कहानी “क्लाईमेक्स” अनन्त भारद्वाज “जिन्दगी और नाटक में फर्क है, तो शायद यही कि जिन्दगी के नाटक की कोई लिखी हुई हकीकत नहीं होती, इसलिए क...
कहानी
“क्लाईमेक्स”
अनन्त भारद्वाज
“जिन्दगी और नाटक में फर्क है, तो शायद यही कि जिन्दगी के नाटक की कोई लिखी हुई हकीकत नहीं होती, इसलिए कब, किसकी, कौन-सी, कैसी भूमिका किसके साथ मेल खा जाये, यह कोई नहीं बता सकता।”
अपने नाटक “क्लाईमेक्स” के इस संवाद को याद करते हुए प्रशांत ने अपने हाथ में पकडे हुए ठन्डे वाइन के जाम का एक घूंट लिया, फिर रोशनी से चमचमाते बगीचे के लॉन में चल रही पार्टी का मुआयना किया। उसकी नज़र रेशमी, चमचमाते-से परिधान में लिपटी एक अत्यंत सुन्दर महिला पर टिक गई। वह थी विधि, मिसेज विधि शर्मा। वह छब्बीस वर्षीय, भरा हुआ शरीर, सिर से लेकर पैर तक सुंदरता की बेजोड़ मिसाल। उसका संगमरमर-सा शरीर रात के अँधेरे में ऐसे चमक रहा था जैसे कोई रेडियम। लिबास कोई जैसे अमीरी की पहचान करा रहा हो, मतलब वक्ष-सीमा रेखा के प्रथम बिंदु का दर्शन। अत्यंत शालीन व सहज लहजे के साथ किसी वृद्ध-दंपति से बात कर रही थी। उसकी छोटी सी नाक पर पॉवर वाला चश्मा चढ़ा हुआ था।
प्रशांत की नज़र विधि को देखते-देखते ही एक सुकोमल चेहरे वाले पुरुष पर केंद्रित हों गई, जो अपने बेशकीमती सूट में काफी चुस्त-दुरुस्त नज़र आ रहा था। बयालीस वर्षीय वैभव शर्मा नव-विवाहित जोड़े के सामने ठहाका लगा रहा था।
गर्मी की रात थी वह, तापमान ४५ डिग्री, पर रात की वजह से कुछ ठंडा-सा हो गया था। ग्यारह से कुछ ऊपर बज रहे होंगे। आसमान साफ़ था, चाँदनी बिखरी हुई थी। बगीचे के पेड़ हवा में लहरा रहे थे। लॉन के बीच पानी का एक बड़ा सा फव्वारा था, पानी से छनकर आती हुई हवा माहौल को और खुशनुमा बना रही थी। आज वैभव और विधि की शादी की दूसरी सालगिरह थी।
आज की पार्टी भी पहली बार की तरह प्रशांत के नेतृत्व में कथित रूप से आयोजित थी। कथित रूप में इसलिए कि प्रशांत अच्छी तरह जनता था कि ऐसी पार्टियों में आयोजक को सिर्फ खर्चा करना पड़ता है और कोई खास काम नहीं, सिवाय स्वागत के जो कब का निपट चुका है। वहाँ डिलाइट ऑर्किस्टा वाले लॉन के एक कोने में मजमा लगाकर धीमे-धीमे कोई एक अमेरिकी-अफ़्रीकी धुन बजा रहे थे। होटल “नवरत्न” का बैज लगाए, लाल ड्रेस पर सफ़ेद पगड़ी पहने कुछ वेटरों ने खान-पान का पूरा जिम्मा ले रखा था। प्रशांत ने उस अँधेरे कोने में खड़े होकर पार्टी में नुक्स ढूँढने की कोशिश की, लेकिन उसे कोई कमी नज़र नहीं आई। आती भी तो कैसे ? पार्टी में आए ही कितने लोग थे- बस मुट्ठी भर। सब के सब सभ्य, सुशील, कुलीन, उच्च-वर्ग के लोग। कुछ ज्यादा ही औपचारिक माहौल था। प्रशांत को कई बार तो इन लोगों पर गुस्सा भी आता था। ये लोग खुलकर हँसते नहीं थे, मुस्कराते थे, वह इन लोगों के दांतों की तुलना ईद के चाँद से करने लगता था। ये लोग खाना भी नहीं खाते थे, बस चुगते थे। पीते नहीं थे, बस चखते थे। बच्चों के अभाव में पार्टी शोर-शराबे से दूर थी।
प्रशांत ने संतुष्टि में सिर हिलाया। जाम की एक चुस्की लेकर उसने सोचा कि हर एक जिंदगी का एक क्लाईमेक्स होता है, ठीक नाटक की तरह। रंग-मंच में जिस तरह भूमिकाएं आपस में जुड़ती हैं, उसी तरह इस दुनिया में ज़िंदगियाँ मिलती-बिछड़तीं हैं। रिश्ते-नाते बहुत कमजोर धागे हैं, उनसे बंधे लोग कभी भी टूटकर बिखर सकते हैं, जबकि इंसानी फिदरत अगर जोड़ती है तो बंधन अटूट रहता है। प्रशांत ऐसा क्यूँ सोच रहा है ? कौन-सा नाटक, किसकी जिन्दगी ? कैसा क्लाईमेक्स ? इन सवालों का जवाब पाने के लिए हमें जिन्दगी द्वारा लिखित एक नाटक के कई भागों को मिलकर देखना होगा। सबसे पहले पात्र-परिचय। यह पात्र जो इतनी देर से हाथ में जाम लिए इधर से उधर घूम रहा है, वास्तव में इस नाटक का सूत्रधार है। पूरा नाम प्रशांत सिन्हा, उम्र कोई चालीस साल, अविवाहित, सिर पर लंबे-लंबे बाल, गोरे से मुखडे पर हलकी-हलकी डाली और आँखों पर चश्मा। पहनावा कुरता- पायजामा, ऊपर से चमकदार मुलायम काले रंग की जैकेट, इकहरा शरीर। एक ही नज़र में कोई भी उसे बुद्धजीवी कह देगा।
