कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन (4) : अनन्त भारद्वाज की कहानी - इंतकाम

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कहानी इंतकाम अनन्त भारद्वाज 1981, यह एक छोटा सा रेलवे स्टेशन था। आमतौर पर यहाँ गाडियाँ रूकती नहीं थीं। हुसैन भी इस गाड़ी के फर्स्ट क्ला...

कहानी

इंतकाम

अनन्त भारद्वाज

1981, यह एक छोटा सा रेलवे स्टेशन था। आमतौर पर यहाँ गाडियाँ रूकती नहीं थीं। हुसैन भी इस गाड़ी के फर्स्ट क्लास के एक डिब्बे से यात्रा कर रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे जंगली इलाके में आखिर ट्रेन क्यूँ रुकी है ? जिस डिब्बे में हुसैन बैठा था उसमे उसके अलावा चंद ही मुसाफिर और थे, जो उस समय गाड़ी के रोके जाने पर अपनी-अपनी राय पेश कर रहे थे।

हुसैन ने खिडकी से बहार झाँककर देखा- “क्यूँ भई ? क्या हुआ है ? ये गाडी क्यूँ रुक गई है ?” हुसैन ने खिडकी से गुजरते हुए एक आदमी से पूछा।

‘जागीरदार साहब शहर जा रहे हैं, उनके लिए रुकी है।’

अब डिब्बे में बैठे हुए मुसाफिर जागीरदारों की ज्यादतियों पर बहस करने लगे।

“कमाल है साहब, जागीरदार न हों गए बादशाह हो गए। इनके लिए क्या अब गाडी रुकी खड़ी रहेगी ?”

“किसी के वक्त का कुछ ख्याल ही नहीं। सैंकड़ों मुसाफिर हैं जो लात साहब के इंतज़ार में बैठे हैं।”

“सिर्फ यही नहीं, अब इसके बाद आने वाली हर गाड़ी लेट होगी।”

“बादशाह हैं भाई ये तो... ”

“साले सब अंग्रेज बनते हैं।”

“अरे भाई इतने बड़े आदमी हैं तो फिर अपनी खुद की गाड़ी क्यूँ नहीं ले लेते ?”

“सही बात है, और तो और सोचो जब इनका यहाँ इतना रौब है, तो इनके खुद के इलाके में जुल्म का क्या आलम होगा ?”

“निजी जेलें तक बनबाई हुई हैं इन्होने।”

यह बहस जारी थी कि बाहर एक शोर-सा मचा। मालूम हुआ, जागीरदार साहब आ गए हैं। अब तो भाई , उम्मीद बंध गई कि गाड़ी चलेगी। हुसैन में फिर खिडकी से बाहर झांककर देखा। जागीरदार का काफिला उसी डिब्बे की तरफ आ रहा था।

“जागीरदार साहब तो इसी डिब्बे में तशरीफ ला रहे हैं।” हुसैन ने सबको आगाह किया।

“लीजिए साहब, अब रात हराम हो जायेगी ” एक मुसाफिर ने कहा और इसी के साथ कई आदमियों का रेला अंदर दाखिल हुआ और फिर डिब्बे में सन्नाटा छा गया। जो जहाँ बैठा था वहीँ बैठा रहा।

जागीरदर साहब ने बुकिंग पहले ही करवा रखी थी। एक बर्थ खाली चली आ रही थी। जागीरदार साहब को उस पर विराजमान होना था। खिदमतगार महज़ जायजा लेने आए थे। नौजवान आदमी था जागीरदार और लिबास कोई रियासती नहीं, बल्कि अंग्रेजी सूट। जब वह बैठ गया तो उसके साथ आए लोग एक-एक करके रुखसत हो गए सिर्फ एक सशस्त्र व्यक्ति को छोड़कर।

हुसैन ने सिर्फ एक नज़र उस पर डाली थी और फिर हाथ में पकड़ी हुई किताब को पढ़ने लगा। जब वह पढते-पढते थक गया, तो उसने किताब से नज़रें हटाकर डिब्बे का मुआयना करना शुरू कर दिया। कोई ऊँघ रहा था तो कोई सो चुका था। फिर उसकी नज़र जागीरदार पर पड़ी, वह गनमैन भी ऊँघ रहा था। हुसैन ने नज़र वापस दौडाई जागीरदार पर जो कोई किताब पढ़ रहा था और नज़र एकदम जम गई। साहिल ................... ये तो साहिल है। मूंछों का इजाफा हो गया। बाकी सब वही है। वह उसे देख ही रहा था कि जागीरदार किसी बात पर मुस्कुराया, शायद किताब में कुछ ऐसा हो। बिलकुल वही जहर भरी हँसी – हुसैन ने सोचा।

एक-एक करके बीते दिनों के सारे चित्र पल भर में ही हुसैन की आँखों के सामने से निकल गए थे। साहिल उसके कॉलेज का साथी था। बड़ा नटखट, शोख, गुंडागर्दी के हदें पार, बड़ी जागीर का मालिक; लिहाज़ा अपने साथियों को निचा दिखाना उसका शौक था। किसी की तारीफ उससे पचती कहाँ थी ? और फिर चाहें वो किसी भी मामले में क्यों न हों ? हुसैन से तो उसे खास नफरत थी और उस नफ़रत की वजह थी कॉलेज की एक खूबसूरत लड़की नाइला।

जब साहिल पहले दिन कॉलेज आया था तो नाइला और हुसैन के इश्क के चर्चे हर जुबाँ पर थे। साहिल को यह कैसे बर्दाश्त हों सकता था। पहले तो उसने अपनी दौलत के बल पर नाइला को रिझाने की कोशिश की, लेकिन जब वह नाकामयाब रहा तो अब वह धमकियों पर उतर आया। उसने हुसैन से साफ़ कह दिया कि वह रास्ते से हते या न हटे वह नाइला को पाकर ही रहेगा।

