कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन (5) - परितोष मालवीय की कहानी - महत्त्वाकांक्षा का मोती

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कहानी महत्त्वाकांक्षा का मोती परितोष मालवीय पति को ऑफिस और बच्चों को स्कूल भेजने के चार घंटे बाद सुधा खाने की प्लेट और सुबह के अखबार के ...

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कहानी

महत्त्वाकांक्षा का मोती

परितोष मालवीय

पति को ऑफिस और बच्चों को स्कूल भेजने के चार घंटे बाद सुधा खाने की प्लेट और सुबह के अखबार के साथ अभी बैठ ही पाई थी कि ड्राइंगरूम में रखा फोन बज उठा। उसके लिए यह समय फोन पर लंबी बातचीत के लिए सबसे उपयुक्त रहता है। और तो और उसने सभी को यह बता भी रखा है कि सुबह सात से दस और शाम पांच से आठ बजे के बीच उसे फोन करने से परहेज करें। फोन पर बातचीत करना उसे हमेशा से अच्छा लगता रहा है। सुधा ने लपक कर फोन उठाया.....

हलो......कौन....... ममता। कहाँ थी इतने दिन? तुमने तो गौहाटी जाने के बाद फोन ही नहीं किया। मैंने तुमसे कहा भी था कि अपना नया नंबर बता देना ताकि संपर्क बना रहे।

ममता और सुधा की मित्रता इतनी प्रगाढ़ रही है दोनों के रिश्ते में वर्षों बाद भी वही ताजगी है जो स्कूल के समय में थी। बचपन की अठखेलियाँ हों, किशोरावस्था की उमंग या जवानी का ज्वार, दोनों एक-दूसरे के सारे अनुभवों को बाटते हुए बड़ी हुईं हैं। एक - दूसरे की कमियों और खूबियों से भलीभांति परिचित।

‘‘मैं भी क्या करती सुधा। चार साल बाद अब जाकर गौहाटी ट्रांसफर हो पाया है। तुम्हें तो पता ही है कि हमारी गृहस्थी लखनऊ में कैसे चल रही थी। बड़ी मुश्किल से आज समय मिला है। अभी बैंक से ही बात कर रही हूं।’’........ममता ने थके से स्वर में कहा।

पर शादी के बाद नौकरी करने की निर्णय तो तेरा ही था। और नौकरी ही क्या, शादी भी तो तूने अपनी ही मर्जी से की थी। मैंने तुझसे पहले ही कहा था कि नौकरीपेशा महिला के सामने हमेशा मुसीबतों का पहाड़ खड़ा रहता है। खैर छोड़, ये सब बातें तो पुरानी हो गई हैं। अब तो तू और तेरे हसबैंड एक ही जगह पर हैं। अब तो सब कुछ सही ही होगा - सुधा ने जिज्ञासा व्यक्त की।

नहीं यार। अब अलग समस्या खड़ी हो गई है। रोहन को मैं लखनऊ में दादा-दादी के ही पास छोड़ आई हूँ। जब तक मैं लखनऊ में थी तो ऐसा लगता था कि मेरा ट्राँसफर गौहाटी होते ही सभी समस्यायें सुलझ जाएगी। मैं ही जानती हूँ कि किस तरह प्राइवेट बैंक की नौकरी के साथ मैंने रोहन की देखभाल की है। अब वह आठ साल का हो गया है तो उसको झूठ बोलकर बहलाया भी नहीं जा सकता। अब हर पल मुझे उसकी ही चिंता लगी रहती है।

तो उसे भी अपने साथ गौहाटी ले जाती। कम से कम अब तो वो माँ-बाप का प्यार पहचाने, उन्हें एक साथ देखे। बेचारा बच्चा अपने पापा को कितना मिस करता होगा। - सुधा तपाक से बोली।

उसे अब पापा के बिना रहने की आदत पड़ गई है। और क्यों न पड़े, चार साल का ही तो था जब आलोक का ट्राँसफर गौहाटी हो गया था। पर अब वह काफी जिद्दी हो गया है। किसी भी चीज को लेकर मचल जाता है। जब तक वह चीज उसे मिल न जाए, मानता ही नहीं है। कुछ दिन के लिए उसे यहां लायी थी पर उसका मन नहीं लगा। अब कह रहा है कि गौहाटी तभी आऊंगा जब मैं दिनभर घर पर रहूँ। अब तू ही बता यह कैसे संभव है - ममता बोली।