प्रशांत को अकेला छोड़कर हम पार्टी में सबसे ज्यादा चहकते उस मुख्य पात्र की ओर चलते हैं जिसका नाम है वैभव शर्मा। लेखन ओर निर्देशन के अलावा थियेटर का बाकी काम वही संभालता है। कलाकारों का चुनाव, विज्ञापन, स्टेज कि ज़िम्मेदारी सब उसी का काम होता है। प्रशांत ओर वैभव पेशे से नाटककार हैं, लेकिन सामान्यजन में उनकी कोई पहचान नहीं। सिनेमा और टी.वी. चैनल में सराबोर डूबे इस आधुनिक कलकत्ता में अब कम लोग थियेटर के शौक़ीन हैं, यह कोई अस्वाभाविक नहीं।
यह भी सच है कि फिल्म अथवा सीरियल उनके निर्माताओं के लिए अच्छा व्यवसाय है तो नाटक एक जबरदस्त नशा। यह नशा जिसे भी लग जाये, उसके सामने सारा कारोबार फीका है। प्रशांत और वैभव दोनों को ही इस नशे ने अपने आगोश में जकड़ रखा था। दोनों नाटक के पेशे में हिस्सेदार हैं। सारा खर्चा करके वैभव जहाँ फायदे में पचहत्तर फीसदी का हक़दार है, वहीँ प्रशांत पच्चीस का। इसकी सीधी-सीधी वजह है प्रशांत ने इस पेशे में केवल अपनी प्रतिभा लगायी है, जबकि वैभव ने प्रतिभा के साथ-साथ अपनी अच्छी खासी संपत्ति ही सौंप दी है।
इस महानगर में जमीन की कीमत हजारों रूपया प्रति वर्ग फुट है। शहर के बीचों-बीच करीब आधे एकड़ जमीन पर लाल ईंटों से निर्मित अंग्रेज-कालीन एक भव्य ईमारत में तरुण थियेटर है। इस थियेटर में नियमित रूप से नाटक के शो होते हैं। यदि हवा में झूमते अशोक के पेड़ों और सुन्दर बगीचे से घिरे इस भवन को शर्मा जी किराये पर उठा दें, तो उन्हें आज किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी से लाखों रुपये प्रति महीने मिल सकते हैं। लेकिन जैसा कि कहा गया, प्रशांत कि तरह उसके दोस्त को भी थियेटर का नशा है और यह नशा उसके स्वर्गीय पिता सर तरुण कुमार शर्मा से विरासत में मिला था, जो स्वयं एक नाटक कम्पनी के मालिक थे। पिता से उनके इकलौते बेटे को बहुत कुछ मिला है। थियेटर के अलावा उसे बालीगंज इलाके में शानदार बंगला मिला है, दो बेशकीमती कारें मिलीं हैं, महंगे शेयर सर्टीफिकेट और एक फॉर्म हॉउस, जिसकी आय थियेटर की आय से कई गुना ज्यादा है।
वैभव शर्मा जी को मैनेजर मान लेना सच में एक भूल होगी। वह एक अच्छे नाटक समीक्षक भी हैं। देश भर की नाटक प्रतियोगिताओं और सेमिनारों में उसे अतिथि के रूप में बुलाया जाता है। दुनिया भर के तमाम नाटकों पर उसकी पैनी नज़र रहती है। इस प्रकार इन दोस्तों के लिए थियेटर मुख्य है। तरुण थियेटर को संचालित करने वाली कम्पनी का नाम है- वी. एंड पी. एसोसिएशन मतलब वैभव एंड प्रशांत एसोसिएशन।
आज प्रशांत को अपने पुराने दिन याद आ रहे हैं। उसकी सोच उस बिंदु पर पहुँच गई है जहाँ उन दोनों का परिचय हुआ था। वह दिल्ली में आयोजित होने वाला सात दिवसीय नाट्य-समारोह था। वहाँ प्रशांत का कोई एक अंग्रेजी नाटक “वैल्यू ऑफ लव” प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ नाटक चुना गया था। समारोह में रात को नाटक दिखाए जाते थे और दिन में इन पर चर्चाएँ होतीं थीं। ऐसी ही एक चर्चा-गोष्ठी में वैभव शर्मा ने एक मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए विश्व के नाटकों कि ऐसी समीक्षा की कि प्रशांत उसका कायल हो गया। गोष्ठी के बाद जलपान के दौरान दोनों की मुलाकात हुई। प्रशांत को याद है कि वैभव ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा था - “भले ही आप मुझे न जानते हों, लेकिन मैं आपको अच्छी तरह जनता हूँ। मैंने आपके सारे नाटक पढ़े हैं।”
“मैं शर्मिंदा हूँ कि मैं अब तक आपको पहचानता नहीं था। मुझे आपको बहुत पहले जानना था।” प्रशांत ने नम्र स्वर में उत्तर दिया। प्रशांत की लेखन प्रतिभा से वैभव प्रभावित था, जबकि वैभव के नाटकों में सूझ-बूझ से प्रशांत। वे समारोह में घुलते-मिलते चले गए। समारोह से विदाई के वक्त वैभव ने प्रशांत को अपने थियेटर वाली साझेदारी का ऑफर दिया, तब प्रशांत को एक मिनट से ज्यादा समय नहीं लगा था फैसला लेने में। फिर सप्ताह भर बाद वह अपना भारी बैग और मोटा सूटकेस उठाए भीड़ और इस उमड़ भरे महानगर में आ पहुँचा।
