वैचारिक कहानी - एक नास्तिक की तीर्थ यात्रा [ डॉ. हीरालाल प्रजापति ] -----------------------------------------------------------------------...
वैचारिक कहानी -
एक नास्तिक की तीर्थ यात्रा
[ डॉ. हीरालाल प्रजापति ]
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रु. 12,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012
अधिक जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html
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मुझे हमेशा ही अनकामन और इनक्रेडिबल बातों ने ही प्रभावित किया है। सामान्य तौर पर घटने वाली घटनाएँ मुझे चर्चा का विषय नहीं लगतीं। यानि आप सहज अनुमान लगा सकते हैं कि क्या मेरी चर्चाओं में सदैव गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स की ही घटनाएँ स्थान रखती हैं ?यह मेरी प्रकृति सी है कि मानवेत्तर घटनाएँ ही मुझे चौंका पाती हैं , अजीबोगरीब बातों में मुझे कविता की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है , विरोधाभासी बयानों में मुझे वक्ता की शक्तिशाली दुश्मन से लड़ते हुए कमजोर नायक की जद्दोजहद दिखाई पड़ती है इनटू यह सब मेरा सनकीपन नहीं वरन सीमाओं से परे देखने की जन्मजात अनुसंधित्सु प्रवृत्ति का बाह्याचार है। मुझे चीजों को खोल खोल कर देखने की आदत है। शारीरिक सौन्दर्य अथवा कुरूपता से असरहीन मैं सीधे आत्मा में ज़रा सी ताकत से तरबूज में घुस जाने वाली छुरी की तरह नहीं बल्कि मीठा जल निकलने के लिए चट्टानों को छेद डालने वाली दानवी यांत्रिक बोरवेल ड्रिल सा पैवस्त हो जाने का असीम धैर्य और ज़बरदस्त माद्दा रखता हूँ। कोई जल्दबाजी नहीं। मुझे रोटी की गोलाई से कोई मतलब नहीं ; उसके पके होने से ताल्लुक है। समय की कोई सीमा नहीं।
मैं चौंकना चाहता हूँ बिलकुल फिल्मों में अचानक प्रकट हो जाने वाले किसी देवी देवता अथवा पलक झपकते ही अंतर्ध्यान हो जाने नारद जी के कारण से किन्तु चील गिद्ध सी नज़रों के बाद भी कहीं ऐसी घटनाएँ मुझे देखने नहीं मिलतीं कि लगे कि ये तो चमत्कार है - जादू है - ईश्वरीय है .....सुनने ज़रूर मिलता है कि कहीं गणेश जी दूध पी रहे हैं ,तस्वीरों में माँ जगदम्बे दिखाई दे रही हैं , किसी को उसका पिछला जन्म याद आ गया है ....किन्तु जब देखने पहुँचो तब तक मैदान साफ़ हो चुका होता है और मैं एक महान आश्चर्य से विस्मित होने से वंचित रह जाता हूँ अथवा वैज्ञानिक उस घटना को वैज्ञानिक बताकर मेरे आश्चर्य की धज्जियां उड़ा देते हैं और फिर-फिर मैं ' ईश्वर है अथवा नहीं ' की विचार श्रंखलाओं में जकड जाता हूँ कि आखिर क्यों लोग मेरी तरह ऐसी ही घटनाओं के प्रतीक्षार्थी हैं कि जिनसे वे अभिभूत होकर जब कुछ समझ न आये तो उसे दैवीय चमत्कार मानकर अपनी ढुल -मुल ईश्वरीय आस्था को पुख्तगी प्रदान कर सकें। मानना चाहें तो यहाँ भी चमत्कार देख सकते हैं -कोई दस मंजिल से गिर कर भी बच गया ,भले ही वह फोम के गद्दों पर गिरा हो , फूलों अथवा नायलोन जाल पर -क्या यह संयोग कम चमत्कारिक है ? किसी के फेफड़ों में चार इंची लोहे का चौदह फुट लम्बा एंगल आर पार हो गया फिर भी वह न केवल बच गया बल्कि पूर्ण स्वस्थ भी है , एक भूख से मरणासन्न भिखमंगे को करोड़ों का जैकपाट लग गया , एक पुछल्ला बैट्समेन जिसे बल्ला पकड़ना भी नहीं आता ; सेंचुरी लगाकर टीम को जिता गया ....तार्किकों अथवा संशय वादियों को छोड़कर अथवा नास्तिकों या अनास्थावादियों के अलावा सभी उक्त घटनाओं से मत्कृत होकर विस्मित होकर रहते ही हैं। यह संयोग मात्र ही तो दैवीय है , परावैज्ञानिक है किन्तु मेरा मन माने तब न। खैर।