मैं जानती हूँ कि तू नौकरी नहीं छोड़ सकती। पर कुछ दिन लंबी छुट्टी क्यों नहीं ले लेती। रोहन को भी अच्छा लगेगा और तू भी कुछ राहत महसूस करेगी - सुधा ने सलाह दी।

नहीं यार। ऐसा नहीं हो सकता। मैं कोई सरकारी नौकरी में तो हूँ नहीं, जहाँ चाइल्ड केयर लीव मिलती है। और फिर अभी मेरे लिए यह जगह नयी है। मैं अभी तक बैंक में ठीक से एडजस्ट भी नहीं हो पाई हूँ। यदि लीव लूँगी तो इंप्रैशन खराब हो जाएगा। और इस साल मेरा प्रमोशन भी ड्यू है। - ममता ने उत्तर दिया।

यार भाड़ में जाए ऐसा प्रमोशन और कैरियर। तेरा बच्चा माँ - बाप के होते हुए भी अनाथों की तरह पल रहा है और तुझे कैरियर की पड़ी है। जरा सोच के देख, आखिर तू किसके लिए यह सब कर रही है। तेरी जगह मैं होती तो उसी समय नौकरी छोड़ देती जब चार साल पहले आलोक का ट्रांसफर हुआ था। और भगवान की कृपा से आलोक भी अच्छी पोजीशन पर हैं। घर में सभी सुख-सुविधाऐं हैं पर उन्हें भोगने वाला नदारद है। हमारे घरों में काम करने वाली बाई हो या बच्चे को दिनभर ताकने वाली आया, उनका तो काम करना समझ में आता है। पर पति की अच्छी खासी सैलरी के बावजूद कुछ पैसों के लिए तेरा काम पर जाना मेरी समझ से परे है। - सुधा ने लगभग बिगड़ते हुए कहा।

नहीं यार। इनका कहना है कि हाउस वाइफ बनकर रहने से स्मार्टनेस चली जाती है। और मैंने भी यह पाया है कि छुट्टी वाले दिन समय काटना मुश्किल हो जाता है। आखिर कोई कितनी देर टी.वी. देखकर टाइम पास कर सकता है - ममता ने उसकी बात काटते हुए कहा।

क्यों......घर में पचासों काम होते हैं। घर को व्यवस्थित और साफ रखना भी तो जरूरी है। तुम बुरा मत मानना, पर ज्यादातर नौकरीपेशा महिलाओं के घर गंदगी के मारे बजबजाते रहते हैं। यदि तुमने घर की साफ सफाई के लिए नौकरानी लगा रखी हो तो रोहन व आलोक को कुछ अच्छा बनाकर खिला सकती हो। - सुधा ने सीख देते हुए कहा।

हां यार, ये बात तो सही है पर सच बताऊँ तो दिनभर बैंक में थकने के बाद शाम को किचिन में झांकने की इच्छा नहीं होती। हम लोग शाम का खाना अक्सर रेस्टोरेंट से पार्सल मंगा लेते हैं।- ममता ने शेखी मारते हुए कहा।

क्या आलोक घर के काम में हाथ नहीं बटाते?

कतई नहीं। ये तो शाम को आकर टी.वी. से चिपक जाते हैं। इनसे तो किसी काम का सहारा ही नहीं है। - ममता तपाक से बोली।

पर तुझे ऐसा नहीं लगता कि आगे जाकर रोहन को तुम लोगों से कोई अटैचमेंट नहीं रहेगा। तेरा रोहन आठ साल का हो गया है और अब तक तेरे साथ से वंचित है। कुछ दिन बाद तो वह अपनी पढ़ाई और नौकरी के चलते तुझसे दूर हो ही जाएगा। फिर बुढ़ापे में तू ये अपेक्षा नहीं करना कि वह तुम्हारा ख्याल रखेगा। आखिर क्रैच और ओल्ड ऐज होम में कोई खास अंतर नहीं होता। कल के दिन जब तुम्हें जरूरत होगी तो वह तुम लोगों का ख्याल क्यों रखेगा? - सुधा ने प्रश्न किया।

