सिद्धार्थ प्रताप सिंह बघेल की कविताएँ 'क्रांति का संवाहक' सच, मानवीय संवेदना के अन्त का गवाह है, यह मेरे महानगर का 'कबाड़ बीनत...
सिद्धार्थ प्रताप सिंह बघेल की कविताएँ
'क्रांति का संवाहक'
सच, मानवीय संवेदना के अन्त का गवाह है,
यह मेरे महानगर का 'कबाड़ बीनता बचपन'।
ठीक, इन्हीं महानगरीय गरीब बच्चों की तरह
मेरे गांव के आदिवासी बच्चे भी
बनाकर अपनी -अपनी टोलियॉ
पकड़ा करते थे नदियों की धार में
छोटी-छोटी मछलियॉ,
बहते हुए चश्मों के पत्थर उठाकर
पकड़ते थे केकड़े,
और फिर- बड़ी चाव के साथ भूनकर
खाते उन्हें देख
मेरा कवि हृदय
मन ही मन मुस्कराया करता था।
लेकिन, आज जब मैं विषमता की मारी
बचपन की उसी टोली को,
महानगर के पार्क में बैठकर
गन्दे कबाड़ की बोरियों के साथ बंधे देखता हूँ-
तो सिहर उठता हूँ-
भविष्य की कल्पना मात्र से।
सच, मेरी दोहरी मानसिकता से हंसेंगे लोग,
क्योंकि- दोनों ही बचपन में समान स्तर पर है-
गरीबी,कुपोषण और अशिक्षा।
लेकिन, मेरी नजरों में
समानता होते हुए भी एक बड़ी असमानता है,
वह यह कि- मेरे गांव का गरीब बचपन
अभी नहीं जान पाया है-
गरीबी और अमीरी की विभाजन रेखा को।
शायद, इसलिए कुछ हद तक
ग्रामीण समाज का अमीर तबका
इनके आक्रामक रवैये से
अभी कुछ और दिन महफूज रह सकता है।
जबकि, मैट्रो सिटी के इस
'आधुनिक कुपोषित बचपन' का
पार्क में 'अमीरी तोंद के सैर का हिस्सेदार' बने
विलायती टॉमी के द्वारा
घूरकर देखा जाना,
मानो यह अहसास कराने के लिये पर्याप्त है कि-
'वक्त रूपी देवता'
विषमता की खाई को पाटने के लिए
'क्रांति रूपी' पहिये को घुमाने का
इरादा बना चुका है।
शायद, इसीलिये मुझे विश्वास हो रहा है,
कि- 'भविष्य क्रांति' का संवाहक है,
यह मेरे महानगर का 'कबाड़ बीनता बचपन'।
अध्यात्म और विज्ञान
हे! उगते हुए सूर्य देव
मेरा कोटि-कोटि प्रणाम स्वीकार करें।
लेकिन हॉ-
इसी वक्त........क्योंकि,
अभी आप शीतल तेज की आभा से अत्यन्त गुणवान हैं,
और यही शीतल तेज
मैं अपने अन्दर भर लेना चाहता हूँ।
क्योंकि- यही तो जीवन का वास्तविक रत्न है,
जो ज्ञान का स्रोत है, मोक्ष का प्रदाता है।
इसलिए, हे! 'रक्तवर्णी रश्मियों के स्वामी'
इसी वक्त मेरा प्रणाम स्वीकार करें,
और आशीर्वाद स्वरूप-
मुझे यही शीतल तेज प्रदान करें।
..............देव! याचना सुनो मेरी इसी वक्त
और अधिक विलंब न करो।
नहीं तो मेरी साधना अधूरी रह जायेगी....
