मीनाक्षी भालेराव की कविताएँ व गीत : वो सागर पीकर भी, प्यासा ही रहा ! मै बूंद से गला , तर करती गयी ! --- जब मेरा जिक्र आया तो तेरी आँखों म...
मीनाक्षी भालेराव की कविताएँ व गीत :
वो सागर पीकर भी,
प्यासा ही रहा !
मै बूंद से गला ,
तर करती गयी !
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जब मेरा जिक्र आया तो
तेरी आँखों में नमी क्यों
खामोश रही जुबान जो बरसों,
आज बोलने को बेताब क्यों
जख्मों को छिपाए रहते थे
आज हर एक को दिखते क्यों
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आज सूरज को मैंने ,
अँधेरी कोठरी में,
उतरते देखा !
अँधेरे- उजालों को ,
लिपट कर
एक साथ सोते देखा !
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सफेद बालों के झुरमुट से !
एक अकेला काला बाल,
झाँक रहा था !
और मगरूर हो रहा था ,
उस पर वक्त का बुरा
असर नहीं पड़ा !
पर कितना नादान था ,
उसे नहीं मालूम था !
सफेद बालों ने,
अनुभवों का कितना
स्वाद चखा था !
खोखली होकर भी, मधुर धुन छेडती बांसुरी !
भरी होकर भी बन्दूक , आग उगलती है !
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मेरी नन्ही परी की तेजस्वी आँखों में,
मैंने भविष्य का सूरज उगते देखा है
किरणें जैसे उसके पांव पखारे
सुबह उसी के लिए होती है
धरती अपना आंचल बिछाए
भूले से भी उसे ठोकर ना लग जाये
पर्वत जिसके आगे झुक जाए
नदियाँ जैसे खुद थम जाये
तूफान की क्या मजाल जो
उसका रास्ता रोके
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मैं गौरव गाथा गाऊंगी,
हर समय हर हाल में ,
तिरंगा लहराऊंगी !
मैं शहीदों की चिताओं पर ,
हर शाम, हर मौसम में ,
दीप जलाऊँगी !
मैं भारत की मिटटी के,
कण-कण में हर वक्त,
वीरों की फसल उगाऊँगी !
मैं गौरव गाथा गाऊँगी !
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मोतीलाल की कविताएँ
मेरे आँगन से
अभी-अभी शाम की लालिमा
जिस झुरमुट की ओट मेँ
इतराने को आतुर
मचलती हुई सी बैठी है
दिल मेँ सावन की झड़ी लिए
वहाँ दिल अभी कहाँ मचली है
कि राग की रागिनी
अभी कहाँ फूट पायी है
कि लहरोँ का संगीत
अभी कहाँ उतरी है
कि बादल अभी कहाँ बरसा है
अभी-अभी तो शाम
सभी फुनगियोँ को चूमकर
मेरे आँगन मेँ पसरी है
और रात-रानी की खुश्बू
महकने को आतुर है
तभी तो सुगन्ध के लिए
सारी बजने की मिठास
और झंकार का साया
किसी गजल की तरह
पूरी देह मेँ
तरंगित हे रही है
मेरे दिल के कोने मेँ
कोई अंधेरा नहीँ है
और उजाले की तमन्ना मेँ
कोई राख भी नहीँ बुझी है
मेरे चूल्हे मेँ
कि वसंत इतनी जल्द बीत जाए
और सावन की घटा
खेतोँ से फिसलकर
आँखोँ से ओझल हो जाए
मालूम ही नहीँ था
नहीँ तो
पलाश के फूल सा
आकाश को रंग देता मैँ
फिर देखता
कैसे साँझ की लालिमा
आँखोँ से ओझल हो पाती है ।
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खौफ
मैँ जब
घर से बाहर निकलता हूँ
अपनी आँखोँ को
दराज मेँ
कानोँ को
अलमारी मेँ
और जुबान को
किताब के भीतर
बंद कर जाता हूँ
मैँ जब
घर वापस आता हूँ
अपनी आँखोँ को
दराज से
कानोँ को
अलमारी से
और जुबान को
किताब से
निकालकर लगा लेता हूँ
क्या मैँ
बहुत डरा हुआ आदमी हूँ
बेशक हूँ
तभी तो मैँ
खौफ से घिरा रहता हूँ ।
* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271
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देवेन्द्र कुमार पाठक के नवगीत -
धुप्पल मारेँ
भरे पेट की गर्राहट मेँ
हम कविताई धुप्पल मारेँ;
यानी चालू मुहावरे मेँ
शब्द-शूर हम,
बाल उखाड़ेँ !