आज साहिल को देखने के बाद उसे उस खूबसूरत से गुड़िया नाइला की याद आ गई, जिसे वह कब का भूल चुका था। इसी की वजह से ती नाइला उससे जुदा हुई थी। जब साहिल और हुसैन की दुश्मनी बहुत बढ़ गई और कई बार कैंपस में बकायदा झगड़े भी हुए, पुलिस केस भी बने तो नाइला के भाई ने उसे उस कॉलेज से निकाल लिया। झगड़ा तो नाइला कि वजह से था न, जब वह कॉलेज में नहीं रही तो साहिल ने हुसैन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। हुसैन का दिल भी कोई साफ नहीं था, वह कोई महापुरुष तो था नहीं पर दुष्टता से बचने के लिए उसने यह दोस्ती कबूल कर ली।

नाइला कॉलेज से निकल गई थी लेकिन शहर, शहर तो अभी नहीं छोड़ा था न। वे दोनों फिर मिलने लगे। साहिल तो टोह में लगा ही हुआ था। उसे मालूम हो चुका था पर इस बार उसने हुसैन के बजाय नाइला के घरवालों को धमकाना शुरू कर दिया। उन्होंने नाइला को कहीं दूर भेज दिया। कहाँ ? यह तो हुसैन भी न मालूम कर सका।

उसने नाइला को हर जगह तलाश किया। कई बार उसके घर वालों के हाथों बेईज्ज़त हुआ, लेकिन नाइला उसके लिए बस याद बनकर रह गई थी। नाइला की तलाश में उसकी पढाई भी पूरी नहीं हों सकी। वह इंजीनियर बनना चाहता था, लेकिन ठेकेदार बनकर रह गया।

हुसैन अपनी पुरानी यादों में खोकर अब ठंडा हो चुका था, उसका गला सूख गया था और आँखे नम। वह अपनी जगह से उठा और साहिल के सामने जाकर खड़ा हो गया।
“अरे बाबा ! तुम !!!! हुसैन ??

हुसैन ही हो ना ? ” वह उठा और शाही अंदाज़ में उसे गले लगाया।

“अरे दोस्त हम कितने अरसे बाद मिल रहे हैं।”

“तुम्हे मेरा नाम अब तक याद है ?”

“तुम्हारा नाम तो दिल पर लिखा है यार ! तुम कोई भूलने की चीज़ हो ?”

“यार बस तुम्हें देखा और मिलने को जी चाहा ” हुसैन ने कहा।

“क्यूँ नहीं चाहेगा ? आखिर हम दोस्त जो हैं।” साहिल ने इस बार जबरदस्त ठहाका लगाया और जबरन अपने पास बिठा लिया।

वह इतनी मुहब्बत से मिला कि हुसैन के दिल का सारा गुबार धुल गया। उसने पूछा- “कहाँ जा रहे हो ?”

“गाँव आया था, अब शहर जा रहा हूँ। नौकरी पर। इंजीनियर हो गया हूँ न, तुम्हारी दुआ से। ”

“शादी कर ली ?” हुसैन ने पूछा।

इस सवाल पर साहिल कुछ बौखला सा गया। फिर कहकहा लगाया - “शादी !! करनी पड़ी यार। अपनी भाभीजी को देखोगे तो हैरान रह जाओगे। बहुत ही खूबसूरत है वो।”

“अब तो हम एक ही शहर में हैं, कभी न कभी मुलाकात जरुर होगी। तुम्हारे घर आया तो जरुर देखूँगा।”

“तुम मेरे दफ्तर आ जाना, वहीँ से घर ले चलूँगा। यह रखो मेरा कार्ड।”

दोनों फिर एक ही स्टेशन पर उतरे मगर चल दिए अपनी-अपनी मंजिल की ओर, अलग-अलग दिशाओं में। हुसैन ने उस समय तो यही सोचा था कि वह साहिल से मुलाकात करेगा। आखिर वह एक इंजीनियर है ओर वो खुद एक ठेकेदार, लिहाज़ा उसके कारोबार में भी कुछ मदद हों जायेगी, लेकिन घर पहुंचकर वह अपनी व्यस्तताओं में ऐसा घिरा कि बहुत दिनों तक साहिल से मिलने का समय ही नहीं निकल सका।

“अच्छा बेगम, तुम्हें वह लड़का याद है जो अक्सर कॉलेज के मुकाबलों में मुझसे भिड़ा करता था। क्या नाम था उसका ????...... हुसैन ?..... हाँ हाँ वही ” साहिल ने अपनी बीबी से कहा।

“कुछ कुछ याद तो आ रहा है, क्यूँ क्या हुआ उसे ?”

“घबराओ नहीं, कुछ नहीं हुआ उसे। बिलकुल खैरियत से है। मैं तो यह बता रहा था कि वह मुझे ट्रेन में मिला था। मैंने उसे कहा भी था कि वह मुझसे मिले। उसने वादा तो किया था, मगर वो आया नहीं। आ जाता, तो मैं उसे एक बार फिर हैरान करता। उसे बताता कि साहिल जो चाहता है, हासिल कर ही लेता है। क्यों डार्लिंग ?”

“वह तो पहले ही कायल हो चुका होगा।”

“अरे बाबा। अभी कहाँ ? कायल तो अब होगा। अभी तो मैंने देखा है कि थोड़ी-बहुत अकड़ बची है उसमें। वैसे है वह अच्छा लड़का। क्यों ?”