ये बात तो ठीक है पर यदि हम उसे यहाँ ले भी आयें तो भी कोई फायदा नहीं है। वह दिनभर घर में अकेला ही रहेगा। कम से कम वहाँ उसे दादा - दादी तो देखते रहते हैं। - ममता ने अपनी विवशता बताते हुए कहा।

पता नहीं क्यों मुझे तुम्हारी एक भी बात ठीक नहीं लग रही है। ऐसा लग रहा है कि सिर्फ घर गृहस्थी के कामकाज से दूर रहने के लिए ये सब बहाने हैं। आलोक अच्छा वेतन पाते हैं। तुझे नौकरी करने की कोई प्रत्यक्ष आवश्यकता नहीं है। अपने बच्चे की देखभाल के नाम पर तुम लोग कुछ कर नहीं रहे हो। कभी तुमने उसे स्कूल से लौटते समय अटैंड नहीं किया, उसके स्कूल के अनुभव नहीं बांटे, अपने हाथ से उसे बनाकर खिलाने के लिए तुम्हारे पास टाइम नहीं है। तुम सिर्फ पैसा कमाने की मशीन बनकर रह गई हो। - सुधा ने क्रोधित स्वर में कहा।

तुम्हारा कहना सही ही है पर अब मैं ऐसे दुश्चक्र में फंस चुकी हूँ कि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती। दरअसल लखनऊ में हमने जो नया फ्लैट बुक कराया है, उसकी किस्त मेरी सैलरी से ही कट रही है। लोगों को लगता है कि दोनों कमा रहे हैं तो खूब सेविंग हो रही होगी, पर पैसा कैसे खत्म हो जाता है, पता ही नहीं चलता। - ममता ने बुझे से स्वर में कहा।

अगर ऐसी बात है तो तुम्हारा काम पर जाना और भी बड़ी बेवकूफी है। सिर्फ पैसों के लिए लोग नौकरी करते हैं और वो भी नहीं बच रहा तो बेकार है। महिलाओं को नौकरी अपनी सहूलियत के लिए करनी चाहिए न कि पति की इच्छापूर्ति के लिए। तुमसे अच्छी स्थिति तो मेरी है। कम से कम मुझे ऑफिस का काम तो नहीं करना पड़ता। - सुधा ने उत्साह से कहा।

पर यार मैंने तो यह देखा है कि घर के कामकाज संभालने वाली महिला को उसके काम के लिए कोई क्रेडिट नहीं देता। और तो और परिवार के सभी सदस्य उससे तमाम अपेक्षायें जरूर पाल लेते हैं। मेरा तो अनुभव यह है कि इस जॉब के पहले जब तक मैं घर पर थी, मेरे सास-ससुर और पति मुझसे पूरी गृहस्थी का कार्य पूरी तन्मयता और सुघड़ता से करने की अपेक्षा करते थे। परंतु जब से ये नौकरी लगी है उनकी अपेक्षायें कम हो गयीं हैं और मुझे यह बहाना मिल गया कि समय नहीं बचता। सच तो यह है कि मैं खुद ही घर गृहस्थी में खटने की बजाए बैंक में नौकरी करना बेहतर समझती हूँ। कभी-कभार मेरी सास जरूर ताने मार देती हैं कि तुम्हारा बच्चा तो हम लोग ही पाल रहे हैं। और मैं भी सुन लेती हूँ। - ममता ने बिना किसी झिझक के कहा।

यह बात तो सही है पर तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम अपनी सुविधा के लिए रोहन और कुछ हद तक आलोक को उनके हक से वंचित कर रही हो। रोहन की भी इच्छा होती होगी कि उसकी माँ भी उसे उतना ही समय दे जितना उसके बाकी दोस्तों की माँऐं देती हैं। क्या तुम्हें अपने बचपन की याद नहीं कि किस तरह स्कूल से लौटने के बाद हमारी माँ हम लोगों का ख्याल रखती थीं। दिन में भूख लगने पर बेसन का हलवा बनाकर खिलाती थीं। क्या रोहन तुमसे ऐसी कोई इच्छा व्यक्त नहीं करता? - सुधा ने पूछा।