जनमत की लाठी से हमने
ठलुए मुफ्तख़ोर हैँ हांके ;
प्रजातंत्र का खेत आज भी
पाथर चाटे,धूधुर फांके ;
वही पादुका-पूजन,
विरुदावलि-गायन, जयकारेँ
नई सदी की गर्म हाट मेँ
सजी सूचना-संजाली ;
उतरेँ-चढ़ेँ मूल्य या मानक
हर मुद्रा मेँ पुजे दलाली ;
बाज़ारू उस्तरे अधमरी -
प्रजा-गऊ की खाल उतारेँ.
अँधरी लिप्सा काजर आँजे
देख रही दुनिया सतरंगी ;
ज़श्न मनाए ताज़ पहनकर
आधी दुनिया हो अधनंगी ;
प्रायोजित बक-झक मेँ बढ़ चढ़,
बक-चातुर विश्लेषण झाड़ेँ.
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अनुराग तिवारी की कविता
यूं न उड़ाकर ले जाओ हवाओं!
यूं न उड़ाकर ले जाओ
बादलों को मेरे शहर से।
मुद्दतों बाद ये फिर
आज नजर आये हैं,
प्यासी धरती की
आस बन के छाये हैं।
खेत में किसान
माथे पर हाथ रख;
देखता आसमान,
चिन्तित, किन्तु आशावान;
दीख पड़ता मेघ का
कोई एक टुकड़ा,
दीप्त होती क्षीण आशा;
स्वप्न तिर जाते नयन में
असंख्य करता परिश्रम,
बहाता पसीना,
धीरे-धीरे अपने पंखों से
इन्हें नीचे उतार
भर दो हर खेत,
गली, कुन्ज, द्वार....
बरसा दो जीवन-सपने
हो सकें पूरे;
जन-जन के तन-मन को
पुलकित कर दो....
हवाओं! यूं न उड़ाकर ले जाओ
बादलों को मेरे शहर से।
सी ए. अनुराग तिवारी
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शेर सिंह की कविता
समय
लम्बे पंजों / तीखी चोंच से
ले जाता है सब / सुख
समय / नोंचकर
अंगार से भर दिये हों / आंखों में
और कंठ में / ढोल / दांतों में जकड़े / झंकार फूटे न
मुंह के / कपाट खोलकर ?
समय का ही / दिया है
ये सब / राहें / चीन्हें - अनचीन्हें/ और कहीं- कहीं
कर्म का ही / दूध पिलाया है ।
मुखौटे के अंदर / मुखौटा
सादे आवरण में / धारियां
सत्य को / छिपा लो / मिथ्या को बढ़ा दो
समय / सब कुछ / उजागर -
कर ही डालता है ।
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शेर सिंह
के. के.- 100
कविनगर, गाजियाबाद- 201 001
E -Mail: shersingh52@gmail.com
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मोहसिन खान की ग़ज़ल
ग़ज़ल-1
दिल में उठा है दर्द रात कटेगी कैसे ।
हो गई बरसात अब थमेगी कैसे ।
बारिशों के धुएँ में चिंगारी सी तुम,
लग गई आग अब बुझेगी कैसे ।
कर दिया पहाड़ों को परेशान तुमने,
बर्फ़ उनकी अब जमेगी कैसे ।
घर की खिड़कियों को छोड़ दिया खुला,
कोई नज़र अब झुकेगी कैसे ।
उठी है दिल में शिद्दत से कोई बात,
होठों तक आकार अब रुकेगी कैसे ।
ग़ज़ल-2
हमको तुम्हारी कमी लगने लगी ।
बदली-बदली ज़मीं लगने लगी ।
घर की हदों से बाहर किधर जाएँ,
हर शक्ल अजनबी लगने लगी ।
हर रुत से बेअसर बूत से क्यों हो गए,
सांसें रुकीं, धड़कन थमीं लगने लगी ।
इक तेरे होने से दिले-सुकून कितना था,
रूहे-ग़म की बेचैनी लगने लगी ।
ख़ुश्क मंज़र, ख़ुश्क सबा, ख़ुश्क मैं भी,
फिर क्यों आँखों में लगने लगी ।
डॉ. मोहसिन ख़ान ‘मनमीत’
सहा.प्राध्यापक हिन्दी
जे.एस.एम. महाविद्यालय,
अलीबाग (महाराष्ट्र)
मो. 09860657970
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संशर्मा (संजीव शर्मा की कविताएँ)
माँ
माँ मुझे बदली-बदली सी नज़र आती है ,
माँ जो सबसे अच्छी लगती है
पर अब पहले की तरह
लगता है मुझको प्यार नहीं करती
माँ पापा की तरह कमाती है
सुबह खाना बनाकर नहीं देती
पैसे देकर यूंही टरका देती है
नए कपडे लाती है पर
कपडे तैयार नहीं करती
पहले जब माँ बनाती थी
कितनी अच्छी लगती थी
अब हर बात पर झिड़क देती है
छोटी-छोटी बात पर चिल्लाती है
माँ सबसे हंसकर बात करती है
पर मुझे ही क्यों डांट देती है
लगता है माँ बदल गई है
कि माहोल ने बदल दिया है
माँ अब बदली बदली सी नज़र आती है,
पहले माँ पलकों पर उठाये रहती थी
हर पल दुलारती थी
मेरे सब नखरे उठती थी
मेरी हर इच्छअ पूरा करती थी
अब तो माँ का रूप भी बदल गया है
माँ का पहनावा बदल गया है
माँ का श्रृंगार बदल गया है
माँ का सत्कार बदल गया है
माँ अब बनावट सी लगती है
माँ अब बदली-बदली सी नज़र आती है.