दोपहर के यही कोई बारह बज रहे थे जब वह वैभव के दिए पते पर थियेटर पहुँचा। वैभव लाइब्रेरी में कुछ युवा लोगों से नाटक-शास्त्र की किसी गहन चर्चा में व्यस्त था। प्रशांत को देखते ही गले लगा, और फिर चाय-नाश्ते से निपटकर दोनों थोड़ी देर लाइब्रेरी में ही घूमते रहे। वैभव ने बताया कि उसके पिता के देहांत के बाद से थियेटर लगभग सूना ही पड़ा रहता है। यहाँ अब कभी-कभी ही इक्का-दुक्का नाटक खेले जाते हैं। शहर के उस अहम भव्य इमारत, थियेटर, हॉल, ग्रीनरूम, लाइब्रेरी और कई कमरों को देखकर प्रशांत प्रसन्न हों उठा। उसे कलकत्ता में ऐसी सुविधाएं मिल जाएँगी उसने कभी सोचा भी नहीं था। उसे लगा कि उसका भाग्योदय होने वाला है।
लेकिन प्रशांत की यह प्रसन्नता बहुत ज्यादा देर तक टिक नहीं पायी, उसी दिन उसे वैभव की जिन्दगी के नाटक का एक दुखद दृश्य देखने को मिला। लगभग दो बजे भोर में दोनों वैभव के बंगले पर पहुँचे। गेट पर एक नौकर और दो कुत्तों ने उनका स्वागत किया। प्रशांत अच्छी तरह जानता था कि वैभव के कोई बच्चा नहीं है, लेकिन उसकी शादी-शुदा जिन्दगी उसे तब अजीब लगी जब उसे बैठक में बैठे सिगरेट पीते हुए घंटे भर से ऊपर हों गया और वैभव की पत्नी निशा ने घर में होते हुए एक बार भी देखा नहीं।
कुछ देर बाद जब दोनों डाइनिंग टेबल पर खाना खाने बैठे और निशा तब भी नहीं आई तब वैभव स्वयं उठकर अंदर गया और कुछ देर बाद लौटा। उसके चेहरे पर अच्छा खासा तनाव था। थोड़ी देर बाद प्रशांत ने एक अत्यंत आकर्षक महिला को अपने सामने खड़ी पाया जो उसे वक्र-दृष्टि से घूर रही थी।
“नमस्ते भाभीजी” कहता हुआ प्रशांत हाथ जोड़कर मुस्कराया।
प्रत्युत्तर में निशा का चेहरा तस्वीर की तरह फ्रिज हों गया था। प्रशांत का मन कसकने लगा था, फिर उसने देखा कि निशा की आँखों में व्यंग तैर रहे थे। प्रशांत के सस्ते कपड़ों और उन पर लगे धूल के निशानों को देखती हुई वह मानो आँखों ही आँखों में कह रही थी कि यह बेमेल दोस्ती ज्यादा चलने वाली नहीं।
“नमस्ते !!!” पल भर के बाद निशा ने अजीब -सा उच्चारण किया था और वह टेबल पर आ बैठी थी। वैभव इस वातावरण को हल्का करने के लिए बोला , “प्रशांत, यह है मेरी पत्नी निशा.... और निशा ये हैं प्रशांत सिन्हा , द ग्रेट प्रशांत सिन्हा। मैंने तुम्हे बताया था न कि ये ..........”
“नाटककार हैं ...” बीच में बोलकर निशा ने पूरे वातावरण को जैसे खामोश कर दिया हो।
भोजन के बाद हाथ धोकर प्रशांत सोफे पर बैठा ही था कि वैभव ने विवश कर दिया कि “निशा, तुम थोड़ी देर वैभव से बातें करो, मैं अभी आया। प्लीज़.... ”
“सिन्हा साहब ” निशा की खरखराती हुई आवाज़ आई।
“बोलिए भाभी जी।” प्रशांत अपने चेहरे पर सहमा-सा मुस्कान लाता हुआ बोला।
“आप यहाँ कितने दिनों तक नाटक करेंगे ?” निशा के स्वर में व्यंग का आभास पाकर प्रशांत का चेहरा बुझ गया। वह गंभीर स्वर में बोला , “लगता है आप मुझे जल्द से जल्द कलकत्ता से भेजना चाहती हैं। ”
इतने पर भी निशा ने कोई औपचारिकता दिखाने की कोशिश नहीं की, बल्कि और उपहासपूर्वक कहा “अरे आप तो समझ गए, दरअसल मैं यही कहना चाहती थी।”
“ओ.के. यह तो आपकी मंशा हुई, लेकिन इसके पीछे कोई तो कारण होगा? अभी तो आप मुझे ठीक से जानती भी नहीं हैं।”
“मैं, हर नाटककार को जानती हूँ| मिस्टर सिन्हा।” यह वाक्य एक थप्पड़ की तरह प्रशांत को लगा। फिर उसने गौर से निशा को देखा, उसे यूँ लगा जैसे निशा नाटक की कोई नायिका है और संवाद बोल रही है।
प्रशांत अब तक समझ चुका था कि निशा को नाटकों से नफरत है। अब उसे यह जानने की इच्छा हुई कि इसकी वजह क्या है ? सहसा उसका तनाव खत्म हो गया। वह निशा से बातें करने का इच्छुक हो उठा, “लगता है आपको हम नाटककारों से एलर्जी है। क्यूँ मिसेज शर्मा?”
प्रशांत ने जान-बूझकर नया संबोधन लगाया था। निशा एक पल के लिए खामोश हों गई थी। प्रशांत के इस नए पैतरे को वह समझ नहीं पायी, बोली- “क्यूँ न हों ? मेरी नजर में नाटककार को कोल्हू में जोते हुए बैल की तरह होते है। दुनिया उन्हें रंग-मंच नज़र आती है। वे यहाँ की तमाम जिंदगियों को नाटक के भाग की तरह देखते हैं। नाटक... नाटक... और बस नाटक..। नाटक के सिवाय भी दुनिया ने बहुत कुछ है, वे मानते ही नहीं।”
प्रशांत अब मुस्कराने लगा था। निशा की बात सच थी। इस वक्त भी वह उसे अपने नए नाटक के एक भाग की तरह ही तो देख रहा था। वह उत्सुकतावश बोला- “आप खुलकर बताइए न मिसेज शर्मा, आप क्या कहना चाहती हैं ?”