जब तक लखनऊ में थी उसे हलवा तो नहीं पर कभी - कभी मैगी बनाकर खिला देती थी, तो खुश हो जाता था। मुझे भी यह बात महसूस होती है कि मैं रोहन के लिए कुछ नहीं कर पा रही हूँ, पर उसे भी अब इसकी आदत पड़ गई है। वह जब चार साल का था तब से ही अपना लगभग सारा काम कर रहा है। वह मुझसे शिकायत तो नहीं करता पर कभी - कभी दुःखी जरूर होता है। मैं अब तक तो उसे खिलौनों, चॉकलेट ओर कार्टून का लालच देकर बहला लेती थी पर अब वह बड़ा हो गया है इसलिए उसे बहलाया नहीं जा सकता। कभी - कभी तो बहुत बेरुखी से पेश आता है। पर मैं उसे डाँटना भी नहीं चाहती। वैसे भी दिनभर के बाद उससे मिलना हो पाता है, उस पर भी उसे डांट या मार दूँ तो दुःख होता है। वो बेचारा भी दिनभर फ्लैट की चारदीवारी में रहते-रहते बोर हो जाता है। कुछ दिन पहले कह रहा था कि उसे भी एक बहिन चाहिए जिसके साथ वो खेल सके। अब मैं उसे कैसे समझाऊँ कि उसे ही पालने पोसने में मुझे नानी याद आ गयी थी, दूसरा कौन झेलेगा। - ममता ने एक स्वर में कहा।

यहां भी तुम सिर्फ अपनी सुविधा के बारे में सोच रही हो। मेरे समझ से मांग तो वह गलत नहीं कर रहा है। उसकी भी जरूरत समझने की बात है। बेचारा कब तक अकेला बैठकर टी.वी. पर कार्टून देखता रहेगा। मेरे तो दोनों बच्चे आपस में इतने मशगूल रहते हैं कि कार्टून देखने का समय भी याद नहीं रहता। मेरा काम सिर्फ उनका झगड़ा सुलझाना ही रहता है। चाहे बच्चे हों या बुजुर्ग, अकेलेपन से बड़ा दुश्मन और कोई नहीं। - सुधा ने ज्ञान बघारते हुए कहा।

मुझे नहीं लगता कि कोई वर्किंग वूमैन एक से ज्यादा बच्चे अफोर्ड कर सकती है। फिर दो बच्चों का खर्च उठाना भी तो आसान नहीं है। रोहन की पढ़ाई में ही इतना खर्च हो रहा है कि पूछो मत। पर मुझे आलोक को लेकर ऐसा कोई अपराधबोध नहीं है। इन्फैक्ट वो ही सबसे ज्यादा चाहते थे कि मैं नौकरी करूं। मुझे नौकरी करते हुए इतने साल हो गए है और अब मुझे इसकी आदत हो गई है। अब मैं नौकरी छोड़कर घर बैठने के बारे में सोच भी नहीं सकती। मुझे लगता है कि घर बैठने से मैं बोरियत के कारण डिप्रैशन का शिकार हो जाऊंगी। अब कुछ ही दिनों की तो बात है रोहन थोड़ा और बड़ा हो जाएगा तो उसकी ओर से भी मैं निश्चिंत हो जाऊंगी। और अगले प्रमोशन के बाद मैं मैनेजर बन जाऊंगी तो कुछ आराम हो जाएगा। - ममता ने सफाई पेश की।

तू चाहे अपनी सफाई में कोई भी तर्क दे ले पर जो कुछ तू खो रही है, वह तेरी नौकरी जितना ही महत्त्वपूर्ण है। तुझसे इतनी बात करके मुझे यह समझ आ गया है कि तेरे लिए ये नौकरी अपने पति और बच्चे से बढ़कर है। तू कितनी महत्वाकांक्षी और यांत्रिक होती जा रही है। मेरे बेटे के स्कूल में अगले हफ्ते वार्षिक उत्सव है। कल ही मैं उसे जयशंकर प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्त की रिहर्सल करा रही थी जिसमें एक कथन है "महत्त्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता के सीपी में रहता है" । और मैं देख रही हूं कि यह कथन तुझ पर भी लागू हो रहा है। तू भी रोहन और आलोक को लेकर निष्ठुर दिख रही है। - सुधा ने साफगोई से कहा।

