बालकवि बैरागी की कहानी - बिजूका बाबू

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बीस बरसों की अपनी नौकरी में इतने विचलित कभी नहीं थे बिजूका बाबू जितने कि आज। पहले कभी कुछ कडवा-मीठा होता भी था तो वे संयम से काम लेते थे; ल...

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बीस बरसों की अपनी नौकरी में इतने विचलित कभी नहीं थे बिजूका बाबू जितने कि आज। पहले कभी कुछ कडवा-मीठा होता भी था तो वे संयम से काम लेते थे; लेकिन आज तो उनका सारा संयम शायद नंगा होकर नदी नहाने चला गया लग रहा था। नदी भी पानीवाली नहीं, आग की नदी। सुननेवाले चकित थे। आखिर बात क्या हो गई?

बाबू बैजनाथ को सारा दफ्तर ' बिजूका बाबू ' ही कहकर संबोधित करता था और वे बोलते भी इसी नाम के संबोधन से। और तो और, कोई उनके घर जाकर मिलता तो वहाँ भी इसी नाम से बातचीत होती थी। उनकी पत्नी को जरूर आपत्ति होती थी; लेकिन धीरे-धीरे इस नाम से उनका भी समझौता हो गया। आए दिन स्कूल-मदरसे में उनका बेटा इस नाम पर जरूर अपने साथियों से हाथापाई कर लेता था, लेकिन बिजूका बाबू का नाम बिजूका बाबू ही रहा। सरकारी फाइलों में रहा होगा बैजनाथ नाम, जनता में तो वे बिजूका बाबू ही थे। यदा-कदा उनके वरिष्ठ अधिकारी भी उन्हें इसी नाम से पुकारते थे।

तकलीफ यह हुई कि आज बिजूका बाबू अपनी जिंदगी की बाजी हार रहे थे। ताव-ताव में उन्होंने सौ-दो सौ गालियाँ साइंस को दे डालीं। फिर हजार-दो हजार गालियाँ दीं उन्होंने अपने बचपन बिताए गाँव को। गाँव के भी उन लोगों को जिन्होंने उन्हें बिजूका बनाना सिखाया। बिजूका बाबू का

बचपन ठेठ देहात में बीता। वे किसान के बेटे नहीं थे, लेकिन किसानों के बीच ही जनमे-पले खेले-कूदे और बड़े हुए। प्राइमरी और मिडिल तक की उनकी शिक्षा देहात में ही हुई। स्कूल जाते-आते खेतों की मेंड़ों पर खेलते- कूदते वे प्राय: हर खेत में एक-दो बिजूके खड़े हुए देखते थे। हरी-भरी फसल को पक्षियों और छोटे-बड़े पशुओं से बचाने के लिए किसान लोग दो बाँसों को आड़ा-खड़ा बाँधकर फटा-पुराना कुरता पहना देते। आड़े बाँस पर आस्तीनें फैला देते। खड़े बाँस के ऊपरी सिरे पर एक पुरानी फूटी होड़ी टाँग देते। उस पर फटा साफा या पगड़ी बाँधकर खेत में गाड़ देते। रात-दिन रखवाली करने कौन रह सकता है! पशु-पक्षी बिजूके को रखवाला समझकर खेत में नुकसान नहीं कर पाते। आदमी का भ्रम पैदा करता बिजूका मजे से रखवाली करता रहता।

ये वे दिन थे, जब कच्ची उम्र में ही बैजनाथ ने बिजूका बनाना सीख लिया। उसके बनाए बिजूके कई खेतों में खड़े दिखाई देते थे। खास बात यह थी कि बैजनाथ अपने बनाए बिजूकों का सिंगार बड़ी कारीगरी से करता था। फटपुराने चिथड़ों को भी वह अपनी कला से विचित्र परिधानों में बदल देता था। हाँड़ी पर आँख, कान, नाक बनाता; पगडी-साफे पर तुर्रे बाँधता और बिजूके को पूरा आदमी बना देता। जब तक बैजनाथ हाई स्कूल पढ़ने जाता- आता रहा तब तक वह ऐसे बिजूके बनाता रहा। लोग उसे घर का काठ- कबाड, आँस-बाँस-फीस दे देते, एकाध गिलास चाय पिलाते और बिजूके बनवाते। उसकी कलात्मकता की तारीफ करते, बिजूके को सजीव बताते और खेत में खड़ा करवाने बैजनाथ को ही ले जाते। जब बिजूँका खड़ा कर दिया जाता तो वैजनाथ खुद उस बिजुके से बात करता। लोग बैजनाथ की इस कला का गुण गाते।

