--------------------------------------------------------------------------------------- रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन में आप भी भाग ले...
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रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन में आप भी भाग ले सकते हैं. अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012
अधिक जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html
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छत्ता
सुमित सक्सेना
कालू लगातार भौंक रहा था. उस पतले सूअर ने उसके इलाके में आने की गलती जो कर दी थी. वो भी क्या करता, उस गली से आती महक उसे ऐसे ही खींच लायी थी, जैसे हरिया हर शाम घर लौटे वक़्त, न चाहते हुए भी नुक्कड़ के ठेके पर पहुच जाता था. रोज़ कसम खाता की आज नहीं पिऊंगा, लेकिन जैसे ही उसे ठेका दिखता, मुंह में अपने आप संतरे और नमक का स्वाद आने लगता. हाथ पैर ढीले पड़ जाते और साइकल खुद ब खुद उधर मुड जाती. पिछली रात बहुत देर हो गयी तो झोपड़े के बाहर खड़ा हो कर बहुत देर सोचता रहा की अन्दर जाऊं कि नहीं, फिर मालती की तीखी आवाज में घुली गालियों याद आ गयी और वो बाहर खड़े खान चाचा के ठेले पर ही सो गया. कालू, सूअर को भगा कर वापस आ गया था और हरिया के पैर के अंगूठे को चाट रहा था.
"अरे कलुआ, सोने दे , मसखरी न कर सुबह सुबह, साला जब देखो भौंकता रहता है, कुत्ते का बच्चा"
झोपड़े के अन्दर सारे जाग चुके थे. बगल की पटरी से गुजरती सुबह की एक्सप्रेस ने अभी अभी पूरे झोपड़े और उसके अन्दर सोने वालों को हिला हिला हर हर रोज़ की तरह उठा दिया था. मालती ने एक हाथ में ६ महीने के राजू को थाम रखा था और दूसरे हाथ से साड़ी के पल्लू में चने बांध रही थी. राजू को रोज की तरह अफीम का नमक चटा दिया था और डॉक्टर का वो परचा भी ले लिया था जो उसने १० रुपये में दवा की दुकान से बनवाया था और जिसे दिखा कर दिन भर राजू के नाम पर ट्रेन में भीख मांगती थी.
८ साल का गुड्डू जल्दी जल्दी रात की बची रोटियां हरी मिर्च के साथ मुंह में ठूंस रहा था, उसे पता था की इसके बाद खाना शाम को ही नसीब होगा. बगल में कल की इकठ्ठा की हुई पानी की बोतलें रखी हुई थी जिसे वो अकरम के साथ मिलकर मुनीसपालटी के नल से भरता था और फिर स्टेशन पर जा कर बेचा करता था. एक जेब में उसने कुछ कंचे भरे हुए थे. दोपहर में जब किसी ट्रेन के आने का वक़्त नहीं होता था तो अकरम के साथ रेलवे गोदाम के पीछे वाले मैदान में खेला करता था.
9 साल की सुनीता चटाई समेत कर कोने में रख रही थी, बगल में पड़े तख्ते के ऊपर पेंसिलों का बण्डल रखा था. आज कचहरी वाले नुक्कड़ की लाइट पर जाना था, कल रेशमी बता रही थी की उसने १२ पेंसिलें बेचीं थी वहां.
हरिया मुंह में दातून घुसेड़े अन्दर आया, शायद बाल्टी ढूंढ रहा था.
"ले आ गया हरामजादा!! अरे मर क्यों नहीं जाता वो नाली का पानी पी पी कर. ३ दिन से कह रही हूं पैसे बचा कर लाला के यहाँ से पुराना टाट ले आये, गर्मी में झोपडी भट्टी बन जाती है, टूटा छप्पर कुछ तो ढक जाएगा, मगर इसे तो बोतल के सिवा कुछ न दिखे." मालती ने चिल्ला कर कहा.