वह भी कुछ-कुछ मेरा ही प्रतिरूप था - सब कुछ मानवीय और प्रयत्नों का परिणाम अथवा परिस्थितियों की परिणति मानने वाला अतः मेरी और उसकी तो जमनी ही थी बल्कि यह संयोग यानि हमारा मिलना भी यदि देखें तो किसी आश्चर्य अथवा चमत्कार से कम कहाँ था ? कारण -मिलन स्थल। हम दोनों एक तीर्थ यात्रा के दौरान मिले . मेरे बारे में तो आप अब तक अनुमान लगा ही चुके होंगे कि मैं एक नास्तिक टाइप का व्यक्ति हूँ। उसे भी आपसे परिचित कराता हूँ।
उसका नाम था - तीर्थेश्वर प्रसाद किन्तु घर में उसे सब ईश्वर अथवा ईशू-ईशू कहकर पुकारते थे और इस यात्रा में वही एक मात्र मेरे आश्चर्य का केंद्र था क्योंकि जिस खानदान से वह सम्बद्ध था परम ईश्वर भक्त उच्चकोटि ब्राह्मन का था किन्तु इसके ठीक विपरीत कम से कम बाह्य रूप से ईशू मुझे कट्टर नास्तिक लगा जो मेरी कहानी का हीरो बन सकता था -बिलकुल चिराग तले अन्धेरा ....पुलिस कमिश्नर का बेटा डाकू अथवा परम सूदखोर साहूकार के कर्ण - सम दानवीर बेटे की तरह।
जैसा उसने बताया अथवा मैंने महसूस किया। वह जन्म से ही ऐसा था। नास्तिकता के बाह्याचार तो अपनी नासमझी में अथवा बचपन में सभी बच्चे करते हैं - मसलन शंकर जी की गोल पिंडी को पत्थर का अंडा अथवा लोहे की गेंद समझकर उछालना फेंकना या ठुकरा देना , बिना नहाए धोये किसी भी देवी देवता की मूर्ती को छू या उठा लेना , भोग या प्रसाद को खा जाना ....इन सब से कोई नास्तिक नहीं हो जाता। समझ के विकसित होते ही हम सभी प्रोफेशनल पुजारियों का सा अनुकरण करने लगते हैं किन्तु जो नहीं करता वह नासमझ नहीं होता। ईशू भी नासमझ नहीं था।
प्रारंभ में उसकी नास्तिकता पूर्ण हरकतों पर बच्चा समझकर उसे छोड़ दिया जाता किन्तु बाद को उसे नोटिस किया जाने लगा और उस पर पूजा आरती का दबाव डाला जाने लगा और वह भी प्रारंभ में झुंझलाते हुए सर्वथा बेमन से - बाद को घर वालों का मन रखने के लिए धार्मिक कृत्य करने लगा .उसका उस कम उम्र में भी दावा हुआ करता था कि यह सब ढोंग है , बकवास है , व्यर्थ है। गंगा के स्नान मात्र से कैसे पाप मुक्त हो सकते हैं ? नर्मदा दर्शन मात्र से अनंत फल मिल जाता है ? सत्यनारायण कथा प्रसाद ग्रहण न करने मात्र से विनाश और तरह तरह के अजीबो गरीब आकार प्रकार के देवी देवताओं के व्रत उपवासों से समस्त कष्टों का निवारण कैसे हो सकता है ? वह गहराई से सोचता था . उसके सारे तर्क वैज्ञानिक होते थे किन्तु यों ? ईश्वर की अवधारणा के औचित्य से उसे कोई इनकार नहीं था किन्तु सांसारिक व्यक्ति के लिए कर्म छोड़कर उसकी पूजा मात्र को जीवनोद्देश्य-लक्ष्य बनाने की बातें अथवा उपरोक्त प्रकार के पूजा फल उसे पूर्णतः अवैज्ञानिक और मनगढ़ंत एवं मूर्खतापूर्ण लगते थे। कोई जन्म से ईश्वर वादी कैसे हो सकता है ? यदि संस्कार वश वह हो भी गया हो तो उसे ऐसी क्या ठेस लगी कि वह समझदार होते ही अनीश्वरवादी हो गया ? मैं यह सब जानना चाहता था और ज़रूर ज़रूर जानना चाहता था। बाह्याचारों और आडम्बरों को मैं भी नहीं मानता किन्तु कोई सचमुच में अन्दर से कैसे यह मान सकता है कि ईश्वर है ही अथवा नहीं ही ? तर्क से परे कोई कैसे हो सकता है ? कार्य कारण का सिद्धांत यूं ही तो नहीं गढ़ा गया ?
