मेरे उपन्यास ‘ब्रह्मनासिका' पर जनपद के कुछ संगठन और पार्टियों के कार्यकर्ता भड़क गये। चलो ठीक है, कम से कम ये संगठन तो ब्राह्मण हुए...
मेरे उपन्यास ‘ब्रह्मनासिका' पर जनपद के कुछ संगठन और पार्टियों के कार्यकर्ता भड़क गये। चलो ठीक है, कम से कम ये संगठन तो ब्राह्मण हुए। कार्यकर्ताओं ने 29 दिसंबर 2010 को मीरजापुर के संकट मोचन मंदिर के सामने उपन्यास की प्रतियां फूंक दीं। मेरा भी पुतला बनाया और फूंका। जिलाधिकारी को ज्ञापन दिया कि रमाशंकर को गिरफ्तार किया जाय। यह भी कि पुस्तक प्रतिबंधित कर दी जाये। रातं में एलआइयू और स्पेशल क्राइम ब्रांच वाले धमक पड़े। घंटों बैठकर तीन पीढि़यों का सजरा पूछते रहे, डायरी के पन्नों में दर्ज करते रहे। मानो, किताब नहीं लिखी, कोई मर्डर कर दिया। फिर उच्चाधिकारियों को दिखाने के लिए तीन किताबें भी देनी पड़ी। किताब दिल्ली के किसी बड़े नामी-गिरामी प्रकाशन से छपी होती तो जाने कितने समीक्षक उपन्यास की जमकर चीर-फाड़ किये होते, पर वह तो बनारस के एक गुमनाम से प्रकाशन ने छापी थी, इसलिए इस विरोध और प्रतिरोध की भनक नहीं लगी। हां, डा0 आनंद शुक्ल ने विचार दृष्टि में जरूर इस पर लिखा और छपा भी।
उपन्यास में एक जगह गांव का नाम ‘बभनी' दिया है। यह नाम मैंने काफी विचार करने के बाद रखा था। ‘बभनी' का मतलब जहां ‘बाभन' यानी ब्राह्मण रहते हों। बभनान, बभनी, बभनपट्टी जैसे शब्द ब्राह्मणों के रिहायसी बस्ती के लिए चलन में हैं। संयोग से यही नाम मेरी पाही का भी है, फर्क इतना है कि वह बभनी थपनवां है। वैसे तो अकेले एक ही जिले में ‘बभनी' नाम की सैकड़ों बस्तियां और गांव मिल जायेंगे, पर मेरी पाही वालों ने इसे अपने ऊपर ले लिया। बस शुरू कर दिया बवाल। वहां के ब्राह्मणों ने मेरे खिलाफ फतवा जारी किया - ‘पहले पिटाई फिर बतियाई'। अच्छे बने। आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास। कहां तो इतने अच्छे संबंध, इतना प्रेम वहां के लोगों और गांव की प्रकृति से कि हफ्ते-हफ्ते हवा में उड़ जाते और शहर आने का मन ही न करता। पूरा गांव मेरा और मैं पूरे गांव का। और कहां अब ‘पिटाई के बाद बतियाई' का फतवा। उपन्यास ने मुझे गांव से दूर कर दिया और गांव वालों को मुझसे। तब से करीब दस माह होने को आये, मुझे बभनी थपनवां का खुला आकाश, सुनसान ठांव, पेड़ों की छतनार छाया, बकहर नदी का पथरीला विस्तार सब नोहर हो गया।
और तो और, केबी स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष डा0 सुधाकर उपाध्याय समेत एक दर्जन प्राध्यापकों ने भी उपन्यास की निंदा कर डाली। इसे लेखकीय स्वतंत्रता का दुरूपयोग बताया। सिटी न्यूज चैनल चौबीस घंटे इन खबरों को भूकता रहा। अखबारों ने भी मोटी हेडिंग्स के साथ इस खबर को छापी। सबका आरोप एक ही कि ब्रह्मनासिका में ब्राह्मणों की इज्जत उछाली गयी है। उन्हें नीचा दिखाने के लिए जानबूझकर अति विकृति का समावेश किया गया है।
मैं विस्मित कि आखिर यह हो क्या रहा है। मन ही मन खुश भी होने लगा कि मेरे लेखन पर इतना बवाल हो रहा है। बड़े नसीबों वाले लोगों को खुदा ऐसा ईनाम बख्शता है। पाही छूटी, शहर के ब्राह्मण और कुछ संगठनों के नेता नाराज हुए तो हुए। व्यवहार में इनसे मदद मिले न मिले, पर बदनाम हुआ तो क्या नाम न हुआ। लोगों को पुस्तक का विमोचन इसीलिए कराना पड़ता है कि पुस्तक के बारे में लोग जान जायें और चर्चा हो जाये और यहां तो बिना विमोचन के ही इतना सब कुछ एक साथ मिल गया। मेरा लिखना सफल हो गया। विमोचन में लगने वाले पैसे और तामझाम के झंझट का दंश झेलने वाले अच्छी तरह से इन बातों को समझते होंगे। अनजाने में बिचारों ने मेरा ही भला किया। अन्यथा ऐसा करने के लिए कुछ शातिर दिमाग साहित्यकारों को किराये के विरोधी लगाने पड़ते हैं।