“”जब वह आपकी नज़र में अच्छा है तो मुझसे क्या पूछ रहे है बार-बार ? और हाँ उसे यहाँ लाने की कोई जरुरत नहीं है।

“यह कैसे हों सकता है? वह तुम्हारा कुछ है तो हमारा भी तो दोस्त है ना ”

“ठीक है, वह यहाँ आया भी, तो मैं उसके सामने नहीं जाऊंगी।”

“यार ये तो तुम्हारी ज्यादती होगी। उसे भी तो पता चले कि तुम अभी जिंदा हो।”

“उसे बता तो दूँगी, पर वो यकीन नहीं करेगा।”

“वाह ! तुम तो साहिल पर भी व्यंग कर सकती हो, बीबी हों आखिर हमारी।”

नाइला समझ रही थी कि वह क्यूँ ऐसी बातें कर रहा है। वह उसे याद दिलाना चाहता था कि उसने हुसैन से उसे छीन लिया है।

साहिल से शादी के बाद उसने हुसैन के बारे में सोचना छोड़ दिया था। उसकी यादों को थपक-थपक कर सुला दिया था। लेकिन आज साहिल ने वह ताला आज खुद खोल दिया। साहिल ने खुद उसे मजबूर कर दिया था कि वह सोचे, हुसैन अब कैसा लगता होगा ? उसने शादी की है या नहीं ?

“नूरी। इस साल मेरा एक दोस्त अचानक से मुझे मिल गया।”

“कॉलेज के ज़माने का होगा ?”

“हाँ, उसी ज़माने का ”

“आप भी खूब हैं। इतने ज़माने के बाद कोई खास दोस्त मिला और उसे भी बहार से ही रुखसत करके आ गए। घर पर नहीं, तो किसी होटल में ही बुला लिया होता।”

“सोच तो रहा हूँ।”

“कॉलेज की जिन्दगी भी कैसी हंगामाखेज होती है।”

“हाँ, कुछ ऐसा ही है। अब इस साहिल को ही देख लो, जब तक हम कॉलेज में थे, हमारे झगड़े ही होते थे। कॉलेज में एक लड़की थी, बहुत खूबसूरत, परी-सी। मैं भी उसका दावेदार था और साहिल भी .......... कैसी – कैसी लड़ाईयां होती थीं उसके पीछे हमारी .............
अब सोचूँ तो हँसी आती है।”

“कहाँ गई वह लड़की ?”

“जाती कहाँ ? कमबख्त साहिल ने न उसे मेरा होने दिया, न अपना बना सका। इतना हंगामा किया कि बेचारी कॉलेज ही छोड़कर चली गई एक दिन। ”

“आप बड़े वो हो। आज तक उस लड़की का जिक्र तक नहीं किया मुझसे, अब कह रहे हो।”

“जिक्र क्या करता ? मुझे उससे मोहब्बत तो थी नहीं।”

“फिर क्या साहिल से यूँ ही बेवजह लड़ा करते थे ?”

“वह तो लड़कपन का एक खेल था।”

“सच बताओ, वह याद तो आती होगी।”

“बस इसी तरह जैसे बचपन याद आता है।”

“अच्छा एक बात बताएं” नूरी ने कहा – “अगर वह अचानक आपके सामने आ जाये, तो..... तो, क्या होगा ?”

“थोडा सा दुःख तो होगा।”

“आपको पछतावा तो होता होगा कि शादी मुझसे क्यों हो गई ? उससे क्यूँ नहीं हुई ?”

“जो खुदा करता है, अच्छा ही करता है। हो सकता है वो तुमसे अच्छी बीबी साबित न होती। तुम्हारी शक्ल में मुझे एक अच्छी बीबी मिल गई है।”

“आप मर्द हम औरतों को बेवकूफ अच्छे से बना लेते हैं।”

“और आप बन जातीं है।”

बात हँसी की थी, इसलिए दोनों हँसने लगे और काफी देर तक हँसते रहे। हुसैन चाहता भी था उस समय बात हँसी में ताल जाये।

साहिल से मिलने के बाद उसके दिल में नाइला की याद ताज़ा हो गई थी, लेकिन धीरे-धीरे साहिल भी तोप हो गया था और नाइला कि याद भी। साहिल का ख्याल उसे और बहुत दिन तक न आता, लेकिन हुसैन का एक काम ऐसी जगह फंस गया, जहाँ साहिल काम आ सकता था। उसने सोचा चलो मुलाकात भी हो जायेगी और मसला भी हल हो जायेगा। यह सोचकर वह साहिल से मिलने उसके दफ्तर पहुँच गया।

“शुक्र है बाबा, तुम्हें ख्याल आ गया। मैंने तो सोचा था कि दस साल बाद मिले थे अब और दस साल लग जायेंगे अगली मुलाकात में।”

“बस यार काम में इतना बिज़ी रहा कि आना ही नहीं हुआ। आज मैंने सोचा, मुलाकात कर ही ली जाये।”

“मुलाकात तो हो ही जायेगी, पहले कुछ पी लिया जाये”

जितनी देर में कुछ आता, हुसैन ने अपना मसला बयान कर दिया। मामला साहिल ले दफ्तर का ही था, सो मुश्किल नहीं था। वह साहिल के पास बैठा रहा तो साहिल ने कहा –“अच्छा तुम मुझे अपने घर का पाता दे दो, मैं तुम्हें तुम्हारे घर से उठा लूँगा।”

“हाँ, हाँ क्यूँ नहीं ?”

हुसैन ने अपने घर का पता दे दिया और चला आया।

दूसरे दिन ही साहिल उसके घर आ पहुँचा। वह समझ रहा था कि क्यूँ आया है ? लेकिन अब इंकार की गुंजाइश नहीं थी। उसमे कोई हर्ज भी नहीं था। जब वह उसके घर आ गया था तो उसे भी जाना चाहिए था। पहले उसने सोचा कि नूरी और बच्चों को भी साथ ले ले, लेकिन फिर उसने सोचा जब साहिल खुद नहीं कह रहा तो फिर क्यूँ न रहने दिया जाये। साहिल की गाड़ी में वह अगली सीट पर बैठ गया।

साहिल की कर शहर के निहायत फैशनेबल इलाके के एक बहुत शानदार से मकान के सामने जाकर रुकी। चौकीदार ने दरवाज़ा खोला और कार अंदर आ गई।

“यह है मेरा गरीबखाना”