मैं पहले ही कह चुका हूँ कि उसमें मुझे अपना प्रतिबिम्ब दिखाई देता है किन्तु हालात के बदलाव ने मुझमें भी ज़मीन आसमान से बाह्य और अंदरूनी परिवर्तन कर डाले हैं और मैं भी लगभग - लगभग कामन हूँ अर्थात मैं अब हीरो नहीं अतः जब तक वह अपरिवर्तित रहता है मैं उसे अपनी स्टोरी का संभाव्य हीरो माँ कर चलूँगा और यदि वह मेरी तरह बदल गया तो फिर कल्पना से अपनी कहानी पूर्ण करूंगा किन्तु मैं चाहूँगा कि वह हर हाल में नास्तिक रहे - यानी सुख में भी , दुःख में भी।
मैंने उससे पूछा भी कि कई लोग हटकर दिखने के लिए भी ऐसी जीवन शैली अपनाते हैं जो लोगों का ध्यानाकर्षित करे ,कहीं तुम भी तो........? बिलकुल नहीं - उसने कहा . मुझे कभी लगता ही नहींम कि यह सब होता है . आपका शक भी बेजा नहीं है क्योंकि जिस राह जाना नहीं उसका पता क्या पूछना ?मैं भी न सोचूँ ईश्वर के बारे में किन्तु करोड़ों लोगों की ढर्रानुमा परम्परा परंपरा मुझे भी डिगाती है कि सब तो मूर्ख नहीं होंगे जो बिना तर्क के आस्तिक हैं या तर्क करके हो गए ? मैं तो अपना सच कहता हूँ जो बिना किसी भय के मैं भरी सभा में उजागर कर सकता हूँ कि पूजा आरती से मैं बोर हो जाता हूँ। हर देवी देवता योनिज अयोनिज अवतार अथवा ईश्वर की आरती प्रार्थना का एक ही भाव - जो ध्यावे फल पावे .....तेरा तुझको अर्पण ......अरे भाई क्या ज़रुरत है इस स्तुति गान की ? यदि ईश्वर एक है तो उसके तैंतीस करोड़ रूप और प्रत्येक की अलग पूजा विधि ...........कहीं श्री गणेश , कहीं शंकर महादेव ......कहीं पिता पहले तो कहीं पुत्र पहले ...........राम - कृष्ण - साँई ........किसको पूजें ? किसको छोड़ें ? एक मनुष्य ,एक अवतार , एक देवता , एक भगवान् ........किसका ध्यान लगाएं ? और सभी की आरतियाँ - चाहे सरस्वती- लक्ष्मी -गणेश की हो या ब्रह्मा -विष्णु - महेश की हो या शिर्डी के साँई बाबा की ..........सबका एक और एक ही मकसद एक ही अर्थ कि जो ध्यावे फल पावे .....तेरा तुझको अर्पण . तो फिर एक ही रूप क्यों नहीं ?
अलग अलग देवी देवता की अलग अलग पूजा क्यों ? ईश्वर यदि निराकार नहीं तो जब वह एक है तो उस साकार का भी सिर्फो सिर्फ एक ही सर्वमान्य निर्धारित स्वरुप क्यों नहीं ? ऐसे में भक्त के लिए मनोनुकूल देवी देवता का चुनाव करना बड़ा कठिन हो जाता है ? विद्यार्थी को सरस्वती तो व्यापारी को लक्ष्मी .....फिर वही ....फल सभी एक ही प्रदान करते हैं -सर्वथा मनोवांछित .....तो फिर इतने रूपों का स्रजन क्यों ......और रूप सदैव चाक्षुष होने के नाते मन में वासना भी उत्पन्न करता है ,भय भी। एक ही देवी देवता की भिन्न भिन्न मूर्तियों में तुलना भी। यह बड़ा ही सुनियोजित षड्यंत्र सा लगता है। व्यापार लगता है। दुर्गोत्सव ,गणेशोत्सव .....सब टाइम पास है। हर जगह भीड़ भाड़ शोर शराबा। जब वह यह भाषण कर रहा होता तो कुछ कुछ उन्मत्त सा हो जाता और उसके इस बहकाव में मेरे भी मन की तमाम बातें जो मैं अनिष्ट शंका वश मुँह से नहीं निकालता था ,कह जाता था . मैं उसे रोकता -तुम ऐसा कैसे कह सकते हो ?तुम्हे डर नहीं लगता कि कहीं कोई दैवी शक्ति तुम्हारा अनिष्ट न कर डाले ?