आज वही बैजनाथ अपने उन्हीं गुण-गायकों और बिजूका बनाने की प्रेरणा देने वाले ग्रामीणों को भला-बुरा कह रहा था। एक-से-एक वजनदार गालियाँ दे रहा था। क्या पुलिस का थानेदार-हवलदार वैसी गाली देगा! बिजूका बाबू सारे रिकोर्ड तोड़ रहे थे। न बिजूका बनाना सीखता, न ये दिन आते, यह बिजूका बाबू का दर्द था।

पढ़-लिखकर बैजनाथ ने सरकारी दफार में नौकरी कर ली। गाँव छुट गया। शहरनुमा जिला मुख्यालय पर तैनाती हो गई। बैजनाथ सीखने को कला में माहिर था। धीरे-धीरे कारकूनी और बाबूगिरी के सारे गुर सीख गया। बड़ों से कैसे पेश आना, छोटों से कैसा व्यवहार करना, वकीलों को कैसे निपटाना, नेताओं को कैसे खुश रखना, देहातियों और सरकारी गलियारों में फँसे पक्षकारों को किस तरह टाल देना, मुकदमों की दुर्गत कैसे करना फैसलों को किस तरह टलवाना और तारीख-पेशियाँ किस तरह बढाते रहना चाहिए। यानी कि साल-दो साल में ही बैजनाथ पारंगत हो गया। उसकी समझ में आ गया कि मुकदमा प्रकरण पर पूर्णविराम लगने का मतलब है ' बाबू' की रोटी पर पूर्णविराम। प्रकरण जीवित रहेगा तो बाबू जीवित रहेगा। अंतिम फैसला हो गया तो समझो, बाबूगिरी मर गई। बाबूगिरी को जीवित रखने का आसान तरीका है अपनी कुरसी से गायब रहना। काम को टालो और सौ-पचास रुपए रोज बना लो। गरज का मारा पक्षकार ढूँढ़ता रहेगा। दफ्तर से गैर-हाजिर रहने के बाद कोई ढूँढ़ ले। अपना ठीया निश्चित रखो। मिलोगे ही नहीं तो क्या खाक ऊपर की कमाई होगी! इसी प्रक्रिया में बैजनाथ ' बिजूका बाबू' बनने की दिशा में चल निकला।

दफ्तर की अवधि में बिलकुल ठीक समय पर बैजनाथ बाबू कार्यालय में पहुँचते, हाजिरी रजिस्टर पर दस्तखत करते, कुरसी-टेबल को चपरासी से झडवाते, अलमारी की चाबी देते, टेबल पर दो-चार फाइलें रखवाते, कलमों का स्टैंड करीने से रखते, घंटी को बजाकर देखते; फिर कुरसी पर बैठते। किसी-न-किसी बहाने साहब के चेंबर में जाते। उन्हें शक्ल दिखाते। घर का कुशल- क्षेम और अपने लायक विशेष सेवा पूछते। ' भीतर किसको भेजूं सर?' जैसा सवाल चस्पां करते। दफ्तर के मौसम का हाल बयान करते और ' आपकी मेहरबानी का धन्यवाद, मेहरबान ' कहकर सिर झुकाए बाहर आ जाते। बाहर आकर अपनी कुरसी पर बैठते। और.. 'बिजूका बनाना शुरू कर देते। घर से लाए झोले को कुरसी पर लटका देते। अलमारी में से अपनी खैनी-तंबाकू की डिबिया टेबल पर रखते। चूने की डिबिया को आधी खुशी रखकर पोजीशन देते। कलमदान में से एक कलम निकालकर उसे खुली

छोड़ते। घर से लाए अतिरिक्त चश्मे को खोलकर सामने वाली फाइल पर रखते। फिर चुपचाप अलमारी में से अपनी एडीशनल जैकेट निकालकर कुरसी के पीछे फैलाकर टाँग देते। सारा दक्तर कनखियों से देखता था कि बिजूका बन रहा है। फिर बाबू बैजनाथ उठकर कोने में बैठे नीतिन वैद्य बाबू की टेबल तक जाते। दफ्तर के फोन से शहर में दो-चार फोन करते। अगर नीतिन बाबू रोकते तो वे चेतावनी देते हुए कहते, ' नीतिन बाबू! दफ्तर में काम करना और इसी शहर में टिके रहना मुझसे सीख लो। मैं यहीं अपोइंट हुआ हूँ यहाँ मेरा प्रमोशन हुआ है और यहीं मैं रिटायरमेंट भी लूँगा। यह टेलीफोन न मेरा है, न तुम्हारे बाप का है। यह सरकारी है-और सरकार का मतलब आप जानो न जानो, मैं जानता हूँ। '