साहिल हुसैन को साथ लेकर ड्राइंगरूम में आ गया। ड्राइंगरूम की एक-एक चीज़ साहिल की अमीरी का पता बता रही थी।

“तुम बैठो, मैं तुम्हारी भाभी को बुलाकर लाता हूँ। उन्हें देखकर तुम्हें जितनी खुशी होगी, उसका एहसास मुझे अभी से है।” कहता हुआ साहिल दूसरे दरवाज़े से घर के अंदर चला गया।

थोड़ी ही देर बाद साहिल के साथ नाइला कमरे में दाखिल हुई। वह घबराकर अपनी जगह से उठा, लेकिन उठ नहीं सका, फिर बैठ गया। वह उसे कहीं ओर देख लेता, तो शायद उसकी ये हालत न हुई होती। वह साहिल की बीबी है, इस ख्याल ने उसे तोड़ दिया था। शिकस्त का ज़हर उसकी रगों में उतरता जा रहा था।

“किसी जान-पहचान की जरुरत तो है नहीं” साहिल ने मुस्कुराते हुए कहा। वही गन्दी-सी हँसी हुसैन को फिर से चुभने लगी।

नाइला अभी तक बुत बनी खामोश खड़ी थी। उसके ज़ज्बात भी यक़ीनन वही होंगे जो हुसैन के थे। वह भी यह सोच रही होगी कि अब तक वह उसे नहीं मिला था, तो अब क्यूँ मिल गया ?

“बैठो भई।” साहिल ने नाइला से कहा-“हुसैन कोई गैर तो नहीं। जिस तरह मेरा दोस्त है, उसी तरह कभी तुम्हारा दोस्त भी होता था .......... कॉलेज में। अब इससे भला क्या शरमाना ?”

अगर अशिष्टता न होती तो हुसैन उठ कर चला जाता। यहाँ एक पल भी बैठना उसके लिए दूभर हो रहा था।

“अरे बाबा, एक दूसरे की कुशलता तो पूछो|”

“यह इतने बड़े आलीशान घर में रहती है, इतने बड़े रईस जागीरदार की बीबी है। इससे ज्यादा खैरियत क्या होगी ?”

“इनसे यह भी तो पूछो, हमारी शादी कैसे हुई ! बड़ा मजेदार किस्सा है।”

“साहिल अगर मैं यह कहूँ कि मुझे तुम्हारी शादी के किस्से में कोई दिलचस्पी नहीं तो.......”

“चलो नहीं पूछते तो न सही। नाइला से तो पूछते, यह हम दोनों को छोड़कर कहाँ चली गई थी ?”

“सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां होतीं हैं। कॉलेज में सब हमेशा तो नहीं आते। अब मुझे ही देख लो कॉलेज से निकला, नौकरी की और फिर ठाठ से शादी कर ली। नाइला को कभी ढूँढने की कोशिश भी की क्या ?...... अब देखो .... दो बच्चों का बाप हूँ। तुम्हारे कितने बच्चे हैं ?” हुसैन ने इतना सब कुछ कह तो दिया, पर वही जानता है कि उसमें यह सब कहने की हिम्मत कहाँ से आई ?

“सबकी किस्मत अच्छी तो नहीं होती। तुम्हारे बच्चों के नाम क्या-क्या हैं ?” इस बार नाइला को उत्सुकता हुई।

“बेबो और अली| बेबो पांच साल की है और अली अभी तीन साल का। कभी मिलवाऊँगा| ”

साहिल होठ दबाकर हँस रहा था। अब हुसैन ने भी खुद पर काबू पा लिया था और नाइला भी थोड़ी नॉर्मल नज़र आने लगी थी।

“कभी बीबी को भी लेकर आओ। उसे भी तो बताओ कि यह लड़की तुम्हारे कॉलेज के दिनों धडकन थी तुम्हारी।” साहिल ने एक जहरीली मुस्कान के साथ कहा। तो हुसैन ने भी व्यंग के लहजे में कहा- “क्यूँ नहीं, जरुर लेकर आऊँगा। अब तो हम मिलते ही रहेंगे, बल्कि बहुत जरुरी हो गया है मिलते रहना।”

वह इतना कहकर भी चुप न रहा, अब उसने नाइला से कहा, “नाइला, तुम्हें याद है, जब साहिल से मेरा पहली बार झगड़ा हुआ था और मैंने इसे भगा-भगा कर पीटा था। यह लाइब्रेरी में जाकर छुप गया था। लाइब्रेरियन ने यह समझा कि यह किताब चुराने आया है और ............................ ”

नाइला को इतनी जोर की हँसी आई कि साहिल के माथे पर बल आ गए।

“वो तो यार मैं, नया-नया कॉलेज में आया था। उसके बाद तो बोलो क्या हुआ था तुम्हारा ? तुम्हारी हिम्मत भी नहीं थी कि मेरे सामने से गुजर जाते।”

“तुम्हारे साथ गुंडे भी तो होते थे और फिर मुझे तुमसे लड़ने की जरुरत भी क्या थी ?”

“शुरू में कोई भी जीते, जंग का फैसला होता है, जंग के खात्मे पर। क्यों नाइला ?”

