति ]
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बहुत अच्छी ग़ज़लें हैं, पढ़वाने का शुक्रिया। यदि ग़ज़लकार का फोन नम्बर मिल जाता तो उनको स्वयँ ही बधाई दे देता।
जवाब देंहटाएंbahut-bahut dhanywad.''rachanakar''par meri anya ghazlen bhi prakashit hain ;kripya un par bhi ek nazar daalen to mujhe behad khushi hogi .thank u 1s again.
हटाएंइनको ग़ज़ल का नाम देना ग़ज़ल की तौहीन होगा .....एक ही मिसरे में कहूंगा कि ----
जवाब देंहटाएंमुझको हैरत है ऐसा लिखा छप गया कैसे ....
डॉ प्रजापति जी शे'र कहना कोई हँसी -मज़ाक करना नहीं है ...लहू थूकना पड़ता है लफ़्ज़ों को बरतने में ....एक मिसरा होने में महीनो लग जाते है ! ग़ज़ल की अपनी नज़ाकत है नफ़ासत है !
किसी जानकार को अपना उस्ताद बनाइये ...ग़ज़ल का अपना अरूज़ (व्याकरण ) होता है ...खाली काफ़िये रदीफ़ ही ग़ज़ल नहीं है ...किसी बात को सलीके से कहने का हुनर यूँ नहीं आता बहुत मशक्कत करनी पड़ती है !
उम्मीद है आप मेरी इन कडवी बातों पे गौर करेंगे
[ na sataaish ki tamnna na sile ki parwa ,
हटाएंgar nahin hai mere ash-aar me maani na sahi]
शे'र कहना कोई हँसी -मज़ाक करना नहीं है ...लहू थूकना पड़ता है लफ़्ज़ों को बरतने में ....एक मिसरा होने में महीनो लग जाते है !
aapki bahumooly salaah ka bahut bhut shukriya .
बेहतरीन गज़ल........................
जवाब देंहटाएंशुक्रिया.
सादर
अनु
thaaaaaaaaaaaaaaaaannnnnnnnnnk u.
हटाएंबिलकुल अच्छी गज़लें नहीं हैं । बेकार की तुकबंदी सी नज़र आती है । हर बात ग़ज़ल में ढल जाए यह ज़रूरी तो नहीं । कम लिखो लेकिन अच्छा लिखो ।
जवाब देंहटाएंडॉ.मोहसिन ख़ान
अलीबाग (महाराष्ट्र)
TIPPANI KA KOTISHAH DHANYWAD .
हटाएंहर बात ग़ज़ल में ढल जाए यह ज़रूरी तो नहीं । कम लिखो लेकिन अच्छा लिखो ।
आगे पढ़ें: रचनाकार: हीरालाल प्रजापति की ग़ज़लें http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_1866.html#ixzz21WgVLg1r