“क्या खुलासा करूँ ?” निशा ने मुँह बनाया , “आज की तारीख में सात करोड़ की प्रोपर्टी है वो थिएटर, समझे सिन्हा साहब। सात करोड़ रुपये की और अपने श्रीमान जी चाहते हैं कि वहाँ नाटक हों.... बस नाटक .. तो हो तो रहा है सारा नाटक।”
“क्यूँ नाटक आपको पसंद नहीं है ?”
“नहीं है, नहीं है, नहीं है। दो कौड़ी की कमाई देने वाले नाटकों में मेरी दिलचस्पी हों ही नहीं सकती। ” निशा ने सहसा अपना कड़वा स्वर बदल लिया, “अच्छा सुना है आपके नाटक मशहूर रहे हैं, यानि हर दिन सप्ताह में छुट्टी को छोड़कर छह दिन भी शो हाउसफुल जाये तो भी रोजाना का खर्चा काटकर हज़ार- दो हज़ार रुपये से ज्यादा का फायदा नहीं मिल सकता| ठीक है। ”
“ठीक है।” प्रशांत ने सिर हिलाया।
“खास ठीक है।” निशा गुस्से में बोली। “सात करोड़ रूपये लगाकर बीस-तीस हज़ार रूपया कमाना अक्ल की बात है क्या ? इतनी लागत में तो लाखों रूपये कमाए जा सकते हैं। ”
“अच्छा वो कैसे ?”
“वैरी सिंपल, कोई दूसरा धंधा कीजिये।”
“कौन-सा धंधा ?” वह उसके अंदर की इच्छा जानने के लिए बोला।
“जैसे गारमेंट्स की फैक्ट्री, सूती कपड़े, एक्सपोर्ट ....... ”
तभी भीतर से वैभव आता दिखा। वह बोला- “यार प्रशांत, लगता है मेरा पेट खराब है। चल जल्दी, रास्ते में ही डॉ. से दवा ले लूँगा। सॉरी निशा।”
यह प्रशांत और निशा की पहली और आखिरी मुलाकात थी।
शाम को थिएटर से फ्री होने के बाद जब वैभव ने प्रशांत को होटल पर ड्रॉप किया और कार लेकर विदा हो गया, तब सीढियाँ चढ़कर प्रशांत अपने कमरे में दाखिल हुआ।
वह अनमना सा था। कमरे में ही टी.वी. की सुविधा थी लेकिन कुछ देखने की इच्छा नहीं थी। वह तौलिया लेकर बाथरूम में घुसा और काफी देर तक नहाता रहा। वापस लौटकर वह राइटिंग टेबल पर पैड लगाकर बैठ गया, हाथ में पेन लिए क्यूंकि अब टाइपराइटर का इस्तेमाल अब बहुत कम कर दिया है। कुछ देर तक पेन से कागज पर आडी- तिरछी रेखाएं खींचता रहा। उसकी कल्पनाओं में कुछ चित्र बन-बिगड़ रहे थे। फिर जब उसने लिखना शुरू किया तो उसकी एश-ट्रे में एक के बाद एक सात-आठ सिगरेट के टोटे जमा हों गए। “क्लाइमेक्स” का पहला भाग लिखा जा चुका था।
दिन बड़ी तेज़ी से गुजर रहे थे, कुछ यूँ मान लीजिए कि प्रशांत और वैभव की कंपनी जम-सी गई थी| कभी-कभार वैभव अपनी घर-गृहस्थी की चर्चा छेड़ देता। प्रशांत महसूस कर रहा था कि वैभव और निशा अपने दाम्पत्य जीवन के पतझड़ को जी रहे हैं, लेकिन रिश्ते न तो बन रहे हैं न ही टूट रहे।
यही हाल प्रशांत के नए लिखे जा रहे नाटक का भी था। उसके दो मुख्य भाग भी अलग- अलग ध्रुवों पर जी रहे थे। प्रशांत नाटक लिखे जाने से पहले किसी से इसके विषय में चर्चा नहीं करता था सो वैभव नहीं जान पाया कि उसकी और निशा की जिंदगी रूप बदल कर वैभव के नाटक के दो पात्रों में समाती जा रही है।
प्रशांत द्वारा लिखे गए नाटक “क्लाइमेक्स” का पहला हिस्सा लगभग तैयार हो चुका था, जो कुछ इस प्रकार था – “युवा उद्योगपति राज मल्होत्रा कई गारमेंट्स कंपनियों के मालिक हैं। वे बहुत महत्वाकांक्षी तथा काम के प्रति समर्पित व्यक्ति हैं। उनकी पत्नी रीना एक उभरती हुई पेंटर है|”
मल्होत्रा साहब अपनी पत्नी को एक कामयाब पेंटर के रूप में नहीं बल्कि पति के प्रति समर्पित देखना चाहते हैं। उन्हें यह कभी मंजूर नहीं था कि उनकी पत्नी, बगल में थैला लेकर चलने वाले, दाढ़ी और मूंछें बढाये पुरुष चित्रकारों के साथ यहाँ-वहाँ प्रदर्शनियों में घूमती फिरे। आए दिन घर में कलह मचा रहता है। घर का गुस्सा मल्होत्रा साहब मानो ब्रीफकेस में रखकर ऑफिस ले जाते हैं। तब उनकी सेक्रेटरी को काम करने के अलावा डांट खाने की भी नौकरी करनी पड़ती है।