लेकिन, हैरत करने वाली बात यह है कि विरोध करने वालों में कुछ ही लोगों ने इस किताब को पढ़ा होगा। वही, जिन्हें मैंने व्यक्तिगत या साहित्यिक व्यवहार के नाते विमोचन से पूर्व ही दे दिया था। उन्हीं में से कुछ लोगों ने इसका कुछ इस कदर अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया कि अनेक ब्राह्मणों की नाक घायल हो गयी। पढ़़ने के बाद बेचारे शरमाये नहीं, बल्कि गुस्साये। शायद भारतीय जाति और सामाजिक व्यवस्था का यही सबसे बड़ा स्वभाव है कि जहां शरमाना चाहिए, वहां लोग गुस्सा जाते हैं। अन्यथा मनु महाशय के मरे कितने हजार साल गुजर गये, किन्तु उनके नियमों पर शरमाने की बजाय उसे कलेजे से लगाए जिये जा रहे हैं मरे जा रहे हैं। मनुस्मृति पढ़ने के बाद, कम से कम मैंने तो यही महसूस किया कि मानवता के विनाश के लिए इस महापुरुष (?) को सरेआम फांसी की सजा सुनाई जानी चाहिए थी। मनुस्मृति या फिर इस तरह की जितनी स्मृतियां और संहिताएं हैं, उन्हें मानवता के लिए महाकलंक घोषित कर नष्ट कर देना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इस पुस्तक में सब कुछ विद्वेषात्मक ही लिखा है, बहुत कुछ सार्थक और दैनिन्दिन आचरण के लिए उपयोगी भी है, किन्तु क्रूर व्यक्ति के मुंह से दया की बातें अच्छी नहीं लगतीं। मनुस्मृति में जो भी उपयोगी है, उसे बहुसंख्यक शूद्र आबादी के लिए वर्जित किया गया है। पूरा ग्रंथ षड्यंत्र, द्वेष, ब्राह्मणों की विशिष्टता, द्विजाति की श्रेष्ठता, शूद्र के दमन, स्वर्ग और नर्क का भय दिखाकर शूद्रों और स्त्रियों को द्विजातियों और पुरुषों की सेवा का निर्देश देता हुआ प्रतीत होता है। फिर भी चेतना के शिखर पर आसीन होने का दावा करने वाले ब्राह्मण समुदाय के लिए यह ग्रंथ परमपूज्य है। यह तब है, जबकि आज का आधा फीसदी भी ब्राह्मण मनु महाराज के पैमाने पर खरे नहीं उतरते।
फिर भी ब्राह्मणों का एक कुनबा ‘ब्रह्मनासिका' से खफा है। उपन्यास को किसने कितना और किस नजरिये से पढ़ा, यह तो नहीं पता, पर मिर्ची बहुत तेज लगी है। मतलब उपन्यास का कथ्य ऐसा है, जो किसी न किसी ब्राह्मण को भभा जा रहा है। कथ्य का संक्षेप यही है कि तथाकथित ‘सोशल मास्टर' की बिरादरी की घिनौनी करतूतों को उघाड़ दिया गया है। और, ‘मैं शपथपूर्वक बयान करता हूं कि उसमें जो लिखा है, वह करीब 90 फीसदी सच है, 10 फीसदी कल्पना। इस सच के सिवा उसमें कुछ नहीं है।' जिन करतूतों का यहां राजफास किया गया है, जाति से ज्यादा अमानवीय होने से संबंध रखता है। वह अमानवीयता पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर ढाए जा रहे जुल्म, छोटी जातियों के प्रति आम जिन्दगी में अस्पृश्यता किन्तु सेक्सुअल जिन्दगी में परमप्रियता, करीबी पारिवारिक रिश्तों की महिलाओं से देह संबंध, देह संबंध से इनकार करने वाली पारिवारिक लड़कियों के प्रति लांछन और फतवे, धार्मिक ग्रंथों और संहिताओं के आधार पर निर्मित आचार-व्यवस्था से विद्रोह करने वालों को मानसिक प्रताड़ना, संस्कृति सुरक्षा के नाम पर गैर धार्मिक संस्कारों के प्रति घृणा की भावना, क्रोध वाले स्थानों पर भीषण कायरता का परिचय और शर्म वाले स्थानों पर क्रोध का प्रदर्शन आदि मुद्दे शामिल हैं। मात्र 89 पेज के इस उपन्यास में दो-तीन अंतरकथाओं के माध्यम से लेखक ने ब्राह्मण समुदाय की असली जिंदगी को सामने रखने की कोशिश की है।