तेरे बगैर
तेरे बगैर अब तो मुझे नींद भी न आएगी
लगता है ये जिंदगी ऐसे ही गुजर जाएगी
मैं तुझे चाहता हूँ तुझसे मैं कैसे कहूं
मेरी ख़ामोशी मेरी जान ले के जायेगी
एक झोंके की तरह मेरी सिम्त आना तेरा
उम्र भर के लिए तनहाइयाँ दे जायेगी
तू भी जो मेरी बेकसी की पा ले अगर
मेरे अरमानों को शक्ल सी मिल जाएगी
बख्त है बेवफा शिकवा हो क्या ज़माने से
प्यार की हर नजर जज्बा नया दिखाएगी
एक मुद्दत के बाद आस्तां पे तू है खड़ी
सोचता हूँ की कहर किस तरफ से आएगी
मुझे मैय्यत सी नजर आती है मेरी ख़ुशी
मैं तो 'मुर्दा' हूँ मेरे प्यार मैं तू क्या पायेगी
मुहब्बत
लोग कहते हैं कि मैं तुझसे प्यार करता हूँ
लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगें
मुझे भी लगता है कि दिल के किसी कोने से
एक ही नाम बार-बार कहीं गूंजता है
तुझे शायद कि इस बात का अहसास नहीं
मुझको इस बात से जीने कि वजह मिलती है,
लोग तो ये भी कहते हैं कि मुहब्बत करके
सैंकड़ों जख्म इस दिल पे उठाये जाते हैं
मैं तो सदियों से मुहब्बत तुझे करता हूँ
और ये मुझको कभी ग़मज़दा नहीं करती,
ये और बात है कि तू मुझे चाहती नहीं लेकिन
हर गली, हर सड़क, हर नुक्कड़ पर
मैं तुझे यूं ही भटकता हुआ मिल जाऊँगा
जिस एक तेरी गली में तेरे दरवाजे पर
रोज सर अपना झुककर मैं चला आता हूँ
जब भी जाता हूँ तो नई उम्मीद के साथ
और आता हूँ तो फिर उन्हीं मायूसियों के साथ.
हरजाई
दिल करता है दिल से खेलूं और वफ़ा बदनाम करुं
करते हैं जो छुपके मुहब्बत उनके चर्चे आम करुं
रात गुजारी पी के घर पर और सुबह मंसूर हुए
ऐसे लोगों के मंसूबे नई शाम तक आम करुं
छुप छुपकर उस चन्द्र बदन ने कईयों को बर्बाद किया
उफ़ क़यामत उसके जलवे उसके क्या क्या नाम धरूँ
घुट घुट कर जीने को उस हरजाई ने मजबूर किया
हाय उस कमबख्त के मैं अब और क्या नाम करुं.
संशर्मा (संजीव शर्मा)
1/2750 Ram Nagar
Shahdara, Delhi 110032
ma nahi badli uska parivesh badlgaya hai
जवाब देंहटाएंखोखली होकर भी, मधुर धुन छेडती बांसुरी !
जवाब देंहटाएंभरी होकर भी बन्दूक , आग उगलती है !
सभी कविताये जोरदार रही ......
dhnvad mukesh ji aap ko meri rchnae psnd aai hmaare liye
हटाएंesi prtikryaen urjaa ka kam krti hae or dugne utsah se rchna likhne ki prarnn milti hae bhut bhut dhnvaad