..जल की सतह से जरा से उठे हुए इस जनपथ से आती पनिहारिनें जलपरी सी लग रही थीं। लेकिन ये कोई जलपरियाँ नहीं थीं। ये थीं श्रमबालाएँ, कठोर श्रम क...
..जल की सतह से जरा से उठे हुए इस जनपथ से आती पनिहारिनें जलपरी सी लग रही थीं। लेकिन ये कोई जलपरियाँ नहीं थीं। ये थीं श्रमबालाएँ, कठोर श्रम करती ग्राम नारियाँ। लेकिन यह श्रम ऐसा था, जो खेल बन गया था। हँसती किलकती,ठिठोली करती स्वस्थ नारियों को अनुभव ही नहीं हो रहा था कि उनके सिर पर भारी बोझ रखा हुआ है, वे नंगे पैर हैं और नीचे ऊबड़-खाबड़ पत्थर हैं। वे ऐसे जा रही हैं, जैसे शहर की लड़कियाँ पिकनिक को जाती हैं। श्रम का यह कैसा उत्सव है! नित्य उत्सव। सबेरे इस छोटे से गाँव से विदा लेते समय इस पावन दृश्य को मैंने मुड़-मुड़कर देखा।...
१३. ओंकारेश्वर से खलघाट
सुबह विष्णुपरी घाट पर बैठा था। सुबह की गुनगुनी धूप बड़ी प्यारी लग रही थी। सामने है ओंकारेश्वर पहाड़ी नदी का पहाड़ी तीर्थस्थान। संकरी नर्मदा के दोनों ओर खड़ी चट्टानी कगारें हैं। इस तट पर मांधाता, उस तट पर ओंकारेश्वर दोनों मिलकर ओंकार-मांधाता और बीच में अलस गति से बहती शांत. नीरव नर्मदा। नदी बहती हुई भी रुकी सी जान पड़ती है। सुदूर केरल से आकर बालक शंकर ने यहाँ गुरु गोविन्दपाद के आश्रम में रहकर विद्याभ्यास किया था। वे हमारे देश के सर्वश्रेष्ठ परिव्राजक हैं। भारत की भावनात्मक एकता के लिए उन्होंने जो किया. वह अनुपम है। ऐसे आद्य शंकराचार्य को पावन स्मृति इस ओंकारेश्वर से जुड़ी हुई है। फिर कमलभारती जी. रामदासजी और मायानंदजी सदृश संतों के आश्रम भी यहां रहे। आज भी नए नए आश्रम बनते जा रहे हैं।
नर्मदा तट के छोटे से छोटे तृण और छोटे से छोटे कण न जाने कितने परव्राजकों, ऋषि मुनियों और साधु संतों की पदधूलि से पावन हुए होंगे। यहां के वनों में अनगिनत ऋषियों के आलम रहे होंगे। वहाँ उन्होंने धर्म परविचार किया होगा, जीवन मूल्यों की खोज की होगी और संस्कृति का उजाला फैलाया होगा। हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति रही। लेकिन
अब? हमने उन पावन वनों को काट डाला है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है। धरती के साथ यह कैसा विश्वासघात है। एक आदमी स्नान के लिए आया था। मैंने कहा, '' नर्मदा कितनी संकरी है। ''
'' नमदा की यह एक धारा है। दूसरी ओंकारश्वर के पीछे है। कहते हैं कावेरी नर्मदा से मिली लेकिन थोड़ी ही देर में दोनों में अनबन हो गई और कावेरी नर्मदा से अलग हो गई। ओंकारेश्वर के इस ओर है नर्मदा. उस ओर है कावेरी। ''
'' दोनों फिर मिलती हैं या नहीं? ''
'' जहाँ ओकारेश्वर का टापू खत्म होता है, वहीं दोनों फिर मिल जाती है। नर्मदा ने आखिर छोटी बहना को मना लिया। इसलिए असली कावेरी संगम बाद का है, पहला नहीं। ''
पहले आगमन, फिर बहिर्गमन, अंत में पुनरागमन! बढ़िया कल्पना है!