प्रशांत ने वैभव और निशा के जीवन की उन तमाम विसंगतियों को नाटक में उभार दिया था। लेकिन वैभव और निशा की जिन्दगी बहुत धीमी थी। उनके जीवन में क्लाइमेक्स आ ही नहीं रहा था, जबकि नाटक को तेज गति में लाने के लिए नाटकीयता की बहुत जरुरत थी| तो अब नाटककार प्रशांत सिन्हा ने एक नया भाग पैदा कर दिया। अब नाटक कुछ यूँ आगे बढ़ा- “ राज मल्होत्रा के चिडचिडेपन से तंग आकर एक दिन सेक्रेटरी रिजाइन कर जाती है और फिर मल्होत्रा साहब की चिंता बढ़ गई। आखिर में इतनी बड़ी कंपनी के लिए हजारों लड़कियों की भीड़ से राज एक लड़की शिप्रा को चुन लेता है।”
शिप्रा न केवल सुन्दर और स्मार्ट है, बल्कि राज की गर्म-जोशी और गुस्से को भी अच्छे से सहने वाली लड़की है। वह मध्यमवर्गी है लेकिन महत्वाकांक्षी। शिप्रा अपने बॉस के करीब रहना अच्छी तरह से जानती है। धीरे-धीरे राज अपनी सेक्रेट्ररी शिप्रा पर निर्भर हो जाता है। वह उससे काफी आत्मीयता महसूस करने लगता है। राज शिप्रा को महँगे उपहार देता है और बदले में वह उसकी घर-गृहस्थी की कथा-व्यथा सुनती है। ऐसे ही धीमे-धीमे राज सोचने लगता है कि काश शिप्रा उसकी पत्नी होती।
“क्लाइमेक्स” की कहानी बस यहीं तक लिखी गई थी कि वैभव की जिन्दगी में एक नया मोड़ आ गया। या यूँ कहें कि वैभव की जिन्दगी ने एक छलांग मारी और पहुँच गई नाटक के बराबर। वास्तव में जिस तरह प्रशांत के नाटक में “लव-ट्राई-एंगल” बनाने के लिए शिप्रा पैदा हुई थी, ठीक उसी तरह वैभव की जिन्दगी में भी एक हसींन लड़की का प्रवेश हों चुका था।
हुआ यूँ कि प्रशांत और वैभव थिएटर में एक क्राइम-थ्रिलर नाटक की तैयारी में जुटे थे जो कि किसी अंग्रेजी नाटक पर आधारित था। सभी कलाकारों को संवाद समझा दिए गए थे, सिवाय नायिका के। थिएटर से जुड़ी कोई भी लड़की वैभव को इस रोल के लिए जंच नहीं रही थी, वह किसी नयी लड़की की तलाश में था।
प्रशांत भी परेशान था। वह एक कठिन रोल था नायिका एक मोडर्न लड़की थी जो अपने ‘करियर’ की वजह से अपने आदर्श प्रेमी को ठुकरा देती है। नाटक के बीच उसका खून हों जाता है। इस रोल को किसी लड़की से कराना था जो कि नयी हो। उसने वैभव से कह दिया कि या तो वह ३ दिन में लड़की ढूँढ ले, नहीं तो वह थिएटर की ही किसी लड़की को नायिका बनाकर रिहर्सल शुरू कर देगा। इस अल्टीमेटम पर वैभव ने हंसकर स्वीकृति दे दी थी।
अल्टीमेटम का तीसरा दिन था आज। प्रशांत अपने फ्लेट की छोटी सी बालकनी में खड़ा सिगरेट फूंक रहा था कि उसने वैभव की कार को अपनी बिल्डिंग के सामने रुकता हुआ देखा। फिर जब उसने दरवाज़ा खोलकर स्वागत किया तो वैभव के पीछे नमस्कार की मुद्रा में खड़ी एक नयी फैशनेबल मोडर्न लड़की को देखकर चौंक गया। लड़की बहुत सुन्दर थी, बहुत... बहुत ही ... लेकिन उसके बाल.... “बॉयकट” पहनावा भी बिलकुल लड़कों सा।
एक क्षण बाद वैभव ने चहकते हुए कहा “यह है तुम्हारे नए नाटक की नायिका, आई मीन विधि। देखो खोज लिया न मैंने नयी हीरोइन को।”
लड़की के खूबसूरत दांत चमक रहे थे। वह थोडा-सा झिझक भी रही थी। प्रशांत ने नमस्कार का जवाब दिया ही था कि वैभव ने विधि को सोफे पर बैठने का इशारा किया। फिर वह प्रशांत को धकियाता हुआ अंदर ले गया।
“विधि रिटायर प्रो. राना की बेटी है। यह एक अरसे से तुम्हारे नाटकों की फैन है। यह मुझे एक पार्टी में मिली और इसकी बात-चीत व हाव-भाव से लगा कि यह नायिका के रोल में एकदम फिट है। बोलो क्या कहते हो ?”
“वो सब तो ठीक है वैभव.......” प्रशांत के स्वर में शंका स्वाभाविक थी। “लेकिन नायिका का रोल बहुत दमदार और बड़ा है, कई उतार-चड़ाव हैं इसमें। यह कर पायेगी ? आई..... मीन.. विधि ...?”