यहां दो बातें और महत्वपूर्ण हैं। पहला तो यह कि लेखक ने जनपद में ब्राह्मण समुदाय को पहले भी संहिताजनित व्यवस्था से विद्रोह कर उनका अपमान किया था। उनकी मान-मर्यादा को कलंकित करने का कार्य किया है। उसने ब्राह्मणों में श्रेष्ठ गर्ग गोत्र और तीन घर का ब्राह्मण और तपस्वीनुमा ब्राह्मण का पुत्र होते हुए भी एक पिछड़ी जाति की लड़की से कोर्ट मैरेज किया। विवाहोपरांत जब ब्राह्मणों ने उसके परित्याग का फतवा जारी किया तो उसे भी अनसुना कर दिया और जीवन साथी बनाये रखा। अब उसकी दो बेटियां भी हैं। ब्राह्मणों ने मनु स्मृति के आधार पर उन्हें चाण्डाल कोटि में डाल रखा है। दूसरी बार उसने ‘ब्रह्मनासिका' उपन्यास लिखकर एक बार फिर से ब्राह्मणों की ‘चंदन-चोटी' पर कालिख पोतने का दुस्साहस किया है। यह उपन्यास यदि किसी दूसरे ब्राह्मण लेखक ने लिखी होती तो शायद इतना बवाल न मचता। बवाल इसलिए है कि इसे एक ‘अधोतर' ने लिखा है।
उत्तर प्रदेश, खासकर पूर्वांचल में ‘अधोतर' शब्द ब्राह्मण विरादरी में काफी अधिक प्रचलित है। यह शब्द मूलतः संस्कृत के तत्सम शब्द ‘अधौत' से बना प्रतीत होता है। ‘धौत' का अर्थ है- ‘धुला हुआ'। ‘अधौत' का अर्थ हुआ- ‘जो धुला न हो' यानी गंदा। अपवित्र। लेखक की कोटि इसी अधोतर की है। हिन्दी साहित्य में दलित और नारी विमर्श खूब चल रहा है। राजेंद्र यादव जी की पत्रिका हंस तो कम से कम इन विमर्शों की अंतर्राष्ट्रीय ध्वजवाहिका है। किन्तु इस ‘अधोतर वर्ग' के उत्पीड़न और उपेक्षा पर विमर्श का कोई आंदोलन नहीं दिखाई दिया। नारी और दलित के अधिकारों की सुरक्षा के लिए भी तो संविधान में विशेष अनुच्छेद, धाराएं आदि हैं, किन्तु उसका आम जनमानस कितना पालन करता है? ‘अधोतर' वर्ग तो उससे भी ज्यादा प्रताडि़त और उपेक्षित है। उसका दुर्भाग्य यह है कि वह जिस उच्च जाति का है, उसके तो नफरत का शिकार है ही, उस निम्न जाति की भी नफरत का शिकार है, जिसकी जाति की लड़की से उसने विवाह किया है। उसकी स्थिति त्रिशंकु की है। उसे न तो आकाश में ठांव है और न ही धरती पर। ‘ब्रह्मनासिका' का कथ्य इसी आधार पर सृजित है। महानगरीय सभ्यता वाले कह सकते हैं कि यह कोई मुद्दा नहीं है, क्योंकि उनके समाज में ऐसे लोगों के प्रति कोई वैमनस्य नहीं है। बल्कि वहां के लिए यह सामान्य बात है। उच्च शिक्षा संपन्न हाई सोसाइटी तथा हिन्दी के तमाम प्रगतिशील लेखक आराम से बता देंगे कि अब जहां समलैंगिकों का विवाह हो रहा है, इंटरनेट से विवाह हो जा रहा है, उस जमाने में अधोतर वर्ग का विलाप लेखकीय विकल्पहीनता के अलावा कुछ नहीं है। ठीक है, लेकिन देश की अधिसंख्य आबादी जिन गांवों, छोटे शहरों और कस्बों में निवास करती है, जरा वहां का सर्वेक्षण कर लीजिए। दस-पांच दिन उनके साथ बिता लीजिए, तो बात आप ही समझ आ जायेगी।
हिन्दू धर्म, खासकर प्रभु वर्ग ब्राह्मणों में मुसलमानों के प्रति इसलिए नफरत है कि वहां विवाह या देह संबंध के लिए रक्त का बहुत अंतर नहीं खोजा जाता। जबकि ब्राह्मणों में पिता और माता के सगे संबंधियों की सात पीढि़यों का विवाह के लिए अंतर होना चाहिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान, हरियाणा आदि प्रांतों में सगोत्री विवाहों पर सैकड़ों युवा-युवती मौत की भेंट चढ़ चुके हैं। मैत्रेयी पुष्पा जी का लेखन उसी क्षेत्र से ज्यादा संबद्ध है। यह कट्रता शेष भारत में भी कायम है। ‘ब्रह्मनासिका' के ब्राह्मणों के यौनाचार को देखिए तो इसकी असलियत साफ हो जायेगी। यानी वे विवाह नहीं करेंगे, पर देह संबंध बनाने में उनकी अंतरात्मा नहीं चीत्कारेगी।