हरिया ने कुछ नहीं कहा, जैसे सुना ही न हो, बाल्टी ली और निकल गया हैंडपंप की तरफ. कुल जमा बीस बाईस झोपड़ियों का झुण्ड था रेलवे लाइन के किनारे. कुछ बच्चे बगल में बह रही नाली में नाव बहा रहे थे. हरिया ने ऊपर लगे मधुमक्खी के छत्ते को देखा. कितना बड़ा हो गया है. दो तीन दिन में इसे तोड़ कर शहद निकालूँगा, कम से कम १० किलो तो होगा, लाला अच्छे पैसे दे देगा.
"अरे हरिया, कुछ सुना की नहीं" पहले से हैंडपंप पर नहा रहे जीतू ने चिल्ला कर कहा और फिर बिना पूछे ही बताने लगा " कल कोरट वाले श्रीवास्तव वकील बैठे थे रिक्शे पर, बता रहे थे आदेश हो गया है, एक आध हफ्ते में पूरी बस्ती साफ़ हो जाएगी, रेलगाड़ी मरम्मत का कारखाना बनेगा अब यहाँ"
हरिया कुछ नहीं बोला, वो अब भी याद करने की कोशिश कर रहा था की कल दारू वाली आंटी को कितने पैसे दिए थे..ऐसा लगता है साली ने नशे में ज्यादा पैसे ले लिए वरना केवल ४० रूपए कैसे बचते. फिर याद आया, अंडे भी खाए थे साथ में, नमक चाट चाट कर साली जीभ बस अड्डे वाली सड़क जैसी हो गयी थी. " अरे ज्यादा गुलाटी मत मार जितुआ, अइसन आदेश बहुत बार हुआ है पहले, फिर सरकारी काम अटक जाएगा देख लियो." हरिया ने साबुन सर पर लगते हुए कहा….
दोपहर के दो बज रहे थे, चिल्ला चिल्ला के हरिया का गला सूज गया था मगर अभी तक बोहनी नहीं हुई थी, बीच बीच में वो जोर से चिल्लाता "कबाड़ी वाला" और फिर अपने साईकिल की मिमियाती आवाज सुनने लगता. आज का तो दिन ही ख़राब है, लगता है शाम की दारू भी गयी, हरिया मन ही मन सोच रहा था. तभी ऊपर से एक हट्टी कट्टी पंजाबी औरत का सर दिखा एक घर की बालकानी में.
"अरे ओ कबाड़ी, अखबार का क्या देगा"
" ३ रूपए बीबी जी."
"दिमाग ख़राब है, चल ४ में ले जा"
"बीबी जी आठ आना तो मिलता है एक किलो में, ४ में कैसे दू "
"तो रहने दे फिर, दिन दहाड़े पागल बना रहा है"
आज का दिन वाकई ख़राब है. रिफ्यूजी कालोनी पार कर हरिया जज कालोनी में घुस गया. देखा एक बंगले के बाहर ट्रक खड़ा है और बहुत सारा घर का सामान बाहर रखा हुआ था. लगता है कोई घर छोड़ कर जा रहा है, अब काम बन जाएगा, कुछ तो मिल ही जाएगा यहाँ से. हरिया तेजी से उस बंगले के पास पहुंच गया. बंगले के बाहर एक साहब और मेमसाहब खड़े थे. मेमसाहब की गोद में एक बच्चा भी था.
'साहब कुछ कबाड़ मिलेगा"
"अरे भाई अभी तो घर में सामान रखा भी नहीं है, कबाड़ कहा से दू," साहब ने मुस्कुरा के मेमसाहब की ओर देखते हुए कहा. हरिया का मुंह उतर गया. यहाँ भी किस्मत फूटी. चलो आगे बढ़ते है. अचानक साहब ने कहा "अरे सुनो, ये सामान रखवा दोगे ऊपर?"
हरिया सोच में पड़ गया. "साहब हम तो..."..बीच में बात काटते हुए साहब बोले " २०० रूपए दूंगा, लेकिन सारा सामान रखवाना पड़ेगा"....हरिया को लगा उसकी आंखे कटोरे से बाहर आ कर गिर जाएंगी. २०० रुपये. यानी ४ दिन की आमदनी. "ठीक है साहब"
हरिया एक एक कर के सामान रखने लगा. मेज, कुर्सियां, अलमारी, बिस्तर, सजावट के सामान, गद्दे, बक्से, कितना सामान है, और घर भी कितना बड़ा है अन्दर से. कितनी खिडकियां है. दीवारों पर जैसे चांदनी पुती हो. जमीन इतनी चिकनी की अपना चेहरा देख लो. ऊपर छत पर कैसा आलीशान झूमर. ऐसा लगता है जैसे बर्फ का पहाड़ पिघल रहा हो.