यही वह पैंतरा था जहाँ आकर हुसैन को निराश होना पड़ा। जंग से खात्मे से साहिल का मतलब था कि उसे जंग की वजह हासिल हो चुकी थी और जंग की वजह थी नाइला। लिहाज़ा फतह तो अब उसकी हुई। हुसैन के दिल में आया कि कह दे, जंग अभी खत्म कहाँ हुई है ? लेकिन..... न जाने क्यूँ यह बात वह कह न सका।

हुसैन वहाँ से वापस आया तो उसकी दुनिया ही बदल चुकी थी। वह एक बार फिर से दस साल पीछे चला गया था। उसे यह फैसला करना था कि जंग खत्म करे या नए सिर से जंग का आगाज़ ? हालाँकि वह अच्छी तरह जानता था कि उसके साथ कुछ भी अच्छा नहीं होता है। नाइला उसके लिए अब ऐसी आग बन गई थी, जिसे छूते ही सब कुछ जल सकता था, मगर अब उसमें यह हिम्मत भी नहीं थी कि वह उस आग से दूर रह सके।

उसने दूसरे दिन नूरी और बच्चों को साथ लिया और साहिल के घर जा पहुँचा। एक ही दिन में साहिल के रवैये में इतना अंतर आ गया था कि वह उसे लेकर ड्राइंगरूम में बैठ गया और नूरी नाइला के पास चली गई। चलते समय नाइला उसे छोड़ने गाड़ी के पास जरुर आई और बड़ी हसरत से हाथ उठाकर खुदा-हाफिस कहा।

“यही वह लड़की है, जिसकी वजह से आप और साहिल भाई लड़ा करते थे ?”

“तुम्हें किसने बताया ?”

“नाइला की हालत ने ”

“क्या उसने खुद तुम्हें बताया ?”

“उसने तो सिर्फ यही बताया कि आप उसके साथ कॉलेज में पढते थे। लेकिन उसकी बातों से जाहिर हो रहा था कि वह साहिल से खुश नहीं .............

एक बात कहूँ ?”

“कहो।”

“आप अब वहाँ जाना छोड़ दें, वरना आपका सुकून भी तबाह होगा और उस लड़की की जिन्दगी में भी जहर घुल जायेगा, जिसे आप कभी मुहब्बत किया करते थे।”

“तुम ठीक कहते हो, नूरी। शायद मुझे भी यही करना होगा।”

उसने कहने को तो कह दिया था लेकिन जो आग उसके अंदर दहक रही थी, उसे वही जानता है। उस आग से बचना अब उसके बस में नहीं है। उसने वह चाहा कि रास्ता बदलकर चलता रहे, लेकिन इरादों का रास्ता उसे नाइला के घर ले जाने से नहीं रोक सका। वह महीनों अपने इरादों से लड़ता रहा और आख़िरकार एक दिन फिर वह नाइला के घर पहुँच गया। साहिल घर पर नहीं था, पर घर के बाहर था, शायद अभी-अभी हुसैन के साथ ही आया था। हुसैन को देखकर खिल उठा “अरे बाबा। तुम फिर गायब हो गए थे। नाइला तुमको कई बार पूछ चुकी है।”

“बस यार काम में इतना फंस जाता हूँ कि कुछ याद ही नहीं रहता। कई बार सोचा, मगर आना ही नहीं हो पाता।”

“हम लोग खाना खाने के लिए बहार जा रहे थे, अब तुम भी हमारे साथ चलोगे।”

“नहीं यार। मैं इतनी तकलीफ नहीं दूंगा आपको।”

“तकलीफ, वो तुम मुझे पर छोड़ दो। और तुम फिर से गायब हो गए तो ??” साहिल हँसता हुआ बोला।

इतने में नाइला भी आ गई और तीनों मुग़ल होटल पहुँच गए।

हुसैन और नाइला आमने-सामने बैठे थे। वेटर को आर्डर नोट कराया और वे तीनों बैटन में लग गए।

“हुसैन तुम्हारी बीबी बहुत अच्छी है। इस मामले में तो तुम खुशकिस्मत हो।” नाइला ने कहा।

“हालात चाहते हैं कि यह खुशकिस्मती भी छीन जाये।”

“हालात बदल दो तो अच्छा है। हालात की डोर अक्सर इंसान के हाथ में होती है। लेकिन सही रास्ता चुनने में उससे गलती हो ही जाती है। अक्सर ऐसा होता है कि जिसे वह मंजिल समझ रहा होता है, वह मंजिल नहीं होती और फिर आखिर में वह सारा दोष हालातों को दे देता है।”

“तुम्हारे याद दिलाने का शुक्रिया, मैं रास्ता बदल कर देखूँगा।”

इतनी देर में खाना आ गया और वो खाना खाने लगे। खाने के दौरान हुसैन बराबर उन बातों पर गौर कर रहा था जो अभी अभी नाइला के नाज़ुक होठों से बयां हुई हैं।

ये नाज़ुक होंठ भी इतनी सख्त बात बोल लेते हैं, यकीन नहीं होता। वह चाहती है कि मैं उससे मिलना छोड़ दूँ। अपने घर की तरफ लौट जाऊं। उसकी इस सोच का जिम्मेदार साहिल है। उस शख्स ने मेरी नाइला को मुझसे छीन लिया, अब मैं उससे इस नाइला को छीनकर रहूँगा। ऐसा सोचते-सोचते हुसैन के हलक में निवाले फंसने लगे।

साहिल बड़ी देर से करवटें बदल रहा था। उसकी आँखों से नींद उड़ गई थी। जब से हुसैन उससे मिला था, उसकी घरेलू जिन्दगी कुछ बदल-सी गई थी। उसने करीब लेटी नाइला से कहा- “तुमसे एक बात करनी है।”

“परेशानी हम दोनों को है, लिहाज़ा बेहतर है हम दोनों आपस में बात कर लें। तुम सोचती होगी कि मैं कैसा शौहर हूँ, जो यह जानते हुए भी कि हुसैन से कभी तुम्हारा कोई ताल्लुक रहा है, उसे घर लेकर आया। उसे तुमसे मिलवाया। उससे दोस्ती रखना चाहता हूँ। ”

“मैं तो कुछ भी नहीं सोचती, आपके दिमाग में कोई बात हो तो हो। ”

“यह भी नहीं पूछोगी कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ ?”

“क्यों कर रहे हो ?”