नीतिन बाबू आखिर क्या करते? चुप लगा जाते। उनकी चुप्पी तब खीझ में बदल जाती जब बैजनाथ बाबू टेलीफोन के पास पड़ा हुआ पीतल का छोटा ताला चाबी सहित जेब में रखकर चल पड़ते। चलते-चलते एक झाडू और पिलाते-' सरकारी फोन है, ताला-वाला मत लगाया करो। शाम को लगा देना। इस दफ्तर का सीनियर मोष्ट कर्मचारी हूँ। मेरा लिहाज करो। थैंक्यू। '

बाहर निकलने से पहले वे अपनी टेबल का एक गहरा निरीक्षण और करते। चपरासी से फुसफुसाकर कुछ कहते और बाहर निकल पड़ते। बाहर जाते ही सीधे चाय की गुमटी रार खड़े होकर पेशी पर आए लोगों को सूँघते। जिन्हें पहचान जाते उन्हें इशारों से कुछ कहते। लोग पीछे-पीछे और बैजनाथ बाबू लहराते घूमते-धूमते कचहरी का फाटक पार कर जाते। जो लोग नहीं मिल पाते, वे दफ्तर में बैजनाथ बाबू की कुरसी तक जाते। सारा आल-जाल देखकर सोचते कि शायद अभी-अभी उठकर यहीं कहीं गए होंगे, बस आते होंगे। चश्मा, जैकेट, कलम, खैनी, चूना, फाइलें, कागजात-सभी तो फैले पड़े हैं। चपरासी से पूछते तो वही जवाब मिलता, ' अभी-अभी गए हैं, आते ही होंगे। शायद कोई चाय पिलाने ले गया होगा। ' बिजूका बाबू आखिर जाते कहाँ थे? वे सीधे कपड़ा बाजार में जाते। बरसों की ऊपर की कमाई से उन्होंने अपने साले के नाम पर रेडीमेड की बड़ी दूकान खोल ली थी। उस दूकान का निरीक्षण करते, स्टॉक चेक करते, साले से कुछ हिसाब-किताब की बात करते और मुख्य बाजार पार करके छोटे बाजार में अपनी पत्नी द्वारा चलाए जा रहे चूटी पार्लर में घुस जाते। यही वह स्थान था जहाँ वे मुकदमों में ' फँसे लोगों' से लेन-देन करते। पक्षकार वहीं उनसे मिलते। नोट-नकदी जो भी मिलता, उसे बीवी के गल्ले में डालते और वापस दफ्तर पहुंच जाते। फिर वही चाय की गुमटी और अंदर-बाहर के समाचार लेते-लिवाते अपनी कुरसी पर बिराजित हो जाते। घंटी बजाते, चपरासी से कुछ पूछते और फाइलें लेकर साहब के चेंबर में पहुँच जाते।

जो भी बड़ा अधिकारी इस दफ़्तर में नियुक्त होता, वह दस-पांच दिनों में ही बिजूका बाबू की कला से परिचित हो जाता; लेकिन राम जाने, पेशी करवाते समय कौन सा मंतर बिजूका बाबू पढ़ देते कि अफसर भी मुसकरा कर अपने दस्तखत करता जाता और फाइलें निपटती जातीं।

लेकिन जब से सीनियर बाँस बनकर ये पाराशर साहब आए हैं तब से बिजूका बाबू का बिजूका बन तो रहा है, लेकिन बात नहीं बन रही है। एक दिन तो गजब ही हो गया, जब पाराशरजी ने चपरासी के सामने ही कह दिया, ' बिजूका बाबू! मेरी कोशिश होगी कि अब आपको यह बिजूका नहीं बनाना पड़े। शायद आप जानते ही होंगे कि जो किसान अपनी खेती बिजूकों के भरोसे छोड़ देता है, वह अपने खेत तक से हाथ धो बैठता है। फसल तो गधे, घोड़े, सूअर, सुग्गे खा ही जाते हैं। जाइए अपनी सीट पर शाम पाँच बजे तक बने रहिए। बुलाने पर भीतर आ जाइए वरना हमेशा के लिए बाहर ही रह जाएँगे। साले की दूकान और बीवी का चूटी पार्लर इनकम टैक्सवालों की गिरफ्त में आ गया है। अपने आपको सँभालिए। ओ.के.। '