वह बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में अपना तर्क देता – मान लो , जिसका अस्तित्व मैंने नहीं माना , जिससे मैनें कोई रिश्ता नहीं बनाया उससे दुआ सलाम का क्या अर्थ ? इसके अलावा भी मेरा मानना है कि जिसे हम प्यार करते हैं और भक्ति तो उससे भी ऊंची चीज़ है -तब हम उससे अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं करते बल्कि उस पर अपना सर्वस्व अर्पित करने को तत्पर रहते हैं जबकि मेरे सामान्य अध्ययन और अनुभव के मुताबिक मैनें यही और सिर्फ यही पाया कि जिसे देखो वही ईश्वर को दाता मानकर भिखारी बना हुआ है , क्या यह शोभनीय है ? क्या यह स्वाभिमान के अनुकूल है कि किसी से सिर्फ स्वार्थ के लिए जुड़ें और उसे इतना बेवक़ूफ़ जाने कि वह हमारे स्वार्थ को पहचानकर भी हमारी प्रार्थना कबूल ले ? क्या उसने हमसे कोई क़र्ज़ लिया है ,क्या वह हमारे मातहत है ?यदि हमारी मांग पूरी न करे तो दोस्ती, प्यार , भक्ति सब ख़त्म ?नहीं , यह सब मनगढ़ंत है . ईश्वर यदि है तो उसका न तो ऐसा जैसा कि प्रचलित स्वरुप है , है और न ही ऐसा जैसा कि हमारे पोथी पुराण कर्ताओं ने फैला रखा है कि सब कुछ छोड़ छाड़कर उसकी माला जपते रहो तो वह सबकी सुनता है , है या हो सकता है जबकि हमारा दिमाग खुद यही कहता है कि एक पुलिस कमिश्नर और एक डाकू को ईश्वर कैसे समभाव से देख सकता है ?
जब भारत में भारत पाकिस्तान का मैच होता है और भारत हार जाता है अथवा पाकिस्तान में भारत हार जाता है अथवा हमारे ही देश में विदेशी टीमें हमें हराकर चल देती हैं अथवा विदेशों में जाकर हम हारकर चले आते हैं तो क्या इसका यह मतलब है कि उनकी प्रार्थनाओं में ज्यादा दम है अथवा उनका ईश्वर ज्यादा पावरफुल है अथवा हम अच्छा खेलना नहीं जानते ? और जब हमारा कर्म ही हमारा फल प्रदाता है तब ईश्वर से ये माँगा - तूँगी व्यर्थ है। मन बहलाव है ? मैं निरुत्तर हो रहा था , वह बके जा रहा था किन्तु मैं कैसे कहूं कि वह सच कह रहा था क्योंकि मैं खुद एक बड़ी भारी मांग की पूर्ति की आशा में इस तीर्थ को आया हूँ - ये अलग बात है कि मुझे भी मांग पूर्ति का भरोसा कुछ नहीं किन्तु ज़माने की सुन सुन कर अंतिम उपाय रूप में यही रास्ता सूझा . मैनें चिढ़कर कहा - यह तो मैं जान गया कि तुम नास्तिक हो फिर यह यात्रा किसलिए ? बोलो बोलो ? उसने हंसकर कहा -मुझे मालूम था किन्तु यह प्रश्न तो पहले ही उठ जाना था . देर से ही सही . बहुत मासूम सवाल है किन्तु उसके उत्तर पर यकीं करना , यदि आप बुद्धिवादी नहीं हैं अथवा तर्कशास्त्री अथवा संशयवादी नहीं हैं तो तो नामुमकिन होगा अतः अपने जवाब के पहले मैं आप से यह क्लियर करना चाहूँगा कि आप खुद क्या हैं -आस्तिक या नास्तिक ?