“बात यह है कि मुझे अब एहसास होता है कि मैंने हुसैन के साथ ज्यादती की है। वह तुमसे सच्चा इश्क करता था, जबकि हकीकत यह है कि मुझको तुमसे मोहब्बत नहीं थी। यह अलग बात है कि मैंने सिर्फ अपनी जिद में तुम्हें हासिल किया। अब इस गलती की शायद कोई माफ़ी भी नहीं है। इसीलिए मैं उसे यह मौका दे रहा हूँ कि वह तुम्हें देखता रहे, तुमसे मिलता रहे, एक अच्छे दोस्त की तरह।”

“आप ऐसा न करें। यह खतरनाक खेल है। इस तरह आप ही गलती को दोहरा रहे हैं। वो ऐसी उम्मीद बाँध सकता है जो कभी पूरी ही नहीं होंगी। आपने फिर से एक बार उसका चैन लूट लिया है। खुदा के लिए उसे बख्श दो। दो परिवारों को बचा लो।”

“अरे बाबा ! क्या बातें कर रही हो ? मैं उसको दोस्त बनाऊंगा। उस पर जान न्योछावर कर दूंगा। मेरा पछतावा कुछ तो कम होगा। मैं इतना भी बुरा आदमी नहीं हूँ।”

नाइला उसकी बातें सुन रही थी और अँधेरे का फायदा उठाकर अपने आँसुओं को बहने दे रही थी। आज उसे आँसू बहाते वक्त बहुत अच्छा-सा लग रहा था। वह सोच रही थी साहिल को एहसास भी हुआ तो कब ? अब उसका न मिलना ही मेरे लिए बेहतर है। अब साहिल का उससे ताल्लुक रखना तलवार की धार पर चलने के बराबर था।

साहिल ने फिर कुछ कहना चाहा लेकिन अब वह सुन नहीं रही थी, सिर्फ सोच रही थी। कुछ देर बाद साहिल को यकीन हो गया कि वह सो गई है, लेकिन वह, वह बेचारी तो अब भी सोच रही थी।

हुसैन बहुत दिनों तक भागता रहा, लेकिन साहिल उसकी तरफ दोस्ती का हाथ बढाता जा रहा था। अब तो ऐसा लगता था मानो यही साहिल की जिन्दगी का मकसद हो। हुसैन भी आखिर कब तक भागता, थककर रुक गया। नाइला ने भी साहिल के जज्बे की कद्र करते हुए हालत से समझौता कर लिया।

इसका एहसास न तो साहिल को था न हुसैन को कि उस दोस्त का ताल्लुक मुहब्बत के जज्बे को रौंदकर आगे नहीं बढ़ सकता। हुसैन के दिल में जो शोला चिंगारी बन दम तोड़ने लगा था, पास की बस थोड़ी सी हवा लगी तो फिर से शोला बन गया। नाइला तो औरत थी, किसी की बीबी थी। उस शोले की तपिश से खुद को महफूज रख सकती थी, लेकिन हुसैन इस आग में जलता रहा।

नाइला ने कहा था, हुसैन तुम्हारी बीबी बहुत अच्छी है, उसका ख्याल रखना। पर अब यह बीबी उसे जेहर लगने लगी थी। अपनी शादी पर उसे कभी पछतावा नहीं हुआ था, लेकिन अब होने लगा था। इस शादी की वजह से वह नाइला की नज़रों में खुद को हल्का महसूस करने लगा था। वह सोचता था कि अगर उसने ये शादी न की होती, तो नाइला उसे वफादार समझती, उसके प्यार को सच्चा मानती। नाइला तो लड़की होने के नाते मजबूर थी, लेकिन उसे ?? उसे किसने मजबूर किया था ? उसने शादी क्यों कर ली ? कभी नाइला और उसकी बीबी मिलकर एक साथ बैठती तो वह तुलना करने पर मजबूर हो जाता और जाहिर सी बात – मुहब्बत जीत जाती।

नाइला में उसकी बढती हुई दिलचस्पी को उसकी बीबी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकी। उसने हलके से स्वर में विरोध की आवाज़ बुलंद की। जब हुसैन के कानों ने उस आवाज़ को सुनने से इंकार कर दिया, तो उसकी आवाज़ में शिद्दत आ गई। जिस घर में किसी ने ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं की थी, वह घर अब शोर से गूंजने लगा। घर के झगडों से तंग आकर हुसैन ने साहिल की दोस्ती में पनाह तलाश की।

साहिल उसके हालत से बेखबर उस दोस्ती को अपनी जीत करार देकर खुश था। उसका ज़मीर उसे तसल्ली दे रहा था कि उसने हुसैन के साथ जितनी ज्यादतियां की, उन सबकी भरपाई हो गई।

दिन बीतते गए। हुसैन की दीवानगी भी बढती गई। साहिल ने अपनी नादानी में उसे ऐसी हवा के हवाले कर दिया जो उसे बिखेरने पे तुली थी।

“अरे यार, हम जागीरदारों में दुश्मनी का बड़ा अजीब रिवाज है। जिस ‘जागीरदार’ को कोई दुश्मन नहीं, वह जागीरदार हो ही नहीं सकता।”

एक रोज साहिल ने किसी बात पर अपने खानदान की शान बताते हुए कहा - “जागीरदार कभी भी अपने दुश्मन को माफ नहीं करता, कोई भी तरीका अपनाये, इंतकाम जरुर लेता है|”

“अपने बाबा का एक वाकया मैं तुम्हें बताऊँ। उनका एक बड़ा जिगरी दोस्त था, लेकिन दरअसल बाबा की उससे पुरानी दुश्मनी थी, कोई बरसों पुरानी दुश्मनी। बाबा ने उसे अय्याशी की ऐसी लत लगा दी कि थोड़े ही दिनों में उसकी सारी जमीनें बिक गई। कौड़ी –कौड़ी को मोहताज होकर हमारी हवेली में नौकरी करने लगा। बाबा जब भी उसे देखते थे, उनका सीना फूल जाता था।”

साहिल अपने खानदान के अमीरी के किस्से सुना रहा था और हुसैन अपनी हालत पर गौर कर रहा था।