“विधि इज माय गारंटी।” वैभव ठोस स्वर में बोला। “बस तुम्हे इस पर थोड़ी सी मेहनत करनी होगी डायरेक्टर साहब।” और फिर जोरदार हँसी माहौल में फ़ैल गई।
विधि को रोल समझाने और काफी रिहर्सल के बाद प्रशांत ने उसे रोल में एकदम घुला पाया। हालाँकि वह कहीं-कहीं ओवर एक्टिंग भी कर देती थी, पर उसकी अदाएं.. आए हाए। सब माफ।
वक्त बीतता गया और नए थ्रिलर नाटक के कई शो हाउसफुल रहे। अख़बारों में विधि के अभिनय की प्रशंसा हुई। विधि के माता-पिता ने नाटक देखने के बाद ग्रीनरूम में आकार प्रशांत को बधाई देते ही कहा कि उन्हें अपनी लड़की की अभिनय प्रतिभा के बारे में पता ही नहीं था।
विधि की अभिनय-प्रतिभा का पता भले ही सबको मिल चुका था लेकिन वैभव और विधि इतनी सधी हुई एक्टिंग कर रहे थे कि थिएटर के बाकी टाइम में उनके बीच पनप रहे नाज़ुक रिश्ते की खबर किसी को नहीं हुई, उसके दोस्त प्रशांत तक को भी नहीं। आखिर एक दिन प्रशांत को पता चल ही गया, पर तब तक बात बहुत आगे निकल चुकी थी।
वह भी एक नाटकीय घटना थी, छुट्टी का दिन रविवार ; विधि का जन्मदिन थिएटर में ही मनाया जा रहा था, वैसे तो विधि के घर पर भी एक बड़ा फंक्शन था इसके लिए। वैभव और प्रशांत सारे कलाकार, सब के सब व्यस्त थे, प्रशांत के पास सिगरेट खत्म हुई और चपरासी कहीं नज़र नहीं आया तो वह बिना किसी से बोले वैभव के केबिन में चला गया। वहाँ उसने टेबल की एक दराज़ को खींचा। वह सिगरेट के स्टॉक से सिगरेट निकल ही रहा था कि उसकी नज़र एक बहुत ही खूबसूरत गुलाबी लिफाफे पर पड़ी। लिफाफा उठाया ही था कि साथ में एक छोटी-सी डिब्बी भी मिल गई। भौंहें सिकोड़ते हुए प्रशांत ने लिफाफा खोला और बुत बन गया। लिफाफे के अंदर कार्ड में अंग्रेजी में प्यार के शब्द लिखे हुए थे। बाद में लिखा था –“तो विधि, माय हर्ट, माय लव, और नीचे वैभव शर्मा के हस्ताक्षर ”। उसने अब वह डिब्बी खोली, और जो सोचा था वही- हीरे के नग वाली एक सुन्दर सी अँगूठी।
प्रशांत पिछले कई दिनों की छुट-पुट घटनाओं को याद करने लगा और फिर इस बात पर पहुँचा कि विधि भी वैभव को चाहने लगी है। पहली बार वह अपने दोस्त से नाराज हुआ आखिर वैभव ने उससे यह बात छिपाई क्यूँ ?
उसने लिफाफा समेत डिब्बी को अपनी जेब में रख लिया और वापस आ गया।
विधि का बर्थ-डे केक कटा गया। खाने-पीने का दौर शुरू हों गया। प्रशांत की नज़र विधि और वैभव तक ही सीमित रह गई थी। सबने विधि को शुभकामनाएं दीं, और कुछ न कुछ गिफ्ट्स... वैभव ने कुछ नहीं ??? पार्टी समाप्ति पर थी। वैभव ने कहा कि वह विधि को अपनी गाड़ी में घर छोड़ देगा। फिर वह प्रशांत से “एक मिनट आया” कहकर हॉल से बहार निकला। प्रशांत के चेहरे पर मुस्कराहट उभर आई। थोड़ी देर बाद जब उसने वैभव के केबिन में झाँका तो उसकी तो जैसे हवा खराब हो चुकी थी। वह डेस्क, कागज, फाइल सब कुछ इधर-उधर कर चुका था। ठीक उसी समय प्रशांत दनदनाता हुआ वैभव के पास आया।
“व्हाट्स द मैटर, क्या ढूँढ रहे हो वैभव ?” मुस्कराता हुआ प्रशांत का चेहरा सब कुछ समझने के लिए काफी था।
वैभव बोला – “कुछ नहीं यार, बस ऐसे ही.....”
“कहीं ये तो नहीं ?” कहकर प्रशांत ने अपने जेब से सब कुछ निकला।
“अरे ये...........|” कुछ कहते हुए विअभाव रुक गया। वह समझ गया था और चेहरे पर शर्मिंदगी के लक्षण फ़ैल चुके थे। फिर आगे नज़रें चुराता हुआ बोला “आय एम् सॉरी| यार देख तू बोलना मत| मैं....तुम्हें खुद बताने वाला था। फिर संकोचवश रुक गया।”
“तुम्हे तो मुझ पर विश्वास ही नहीं था, न।” प्रशांत इस बार गरज पड़ा।
“ये बात नहीं है, आय एम् रेअल्ली वैरी वैरी सॉरी। मुझे तुमसे कुछ छिपाने की जरुरत थी ही नहीं। प्लीज़ मुझे माफ कर दो।”
वैभव की विनती पर प्रशांत पिघल गया और बोला – “ऑल राइट, लेकिन मैं भी तो सुनूँ कि ये चक्कर कब से चल रहा है ?”
वैभव ने उसकी ओर अपनी सिगरेट सुलगा ली, फिर बोला “मैं तुमसे कुछ भी नहीं छुपाऊँगा। विधि पिछले २ साल से मेरी परिचित है। इसे नाटकों में दिलचस्पी है और इसने नाटकों में PHD भी की है। PHD के सिलसिले में यह मेरी लाइब्रेरी में आती जाती रहती थी और कई नाटकों पर लंबी-लंबी चर्चाएं भी करती थी। ‘विलीब मी’, मुझे लगता था कि ये मेरी बात-चीत से प्रभावित है लेकिन कुछ दिनों पहले मुझे पता चला कि ये मुझे चाहने लगी है।” वैभव के चेहरे पर लज्जा की लाली दौड़ गयी।
“और तुमने इसे उस नए थ्रिलर नाटक की हीरोइन बना दिया !!”
