गरिमा जोशी पंत की कविताएँ गुलदाऊदी लगाऊंगी इस बार मैं भी गुलदाऊदी लगाऊंगी। हां मैं भी मेरा घर बहुत छोटा है उसमें कोई बगीचा नहीं तो क्या ...
गरिमा जोशी पंत की कविताएँ
गुलदाऊदी लगाऊंगी
इस बार मैं भी गुलदाऊदी लगाऊंगी।
हां मैं भी
मेरा घर बहुत छोटा है
उसमें कोई बगीचा नहीं
तो क्या
गमले में लगाऊंगी
हां इस बार मैं भी गुलदाऊदी लगाऊंगी।
बड़े बड़े गुंदे फूल लगेंगे
सफ़ेद पीले अलग से लाल सफेद से झांकते गुलाबी भी
इस आशा से गुलदाऊदी लगाऊंगी
कैसे कब लगती है पौध
खांचेदार पत्तियां कब बड़ी हो जाती हैं
खब कलियां आती हैं
कब कब पानी से सीचूंगी
इधर उधर से पूछूंगी
पर मैं अवश्य ही गुलदाऊदी लगाऊंगी।
कीटों से बचाने उन्हें
नीम की पत्तियों का काढ़ा पिलाऊंगी।
धूप आंधी से बचाने
अपनी तन्मय देखभाल का आंचल फैलाऊंगी
हंा मैं गुलदाऊदी लगाऊंगी।
और फिर एक दिन कलियां आएंगी
रंगबिरंगे फूल खिलेंगे
और फिर मैं भी अमीर आधुनिकाऔं की तरह
ञ्ल्के फुल्के कपद़े पहने
अपनी सखियों को उन्हें दिखाने बुलाऊंगी
जब मैं गुलदाऊदी लगाऊंगी
और कुछ ना सही उन्हें पकौड़ों के संग चाय पिलाऊंगी
जश्न होगा
नकली ही सही पर कहकहे लगेंगे
उस हंसी को खोजने और बंाटने के लिए
मैं गुलदाऊदी लगाऊंगी।
मुस्कुराने का बहाना ढूंढना है
मुस्कुराते फूलों में मिल जाएगा
कड़ी मेहनत के बाद मुस्कुराते फूलों में मिल जाएगा
इसलिए मैं भी गुलदाऊदी लगाऊंगी।
2
खिल गई गुलदाऊदी
बहुत खुश हूं
मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
छोटी छोटी नाज़ुक पौध थी
पानी डाला खाद डाली
गुड़ाई की नराई की
इससे पहले जबकि
मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
कई रंगों की खिली खिली कलियंा
जैसे सूरज की किरणों से ताल मिलातीं
ऐसी मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
महक नहीं थी पर एक
सकारातमक ऊर्जा फैलाती
मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
गौरवान्वित हो मेरा
व्यक्त़ित्त्व निखर गया
जबसे मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
लोग आए मिलने
जैसे किसी नन्हे नवजात से
राय लेते गए कुछ थमा गए कि
कैसे मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
आप कहोगे कि ऐसी भी क्या बात हो गई बड़ी
कि ऐसा दीवानापन हां भई खिल गई खिल गई
मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
पर आप नहीं समझोगे
समझाने का मन भी नहीं मेरा
ना ही कोरी बहस में पड़ने का
मैं खुश हूं कि
मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
दौड़ती भागती शहर के हर मोड़ से
लड़ती झगड़ती
कई चेहरे बदलती
कितने तेजाबों से नित नहाती
पानी की निर्मल बूंदों को तरसती
दिब्बों से बंद घरों में
पसीना पसीना हो जाती मेरी जिंदगी
पल भर सुकून भरी मुस्कान पा जाती है
जबसे घर के उस कोने में रखे गमलों में
मेरी गुलदाऊदी खिल गई।
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मीनाक्षी भालेराव की कविताएँ व गीत
बेटी
बेटी,सखी,
माँ का दुलार!
बहन का स्नेह,
हंसी के पल!
मुस्कराहट के क्षण,
जीवन का उदय!
फूलों की डगर,
मंजिल का पता!
उम्मीद की राहें!
बेटी हर पिता का गुरुर है!
पूरा सच यही है,
कि कोई सच नहीं बोलता!
इश्क
इश्क ही आंच,
बुझ ना जाये!
इस लिए हर पल,
हवा देती हूँ
मुहब्बत के चूल्हे में,
हर वक्त अंगारे,
सुलगाये रखती हूँ !
गाहे-बगाहे,
तीली भी दिखाती हूँ,
जब लौ फडफडा,
उठती है तो!
गहराई से प्यार की,
रोटी सिंकती है!
फिर जी भर के
सेंक लेती हूँ,
अपनी मुहब्बत को!
स्वाद
दरातों से काट-काट कर,
मौसम की फसलें!
हर मौसम को,
चखा है मैंने!