“क्या मेरा भी यही हाल होगा ? मेरी दुश्मनी को भी उसने दोस्ती से बदल दिया है, लेकिन अंदर से तो दुश्मन ही है ना। मैं उसकी हवेली पर नौकरी नहीं करूँगा। इसी दोस्ती के हथियार से उसे घायल कर दूंगा। यह उसका गाँव नहीं है, शहर है शहर।”

उस दिन के बाद से वह उन तरीकों पर गौर करने लगा जिन्हें अपनाकर वह साहिल को शिकस्त दे सके। साहिल की सबसे बड़ी हार यह थी कि कैसे भी नाइला को बेवफाई पर आमादा कर दिया जाये। अपने अतीत को उसने अपने सीने में दफ़न कर लिया था, लेकिन अब उसे अपने मंसूबों पर अमल करना था। उसने वर्षों की दबी आग को नाइला के क़दमों तले बिछा दिया था। नाइला के दिल में हुसैन के लिए अब भी कुछ मुहब्बत थी, लेकिन अब वह मुहब्बत का जवाब मुहब्बत से नहीं दे सकती थी।

“हुसैन, तुम जिस आग में जल रहे हो, मुझे इसका एहसास है लेकिन अगर तुम यह चाहो कि मैं अब तुम्हारा साथ दूँ, तुम्हारी हौसला आफ़जाई करूँ, तो यह नहीं हो सकता। अब तुम मेरे शौहर के दोस्त हो, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।”

“तुम खुद को धोखा दे रही हो और,.... और मुझे भी। क्या तुमने कभी मुझसे मुहब्बत की थी ?”

“हाँ, हाँ की थी। पर उस वक्त मैं साहिल की बीबी नहीं थी।”

“यह साहिल ही हर खराबी की जड़ है। ”

“यह हमारी किस्मतों का फैसला है। इसे मैंने भी कबूल कर लिया है और बेहतर होगा कि तुम भी मान लो। इस आग में मत जलो। राख बनकर रह जाओगे।”

हुसैन ने तय कर लिया कि वह नाइला को अकेले ही अलग कर देगा। दिन पर दिन गुजरते जा रहे थे। उसकी व्याकुलता बढती जा रही थी। साहिल ने उसे सबक सिखा दिया था कि दोस्त बनकर दुश्मनी पूरी करे। अब वह उसी रास्ते पर था। कुछ दिन बाद उसने नूरी के मुँह से सुना कि नाइला माँ बनने वाली है, उसके तो पैरों तले जमीन खिसक गई। आँखों के सामने अँधेरा हो गया। फिर उसकी आँखों में खून उतर आया– साहिल नाइला के बच्चे का बाप बनेगा। नाइला उसकी मुहब्बत थी। वह उसे नुकसान नहीं पहुँचा सकता था, लेकिन साहिल, वह तो दुश्मन था उसका। अब वह साहिल के क़त्ल का मौका तलाशने लगा|

साहिल बच्चे की खबर लेकर उसके घर आ रहा था। उसने आते ही हुसैन को गले से लगा लिया।

“अरे बाबा, तू चाचा बन गया, चाचा। नाइला के बेटा हुआ है।”

यह खबर सुनते ही हुसैन के जज्बात बेकाबू हो गए थे, उसकी नसें फटने को हो रहीं थी। उसने रस्मी मुबारकबाद भी नहीं दी। साहिल भी चौंक रहा था और लगातार उसके मुँह की तरफ देखे जा रहा था।

“क्या हो गया इसे ?” साहिल ने नूरी से कहा।

“पता नहीं क्या हो गया है ? उखड़े-उखड़े से रहते हैं, कुछ बताते भी तो नहीं। दिन-ब-दिन चिडचिडे होते जा रहे हैं।”

हुसैन वहाँ से उठा और बाहर निकल आया। बाहर निकलते ही एक अजीब से ख्याल से उसकी आँखे चमकने लगीं।

“देखता हूँ कैसे मिलता है अपने बेटे से, बड़ा जागीरदार बना फिरता है। तूने अभी मेरी दुश्मनी देखी ही कहाँ है ?”

पार्क में साहिल की गाड़ी खड़ी थी। उसने इधर-उधर देखा और अपनी गाड़ी से ‘पाना’ निकालकर साहिल की गाड़ी के अगले दोनों पहियों के नट इतने ढीले कर दिए कि गाड़ी मुश्किल से आधा - एक किलोमीटर जा सकती थी।

वह इस काम से फारिग होने के बाद अंदर आया, तो पसीने से सराबोर था। घबराया -सा।

“क्या बात है ? तुम्हारी तबियत तो ठीक है ?” साहिल ने अदब से पुछा।

“हाँ ठीक हूँ। मुझे.. मुझे क्या हुआ है ... कुछ भी तो नहीं।”

“तुम इतने घबराये हुए क्यूँ हो ? क्या बात है ? मुझे तो बताओ, कारोबार की कोई परेशानी है क्या ?”

“कुछ परेशानी नहीं है, बस जरा-सा दिल घबरा रहा था। अब ठीक हूँ ना।”

तब तक नूरी शरबत लेकर आ गई थी।

“यह पी ले, घबराहट दूर हो जायेगी।” उसने कहा तो हुसैन ने गिलास लेकर उसके हाथ से लेकर एक ही साँस में खाली कर दिया। उसने अपनी घबराहट छिपाने के लिए हँसना और बोलना शुरू कर दिया था। बस थोड़ी ही देर में माहौल खुशनुमा हो गया था।

“बच्चे का नाम क्या रखा है ?”

“अभी तो कुछ नहीं, भाभी जी। सोच रहा हूँ हुसैन रख दूँ। अपने चाचा के नाम पर। कैसा रहेगा ?”