और मैं जा छिपूंगा किसी छॉव में तुमसे डरकर।
क्योंकि, तब तक तुम्हारी 'उष्ण किरणें'
मेरे शरीर को करने लगेंगी व्यथित,
और तब मैं हो जाउॅगा अध्यात्म से दूर
होकर विज्ञान का अनुयायी।
'मैं भी कवि हूँ'
आज विवश हो गया हूँ,
इस बारिश के मौसम में,
कागज और कलम थामने को।
खोलकर कॉपी के सफेद पन्ने,
जबरन कलम की नोंक को घसीटे जा रहा हूँ,
इस फिराक में कि- शायद,
इन टेढ़े मेढ़े जबरन घसीटे गये
अक्षरों के कुल योग से,
बन जाये कोई अनसुलझी गुत्थी।
और फिर, मेरे देश के सम्मानीय समीक्षक गण,
भ्रम पाल लें, इसके महत्वपूर्ण अतुकांत कविता होने का।
और मैं हिमांचल के ऑचल में बैठकर,
अनसुलझी-रहस्यमयी कविता लिखने वाला,
होनहार कवि होने का गौरव हासिल कर लॅू।
बस इसी आश में-
पालमपुर के सैनिक विश्राम गृह के
एक कमरे में बन्द होकर,
जबरन घसीटे जा रहा हूँ... अपनी कलम,
क्योंकि- बनना जो है 'एक होनहार कवि'।
भ्रममुक्त
दोस्तो! अब मैं साहसी हो गया हूँ।
मैंने डर को निकाल फेंका है,
चीथड़ से चीलर सा ।
मैं भय मुक्त हो रहा हूँ,
सारे ढोंग-ढकोसलों को त्याग,
आडंबर मुक्त हो रहा हूँ।
सबूत..............अब मैं मंगल उपवास नहीं रखता,
मंदिरों में जा के धूपबत्ती जलाकर,
घंटों अब घंटी भी नहीं बजाता।
कारण यह नहीं, कि-
अब मैं नास्तिक हो रहा हूँ,
बल्कि, मुझे तो लग रहा है
कि- परम्पिता परमेश्वर की असीम अनुकम्पा से,
अब मैं सच्चे अर्थों में पूर्ण आस्तिक हो रहा हूँ।
कारण ......ढपोरसंखी पौराणिक भय से मुक्त होकर,
ब्रम्हमय ज्योति को अपने में समेटने का प्रयास करते हुए
धीरे-धीरे हिम्मती हो रहा हूँ।
परिचय
नाम- सिद्धार्थ प्रताप सिंह बघेल
पिता का नाम- श्री राजेन्द्र प्रताप सिंह बघेल
माता का नाम- श्रीमति उमाशशि सिंह
जन्म तिथि-पॉच जनवरी सन् उन्नीस सौ पचासी
जन्मस्थान- ग्राम़पोस्ट-झिंगोदर, जिला-सतना ;म0प्र0द्ध 485551
शिक्षा- बी.ए., पी.जी.डी.सी.ए.।
कई सामाजिक संगठनों से संबद्ध, वर्तमान में 'गरीब नवाज जेल विक्टिम वेलफेयर सोसायटी' दिल्ली, में
कार्यकारी प्रबन्धक के पद पर कार्यरत।
संपर्क -. 09540647148
कार्यालय -. 011 22383738
ईमेल spbaghel85@gmail.com
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अखिलेश श्रीवास्तव “ छत्तीसगढ़िया़ ” की कविताएँ
� सूरज को सलाह �
फागुन से तपने लगे सूरज , कितना कहर बरपाओगे ।
ठंड में थोड़़ा मज़़ा दिए , अब गर्मी भर तड़़पाओगे ॥
ताल तलैया सूख गए , क्या हम पे तरस नहीं खाओगे ।
त्राहि-त्राहि मच जाएगी , यदि और आग बरसाओगे ॥
हर साल गर्म ज़्यादा होते हो,धरती का कुछ ख्याल करो ।
देव तुम्हें हम ने माना है , यूं न हमें बेहाल करो ॥
सुबह सबेरे आ जाते हो , सांझ ढले तुम जाते हो ।
गरम मिज़़ाज तुम्हारा है , क्यों हमें गरम कर जाते हो ॥
सहन नहीं होती हैं किरनें , कांटों सी चुभ जाती हैं ।
तेज तपिश दोपहरी की , तन मन को झुलसा जाती हैं ॥
हे सूरज मेरी सलाह मान लो, रोज देर से आया करो ।