मगर जैसे कि एक नंगे के सामने अपनी गंजी या बनियान उतारने जैसा यह काम नहीं था . अपनी नास्तिकता को मैं भरपूर छुपाये रखना चाहता था जबकि वह जान चुका था कि मैं सिर्फ़ कच्छा धारी था किन्तु खुद को सूटेड बूटेड दिखा रहा था और मैं भी यह जानता था कि मैं खुद नंगा हूँ और इसलिए मैं अपने आप को ढांपने का प्रयत्न कर रहा था किन्तु आखिरकार उसने कह ही दिया . यदि आप बुरा न माने तो .....मैंने कहा -हाँ हाँ खुल के कहो . वह ध्रुवीय ग्लेशियर से टपकते विशुद्ध पानी की तरह राजा हरिश्चंद्र लग रहा था। बोला - आप मुझे क्या समझ रहे हैं मुझे नहीं मालूम किन्तु मैं क्या हूँ आपको सच सच बताऊंगा लेकिन उससे पहले मैं कहके रहूँगा कि आख़िर मैं भी उसी समाज का अंग हूँ जिसके आप हैं फिर आपमें और मुझमें समझ का यह अंतर क्यों ? मैं एक घोर परंपरा वादी खानदानी पुजारी पुत्र होकर भी ,जिस बाह्याचार को आप मेरी नास्तिकता कहते हैं जबकि नास्तिकता किसी व्यवहार का नाम नहीं , के छुपाव को उचित नहीं मानता फिर आप क्यों न चाहकर भी सिर्फ़ बह्याचरण से आस्तिकता का प्रदर्शन कर रहे हैं ? बताइये।
हाँ नास्तिकता का प्रदर्शन टुच्चापन है -यह घातक भी है खासकर आर्थोडाक्स टाइप की भीड़ या व्यक्ति में जो जाने बगैर मान लेने की कूबत रखते हैं , और यह भी कि नास्तिकता का अलग ही अर्थ है। आप मुझे सिर्फ़ इसलिए नास्तिक समझ रहे हैं कि मैं उन विधि विधानों का अनुपालन नहीं करता जो ज्यादातर समाज , समाज को दिखने मात्र को अनिवार्यतः करता ही है , मैं भी कर रहा हूँ किन्तु यहाँ प्रश्न सामाजिकता का नहीं वरण वैचारिकता का है - व्यवहार का नहीं चरित्र का है। मैं किसी व्यक्ति अथवा समाज को ठेस न लगे इसलिए मंदिर में जूते उतारकर घुसता हूँ और पारिवारिक सदस्यों को दुःख न पहुंचे इसलिए मंदिर चला जाता हूँ वरना वास्तव में ईश्वर क्या है ,है अथवा नहीं हम सामान्य जनों को जानकर करना क्या है फिर भी मैं आपसे पूछता हूँ कि यदि मैं आपसे कहूं कि यदि वह नहीं है तो आप कहेंगे उसका होना अनिवार्य है , यदि नहीं भी है तो उसे होना चाहिए अतः उसकी अवधारणा एक अनिवार्यता है तो मेरा भी वही उत्तर होगा तो आप कैसे कह पाएंगे कि मैं नास्तिक
हूँ ? नास्तिक एक गाली है जिससे बचने के लिए हम आस्तिकता का ढोंग रचाते हैं किन्तु मैं प्रदर्शन अथवा दिखावे में विश्वास नहीं करता क्योंकि संसार में लिफाफा देखकर ख़त का मजमून जानने वालों की कहीं कोई कमी नहीं है किन्तु सभ्यता , संस्कृति , संस्कार वश कोई किसी से कुछ नहीं कहता क्योंकि ज्यादातर एक ही थैली के चट्ठे बट्टे हैं। मेरी इस यात्रा ...सारी तीर्थ यात्रा का मतलब यह यह नहीं कि मैं इस सबमें विश्वास रखता हूँ , चाहें तो आप इसे मेरे पर्यटन के तौर पर ले सकते हैं किन्तु मैनें पाया है कि जिसे देखो खाना न खाने को उपवास का नाम दिए जा रहा है , तमाम तीर्थ नगरों के पर्यटन को तीर्थ यात्रा की संज्ञा दे रहा है - अपनी कार्य सिद्धि हेतु भगवान के दफ्तर में अर्जी लगाने को भक्ति कह रहा है - यह गलत है। न तो भगवान किसी स्थान विशेष तक सीमित है और न ही उसका निश्चित पता ठिकाना है। वह सर्वत्र है या कहीं नहीं है ,वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म और विशालातिविशाल है अनंत है। उसकी उपलब्धि निमिष मात्र में खुद में हो सकती है किन्तु हमें सच्चाई स्वीकारने में डर लगता है , हम लकीर के फकीर हैं।