जातीय परंपराओं और धर्मग्रंथों की व्यवस्थाओं को जानने के बाद समझ नहीं आता कि आज आखिर कौन है खांटी ब्राह्मण। किसमें है ब्राह्मणत्व का तेज। कौन बचा रह गया है असली संन्यासी, संत, विरक्त। मनु महाराज अलग व्याख्या कर रहे हैं तो तुलसी बाबा अलग। लेकिन देश भर की मलाई काटने का अधिकार दोनों ही लोग केवल ब्राह्मणों को देने की बात करते हैं। मनु और मानवता एक साथ नहीं चल सकती। स्वामी विवेकानंद ने ठीक विचार किया- ‘ ब्राह्मण कोई जाति नहीं, बल्कि एक परम चेतना है, जिसका एक मात्र उद्देश्य है सभी जातियों को ब्राह्मण बनाना।' यह ठीक भी है। ज्ञान के शीर्ष तक पहुंचकर सब कुछ जानने और समझने वाला आदमी समाज का मार्ग दर्शन सबसे अच्छे ढंग से करेगा। यानि वह समाज का ड्राइवर होगा। काबिल आदमी के प्रति कोई अश्रद्धा नहीं रख सकता। उसकी बात को तो नकारने का सवाल ही नहीं। कम से कम ब्राह्मणों के प्रति सभी ब्राह्मणेतर जातियों का श्रद्धास्पद नजरिया इस आधार पर तो होना ही चाहिए। लेकिन नहीं, स्थिति इसके उलट है। हजारों साल से ब्राह्मण ब्राह्मणेतर सभी जातियों की नफरत के विषय बने हुए हैं। तो क्यो? इसलिए कि ये आचरण विहीन हैं। अमानव हैं। जो कुछ मुट्ठी भर लोग मंचों और सभा-संगोष्ठियों में मानवता की बात करते भी हैं तो वह केवल ढोंग होता है। व्यक्तिगत जीवन में उसका रत्ती भर भी अनुशरण नहीं करते। बल्कि अधिकांश ब्राह्मण ब्रांड धारण कर संपूर्ण अब्राह्मण कर्म करते हैं। मैंने हजारों ऐसे चेहरे देखे हैं जो माथे पर त्रिपुण्ड, बड़ी सी चोटी, धोती-कुर्ता, खड़ाऊं पहने अरहर के खेत, भुसौल, सिवान की मड़ई आदि में कुकर्मरत हैं। धर्म के दस लक्षण जो शास्त्रों में बताए गये हैं- ‘धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः। धीर विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणः' से इनका दूर-दूर तक नाता नहीं। बल्कि सारा आचरण इसके विपरीत। फिर भी इच्छा सभी जातियों के सम्मान पाने की है। सबके निजी जीवन के ताक-झांक व नियंत्रण की है। फतवा जारी करने की, आदेश जारी करने की है। आचरणहीन जीवन जीने वाले भला कैसे किसी वर्ग, जाति या समाज के नियंता हो सकते हैं। तुर्रा यह कि ऐसे ही लोग शादी-व्याह, निजी जीवन आदि संबंधी मसलों पर न्यायालय की भूमिका निभा रहे हैं।
‘ब्रह्मनासिका' में ऐसी ही चीजों की पड़ताल है। संभव है कि इसकी कथावस्तु किसी गांव के किसी व्यक्ति की घटना से इसका मेल खाता हो या हालात के मुताबिक ऐसे हर जगह संभव हो सकता है, लेकिन यह सच है और दुनिया के इक्कीसवीं सदी में पहुंच जाने के बाद भी ये हालात हमारी भारतीय समाज व्यवस्था में कायम हैं। वर्तमान पीढ़ी जागरूक हो रही है। वह बगावत कर रही है। वह संविधान की मंशा और वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा के अनुसार गैर जातीय विवाह की ओर अग्रसर हो रही है, लेकिन उसे ऐसे ही ब्राह्मणी समाज के कोप का भाजन बनना पड़ रहा है। इस जाति काकस में हजारों-लाखों लोग अपने अरमानों की बलि देकर जीवन भर प्रेत यात्रा कर रहे हैं। आनर किलिंग इसी से जुड़ा मामला है। मैं अपने ही जिले के दसियों ऐसे मामलों को जानता हूं, जिसमें लड़की या लड़के की मौत का राजफास आज तक नहीं हो सका है। उसमें से अधिकांश तो बड़े प्रगतिशील नकाब वालों के घरों से हैं। वे जाति की शुद्धता की बात कर युवाओं पर अपने गलीज आदेश थोप रहे हैं। यह समस्या सबसे अधिक ब्राह्मण और सवर्ण विरादरी की है। जबकि हिन्दू धर्म के पौराणिक और अन्य धार्मिक ग्रंथ बताते हैं कि जिन ऋषियों के हम सभी ब्राह्मण वंशज हैं और उनके नाम से हमारा गोत्र चलता उनमें से अधिकांश का जन्म किसी न किसी नीच कुल की स्त्री से हुआ है। वशिष्ठ, पाराशर, विश्वामित्र, भारद्वाज, गौतम आदि श्रेष्ठ ऋषियों की माताएं किस ब्राह्मण की बेटी थीं? वे सब निम्न जातीय स्त्रियों की संतानें थीं। तब तो हमारा आदि ही वर्णशंकर है। फिर किस शुद्धता की बात हो रही है?