सुबह आठ के बाद निकलना ,चार बजे चले जाया करो ॥
अपनी आँच कुछ कम कर दो , कुछ और दूर हम से जाओ ।
धरती जलाशय पशु पक्षी , इंसान को राहत दे जाओ ॥
� सूरज का ज़वाब और चेतावनी �
बड़़े ज्ञानी बनते हो मानव , कहाँ गई सब चतुराई ।
तन मन के रोगी और भोगी , कर्म तेरा सब दुखदाई ॥
मनमाना उद्योग लगाए, फसल नहीं, तुम ज़हर उगाए ।
जल ,थल, वायु प्रदूषित कर दी , ज़हरीली गैसों को बढ़़ाए ॥
वन उपवन बर्बाद किए , गमलों में पेड़़ लगाते हो ।
कंकरीट के वन में रहकर , गर्मी से घबराते हो ॥
तार-तार हो गई है धरती , प्रकृति से क्यों खिलवाड़़ किए ।
पागल के हाथ तलवार हो जैसे , अपनी माँ पर वार किए ॥
मानव जन्म मिला फिर भी , दानव सा कर्म किया तूने ।
खुद को बनाए भस्मासुर , धरती को नर्क किया तूने ॥
ज्ञान कम , अभिमान है ज़्यादा , विनाशकारी मति पाई ।
धरती को बर्बाद किए , अब चांद पे तूने नज़र गड़़ाई ॥
आधी धरती वन में बदल दो , हरा भरा शहरों को कर दो ।
ज़़हर उगलते उद्योगों को , आज अभी से बंद कर दो ॥
आने वाली पीढ़़ी वरना , साँस नहीं ले पाएगी ।
चर्चा होगी जब भी तुम्हारी , नफरत से भर जाएगी ॥
विवेकानंद नगर मार्ग-3 धमतरी (छत्तीसगढ़़) 94060 16503
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मीनाक्षी भालेराव की कविताएँ व गीत
प्रेम गीत
मुझे मालूम था मैं पिघल जाऊंगी,
तुम्हारी बाहों में आकर !
मुझे पिघलना ही था, तुम्हारे प्यार में,
ढल कर नया आकार लेने के लिए !
पहला प्यार
एक हवा का झोंका
अचानक मेरे
जिस्म को ही नहीं
मेरे मन के धरातल
को भी गुदगुदा गया
और वो गूदगुदाहट
वो नहीं थी
,बचपन वाली
वो पहले-पहले प्यार की
मदहोशी से भरी थी !
ना जाने कितने सावन
आये बरसे और चले गये
पर अबके सावन जो बरसा
बूंद-बूंद ने मन मयूर को
अन्तःकरण तक भिगोया
मैंने ओढ़ लिया था
भीगे मौसम की चादर को
और ख्वाबों में खो गयी थी
वो सारे ख्वाब पूरे हो गये
मैं
मैं बरस जाऊं
तुम भीग जाना
अपने गीले कपड़ों सा
मुझे अपने तन पर
लिपटा ले ना
मैं बूंद बन गिंरू
तुम प्यास बन कर
मुझे अपने होठों से
लगा लेना
मैं सिमट जाऊं
तुम, सीप में बंद
मोती की तरह
अपने आगोश में
छिपा लेना
--
जुल्फें
खोल दो जुल्फों को कि ,
काली घटा छा जाये !
गेसुओं से गिरती बूंदों से ,
शबनमी सुबह होने दो !
मौसम पर नशा छा जाये
लहराने दो अपने आंचल को ,
बादलो का गुमान होने दो !
मुस्करा कर देखो जरा तुम ,
जमाने को फ़िदा होने दो !
छू ले ने दो जिस्म
अपना हवाओं को ,
तो मौसम पर भी नशा छा जाये
--
याद
क्यों चले आये तुम
रात बहकाने को
चाँद की कसम खाकर
चांदनी को रुलाने को
सितारों से जड़ी बादलों
की चादर तले,
मुहब्बत की सौगात लिए
अपना वादा निभाने को
सोये हुये अरमान जगाने को
धुंधली हो यादें मिट रही थी
फिर याद बेवफा की दिलाने को
यूँ रंज नहीं था इश्क वालों से
दर्द था उनका, हमें भुलाने को
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