कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 12 : पुष्यमित्र की कहानी - रिवेंज

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रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन में आप भी भाग ले सकते हैं. अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012

अधिक जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html

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रिवेंज

पुष्यमित्र


1.
तुम आज भी कविताएं लिख लेते हो...? ग्रेट...!
फेसबुक पर पड़ी मेरी एक ताजा कविता पर कमेंट की शक्ल में एक बार फिर वह मेरे सामने थी.
सात साल बाद...
वह प्रेरणा थी. मैंने छह महीने तक उस पहेली को सुलझाने की कोशिश की... आखिरकार हार कर अलग हो गया. वह मुझे सतपुड़ा के जंगलों में मिली थी. एक छोटी सी मुलाकात ने कई संयोग और कई बहानों की वजह से हमें एक अंधेरी घाटी के बीच बहती पथरीली नदी में पहुंचा दिया. मगर जब हम वहां से लौट रहे थे तो उसकी आंखों में आंसू और मेरे चेहरे पर अफसोस था.


2.
मैंने उसका प्रोफाइल चेक किया. मैरिड. एक बेटा. पति बैंकर और खुद एक प्री स्कूल में पढ़ाती है. लोकेशन था सिंगापुर. मतलब साफ था, परदेस और अकेलापन. मैंने तय कर लिया इस बार इस आग में हाथ नहीं डालूंगा. कमेंट को छुआ भी नहीं.... मगर अगले दिन 25 कमेंट के बीच छुपे उस कमेंट को फिर से तलाशा. कई बार पढ़ा. कई मतलब निकालने की कोशिश की. सोचा लाइक करके छोड़ दूंगा. किया भी. मगर ... दो घंटे बाद फिर उसी जगह. जवाब देना ही था. दिल धौंकनी की तरह फूल-पचक और गरम हो रहा था.


3.
कविता मैं अपने लिए ही लिखता था...अपने लिए ही लिखता हूं और जब तक हूं लिखता रहूंगा. यह जवाब लिखकर काफी देर तक सोचता रहा एंटर मारूं या नहीं. पशोपेश जारी रहा. आखिरकार मार ही दिया.


4.
फिर अफसोस हुआ. शर्मिंदगी. आखिर इतनी उम्र के बाद भी मैं सुधरा नहीं. यही तो वह चाहती थी. हर बार उसने यही किया है. जब भी मैंने उससे उकताकर दूर जाने की कोशिश की है, उसने कुरेद कर देखने की कोशिश की है. आग बुझी तो नहीं है. वह एक बार देख लेती है कि चिनगारी बची हुई है. फिर दो फूंक मारती है. शोला भड़कता है. वह खिलखिलाती है. मगर शोला जैसे ही उसके चेहरे को रोशन करने लगता है, वह एक जग पानी उसके ऊपर उढ़ेल देती है. यह सब उसके लिए एक खेल है...पता नहीं क्या है...दो दिन तक मैंने फेसबुक से परहेज किया.


5.
दो दिन बाद जब फेसबुक पर पहुंचा तो मेरे प्रोफाइल पर कई जगह उसके निशान थे. मेरी पत्नी और बेटी की तसवीरों पर कमेंट थे. पॉजिटिव. मेरी कविताओं और साहित्यिक टिप्पणियों पर कमेंट, शेयरिंग और लाइक.... और अंत में बड़ा सा... लंबा सा मैसेज.... कहां गायब हो गये.
फिर वह फेसबुक के सहारे ब्लॉग पर जा पहुंची. वहां भी कई कमेंट थे. एक कमेंट खास था. यह उसी कविता पर था जो मैंने उसके साथ गुजारे पल को याद करते हुए लिखा था.
... सचुमच शानदार थे वे दिन... अच्छा लगा, भूले नहीं हो तुम.
ब्लॉग में और भी कई चीजें थीं जिन्हें मैं उसके साथ शेयर नहीं करना चाहता था. मगर करता भी क्या उसने मेरा एक-एक ठिकाना उकट-पुकट कर देख लिया था.


6.
सर्च आपरेशन क्यों चला रही हो... मैंने उसके वाल पर लिखा.
गलती तुम्हारी है... तुम बिना बताए गायब हो गये. तुमसे बात करने का मूड था. मगर नंबर मेरा पास था नहीं, क्या करती. चलो नंबर बताओ. फोन मैं ही करूंगी. तुम तो आइएसडी करने से रहे...


7.
एक बार फिर मैं असमंजस में था. नंबर दूं न दूं. उस दौर में लड़कियां नंबर देने में झिझकती थीं. खैर मोबाइल होता नहीं था. लैंडलाइन में खतरा रहता था. पता नहीं कौन रिसीव कर ले. उसने अपना नंबर खुद दिया था. उसके घरवाले खुले विचार के थे. मगर आखिरी के दो महीने मैं कहता रहता और उसकी तरफ से सिर्फ सांसों की सिसकारी सुनाई पड़ती. दिल कड़ा किया और नंबर दे डाला.