इतना ही क्यों, थोड़ा और आगे चले जाइए। ब्राह्मणों में आजकल परसुराम जयंती मनाने का बड़ा जोर है। क्योंकि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों का विनाश किया और ब्राह्मणों के महातेजस्वी रूप को स्थापित किया। लेकिन, वे कश्यप अदिति, ब्रह्मा-सरस्वती, दक्ष आदि के जीवन की बातें नहीं करते। जबकि हिन्दुओं के आदि पुरुष तो यही लोग हैं। ब्रह्माजी की पुत्री थीं सरस्वती। बाप ने बेटे से संसर्ग किया और दक्ष प्रजापति पैदा हुए। दक्ष का विवाह सगी बहन से हो गया। कश्यप उन्हीं के बेटे हुए। अदिति उनकी सगी बहन। दक्ष ने भाई-बहन का विवाह करा दिया। बाद में फिर 16 और सगी बहनों से कश्यप जी ने विवाह कर लिया। वहीं से मानवता का का विस्तार हुआ। माने हमारी मानवीय शुरुआत सगे भाई-बहनों के संभोग और दांपत्य जीवन से होता है। बाद के चाहे जितने गोत्र संस्थापक ऋषि हुए, उन्हीं के तो वंशज हैं और हम सभी उन्हीं के उत्पाद। प्रारंभ कैसा और बाद कितना बंदिशों से युक्त। ठीक है कि सभ्यता के विकास के साथ हमें सामाजिक नियम गढ़ने पड़े। पर आज क्या हो रहा है? ब्राह्मण हो या फिर अन्य विरादरी के लोग, सभी के यहां विवाह तो रिश्तेदारियों में ही होती है। दो-तीन-पांच पीढि़यों की पड़ताल कर लीजिए तो मालूम हो जायेगा कि जिस लड़की से विवाह हुआ, वह दूल्हे की बहन, बेटी या फिर मौसी-बूआ लगती होगी। यानी मौसी-बूआ, बहन-बेटी से परोक्ष विवाह कर सकते हैं, पर एक ही कश्यप अदिति की संतान अन्य जातियों की लड़कियों से विवाह नहीं कर सकते! क्यों मारे जा रहे हैं देश के नौजवान लड़के-लड़कियां। मनु स्मृति पढ़ लीजिए या फिर चाहे जो भी स्मृति पढ़ लीजिए, साफ हो जायेगा कि देश में क्या कोई आज पूरी तरह से ब्राह्मण है? ब्रह्मनासिका के कथानक को लेकर चाहे जिसे भी आपत्ति हो, लेकिन यह समस्या पूरे देश की है। यदि कोई असहमत होता है तो उसका कारण भी साफ होना चाहिए।
पुलिस अस्पताल के पीछे
तरकापुर रोड
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मो0 09452638649
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मेरा संक्षिप्त परिचय
डा0 रमाशंकर शुक्ल
शिक्षा- एम0ए0( हिन्दी, शिक्षाशास्त्र), पी-एच0डी, बीएड0, शास्त्री0, पीजी डिप्लोमा पत्रकारिता एवं जनसंचार
सेवाएं ः अमर उजाला, आज, दैनिक जागरण, सन्मार्ग आदि समाचार पत्रों में करीब 15 वर्षों तक संपादकीय कार्य।
रचनाएं ः ब्रह्मनासिका (उपन्यास), ‘एक प्रेत यात्रा' और ‘ईश्वर खतरनाक है' (काव्य संग्रह) ज्ञान प्रकाशन वाराणसी से प्रकाशित। ‘पितर' कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन।
संपादन- उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षक संघ की 2011 की पत्रिका ‘स्वर्ण विहान' का संपादन।
संप्रति ः स्वतंत्र पत्रकारिता और ए0एस0 जुबिली इण्टर कालेज, मीरजापुर में हिन्दी अध्यापक पद पर कार्यरत।
संपक ः पुलिस अस्पताल के पीछे, तरकापुर रोड, मीरजापुर, उत्तर प्रदेश, 231001
मो0 09452638649
ई-मेल ः rs990911@gmail़com
ब्रह्मनासिका' ः कौन है असली ब्राह्मण ?