“शी डिजर्व इट यार। इसमें टैलेंट है।”
“लेकिन तुम जानते हों इसका अंजाम क्या होगा ”
“जानता हूँ।” गहरी सांस लेकर वैभव बोला- “अच्छी तरह जानता हूँ। इसका अंजाम यही होगा न कि मुझे निशा से तलाक लेना होगा, ये भी कर लूँगा। आखिर मिला ही क्या है मुझे ये शादी करके ?”
“हैं”
“हाँ मैं निशा से तलाक लूँगा और विधि से शादी कर लूँगा। दुनिया क्या कहती है, इसकी परवाह नहीं है मुझे और मैंने ये फैसला काफी सोच समझ कर लिया है।”
दोनों में कुछ देर बहस चलती रही फिर वैभव को अडिग देखकर प्रशांत ने हार मानते हुए वैभव की ओर घूरकर देखा। वह सिगरेट का धुँआ उगल रहा था।
पत्नी के प्यार की कमी ने वैभव को विधि की ओर आकर्षित कर दिया था। दोनों एक-दूजे को दिमागी रूप से समझ रहे थे और उनकी सोच भी काफी कुछ मिलती थी इसलिए दोनों एक-दूसरे के काफी करीब आ गए थे। फिर ठीक भी तो था, दोनों को नाटकों में रूचि थी, दोनों खुश थे। लेकिन पहली मुश्किल ये थी कि उम्र का फासला – करीब १२ साल। दूसरा निशा की उपस्तिथि सामाजिक निंदा का कारण बन सकती थी। वैभव की प्रतिष्ठा थिएटर से जुड़ी थी और थिएटर से प्रशांत जुड़ा था।
“ठीक है।” अंत में एक लंबी सांस लेकर प्रशांत बोला –“तुम दोनों प्यार करते रहो लेकिन इसे फिलहाल जाहिर मत होने दो। पहले निशा से तलाक तो ले लो, फिर देखना।”
प्रशांत के इतना कहते ही वैभव का चेहरा खिल गया। वह उसका हाथ थामकर हिलाता हुआ बोला “यू आर रिअली माय बेस्ट फ्रेंड| अब मेरी एक राय मानो तुम भी जल्दी से शादी कर लो। यहाँ तुम्हें कई लडकियां चाहती हैं, तुम जिसे कहो मैं उसे भाभी बोलने लगूंगा।”
प्रशांत ने मुँह खोला ही था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। हँसती हुई विधि ने चहककर कहा- “आप दोनों को पता नहीं है क्या कि मुझे घर जाना है ?”
“मैं भी बहुत देर से वैभव को यही समझा रहा हूँ भा.... भी... ” प्रशांत ने वैभव की ओर मुस्कराकर आँख दबा दी। तब विधि का चेहरा देखने लायक था। उसी दिन से प्रशांत वैभव और विधि के प्यार का राजदार हो गया था।
एक रात प्रशांत अपने फ्लैट से अँधेरे में ‘इज़ी चेयर’ पर लेटकर “क्लाइमेक्स” नाटक के क्लाइमेक्स पर विचार कर रहा था। कहानी थोड़ी और आगे बढ़ चुकी थी – “राज मल्होत्रा, रीना और शिप्रा के बीच ‘लव ट्राईएंगल’ बन चुका था। रीना के संगठन के लिए एक चौथा भाग पैदा हों चुका था। वह है एक युवा पेंटर आलोक। आलोक बहुत ही नरम दिल का भावुक लड़का है लेकिन वह चाहे तो किसी को भी अपनी मीठी-मीठी बातों के रस में डुबो ले। आलोक की मीठी बातों का जादू राज मल्होत्रा की पत्नी रीना पर भी हो गया था। रीना इस शख्स से पेंटिंग पर बातें करते करते रीझ जाती थी और बुरी तरह आलोक पर आसक्त हो जाती है। पर वास्तव में आलोक किसी और लड़की को अपना दिल दे बैठा है।”
नाटक के क्लाइमेक्स के लिए वह इन चार पात्रों को शतरंज की गोटियों की तरह यहाँ-वहाँ रखकर सबसे अच्छा अंक ढूँढने में लगा ही था कि फोन की घंटी बजी। उसने लाइट जलाकर घड़ी की तरफ देखा, साढ़े ग्यारह बजे थे। उधर फोन पर वैभव था, उसने प्रशांत को बताया कि विधि से वह जल्द से जल्द शादी करना चाहता है। जल्दी से कोई अच्छा सा जुगाड़ बताये जिससे निशा से भी मुक्ति मिल जाये।
प्रशांत फोन पर बात खत्म करके अपने बेड पर पहुँचा, पर उसके दिमाग में वैभव की बात नहीं क्लाइमेक्स चल रहा था। उसने ‘क्लाइमेक्स’ नाटक को कुछ इस तरह आगे बढ़ाया -
युवा पेंटर आलोक अपनी पड़ोसन शिप्रा से बहुत प्यार करता है। शिप्रा एक मध्यम-वर्गीय लड़की है और स्कूल में अलोक के साथ पढ़ी है। शिप्रा उससे सहानुभूति रखती है। आलोक एक दिन आखिर शिप्रा को प्रपोज़ कर ही देता है, उस दिन उसे यह जानकर दुःख होता है कि शिप्रा अपने ऑफिस के बॉस राज मल्होत्रा से प्यार करती है। आलोक को बहुत गुस्सा आता है पर वो कर भी क्या सकता था ? एक दिन जब आलोक शिप्रा को समझाता है कि वह अपने बॉस से बचकर रहे, इन अमीर लोगों का कोई भरोसा नहीं होता। तब शिप्रा उसे चहकते हुए बताती है कि बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। उसका बॉस बहुत जल्द ही अपनी पत्नी को तलाक देने वाला है और उससे शादी करने वाला है।