8.
वही हुआ. मैं इंतजार करता रहा और उसका फोन नहीं आया. तीन दिन बीत गये. इस बीच फेसबुक पर भी कोई कम्यूनिकेशन नहीं. यहां मुझे तय कर लेना था कि इस बकवास बंद कर दूं. मगर दिल बेवकूफ होता है. वह जिसे पसंद करता है. उसके पक्ष में दलील गढ़ने लगता है. मैंने भी सोचा कहीं बाहर चली गयी होगी. अचानक कुछ हो गया होगा. मौका नहीं मिला होगा. फोन खो गया होगा. .. या उसके पति ने उसकी एक्टिविटीज नोटिस कर ली होगी. कोई सीन क्रियेट हो गया होगा. मैंने एक बार फिर उसके फेसबुक वाल का चक्कर लगाया. वहां ऐसा कुछ एबनार्मल नहीं था. उसने कई लोगों के स्टेटस पर कमेंट किये थे. मैंने सोचा पूछूं, कहां गायब हो गयी.


9.
उसके अबाउट वाले सेक्सन में फिर से गया. वहां उसका नंबर था. मैंने नोट कर लिया. मगर मैं इस बात के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था कि मैं उसे फोन करूंगा.


10.
अगले दिन मैं उसे फोन कर रहा था.
... फोन क्यों किया. मैं तो तुमसे बात करने वाली थी. अरे बीच में दो दिन की छुट्टी हो गयी और फिर अगले दिन सूपी के स्कूल जाना पड़ा. काटो मैं करती हूं. तुम्हारा ज्यादा बिल उठेगा. मेरे पास आइएसडी प्लान है.
फिर उसका फोन आया.
देर तक बतियाती रही. महिलाओं जैसी पूछताछ. बेटी क्या करती है. स्कूल में डाला कि नहीं. वाइफ कितनी पढ़ी-लिखी है. आफिस कब जाते हो. बाहर जाने का प्लान बनता है या नहीं. कभी सिंगापुर आओ. पहले से प्लान कर लोगे तो ज्यादा खर्च नहीं होगा. फिर यहां तो हमलोग हैं ही. मेरा बेटा ये मेरा बेटा वो.
आखिरी सवाल- अब तो मैं वैसी नहीं हूं न.
इस सवाल के साथ मैंने उसके कांपते हृदय की धड़कनें भी सुनी. मतलब मैं समझ रहा था. मगर फिर भी पूछ बैठा. उसने जवाब दिया-छोड़ो.


11.
कैसी थी वह... कैसी नहीं है वह. क्या उसको पता है कि वह कितनी वैसी थी.
सतपुड़ा से लौटते ही उसकी एक सहेली मुझसे मिली. उसने लगभग धमकाते हुए कहा... प्रेरणा बहुत परेशान है. उससे मिलने की कोशिश मत करना. तुमने बहुत बुरा किया.
हां मैंने बुरा किया था. पूछ लिया था. वह अच्छी थी, उसे पूछने की कोई जरूरत ही नहीं थी. मगर मैंने उसकी सहेली की बात ज्यादा दिनों तक नहीं मानी. बार-बार उससे मिलने की कोशिश की. फोन किया. उसकी चुप्पी को दो महीने सहा.
अब सात साल बाद उसे लग रहा है कि उसे वैसी नहीं होना चाहिये. कैसी नहीं होना चाहिए. इतनी क्रूरता से किसी को नहीं ठुकराना चाहिये. मगर इसमें गलत क्या है. वह नरम पड़ती तो मेरी उम्मीद को बल मिलता. फिर वह क्यों खुद को गलत मानती थी.


12.
उसने मुझे ठुकरा दिया था. मगर यह मेरे लिए हैरत की बात थी. उस रोज जब हम उस अंधेरी खाई में बहने वाली नदी के बीच दो अलग-अलग पत्थरों पर बैठे थे. हम चुपचाप उस दिशा में बढ़ रहे थे, जहां मुझे पूछना और उसे हां कहना था. जब उसने न कहा... उसका चेहरा बदल चुका था. मैं हैरत में था. मैंने एक पल के लिए भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी हो सकता था. हम पिछले चार दिनों से एक साथ थे. हमने एक दूसरे के बारे में एक दूसरे से सबकुछ पूछ लिया था. हम साथ होते तो वक्त थम जाता. दुनिया गुम हो जाती. हमें किसी की जरूरत नहीं पड़ती. उसने कई बार कई बहाने से मुझे छुआ भी था. मेरी कई बचकानी कविताएं बड़े धीरज से सुनी थी.


13.
न कहने के बाद वह तेजी से उठकर चली गयी. हम एक ही गाड़ी से भोपाल लौटे. रास्ते भर वह मुंह ढककर सिसकती रही. मैं हैरान, अपमानित और पछतावे से भरा था. ड्राइवर समझ रहा होगा. जाते वक्त हम इतने करीब बैठे थे कि हमारे बाद दो लोगों की बैठने की जगह बच गयी थी. लौटते वक्त भी वह जगह बन गयी थी मगर हमारे बीच.