यहाँ बैठा सामने के घाट को देख रहा हूँ। वहाँ न जा पाने का कोई दुख नहीं है क्योंकि ओंकारेश्वर दो बार हो आया हूँ। लेकिन अनिल और श्यामलाल से कहा कि तुम जरूर हो आओ। नाव से जाना, पुल से आना। यहाँ से मोरटक्का। वहाँ तक सड़क जाती है, लेकिन हम सड़क से नहीं जाएँगे, नदी के किनारे-किनारे जाएँगे।
दोपहर को निकले। लेकिन थोड़ी ही देर में समझ में आ गया कि दोपहर को चलकर गलती की। सूरज सामने रहता है, चट्टानें तंदूर को तरह गरमा गई हैं और श्यामलाल नंगे पाँव है। लेकिन वह तो शायद दहकते अंगारों पर भी चल सकता है।
कभी चट्टानों से जूझते, कभी झाड़ी से उलझते तो कभी सामने तट की पर्वत-माला से आते हवा के झोंकों का आनंद उठाते आगे बड़ रहे थे। कभी रुक जाते माथे का पसीना पोंछते और आगे बढ़ते। शाम को मारटक्का के खेडीघाट पहुँचे। यहाँ नर्मदा पर सड़क का पुल है, पास में रेल का पुल भीहै। रात यहीं बिताई।
सुबह उठते ही अनिल ने कहा, '' जरा ऊपर देखिए। '
मध्य आकाश में चाँद था। मैंने कहा. '' सूरज के हिसाब से अभी सबेरा है, लेकिन चांद के हिसाब से अभी दोपहर है!''
अनिल के लिए यह भले ही विस्मय की बात हो, पर मैं तो चाँद के एक से एक करतब देख चुका हूँ। कभी पूर्ण कुंभ. तो कभी बारीक रेखा उसका बांकपन कभी सीधा तो कभी उलटा, कभी घटता तो कभी बढ़ता कभी निकलते ही डूबने की तैयारी तो कभी आधी रात को गायब और भरी दोपहर को हाजिर! क्या कहना इस मनमौजी का!
चांद जब यह सब कर सकता है। तो एक करतब उसे और दिखाना था। सूर्योदय और सूर्यास्त के कारण पूर्व और पश्चिम दिशाओं की छटा देखते ही बनती है। उपेक्षित रह जाते हैं उत्तर और दक्षिण। क्या ही अच्छा होता अगर चाँद उत्तर में निकलता और दक्षिण में डूबता!
चंद्र का ऐसा अपूर्व उदय देखकर सूर्य भी निरुत्तर रह जाता!
, यहाँ से रास्ता आसान है, झाड़ी खत्म। रात गोमुख-बावड़ी में रहे। सुबह चल दिए। थोड़ी देर में कांकरिया पहुँचे। नदी-तट पर एक खंडहर सी धर्मशाला थी। ऊपर छप्पर नहीं था, खिड़की में पल्ले नहीं थे। खिड़की के इस फ्रेम में से पनिहारिनें ऐसी दीख रही थीं. मानो मैं रंगीन टी .वी. देख रहा होऊँ! खिड़की के पास से देखता तो वाइड व्यू दिखता और हटकर देखता तो क्लोजअप नजर आता! ऐसा लाइव-टेलिकाष्ट तो संसार का श्रेष्ठतम टी.वी. सेट भी नहीं दे सकता।
दोपहर को रावेर पहुँचे। यहाँ नदी तट पर पेशवा का स्मारक है। वहीं एक पेड़ के नीचे खाना बनाया। जब तक झाड़ी में थे. ईंधन की कोई कमी न थी। लेकिन अब लकड़ी मिलना मुश्किल हो गया है। थोड़ी बहुत मिली. बाकी मैं दूर किनारे से ढूंढ लाया। बाद में पता चला कि वे चिता की लकडियाँ थीं।