यार अब मैं सिर्फ अपने लिये ही यह सब नहीं कर रही हूँ। आखिर हमारे बाद यह सब रोहन को ही तो मिलना है। पता नहीं आगे कैसा जमाना आने वाला है। आरक्षण के कारण हमारे बच्चों को सरकारी नौकरी तो मिलने से रही। हम लोग उसके लिए इतना कमा कर जाऐंगे कि वह चैन से ज़िंदगी गुजार सके। और यह भी सच है कि एक आदमी की कमाई से सिर्फ गृहस्थी ही चल सकती है। पूरे जीवन की बचत के बाद भी अपने लिए एक मकान नहीं बना सकते। और तू यह तो मानेगी ही कि खुद कमाने से हमें किसी और पर आश्रित नहीं रहना पड़ता। आज के जमाने में स्त्री और पुरुष समान हो गए हैं। वक्त बदल गया है डियर - ममता ने कहा।

ये सब तो सुनी सुनाई किताबी बातें हैं। सच तो यह है कि स्त्री के लिए जमाना कभी नहीं बदलता। जहाँ तक घर की बात है, घर और मकान में अंतर होता है। तू मकान तो बना सकती है पर घर पीछे छूट जाएगा। मेरे पड़ोस में चार घर है जिनमें एक वर्किंग वूमैन हैं और तीन गृहणियाँ। सभी घरेलू महिलाऐं समय निकालकर आपस में बातचीत कर लेती हैं तथा एक - दूसरे के घर आती-जाती रहती हैं। परंतु कामकाजी महिला चाहकर भी हम लोगों में घुलमिल नहीं पाती। सिर्फ हाय- हलो और बाय तक ही सीमित है। न कोई उसके घर जाता है न वह किसी के घर जा पाती है। सप्ताह के आखिर में बचे हुए काम निपटाने और आराम करने में ही उसका सारा समय निकल जाता है। ऐसा नहीं है कि वह हम लोगों में घुलना-मिलना नहीं चाहती, पर बेचारी क्या करे समय ही नहीं निकाल पाती। - सुधा ने तपाक से कहा।

पर........ ममता कुछ बोलना चाह ही रही थी कि सुधा ने उसे रोकते हुये कहा - "...........एक मिनिट............यार अब रखती हूँ। बातों - बातों में समय का ध्यान ही नहीं रहा। मेरे बच्चों की स्कूल वैन के आने का टाइम हो गया है। उन्हें लेने मुझे कॉलोनी के गेट तक जाना होगा।.......ओ.के. ....बाय" ।

फोन पर बातचीत समाप्त होते ही सुधा अपने बच्चों को लेने कॉलोनी के गेट की ओर चल दी और ममता अपनी मेज पर रखी फाइलों को पलटने लगी।

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संक्षिप्त परिचय

नाम - डॉ. परितोष मालवीय

जन्मतिथि - 18.12.1975

शिक्षा - एम. ए. (हिंदी, अंग्रेजी)

पीएच. डी. (हिंदी)

व्यवसाय - डी.आर.डी.ओ., भारत सरकार की ग्वालियर स्थित प्रयोगशाला में वरिष्ठ हिंदी अनुवादक

साहित्यिक योगदान - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं/ पुस्तकों में अनेक समीक्षा लेख, कहानियाँ व अन्य कृतियाँ प्रकाशित, विगत 12 वर्षों से हिंदी अनुवाद के क्षेत्र में सक्रिय, "विष विज्ञान एवं मानव जीवन" नामक विज्ञान विषयक पुस्तक का लेखन।

संपर्क - 39/3 डिफेंस कॉलोनी

गांधीनगर ग्वालियर, म.प्र. 474002

malviyaparitosh@rediffmail.com

दूरभाष - 09425735202

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन (5) - परितोष मालवीय की कहानी - महत्त्वाकांक्षा का मोती
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन (5) - परितोष मालवीय की कहानी - महत्त्वाकांक्षा का मोती
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