डा0 रमाशंकर शुक्ल
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समीक्षा
‘ब्रह्म नासिका' ः पाखंड के पीछे का सच
डा0 मंजरी शुक्ला
कृति ः ब्रह्म नासिका (उपन्यास)
लेखक ः डा0 रमाशंकर शुक्ल
प्रकाशक ः ज्ञान प्रकाशन, वाराणसी
प्रकाशन वर्ष ः नवंबर 2010
डा0 रमाशंकर शुक्ल द्वारा सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘ब्रह्मनासिका' भारतीय ग्रामीण, खासकर पूर्वांचल के गांवों की सामाजिक और जातीय संस्कृति, खोखली मान्यताओं, धर्म के पीछे के षड्यंत्रों, चरित्रहीनता, स्त्रियों पर अमानवीय अत्याचार, घरेलू यौन हिंसा, नारी मात्र के प्रति संशय के मकड़जाल आदि पर गहराई से विमर्श करता है। कवरचित्र से ही पुस्तक के अंदरखाने का हाल-चाल स्पष्ट हो जाता है। साथ ही ब्राह्मणों की ब्रह्म विद्या के ध्वंशावशेष पाखंड का पर्दाफाश भी। खुद ब्राह्मण बिरादरी का श्रेष्ठ कुलोत्पन्न (गर्ग गोत्र, तीन घर) लेखक अपने इर्द-गिर्द की खोखली मान्यताओं और उसमें पिसती नारी की पीड़ा से मर्माहत है। इसलिए बिना पंडितों के फतवों की परवाह किये वह मानवता को आगे कर समूची ब्राह्मणी संस्कृति के औचित्य पर सवाल खड़ा कर देता है।
रमाशंकर ने अपनी पुस्तक के ‘समर्पण' पृष्ठ पर हिन्दू धर्म की संक्षिप्त और स्पष्ट व्याख्या के लिए स्वामी विवेकानंद के एक आप्त वाक्य का उल्लेख किया है- ‘हिन्दू धर्म का एकमात्र उद्देश्य है सभी जातियों को ब्राह्मण बनाना। ब्राह्मण किसी जाति नहीं, बल्कि मनुष्यता के शीर्ष की ओर सभी को ले जाना है।' लगे हाथ उपन्यास के पीछे के वातावरण का भी उल्लेख समर्पण के बहाने कर दिया है- ‘‘स्वर्गीय पिताजी को/जिनकी घोर मानवता/ब्राह्मणत्व की कट्टरता/के बीच जिन्दगी ने पिसते हुए/विद्रोही शक्ल अख्तियार किया;/उस कबीले को/जिसने ईश्वर की मंशा के खिलाफ/उसे पूजते हुए अपने कर्मों से/लगातार अपमानित किया- समर्पित।'' उपरोक्त दोनों ही पंक्तियों में लेखक ने अपनी बेचैनी और मंशा साफ कर दी है। मतलब, पाखंड से युक्त कुछ भी बर्दाश्त नहीं। परंपराएं और मान्यताएं कुछ रचनात्मक दे रही हों तो स्वागत योग्य, अन्यथा कतई बर्दाश्त नहीं। वे हेय हैं और त्याज्य हैं।
ब्रह्मनासिका की कहानी एक अति पिछड़े और जंगल से घिरे गांव से शुरू होती है, जहां एक ब्राह्मण की नाबालिग लड़की पिता की मौत के वर्ष भर बाद ही एक मल्लाह के छोकरे के साथ भाग जाती है। यह घटना एक अंधड़ की तरह गांव में प्रवेश करती है और घर-परिवार-नाते-रिश्तेदारों के घरों में हलचल मचाने लगती है। बौखलाया हुआ कथित ब्राह्मण वर्ग फतवे जारी करना शुरू कर देता है। घटना से घरों की महिलाएं सावधान हो गयी हैं। उन्होंने अपनी बेटियों के फैशनेबल और तंग कपड़े छिपा दिये। पहले से ही कैदी-सी जिन्दगी काट रही लड़कियां और भी गुलाम बना दी जाती हैं। लेखक घटना पर जारी इन प्रतिक्रियाओं से हतप्रभ है। वह नारी जीवन के एक-एक पहलू की बारीक पड़ताल करता है- आखिर क्या है ब्राह्मणत्व? वही तुलसी द्वारा घोषित- ‘पूजिय विप्र शील-गुण हीना․․․․․․․․․․․․॥' लेखक चकित है कि आखिर किस बिरते पर यह वर्ग अपने आपको ब्राह्मण समझ रहा है और अब्राह्मण कर्म पर फतवे जारी करने में फक्र महसूस कर रहा है। रमाशंकर एक-एक चरित्र का विश्लेषण शुरू करते हैं और फिर एक बेहद घिन भरा वातावरण खड़ा हो जाता है। वह चाहे गांव के पंडितों के सेक्स संबंधी हो, सामाजिक सरोकार संबंधी हो, नारी सम्मान संबंधी हो, या फिर ज्ञान संबंधी, सर्वत्र एक ब्राह्मण संज्ञा विरोधी चरित्रों का अपशिष्ट बरसता दिखने लगता हैं। लेखक ने इस पाखंड के भीतर की संगिनी बनी महिलाओं की भी जमकर खबर ली है।
