श्याम गुप्त की कहानी - मरे जा रहे हैं शान में..

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एक बड़े मॉल के फ़ूड-कोर्ट में लहसुन, प्याज, अण्डों की गंध से भरे वातावरण में प्रवेश करते ही सुरेश जी शुरू होगये। वाह! क्या शान है।...चारों ओर...

एक बड़े मॉल के फ़ूड-कोर्ट में लहसुन, प्याज, अण्डों की गंध से भरे वातावरण में प्रवेश करते ही सुरेश जी शुरू होगये।

वाह! क्या शान है।...चारों ओर शीशे ही शीशे, एस्केलेटर, शानदार विदेशी इम्पोर्टेड स्टोन, टाइल्स, मार्बल, ग्रेनाईट कवर्ड दीवारें, फ्लोर, फर्नीचर...वाल-पेपर। अंग्रेज़ी ही अंग्रेज़ी में साइनबोर्ड वाली खाने-पीने दुकानें ....होंकी-पोंकी, हावडा-ब्रिज, वाऊ, चाऊ-चाऊ, तमाम विदेशी डिशें ...पीता, पिज्जा ....।

‘क्या आवश्यकता है इस सब ताम-झाम की, सिर्फ खाने के लिए, पेट भरने की खातिर।’ पहला कमेन्ट आया।

ये देखिये, युवावस्था में ही गंजी चाँद वाले..जींस-शर्ट या शोर्ट्स--शर्ट में, फ्लोटर घसीटते हुए सेल्फ सर्विस की लंबी लाइन देखकर मन ही मन परेशान युवा लडके। हाफ-जींस या टाईट शोर्ट्स-टाप में चप्पलें या ऊंची एडी की सेंडलें सटकाती हुईं, कटे या खुले बालों वाली, हाथ में क्रेडिट-डेबिट कार्ड्स लिए हुए सेल्फ-सर्विस से खाने के सामान लेने के लिए हेरान-परेशान बेसब्री से इधर-उधर घूमती हुई युवतियों को देखकर वे पत्नी से कहने लगे ..

‘लगता है शहर भर में कोई घर में खाना बनाना ही नहीं चाहता, छुट्टी के दिन भी।

‘काउंटर पर इस तरह से इतनी लंबी लाइन लगी है जैसे सदावर्त बँट रहा हो।’

‘जितनी देर टोकन की लाइन, टोकन देने की लाइन फिर खाना तैयार होने की आवाज़ लगने और खाना उठाकर लाने का इंतज़ार .. उतनी देर में तो घर पर खाना बनकर खाया भी जा चुका होता।’

बड़े से हाल में सारी टेबुलें भरी हुईं थीं। कुछ खा रहे थे, कुछ इंतज़ार में टेबल पर बैठे हुए थे, कुछ लोग टेबल खाली होने के इंतज़ार में खड़े हुए थे। काफी प्रौढ़ व वृद्ध माता-पिता, जिनमें अधिकाँश मिडिल-क्लास के भी थे जो अन्य शहरों व् प्रदेशों से अपने बेटे-बहू या बेटी-दामाद, जो इस बड़े शहर में मल्टी-नेशनल कंपनियों में मोटे-मोटे पे व पर्क्स पर कार्यरत हैं, के पास आये हुए थे और बच्चों के आग्रह पर फ़ूड-कोर्ट आये थे। नए रंग में रंगे स्थानीय वाशिंदे भी थे जो अचानक इस शहर के तेजी से बढ़ने पर आशातीत रूप से पैसे वाले होगये थे- नव-धनाड्य। कुछ माता-पिता व युवा अमेरिका-योरोप रिटर्न भी थे जो नयी-नयी सभ्यता व चकाचौंध के भोग में लिप्त व तृप्त थे। सुरेश जी व उनकी पत्नी भी अपने बहू-बेटे के साथ फ़ूड-कोर्ट आये हुए थे। यद्यपि वे सरकारी अफसर-वर्ग से रहे हैं सभी सुख-साधन, ऐश्वर्य-युक्त जीवन, देखा भाला है परन्तु उन्हें इस सब ताम-झाम, जिसे वे अति मानते हैं, पसंद नहीं है। तब तक बेटा-बहू ऑर्डर का भोज्य-पदार्थ लेकर आजाते हैं।

‘अच्छा लगता है, शानदार व सुन्दर बैठने की जगह हो तो खाने का आनंद आता है। दुनिया भर की डिशें हैं यहाँ, चाहे जो खाएं।,’ बेटा नीरज कहने लगा। यह पीता है और यह मिडिल-ईस्ट की डिश जो दाल व सब्जी भरकर बनाई जाती है। यह सब-बे है, एक दम भाप उठते हुए लोहे के तवेनुमा वर्तन से सीधे खाने के लिए गरमा-गरम सब्जियां।

‘ये तो मैदे की पतली रोटी है जैसे पिज्जा मैदे की मोटी रोटी, और ये डिश, दाल-सब्जी के पकौड़े। हाँ सब में प्याज-लहसुन डालदी गयी है बस। सब्जी, मैदा, चावल, दाल के अतिरिक्त किसी अन्य चीज की डिश भी मिलती है क्या? यहाँ’, सुरेश जी बोले।

हैं, पापा ! इन सब के अलावा और क्या हो सकता है खाने को।’ बहू ममता बोली।

तो फिर देश-विदेश की तमाम डिशें खाने से क्या लाभ, आप जो सामान्यतया खाते हैं वही खाएं तो सारे ताम-झाम से बचे रहेंगे।

‘हर तरह का टेस्ट लेना चाहिए’, नीरज व ममता बोले।' क्यों मम्मी, दोनों कीर्ति जी की ओर देखकर बोले,'' फिर हम लोग इतनी सेलेरी पाते हैं कमाते हैं किस लिए। एश क्यों न करें।'