उसी समय उसका टेलीफोन आ गया। हुसैन फोन उठाने चला गया। फोन पर किसी से बात करने के बाद वापस आया तो नूरी कहीं जाने तो तैयार थी।

“साहिल भाई कह रहे हैं कि हम लोग भी चलें इनके बेटे को देखने के लिए।” नूरी ने कहा|

“जरुर चलता, लेकिन एक साहब मेरे पास आने वाले हैं। अभी-अभी उन्ही का फोन था ..........”

“ऐसा करते है.........” उसकी बीबी ने कहा- “मैं बच्चों को लेकर साहिल भाई के साथ चली जाती हूँ। आप जब फारिग हो जाएँ, तो आ जाना।”

उसकी बदकिस्मती कि उसे यह याद ही नहीं रहा कि उसने गाड़ी के पहियों के नट ढीले कर दिए हैं। फोन पर कोई ऐसी बात हुई थी कि उसका जेहन उस गुत्थी को सुलझाने में ऐसा मशगूल हुआ कि हर बात उसके दिमाग से निकल गई। उसने अपनी बीबी को भी जाने दिया।

वह फिर किसी को फोन करने बैठ गया। फोन से फारिग होने के बाद हुसैन अपने उस दोस्त का इंतज़ार करने लगा, जिसे कुछ देर में आना था। वह टहलता हुआ बाहर निकल गया। जैसे ही उसकी नज़र गाड़ी पर पड़ी, उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? कभी माथा पीटता तो कभी सिर।

बहुत भागता हुआ सड़क पर आया और फिर बहुत दूर तक भागता ही रहा। कब तक भागता और वो भी इस हालत में। एक जगह ठोकर लगी और वह गिर पड़ा। उसने लेटे- लेटे ही दूर तक फैली हुई सड़क को पूरी हसरत से देखा। हिम्मत करके फिर उठा और फिर से दौड़ने लगा। उसने दिशा का अंदाज़ा भी ठीक ही लगाया था, अस्पताल भी उसी और था। साहिल की गाड़ी भी उसी तरफ गई होगी, लेकिन गाड़ी से तेज वह कैसे भाग सकता था ? वह इतना बदहवास हो चुका था कि न घर से गाड़ी लेकर चला और न ही रास्ते में कोई टैक्सी की।

कभी दौड़ने लगता था, फिर गिर पड़ता था। एक जगह आकर उसके क़दमों का इम्तिहान खत्म हो चुका था। लोगों की भीड़ देखकर वह ठिठक गया। एक कार उल्टी पड़ी थी और एक ट्रक उस पर आधा चढ़ा हुआ था। कार ऐसी हो गई थी जैसे कोई खिलौना।

“कोई जिंदा तो बचा नहीं होगा। ”

“अभी दो बच्चों की लाशें निकली तो गई हैं। खुदा करे कोई जिंदा हो।”

“स्वयं सेवक, पुलिस, एम्बुलेंस सभी तो लगे हुए हैं।” लोग बातें कर रहे थे।

“दो बच्चे........ वो... वो मेरे बच्चे हैं।” वह चीखता हुआ कार की तरफ दौड़ा।

पुलिसवालों ने उसे रोका - “क्या बात है ? कहाँ जा रहे हो ?”

“मेरे बच्चे.. साहब मेरे.. बच्चे ......।”

“उधर एम्बुलेंस में लाशें रखी हुई हैं, आप जाकर चेक करो।”

वह एम्बुलेंस की तरफ भागा, उसके दोनों बच्चे हमेशा के लिए सो चुके थे।

“यह मैंने क्या किया ? मैंने अपने बच्चों को खुद मार डाला। क़त्ल कर दिया मैंने इनका। मैं कातिल हूँ इनका।” वह चीख रहा था और लोग उसे तसल्ली दे रहे थे।

“आदमी जिंदा है और औरत मर चुकी है।” शोर बुलंद हुआ।

“मेरी बीबी भी अल्लाह को प्यारी हो गई। साहिल जिंदा है। जिसे मारना था, वो जिंदा है|” वह कभी रोने लगता था तो कभी हँसने।

“इस सदमे से उसका दिमाग चला गया है, इसे अस्पताल ले जाओ।”

“नहीं, मैं अस्पताल नहीं जाऊँगा, मुझे अपनी बीबी-बच्चों को दफनाना है।”

लाशों के साथ उसे भी अस्पताल ले जाया गया। लाशों का पोस्टमार्टम हुआ और उसे नींद का इंजेक्शन देकर सुला दिया गया। डॉक्टरों का कहना था उसे सोने दिया जाये। दो दिन की नींद के बाद उसके कुछ रिश्तेदार उसे उसके घर ले गए।

साहिल भी काफी जख्मी हुआ था। छ: महीने के इलाज़ के बाद वह चलने – फिरने के काबिल हुआ। उसने नाइला को साथ लिया और हुसैन के घर पहुँच गया।

मैले-कुचैले कपड़ों में एक आदमी घुटनों में सर दिए हुसैन के दरवाज़े पर बैठा था। यह और कोई नहीं खुद हुसैन था।

“हुसैन.......” नाइला ने उसे आवाज़ दी। उसने सिर उठाकर देखा और फिर घुटनों में सिर दे दिया।

“अरे बाबा ! तेरा यार आया है, तुझसे मिलने........। देख ना।”

“यार ...!” हुसैन ने कटाक्ष किया और वह उठा और उठते ही साहिल का गला दबोच लिया।

साहिल ने बड़ी मुश्किल से खुद को उसकी पकड़ से बचाया, जो पकड़ पागलपन की वजह से बहुत मज़बूत हो गई थी।

हुसैन पर अब वहशीपन सवार हो चुका था, पर हुसैन के पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं था कि वह अपनी बाकी की जिन्दगी पागलखाने में बिताए।

उसके घर के बाहर पागलखाने की गाड़ी आ चुकी थी।

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साभार : अनन्त भारद्वाज

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन (4) : अनन्त भारद्वाज की कहानी - इंतकाम
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन (4) : अनन्त भारद्वाज की कहानी - इंतकाम
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