‘ब्रह्मनासिका' जैसे तत्सम प्रधान और यौगिक भाषा से प्रथम दृष्टया एक रहस्य और औपनिषदिक अर्थ का आभास होता है, किन्तु ऐसा कुछ नहीं है। यहां ‘ब्रह्म' से आशय है- ब्राह्मण। यानी जो ब्रह्म विद्या का कारोबार करते हैं। नासिका का अर्थ है- ‘नाक'। यानि ब्रह्म का कारोबार करने वालों की नाक। मतलब ब्राह्मणों की इज्जत! हर कार्य में शुभ, अशुभ, पवित्र, अपवित्र कार्य में अपनी नीतियों को नाक का विषय बना लेने वालों के खोखले ज्ञान पर लेखक का व्यंग्य विद्रूपता की हद पार कर गया है। इनके चरित्र हनन के घिनौने करतबों को गिनाते-गिनाते लेखक अंत में हारकर उन्हें कामुक हिन्दू तालिबान की संज्ञा देकर चुप हो जाता है। लेखक का मानना है कि देश भले ही 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर गया हो, किन्तु यहां व्यवस्था आज भी मनु के आदेशों के अनुसार ही चल रही है। ग्रामीण क्षेत्र की अधिसंख्य लड़कियों की शिक्षा पर भी लेखक ने तल्ख टिप्पणी की है। चूंकि लेखक के पास लंबे समय की पत्रकारिता का बहुविध और बहुक्षेत्रीय अनुभव है, इसलिए उसकी टिप्पणी काफी अहम् और बहुत हद तक सच है कि देश की अधिकांश ग्रामीण लड़कियों को पढ़ाना अभिभावकों की मजबूरी है, फैशन है, क्योंकि यह मसला उनके विवाह से जुड़ा है। इसमें शिक्षा विभाग की नकल व्यवस्था से लेकर शासन की ढपोरशंखी परिदृश्य भी सामने आ जाता है। लेखक ने कमिश्नर आवास पर महामहोपाध्याय से वार्ता के क्रम में पुनर्जन्म और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण के बावजूद निज धर्म की कट्टरता की खूब खिल्ली उड़ाई है।
रमाशंकर के लेखन की विशेषता यह है कि उन्होंने सधी और जिन्दा भाषा का प्रयोग किया है। जहां, जब, जिस पात्र से जिस भाषा की जरूरत पड़ी है, उस तरह के शब्दों का प्रयोग करने से नहीं चूके हैं। गंभीर से गंभीर और मौत-मातम के बीच बड़े करीने से व्यंग्य कर देने की लेखक की कला विलक्षण है। रमाशंकर की पैनी दृष्टि से न तो उच्च तबका बच पाया है और न आम मध्यवर्गीय उच्च जातियों की महिलाओं के पाखंड। उन्होंने झूठ-फरेब के सभी परतों को पूरे व्यंग्य के साथ उकेरा है। लेखक का शिल्पविधान और कथ्य, दोनों ही फणीश्वर नाथ रेणु के बहुचर्चित उपन्यास ‘मैला आंचल' की याद दिला देता है। लेकिन, इस उपन्यास को किसी भी हिन्दी उपन्यास की अनुकृति नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उपन्यास का समूचा तंतु और कथ्य एकदम नवीन और ताजा है। उपन्यास में कई अंतरकथाओं का भी समावेश किया गया है। यहां कथानायक उत्कर्ष की जिन्दगी का दंश बेहद चौकाने वाला है। उत्कर्ष और उपन्यास की नायिका बिट्टी करीब-करीब एक ही प्रकार के फैसले के राही हैं, किन्तु बिट्टी बवंडरों की भोक्ता नहीं है। उसने कभी पलट कर अपने कबीलाई कुनबे को ओर नहीं देखा। इसलिए हमले की चोट का उसे कोई स्वाद नहीं मालूम। जबकि कथानायक उत्कर्ष उच्च कुलोत्पन्न होने के बावजूद पिछड़ी जाति की लड़की से विवाह करने के कारण अपनों के लगातार हमलों से इतना आहत हुआ कि वह डिप्रेशन में चला गया। यहां लेखक ने एक खुद का भोगा हुआ संदेश युवा पीढ़ी को दिया है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता और उच्च ख्यालों के आगे सारी परंपराएं ध्वस्त हो सकती हैं। बावजूद इसके, एक सवाल यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा होता है कि यदि उत्कर्ष खुद उस तरह की समस्या का राही रहा है तो उसने बिट्टी के भागने पर पिण्टुआ को पकड़ने के लिए पूरा पुलिस महकमा लगा देता है। उत्कर्ष यहां भी बेबाक हैं। वह बिट्टी की मां को स्पष्ट करता है कि बात जाति की नहीं, अयोग्यता की है। पिण्टुआ चोर और दारूबाज है। बिट्टी अभी नाबालिग है। उसने आप लोगों की हरकतों से ऊब कर प्यार की तलाश की है। मुझे पता है कि वह जीवन भर उसके साथ सुखी नहीं रह पायेगी। वह देह के आकर्षण और आप लोगों की उपेक्षा का शिकार होने के कारण ऐसा निर्णय ली है।