शाम को बकावा पहुँचे। वहाँ नदी किनारे एक चबूतरा था। आज का रात्रि विश्राम इसी चबूतरे पर था। यहाँ से एक सँकरी पथरीली सड़क नर्मदा के मध्य तक चली गई थी। स्वच्छ पानी भरने के लिए यह सबसे अच्छी जगह थी इसलिए यहाँ पनिहारिनों की भीड़ लगी रहती थी। जल की सतह से जरा से उठे हुए इस जनपथ से आती पनिहारिनें जलपरी सी लग रही थीं। लेकिन ये कोई जलपरियाँ नहीं थीं। ये थीं श्रमबालाएँ, कठोर श्रम करती ग्राम नारियाँ। लेकिन यह श्रम ऐसा था, जो खेल बन गया था। हँसती किलकती,ठिठोली करती स्वस्थ नारियों को अनुभव ही नहीं हो रहा था कि उनके सिर पर भारी बोझ रखा हुआ है, वे नंगे पैर हैं और नीचे ऊबड़-खाबड़ पत्थर हैं। वे ऐसे जा रही हैं, जैसे शहर की लड़कियाँ पिकनिक को जाती हैं।
श्रम का यह कैसा उत्सव है! नित्य उत्सव। सबेरे इस छोटे से गाँव से विदा लेते समय इस पावन दृश्य को मैंने मुड़-मुड़कर देखा।
आगे पड़ा मर्दाना। यह गाँव कुछ बड़ा है, दो-एक दुकानें भी हैं। अनिल और श्यामलाल सौदा लेने लगे, मैं दूर खड़ा था। वहाँ एक वृद्ध बैठे थे।
उन्होंने कहा, '' आप खरीद क्यों रहे हैं? मेरे यहाँ सदाव्रत दिया जाता है, चलिए। '' तुला-तुलाया सौदा वापस करना पड़ा।।
'' यह सदाव्रत कब से चल रहा है?”
' '' पचहत्तर साल से। पचहत्तर साल पहले मेरा जन्म हुआ था। इस खुशी में मेरे पिता ने यह शुरू किया था, जो आज तक चला आ रहा है। मैंने अपनी जमीन चारों बेटों में बाँट दी है, लेकिन दो एकड़ जमीन सदाव्रत के लिए अलग रख दी है। मैं नहीं रहूँगा पर सदाव्रत रहेगा। ''
जिन्दगी तो कुल एक पीढ़ी भर की होती है, पर नेक काम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।
शाम को भटियान पहुँचे। नर्मदा के बालुई तट पर बसा छोटा-सा गाँव। नदी किनारे पेड़ों के पास एक पक्की छोटी धमशाला है। इसमें एक दुबले-पतले बाबा रहते हैं। बच्चों-सा सरल स्वभाव। गांव के लोग इन्हेंखूब चाहते हैं। कोई तीस बरस से यहाँ हैं। हमें बड़े प्रेम से अपने साथ ठहराया। बातें होने लगीं तो मैं समझ गया कि इनकी मातृभाषा गुजराती है।फिर तो गुजराती में बातें होने लगीं। मैंने कहा, '' इतने वर्षों के बाद भी आप गुजराती भूले नहीं? ''
उन्होंने कहा, '' मातृभाषा को कोई कैसे भूल सकता है? ''
सुबह जब चलने लगे, तो बड़े प्यार से बोले, '' आवजो। ''
घड़ी भर के लिए वे संन्यासी में से गहस्थ बन गए थे। विदा लेते मेहमान से कह रहे थे, '' आवजो। '' फिर आना।
अगला पड़ाव मर्कटीतीर्थ। निजन एकांत में वेदा और नर्मदा के संगम पर स्थित ऊँचे टीले पर एक मंदिर है. उसी में रहे। मंदिर में एक युवा पुजारी है और है उसकी माँ। पुजारी की माँ ने कहा. '' आज से कोई तीन साल पहले अचानक यह लडका घर से चल दिया। बहुत ढूंढा पर नहीं मिला। कोई सालभर बाद अमरकंटक से चिट्टी आई कि मैं नर्मदा परिक्रमा पर निकल गया हूँ, मेरी बाट मत जोहना। लेकिन माँ का दिल तो है। सोचती थी, परिक्रमा पूरी करने के बाद मेरा बेटा लौट आएगा। लेकिन परिक्रमा करते-करते इसने तो जोग ही धारण कर लिया। ''