मुझे तो सब अच्छा लगता है, सुरेश जी की पत्नी कीर्ति जी बोलीं।

वह तो ठीक है, सुरेश जी कहने लगे, पर किस कीमत पर, इस सब ताम-झाम के कारण ही तो अरबों का क़र्ज़ चढ़ा है देश पर। विदेशों से जो कुछ भी आएगा हमारा अपना धन विदेश जाएगा या वे अपनी शर्तों पर क़र्ज़ देंगे। आपको जो ये विदेशी कंपनिया बड़ी-बड़ी तनख्वाहें देती हैं, इस युक्ति से अपना माल आपको ही बेचकर सारा धन वापस ले लेती हैं। बस हम पर क़र्ज़ चढता जाता है। सब कुछ तो आपलोग विदेशी-इम्पोर्टेड प्रयोग कर रहे हैं।

हम लोग पिछड़े ही रहे हैं, हमने अपना कुछ बनाया ही नहीं। हमारी कल्चर के कारण हममें वो उर्वरक मस्तिष्क है ही नहीं। हमने कुछ भी ईजाद नहीं किया। सब कुछ तो बाहर विदेशों में बनता है, नीरज कहने लगा।

ठीक, सुरेश जी कहने लगे, ‘पर इस सब ताम-झाम की कौन सी एसी अत्यावश्यकता है जो इसके लिए ईजाद करें और जबरदस्ती भोगें भी। खाने के लिए वही दाल, चावल, सब्जी चाहिए...वही प्रोटीन, फैट, कार्बोहाइड्रेट, मिनेरल, विटामिन अत: जिसके यहाँ जो बनता है वही खाएं। आप जब वहाँ जाएँ तो जो वहाँ है वह खाएं। बड़े-बड़े लखनवी नबाव भी बड़े खाने-पीने के शौक़ीन थे, बर्वाद होगये। कौन रोज-रोज ये सब खाता है। सिर्फ कभी-कभी खाने के लिए इतना झंझट, ताम-झाम। और जितना समय यहाँ लाइन से सेल्फ-सर्विस में लगता है उतने समय में तो घर में बन भी जायगा, वह भी ताजा-ताजा और चौथाई कीमत पर।

जहाँ तक हमने कुछ नहीं बनाया की बात है, तो यदि आप स्वयं ही विदेशी वस्तुओं, तौर-तरीकों का उपयोग करते रहेंगे तो देशी विकास कैसे होगा ? आप तो क़र्ज़ लेकर घी पीते रहें दूसरे खोज करें, देशी वस्तुओं को बनाने में जुटे रहें, ये कैसे होगा। यदि हमारी पीढ़ी की गलती है कि हमने कुछ नहीं बनाया तो आप उससे सबक लें न कि और आगे जाकर उसी में बहने लगें।’

‘अब बंद भी कीजिये अपने भाषण को’, कीर्ति जी कहने लगीं।

‘भई हम हैं कि मरे जारहे हैं शान में। क़र्ज़ लेकर घी ( अब घी कहाँ पास्ता, पिज्जा, लहसुन ब्रेड, कोका-कोला-पेप्सी....) पिए जारहे हैं।’ सुरेश जी बोलते गए, ’मुझे भारतेंदु जी की कविता याद आरही है-- अंगरेज राज सुख-साज सजे अति भारी, पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी।

तो पापा, क्या ये सब एडवांसमेंट नहीं होना चाहिए। ममता ने पूछ लिया।

क्यों नहीं, अवश्य, इसी सब के कारण तो आज हम इस शहर में हैं। यह नगर, महानगर बना है। हम नेटीजन बन कर नेट पर सारे कार्य कर रहे हैं। विज्ञान के आविष्कारों का लाभ उठा रहे हैं। परन्तु एक सीमा होनी चाहिए...अति नहीं ..बेलेन्स्ड ...समन्वित-स्वदेशी-भाव, विचार, कर्म होने चाहिए। अपने राष्ट्र, समाज व मानवता के व्यापक हित लिए क्या आवश्यक है इस सोच के अनुसार न कि केवल सुख-सुविधावश आवश्यकता हेतु। ईशोपनिषद में कथन है...

विध्यांच अविद्यया यस्तत वेदोभय सह। अविद्यया मृत्युन्तीर्त्वा, विद्यायां अमृतंनुश्ते।।

.....अर्थात सांसारिक ज्ञान, विज्ञान, भौतिक-प्रगति हेतु कर्म ( जिसे अविद्या कहा है ) के साथ-साथ समन्वित रूप से ..समाज, मानवता, धर्म, ईश्वरीय-ज्ञान, दर्शन ( जिसे विद्या कहा है ) भी जानना चाहिए। सांसारिक भौतिक-ज्ञान-विज्ञान से मनुष्य जीवन-निर्वाह में सफलता से मृत्यु व सुख-दुःख पर विजय प्राप्त करता है और विद्या से जीवन-निर्माण होता है तथा सच्चा जीवन-आनंद, परमानंद व मोक्ष प्राप्ति।

कुछ समझ में आया बेटी ममता, सुरेश जी ने हँसते हुए पूछा, तो सब मुस्कुराते हुए चुप रह गए।

अब कुछ स्वीट-डिश हो जाय, खाना तो कब का पच भी चुका, कीर्ति जी बोलीं।

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डॉ. श्याम गुप्त ,

सुश्यानिदी, के-३४८,

आशियाना, लखनऊ ..२२६०१२......

मो. ०९४१५१५६४६४ ..

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रचनाकार: श्याम गुप्त की कहानी - मरे जा रहे हैं शान में..
श्याम गुप्त की कहानी - मरे जा रहे हैं शान में..
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