तमाम पुराण कथाओं में हास्यास्पद ,ऊहात्मक , सर्वथा अविश्वसनीय बातों का जहाँ तहां वर्णन है किन्तु अनिष्ठाशंका हमारे विरोध के स्वर को उठने ही नहीं देती और न हमें करना ही चाहिए क्योंकि स्तुति गान हमारे श्रद्धेय ,प्रेमास्पद , अथवा पूज्य के प्रति हमारे विश्वास और सम्मान का अनिवार्य मानव स्वभाविक दिखावा है। मैं फिर कहूँगा यह सब वैचारिक स्तर की बातें हैं। यदि मेरे पूजा -पाठ , होम- हवन ,आरती- भजन आदि नियमित कर्मकांड न करने को आप मेरी नास्तिकता मानते हैं तो बेशक सौ फीसदी नास्तिक हूँ किन्तु मैं फिर और बार बार कहूँगा कि नास्तिकता यह नहीं है। नास्तिकता है सर्वप्रथम स्वयं में अविश्वास और फिर जब हम खुद पर भरोसा नहीं रखते तो दूसरों पर वह मुश्किल होता है। मेरी इस तीर्थ यात्रा को भले ही आप पर्यटन कह लें किन्तु मैं आप जैसे भक्तों के भीड़ भड़क्के में उसी नदारद भक्ति अथवा विश्वास की तलाश में आया हूँ जो अभी भी अपूर्ण है। जिसे देखो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ दूसरों से महिमा गान सुनकर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए तत्पर लगता है और बड़े भाई मुझे तहे दिल से माफ़ करना - मैं बार बार माफी चाहूंगा यदि आपके भक्त ह्रदय को , आपकी प्रबल आस्था को रंच मात्र भी ठेस लगी हो तो क्योंकि आदमी जरा जरा सी बात को अपने ही ऊपर ले लेता है।
यह सब मेरा संलाप कहो , एकालाप कहो या बडबडाहट या बिना जाने मान लेने वालों के प्रति खीझ कहो - सिर्फ़ उनके लिए है जो सिर्फ़ स्वयं को नास्तिक न दिखाने के लिए करते हैं। तीर्थ यात्रा तो करते हैं , मन्नत भी मानते हैं किन्तु मन में ईश्वर की परीक्षा सी लेते हैं अथवा चुनौती सी देते हैं कि देखते हैं - नाम तो खूब सुना है कि तेरे दर्शन से ये होता है , वो होता है - हमारी मुराद भी पूरी होती है या नहीं ? क्या यह सभ्यता पूर्ण है ? क्या ईश्वर ने हमारी परवरिश का ठेका ले रखा है। अब तक मैं भी उसके सुर में सुर मिलाने लगा था और उसने मुझे जब नंगा कर ही दिया तो फिर थोड़ी ही देर में मेरी शर्मो हया भी जाती रही और मैं भी खुलकर अपनी भड़ास निकलने लगा और वह इतना शांत और मनोवेत्ता था कि उसने मेरे अन्दर उबलते ज्वालामुखी को फूट जाने का पूरा पूरा मौका दिया फिर तो मेरी ज़बान कैंची कतरनी की तरह खच खच ,खच खच चलने लगी और सच पूछा जाए तो उसने मेरा कैथार्सिस कर दिया और जिसे मैं नास्तिक समझ रहा था उसने मुझे ज्वार भाटे की शांति के उपरांत आस्तिकता का वो पाठ पढाया जिसे मैं हर तीर्थ यात्री , हर एक तथाकथित भक्त के साथ शेयर करना चाहूँगा कि तीर्थेश्वर कोई और नहीं अपनी आत्मा की आवाज़ है - सच है जिसे हम नहीं सुनते नहीं मानते हम वही करते है जिसका हमें सिला मिलता है जबकि भक्ति में अंजाम की कोई परवाह नहीं की जाती।
प्यार और पूजा-भक्ति दोनों समर्पण और सिर्फ़ समर्पण का नाम है न कि याचना ,प्रार्थना या मांग का।
तीर्थ-यात्रा , तीर्थ-यात्रा है और पर्यटन ,पर्यटन।
sach hai teerth yatra teerth yatra hai aur paryatan paryatan....aapke vicharon se sahmat hu
जवाब देंहटाएंधन्यवाद् !
हटाएंबहुत बढ़िया ...
जवाब देंहटाएंपरिपक्व लेखन..
सादर
अनु
bahut bahut dhanywaad .
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