एक ठंडी साँस लेकर उसने कहा,'' कोई पंद्रह साल की उस में हमने इसकी सगाई की थी। लड़की के पिता ने सात साल तक इंतजार किया। जब हमने उसके घर लौटने की उम्मीद पूरी तरह छोड़ दी. तब पिछले साल ही उन्होंने अपनी बेटी की शादी दूसरी जगह की। उस लड़की से मुझे कितनी ममता हो गई थी। ''
चूल्हे की आग को ठीक करते हुए उसने अपना कहना जारी रखा,' 'बड़ा एकांत है यहाँ। पास में कोई गाँव नहीं। मैं और मेरा बेटा, बस हम दोही हैं यहाँ। वह तो दिन भर पूजापाठ में लगा रहता है, मेरा समय काटे नहीं
कटता। यहाँ रहती हूँ तो घर की याद आती है, घर जाती हूँ तो इसकी चिन्ता सताती है। कल रात को ही यहाँ दो मुँह वाला साँप निकला था। मैं बेहद डर गई। बड़ी मुश्किल से बाहर निकाला। ''
बेचारी माँ! उसके मन के दो टुकड़े हो गए हैं। एक हिस्सा यहाँ है,दूसरा घर रह गया है।
बाहर खुले में सोए। आकाश साफ था और रात सुहानी थी। तारे इतने पास लग रहे थे कि हाथ बढाओ और छू लो।
सुबह चल दिए। दोपहर तक नावडाटोडी पहुँच गए। सामने तट पर है महेश्वर- रानी अहिल्याबाई का नगर। अहिल्याबाई अत्यंत कुशल प्रशासकथीं और नर्मदा की परम भक्त थी। महेश्वर में उनके बनवाए घाट इस तट से बड़े ही सुंदर लग रहे थे।
यहाँ एक सज्जन रहते हैं। पहले सरकारी अफसर थे। अच्छी पेन्शन मिलती है। अपनी सारी पेन्शन कुत्तों पर खर्च करते हैं। इस गाँव के तो क्या,आसपास के लोग भी इन्हें खूब चाहते हैं। मिलने पर बोले, '' चाय की इस दुकान की यह बैंच ही मेरा घर है और इस झोले में मेरी सारी गृहस्थी है। गाँव के कुत्ते मेरे स्वजन हैं। '' फिर धीर-से बोले, '' आदमी से कुत्ते अच्छे। ''जीवन के किन कटु अनुभवों ने उनके मन में मनुष्य के प्रति ऐसी कटुता उत्पन्न की होगी।
' 'देवी-देवता में मेरा कोई विश्वास नहीं। साधु-संतों पर भी नहीं। बाहर से धर्मात्मा होने का ढोंग रचते लोगों को ऊपर से नीचे तक गंदगी में डूबा हुआ देख चुका हूँ। बस, एक नर्मदा को मानता हूँ। मुझे वह हर घड़ी दिखनी चाहिए। बरसात में बाढ़ का पानी जब तक इस बैंच को छूता नहीं,तब तक यहाँ से नहीं जाता। नर्मदा के बिना मैं नहीं रह सकता। ''
फिर हँसकर बोले, ' 'यहाँ के लोगों ने मुझे खूब प्यार दिया। जब मरूँगा, तब मेरी ऐसी शव-यात्रा निकलेगी कि किसी नेता की क्या निकलेगी। दुख यही है कि उसे देखने मैं जिन्दा नहीं रहूँगा। ''
सुबह मन में सहस्रधारा देखने की उत्कंठा लेकर चले। मंडला की सहस्रधारा कई बार देख चुका हूँ, महेश्वर के पास की इस बड़ी सहस्रधारा को पहली बार देखूँगा।
थोड़ी देर में शोर सुनाई पड़ने लगा तो चाल तेज हो गई। देखते-देखते सहस्रधारा आ गए। नर्मदा यहाँ खूब फैल गई है, हजारों धाराओं में बंट गईहै। इन धाराओं में छोटे-छोटे अनगिनत प्रपात फड़फड़ा रहे हैं। चारों ओर धाराओं का जाल-सा फैला है। इन आड़ी-टेढ़ी, आंकी-बांकी जलधाराओं से नर्मदा ने यहाँ मानो झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया!