कुछ मैने थाली,
भर-भर के खाए!
कुछ बस कटोरी,
भर कर!
कुछ को मैंने,
बस चम्मच ही
से चखा,
कितने स्वादिष्ट थे!
कुछ पल,
कुछ खट्टे केरी जैसे,
उनमें से कुछ थे!
करेले जैसे,
फिर भी मैंने!
स्वाद ले ले कर,
खाया!
जैसे भी थे, वो
मेरी फसलें थीं!
दरारें
रिश्तों के चिकने,
फर्श पर!
पड़ी दरारों का
वापस पहले सा!
समतल दिखना,
महज एक मन,
का भ्रम है!
सतह में जाने,
कितने खड्डे!
मुंह उठाये,
पड़े रहते हैं!
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हद
आज तो शब्दों ने
हद कर दी!
रात भर जेहन में
रेंगते रहे!
नींद में भी
ताने-बाने बुनते रहे!
बहुत कोशिश की,
जाल से बाहर!
निकल आने की,
पर उलझती गयी!
--
लम्हें
सिरहाने कितने लम्हे,
यूं हीं बिखरे पड़े थे!
फड-फड़ा रहे थे,
सिमटने के लिए!
पर ज्यादा बिखर गये,
शोर बढ़ता गया!
फिर अँधेरे में,
गुम हो गये,
टूटी हुई टहनियों
की तरह कमजोर!
कुछ पाँवों तले
कुचले गये,
कुछ सिकुड़ कर
छोटे हो गये!
पथ
मैं पथ गीला,
नहीं होने दूंगी!
अश्रुओं से,
मैं मन मैला,
नहीं होने दूंगी!
कडवे बोलों से,
थमने ना दूगीं!
गति को,
वेग से चलूंगी,
धरती सा धैर्य,
गढ़ूंगी!
विजय पथ पर,
बढूंगी,
उंची-नीची,
डगर देख
पाँव ना,
फिसलने दूंगीं
मैं पथ गीला,
ना होने दूंगी
---
जाग्रति के पथ पर सदा,
पांव रक्त-रंजित होते रहे!
नव चेतना, नव कल्पना पर,
फिकरे कसे जाते रहे सदा!
पर गति कहाँ विश्राम लेती है,
ना वो कभी अधीर होती है!
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एक भूखे बच्चे ने माँ से पूछा
ये जो गोल गोल सूरज है
सुबह-सुबह निकल आते हैं
चाँद जिसे हम मामा कहते
शाम ढलते ही आ जाते हैं
क्यों फिर माँ गोल-गोल रोटी
मुझ को रोज नहीं मिलती है
--
उजड़ी बस्ती
उजड़ी उजड़ी,
बस्तियों का
बन गया है!
निशान
मेरा भारत,
कुछ बंजर पड़ी
झुर्रियों से भरी
प्यासी धरती!
कुछ कचरे से
भरे कुँए
मरती हुई
कुछ उम्मीदें!
जहाँ हर पल
जिन्दगी मुस्काती थी,
, जहाँ की मिटटी भी
सोने सी बिकती थी!
वहीं आज किसान की
मौत बिक रही है
राज नेताओं की
रोटी सिंक रही है!
--
संसार
एक दरी, एक चादर में
लिपटा है सारा संसार!
एक लोटा पानी बस,
एक छ्लनी बरसात!
एक रोटी, एक कटोरी
दाल जिनका है!
जीवन सार फिर भी,
लिपटा रहता है!
सारे विकारों में
तेरा मेरा, उसका, जिसका
कहाँ काम आता है!
रुई की डोरी से,
जकड़ी सांसें हैं!
कुछ पल साथ
बिताले हंस के,
बस वही जायेगा
तेरे साथ!
एक गज जमीन
चार कंधे,दो आंसू
मिल जाये तो
बस समझ लेना
मिल गई इंसानी
योनि से मुक्ति!
चांदनी
जैसे ही छत का दरवाजा खोला मैंने
चांदनी लपक कर मेरे पास आई
और बेताबी से बोली मुझे
क्या मैं तुम्हारे घर पर फैल जाऊं
मैंने उसे आश्चर्य से देखा
और गुस्साए शब्दों से बोली
तू वहाँ क्यों नहीं फैलती जाकर
जहाँ एक दिया भी नहीं है
मेरे घर में बहुत रौशनी है
क्या तुझे भी इंसानों सी
आदत लग गयी है
जहाँ सब कुछ है वहीं
मडराती रहती है पर जहाँ
जरूरत है वहाँ से मुहं फेर लेती है
---
सोने की तरह,रिश्ते भी
जीवन की भट्टी में
तपाकर बनाना,
तो शायद जंग लगे लोहे
से बदरंग नहीं होंगे
--
(ऊपर का चित्र - निवेदिता की कलाकृति)
इस बार मैं भी गुलदाऊदी लगाऊंगी। बहुत ही सुन्दर कविता है |
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