शाम हो गयी. हरिया सारा सामान रख कर, कोने में बैठा सुस्ता रहा था. अचानक उसे सामानों से थोड़ा अलग पड़ी एक फटी हुई टाट की चटाई दिखी. इतने में साहब बाहर आये. "ये लो पैसे. और ये एक पुरानी कमीज भी है, तुम ले लो, तुम्हारे काम आ जाएगी." कमीज और पैसे देख कर हरिया के फटे सूखे होठों पर अजीब सी मुस्कान आ गयी. ऐसा लग रहा था जैसे सूखा रेगिस्तान अंगडाई ले रहा हो. हरिया को याद नहीं आ रहा था की इसके पहले उसने कब नयी कमीज पहनी थी. उसकी कमीज तो ४ साल से साथ दे रही थी. मुनिया चाची के बेटे के शादी में मिली थी.
"साहब, अगर वो टाट की चटाई काम की न हो तो मैं ले लू....हमारे झोपड़े के छत ढक जाएगी...." हरिया ने थोड़ा डरते हुए पूछा. "हां ले लो"
आज घर लौटे वक़्त, हरिया की साइकल कुछ ज्यादा ही तेज चल रही थी. जेब गरम थी. तन पर नयी कमीज. और तो और मालती भी खुश हो जाएगी टाट चटाई देख कर.
जैसे ही वो झोपड़ बस्ती के पास पंहुचा, उसे यकीन नहीं हुआ की वो क्या देख रहा था. सारे झोपड़े टूटे हुए एक कोने में एक दुसरे के ऊपर गत्तमगत थे. उसको घेरे बस्ती के लोग खड़े हुए थे. शायद उस ढेर में अपने अपने सामान की तलाश कर रहे थे. पीछे से आती ट्रेन की रौशनी में वो ऐसे लग रहे थे जैसे चीटियों का झुण्ड अपने बिल में जा रहा हो. जिन लोगों को अपना सामान मिल गया था वो उसे सर पर रख कर एक जगह जमा रहे थे. सरे बुड्ढे-बुड्ढियों को एक जगह बैठा दिया गया था. उनकी आंखों में कुछ ख़ास दर्द नहीं था. शायद ऐसे मंजर कई बार देखे थे उन्होंने. छोटे बच्चे अपने अपने सामान के ढेर पर बैठे उससे खेल रहे थे. उस ढेर में से तख्ते, बक्से, कपडे, बर्तन ऐसे मुंह निकले झांक रहे थे जैसे ऊदबिलाव हवा सूंघ रहा हो. सारा मंजर ऐसा लग रहा था जैसे बाढ़ में बहकर किसी गांव का कचरा आ कर इकठ्ठा हो गया हो. दूर वाले मंदिर में शाम की आरती हो रही थी और भजन बज रहा था "भक्त जानो के संकट पल में दूर करे..स्वामी जय जगदीश हरे.."
मालती राजू को गोद में लिए, भीड़ में घुसने की कोशिश कर रही थी और बगल में खड़ी औरत से गाली गलौच कर रही थी. गुड्डू और सुनीता कुछ बर्तन, चूल्हा और फटे हुए गद्दे को एक कोने में रख उसके बगल में बैठे हुए थे. पता नहीं इस ढेर में ये सामान भी कैसे मिल गया. कालू अब भी सूअरों को उस ढेर से दूर भगा रहा था. हरिया कुछ देर खड़ा देखता रहा. फिर उस ढेर की तरफ चल दिया.
कुछ दूरी पर मधुमक्खियों का छत्ता टूटा पड़ा था. उसमें से शहद निकल कर बगल में बह रही नाली में जा रहा था. कुछ मधुमक्खियां अपने टूटे हुए छत्ते के ऊपर मंडरा रही थी. शायद वो भी अपना सामान उस छत्ते के ढेर में से ढूंढ रही थी!!
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