पानी की चादर, जलधाराओं के ताने-बाने, चट्टानों का करघा! ऐसी चादर तो बस नर्मदा ही चुन सकती है और ऐसी चादर तो बस धरती ही ओढ़ सकती है!
और यह धारा शब्द नर्मदा के साथ खूब जुड़ा हुआ है। अमरकंटक से. निकलते ही कपिलधारा और दूधधारा। मंडला की सहस्रधारा. बरमानघाटकी सतधारा, ओंकारेश्वर के पास धाराक्षेरु और महेश्वर के पास पुन : सहस्रधारा! कैसी धाराप्रवाह नदी है यह!
जहाँ-जहाँ धारा शब्द आया है. वहाँ प्रपात जरूर है। चाहे कपिलधारा जैसा ऊँचा प्रपात हो। चाहे सहस्रधारा के इन तितलियों जैसे छोटे-छोटे प्रपात हों। जबलपुर के धुआँधार में धारा शब्द आते आते रह गया। वैसे धार, धारा का ही तो अनुज है!
पर अब चलना चाहिए। धूप तेज हो रही है। आगे का मार्ग कठिन है। थोड़ी देर के लिए किनारा छोड़ना होगा। चलते चलते एक टीले पर आ गए। इस ऊँचे झरोखे से सहस्रधारा के नन्हे ..मुन्ने प्रपात एक साथ दिखाई दे रहे थे। नन्हे-मुन्ने क्या, एकदम दुधमुंहे। इनके मुँह से दूध अभी छूटा ही कहाँ। ढालखेड़ा में राघवानंद जी के आश्रम में रहे। यहां किसी ने बताया कि नर्मदा में वह जो टापू दिखाई दे रहा है. एक फ्रैंच मुगल उसमें छह महीने तक रहा। बरसात में उस तट पर चला गया। कुछ समय पहले फ्रांस लौट गया।
ऐसी कौन-सी डोर होगी, जो सात समंदर पार के फ्रैंच नौजवान पति-पत्नी को नर्मदा के इस सुनसान टापू में खींच लाई होगी- सौंदर्यपिपासु मन, एकांत साधना की चाह, या पश्चिम को आपाधापी से विलग होकर पूर्व की शांति में डुबकी लगाने की प्रबल इच्छा?
रात को बाहर खुले में सोए। इस बार की यात्रा में नर्मदा में इतने टापू देखे हैं कि रात को आकाश-गंगा में भी मुझे अनेक टापू दिखाई दिए। सुबह चल दिए। आज दीवाली है। दोपहर तक साटक-संगम पहुँच जाएंगे। वहाँ नर्मदा का प्रसिद्ध खलघाट पुल है। वहीं इस बार की यात्रा समाप्त करेंगे।
थोड़ी देर में साटक-संगम पहुँच गए। साटक एक छोटा-सा झरना है,लेकिन इसे पार करने में एक नाटक हुआ। साटक में एक नन्हा प्रपात था। उसे देखते हुए मैं पानी में उतरा। उतरते ही काई लगे पत्थर पर से फिसलकर गिरा। किसी तरह उठा कि दुबारा गिरा। साटक ने अपने अंक में मुझे दो बारलिया, इसलिए यह नाटक एकांकी न रहकर द्विअंकी हो गया!