आलोक को जब बॉस के बारे में पता चलता है तो रीना का नाम भी जाहिर होना स्वाभाविक है। रीना का नाम सुनकर आलोक अपने भाग्य पर ठहाके लगाता है। रीना ने उसके सामने अपने पति को हमेशा ‘राज’ कहकर ही संबोधित किया था। आलोक ने कभी उसके पति में दिलचस्पी नहीं दिखाई और अब भाग्य के निराले खेल पर सिर्फ हँस सकता था|
नाटक के अंतिम सीन में रीना आलोक से आकर कहती है कि वह अपने पति से तलाक लेकर कहीं दूर जाने वाली है। तब आलोक का रीना से यह कहना कि तुम्हारे लिए मेरा घर, मेरी दुनिया सब खाली हैं, रीना की आँखों में आँसू ला देते हैं और रीना जोर से उसके गले लग जाती है।
इस तरह ‘क्लाइमेक्स’ की दो जोडियाँ जो कि कमजोर कड़ी-जैसी जान पड़ रही थी, एक- दूसरे को क्रोस करती हुई मजबूत जोड़ियों में बदल गयी थी। अपने उद्देश्य में सफल हो चुका था प्रशांत। इस नाटक में उसका कहना था कि किस्मत की मिलायी हुई जोडियाँ टूट सकतीं हैं लेकिन इंसानी फितरत जो जोडियाँ बनाती है, वह अटूट रहती हैं।
खाना खाकर प्रशांत सोफे पर पंखे के नीचे सिगरेट जलाये बैठा ही था कि तभी वैभव वहाँ तूफ़ान की तरह आ धमका। उसकी आँखें चमक रहीं थी। उसने एक मोटी-सी फाइल टेबल पर रख दी।
“यू आर, यू आर जीनियस यार” वैभव उत्तेजना में किसी बच्चे की तरह चहक उठा था। हाथ मिलाकर वह सामने के सोफे पर जा बैठा “क्या लिखा है तुमने !!”
“तो मेरा नाटक तुम्हारे हाथ लग ही गया।” प्रशांत में मुस्कराते हुए कहा और मेज पर रखी फाइल उलटने लगा। वह क्लाइमेक्स की कॉपी थी।
“हाँ, परसों ही टाइपिस्ट इसे थिएटर पहुँचा गया था।”
“मैंने दो बार पढ़ा है इसे। इस बार तुम्हारे संवाद वाकई खलबली मचा देंगे।”
“बोलो क्या लोगे ? लंच हों गया तुम्हारा ?”
“हाँ यार, हाँ पर कॉफी चल जायेगी।”
‘रामसेवक’ प्रशांत ने आवाज़ दी – ‘हमारे लिए दो कॉफ़ी बना देना।’
और सुनाओ क्या हाल हैं तुम्हारे, वैभव ?
“प्रशांत, सच बोलो। क्या यह मेरी और निशा की गृहस्थी से ली गई भीख नहीं है ?”
प्रशांत मुस्कराया। प्रख्यात नाटक समीक्षक वैभव शर्मा किसी शोधार्थी छात्र की तरह उससे पूछ रहा था कि यह नाटक उसकी जिन्दगी पर आधारित है या नहीं ?
“तुमसे कोई बात छिपी तो है नहीं।” प्रशांत बोला।
“हर नाटक किसी न किसी की जिन्दगी की प्रतिछाया होता है। यदि वह यथार्थवादी है तो निश्चितता थोड़ी और बढ़ जाती है। जिन्दगी एक नाटक है भाई, अच्छा ये बताओ वैभव, मेरा नाटक अच्छा है या नहीं ?”
“नो डाउट अबाउट इट, कोई शक की बात है ही नहीं। लेकिन......”
“लेकिन क्या ????”
“बुरा न मनो तो एक बात कहूँ ?”
“हाँ, कहो ना। मैं तो एक लेखक हूँ। समीक्षक की बात का बुरा मानूंगा तो जीऊंगा कैसे ?” प्रशांत हँस पड़ा।
“आलोक का चरित्र जरा कमजोर है। यू नो, शिप्रा से उसका सम्बन्ध तो ‘नेचुरल’ है, लेकिन रीना के प्रति खिंचाव .......... यार कहीं ‘ओवर’ न हो जाये ??”
“सच कह रहे हो, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा था, कोई नहीं, उसका रोल काट दें क्या ?” प्रशांत चिंताजनक शब्दों में बोला।
“कहो तो अंतिम सीन फिर से लिख दूँ। लगता है थोड़ी-सी जल्दबाजी में था मैं। वैसे....... मैं समझ रहा हूँ।” प्रशांत अभी तक शंका से मुक्त नहीं हों पाया था।
“कोई जल्दबाजी नहीं हुई है तुमसे ” वैभव चहका। “ये वैभव शर्मा की गारंटी है, सुपरहिट ड्रामा है तुम्हारा।”
थोड़ी राहत महसूस करते हुए प्रशांत ने चिंता को झटक दिया “खैर, तुम सुनाओ, मैं तुमसे पूछ ही नहीं पाया कि निशा भा....भी... कैसी है ?”
“पता नहीं।” वैभव थोडा रूककर बोला- “कुछ मत पूछ। हमारे संबंधों का अंत हों चुका है।” और फिर वैभव चुप हो गया।
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साभार : अनन्त भारद्वाज
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नाटक में जिंदगी या जिंदगी में नाटक।
जवाब देंहटाएंयह दुनिया ही रंगमंच है।
कहानी में सम्बन्धों का ताना-बाना अच्छा बुना है।पढ़ने वाला अगर कहानी बीच में छोड़ दे तो थोड़ा कन्फ़्यूस हो सकता है लेकिन अंत जानने के लिए छोडता नहीं पूरी पढ़ता है।
फालतू के बिम्ब नहीं है फालतू का अनावश्यक विस्तार नहीं है ॥ इसलिए कहानी को समझने में आसानी है.