14.
मैंने उसके बॉल पर मैसेज किया.... तुम सचमुच जानना चाहती हो...
जवाब आया... कॉल यू...टुमारो इवनिंग.


15.
फोन से पहले उसका मेल आया.


मुझे पता है, मैं अब वैसी नहीं. तुमसे केवल कंफर्म करना चाहती थी. तुम्हारे अलावा कौन कंफर्म कर सकता है...ही...लेकिन पहले मैं बता दूं कि मैं पूछना क्या चाह रही हूं... सवाल क्या है. धुंध.... कोहरा... क्या अब भी मैं धुंध फैलाती हूं... कोहरे का जाल बिछाती हूं... मुझे लगता है अब मैं वैसी नहीं रही. पहले मुझे कोहरा बहुत पंसद था, धुंध... अंधेरा. रोशनी में घबराहट होती थी. याद है तुम्हें... सतपुड़ा के जंगलों के बीच वह अंधेरी घाटी... कितना अंधेरा था वहां. और नदी के बीचोबीच मझधार में हम दोनों दो अलग पत्थरों पर बैठे थे. मुझे नदी के किनारे पसंद नहीं आते, इसलिए मैंने इंसिस्ट किया था, चलो बीच में बैठते हैं. मझधार... यह शब्द मुझे हमेशा से पसंद आता था. वहां सबकुछ अलौकिक था. मैंने बहुत पहले किसी रोज सपने में ऐसी ही कोई जगल देखी थी. बिल्कुल वैसी नहीं... मगर उस रोज मैं मान रही थी कि यह जगह ठीक वैसी ही थी. वह मेरे जीवन का सबसे खूबसूरत दिन था. उस दिन की एक-एक बात मेरे जहन में हूबहू चस्पा है. एक नजारा इधर से उधर नहीं हो सकता. मगर...


बहुत दिनों बाद मेरी समझ में आया. धुंध-कोहरा-अंधेरा और मझधार सब बेकार हैं... इनने मुझसे मेरी जिंदगी का बड़ा हिस्सा छीन लिया. मैं उस रोज नहीं चाहती थी कि यह जादू टूटे... मगर तुमने जादू तोड़ दिया था. तुम किनारा चाहते थे, एक छोर पर पहुंचना चाहते थे. तुम गलत नहीं थे. गलत मैं थी....


मैं सही हो सकती थी. मगर .... सतीश ने मुझे अपंग बना दिया था. सतीश... मैंने तुम्हें बताया था. मेरी आठ दिन लंबी पहली मुहब्बत. छठे दिन ही वह मुझसे बोर हो चुका था... वह स्पेप तलाशने लगा था. मुझसे दूर भागने लगा था. उस अनुभव ने मुझे सिखाया था...मेरे मन में यह बात जड़ जमाकर बैठ गयी थी कि यह जो मुहब्बत की स्वीकार तक पहुंचे का वक्त होता है.. वही मुहब्बत होती है. एक बार आप मान लेते हैं कि आप मुहब्बत की गिरफ्त में हैं और सामने वाले से पूछ कर तसल्ली कर लेते हैं. मुहब्बत वहीं खत्म होने लगती है. मुहब्बत का सफर ही मुहब्बत की मंजिल है... मंजिल उसकी मौत.


मगर बरसों बाद मेरी समझ में आया कि ये दिल का जोर-जोर से धड़कना, घबराहट, बेचैनी, उमंग, ये सब मुहब्बत नहीं. काश मैं पहले समझ जाती... मगर मुमकिन नहीं था. मेरी इस समझदारी की सफर के तुम हमसफर थे. कुछ देर का साथ था हमारा. आज मुझे मालूम है, मुहब्बत क्या है... दुख सिर्फ इतना है कि अपनी नासमझी के कारण मैंने तुम्हें दुख दिया... असहनीय पीड़ा. जिसकी भरपाई नामुमकिन है.
कल फोन करती हूं...


16.
मैंने अपना सिम बदल लिया है. फेसबुक का अकांउट और ब्लॉग सब बंद कर दिया है. प्रेरणा बेवकूफ है... उसे पता नहीं मुहब्बत क्या है. मुहब्बत सफर ही तो है... सतपुड़ा का जंगल, वह अंधेरी खाई... बरसाती नदी के बीच पत्थरों पर बैठना... दिल का जोर-जोर से धड़कना, घबराहट, बेचैनी, उमंग यही तो मुहब्बत है. उसे लगता है मिया-बीवी और बच्चे को दिन-रात किट-किट करते हुए जीते हैं, उससे बेहतर कोई मुहब्बत नहीं हो सकती.


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पुष्यमित्र

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. किसने क्या समझा ?सही है....अलग-अलग व्यक्तियों के लिए एक ही बात को समझने के अलग -अलग अर्थ होते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया.........................

    अनु

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 12 : पुष्यमित्र की कहानी - रिवेंज
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 12 : पुष्यमित्र की कहानी - रिवेंज
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