पास ही एक मंदिर है। मंदिर की देखभाल एक महाराष्ट्रियन महिला करती है। माता के स्नेह से हमें मंदिर में ठहराया। मैंने कहा, '' हमारी इस बार की यात्रा यहाँ समाप्त हो रही है। कल सुबह घर लौट जाएँगे। अगले साल फिर यहाँ आएंगे और दशहरे से आगे बढेंगे। ''
'' आगे शूलपाण की झाड़ी पड़ेगी। उसके बारे में तो आपने सुना ही होगा। ''
सुना क्यों नहीं! कितने ही परकम्मावासियों से कितनी ही बातें सुनी हैं। झाड़ी में तीर- धनुष लेकर भील आते हैं और सब कुछ लूट लेते हैं। अंत में परकम्मावासी के पास बच रहती है केवल लँगोटी और तूँबी। लेकिन इन्हीं बातों ने हमारे अंदर झाड़ी के प्रति विशेष आकर्षण जगा दिया है। राजघाट ( बड़वानी) से झाड़ी शुरू होगी। आपके पास यह वो सामान है न, इसमें से कुछ न बचेगा। कपड़े और चश्मा तक उतार लेंगे। ''
लँगोटी लगाकर रह लूंगा, लेकिन मेरी स्केच-बुक ले ली, चश्मा ले लिया, तो समझिए मेरे कवच-कुंडल ही उतार लिए। नंगे बदन ठंड कैसे बर्दाश्त होगी।
मुझे कुछ सोच में देखकर उसने कहा. '' एक काम करो। झाडी में से मत जाओ, बाहर-बाहर से निकल जाओ। ''
' नहीं, हरगिज नहीं! झाड़ी में से ही जाएँगे, चाहे जो हो। हाँ, एक काम कर सकते हैं। दीवाली की छुट्टी के बजाय गरमी की छुट्टी में चलें। गरमी में नंग- धडंग रह लेंगे, ठंड बर्दाश्त न होगी।
रात का अंधेरा जल में उतर आया था और काजल-सा काला हो चला था। बिस्तर में पड़ा-पड़ा तारों को निहारता मैं गुनगुना रहा था-
जटाजूट बढाएँगे
भिक्षा मागँकर खाएंगेँ
निर्धन-निर्वस्त्र हो जाएँगे
पर झाड़ी में से जाएँगे!
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(चित्र - अमृतलाल वेगड़ का कोलाज)
(मप्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित पुस्तक सौन्दर्य की नदी नर्मदा से साभार)
नर्मदा की तरह ही सस्मरण भी शब्दों रूपी लहरों के सहारे बहता चला गया ............कल- कल छल-छल !!अति सुन्दर !!
जवाब देंहटाएंपुस्तक प्राप्ति हेतु कृपया सुझाव दें
जवाब देंहटाएंमध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल
हटाएंgmail
mphga1970@gmail.com
नर्मदा मुझे बचपन से अपनी और खिंचती चली आयी हे
जवाब देंहटाएंऔर जबसे सौन्दर्य की नदी नर्मदा अमृत लाल जी वेगड़ की रचना पड़ी हे नर्मदा यात्रा को जी चाहता हे
हर हर नर्मदे
वाह..!
जवाब देंहटाएंAdbhut kitab...ek baar hath men liye baad chhuutti nahin...kamaal ka lekhan...
जवाब देंहटाएं👌👌
जवाब देंहटाएंI heard few episodes on Akashwani /Gyanwani at Nagpur. Whether those are available as Audiobook?
जवाब देंहटाएंI heard few episodes on Akashwani /Gyanwani at Nagpur. Whether those are available as Audiobook?
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