यहां एक बात गौर करने लायक है कि लेखक ने बिना किसी पूर्वाग्रह के पूरी पड़ताल के बाद पाया है कि ब्राह्मणों की जमात से बहुत ज्यादा संवेदनशीलता निम्नजातीय लोगों में मौजूद है। भोले की बीमारी और मौत के बाद इन नीची जातियों के लोगों के निर्गुण संवाद, पांडेय और डोम की पीड़ा, ब्राह्मणों के हाथ से टिकठी छीनकर अपने हाथ ले लेना, डोम द्वारा आग का पैसा न लेना, असहाय भोले की पत्नी और बच्चों का हर तरह से ख्याल रखना उनकी संवेदना का परिचायक है, जबकि बड़की बहिन, सुंदर, जुगाड़ी मइया, मास्टर साहब, आचार्य जी, मामा लोगों, बेचू आदि के व्यवहारों से केवल एक हिकारत ही जन्म लेती है। लेखक ने चरित्रों की सृष्टि में भी पूरी तटस्थता का परिचय दिया है। भोले के जुगाड़ व्यवसाय, छद्मवेश, पाखंड के साथ ही उनके भीतर स्थित जीवंत मनुष्य का बेबाक चित्र खींचा है। ऐसा कि चिढ़ होने की बजाय भोले से बेहद आत्मीयता और जबर्दस्त सहानुभूति हो जाती है। क्योंकि भोले उत्कर्ष को अपने करतबों के पीछे की असलियत को बेबाकी से बता देते हैं। लेखक का मानना है कि मनुष्य है तो उसके पंचभूत भूख भी होंगे और उसे जब जहां जैसा मौका मिलेगा, उस भूख को मिटाने का प्रयास करेगा। यह धर्म या अधर्म का विषय नहीं है, बल्कि केवल नैतिकता या अनैतिकता विषय है। या इससे भी आगे कह सकते हैं कि यह अंतरात्मा की आवाज का है। लेखक का यह भी मानना है कि किसी नियम के तोड़ने से कोई धर्म नहीं टूटता, बल्कि केवल एक सिस्टम दरकती है और सिस्टम तभी तोड़ी जाती है, जब उसमें कुछ तोड़ना जरूरी हो जाता है। इस बात को बड़ी ही सहज भाषा में बिट्टी-मुनिया की बातचीत से समझा जा सकता है। कुल मिलाकर ‘ब्रह्मनासिका' उपन्यास हिन्दी साहित्य के लिए चिंतन की एक नयी जमीन लेकर आया है।
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vicharotejak lekh.Samaj ki soch ko badalne ke liye aise vicharon ka protsahan kiya jana chahiye.
जवाब देंहटाएंब्राह्मणत्व के खोखले आदर्श की यही परिणति होनी है
जवाब देंहटाएंभैया, बिलकुल सहमत हूँ. आपको लाइमलाइट चाहिए थी, मिल गयी. अब इतने ही प्रबल मानवतावादी हो तो कुरान के ऊपर भी कुछ लिखकर दिखाना, बिलकुल मनुस्मृति की तरह ही बातें लिखना. या फिर वहाँ इसलिए नहीं लिखोगे कि अपना घर देखा जाये दूसरे का क्यों. फिर तो यह बहाना हुआ. अभी तालिबानों ने किसी धार्मिक किताब की आड लेते हुए एक महिला को गोलियों से भून दिया, लिख पाओगे कि उस धार्मिक किताब को भी जला दिया जाये. नहीं. बिलकुल नहीं. इसलिए जहाँ सुभीता हो वहाँ गालियाँ दे लो और जहाँ जान पर बनने का खतरा हो वहाँ से निकल लो. हिन्दू और ब्राहमण बस जुबानदराजी करते हैं, बाकी करके दिखा देते हैं.
जवाब देंहटाएंहाँ परसुधर भाई. आपने सही कहा. शायद विमर्श की इसी परम्परा और सुभीते के कारण हिन्दू धर्म और विकसित व उदारमना है. यहाँ अभिव्यक्ति पर कोई खतरा नहीं है. जहाँ बोलने का अवसर है, वहाँ गलतियाँ सुधरती जाती हैं. फिर वह घर, समाज, कौम उन्नत होता जाता है. मुस्लिम समाज एक बंद समाज है, जिसका ढक्कन खोलने की आजादी और इजाजत किसी को नहीं. जहां हवा बतास न जा सके, वहाँ सब कुछ सड़ने लगता है. देख लीजिये मिश्र, लीबिया, फ्रांस, अफगानिस्तान में. वहाँ क्या हो रहा है. ऐसा हमारे यहाँ न हो, इसलिए गुबार बाहर आना ही चाहिए. मै लिखने से डरता नहीं हूँ भाई, पर अभी कुरआन पूरी तरह पढ़ा नहीं हूँ. एक बार शुरू किया था, लेकिन उसकी बातें समझ में नहीं आ रही थीं. बहुत उबाऊ भी लगा. बंद करके रख दिया. आप पाठकों की यदि राय हो तो लिखूं. हाँ एक बात जरूर होगी कि वहाँ के कट्टर लोगों से कम खतरा है, अपने सरकार से ज्यादा है. प्रतीक्षा कीजिये, वह समय भी आयेगा, जब कुरआन पर भी लिखने का साहस दिखाऊंगा. पहले इस्लाम को समझ लेने दीजिये. एक बात और इस्लाम पर कुछ भी लिखने का मतलब होगा सामाजिक अस्थिरता. शायद लाइलाज बीमारियों को डाक्टर भी प्रतीक्षा सूची में डाल देने की सलाह देते हैं.
हटाएंरमा शंकर शुक्ल
ब्राह्मणों के लिए जरुरी है कि वे आत्मान्वेषण करें -अच्छी कृति!
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