पसीना-पसीना होते और अघट की आशंका से थरथराते बिजूका बाबू चेंबर से बाहर निकले। चपरासी पीछे का पीछे। दस-बीस मिनट में ही कुरसी-कुरसी, दराज-दराज और अलमारी-अलमारी बात फैल गई। नीतिन वैद्य ही काम आया। बिजूका बाबू को पानी का गिलास थमाते हुए बोला, ' पी लो बैजनाथ बाबू! चिंता मत करो। पाराशर सर इतने कठोर नहीं हैं। घर से कुछ सुनकर आए होंगे तो यहाँ बोल पड़े। चलता है। नौकरी में यह सुना-सुनी नई बात नहीं है। सब ठीक हो जाएगा। '

एक ही घुड़की ने बिजूका बाबू का न जाने क्या-क्या बदल दिया। दो- एक महीने तो लगा कि गाड़ी पटरी पर आ गई, लेकिन पाराशर सर बैजनाथ बाबू से भी बड़े बिजूकबाज निकले। तान तुकतान भिड़ाकर अपने दफ्तर के लिए एक कंप्यूटर ले आए। दफ्तर में छोटा सा समारोह किया। अपने अधिकारियों-कर्मचारियों को कम्प्यूटर का मतलब समझाते हुए भाषण दे बेठे ' मित्रो! यह कंप्यूटर क्या है? यह एक मशीनी साइंटिफिक ' बाबू ' ही हें। बाबू लोग क्या करते हैं? फाइलें रखते हैं, कागज सँभालते हैं, माँगने पर टीप लगाकर पेश करते हैं, फाइल की जिम्मेदारी लेते हैं। यह कंप्यूटर भी ये सारे काम करेगा। हाँ यह अपनी कुरसी छोड़कर बाहर चाय पीने नहीं जा सकेगा। आज्ञाकारी इतना होगा कि चाहा गया कागज बटन दबाते ही दे देगा। न कोई गलती, न कोई गुमान। बटन खटखटाते जाओ और कागज लेते जाओ। साफ-सुथरा, शुद्ध और प्रामाणिक। इसका किसी से झगड़ा नहीं, लाग-लगाव नहीं, ईर्ष्या-द्वेष नहीं। दूध-का-दूध, पानी-का- पानी। इसके पास दिमाग है, दिल नहीं।

ऐसा ' बाबू ' आपके दफ्तर में आ गया है। अब इसे कहाँ बैठाया जाए? मेरी नजर में इसे बैजनाथ बाबूवाली कुरसी-टेबल दे देना ठीक रहेगा। वैसे भी, उस टेबल पर वर्षों से बिजूका ही बनता चला आ रहा हें। अब बैजनाथ वाबू के बिजूके की जगह विज्ञान का यह आज्ञाकारी बाबू बैठ जाए तो खुद बैजनाथ बाबू तक को खुशी होगी। आप लोग तालियाँ बजाकर इस नए ' बाबू ' का स्वागत कीजिए। बधाई। ' और पाराशरजी ने बैजनाथ बाबू को अपने चेंबर में आने का आदेश दिया। सिर झुकाए बिजूका बाबू पाराशर सर के पीछे-पीछे चेंबर में गए। साहब कुरसी पर बैठे, एक फाइल खोली, शांत-ठंडी नजर से बैजनाथ बाबू को देखा, एक कागज पर हस्ताक्षर किए। दूसरे वैसे ही कागज पर एक और दस्तखत किए। पहला कागज बैजनाथ बाबू को थमाया, दूसरा आगे किया- ' मिस्टर बैजनाथ! लिखो कि मूल पत्र प्राप्त हुआ। इसे रिसीव करो। ' सिर से पैर तक थरथराते हुए बिजूका बाबू ने मूल पत्र की प्राप्ति पर हस्ताक्षर किया। साहब को प्रणाम किया और निकलने लगे।

पाराशर साहब उतने ही ठंडे स्वर में बोले, ' फिलहाल यह आपका निलंबन आदेश है। पचासों मामले ऐसे हैं कि आप बरखास्त हो जाएंगे। आपकी सर्विस का लंबा समय शेष है। आप चाहें तो अनिवार्य सेवानिवृत्ति माँग सकते हैं, इस्तीफा दे सकते हैं। कानून अपना काम करेगा, आप अपना काम करें। बड़े आराम से न्यायालय की शरण लें। सारे रास्ते खुले पड़े हैं। जब तक यह इक्यायरी चले तब तक आपका पदांकन जिला मुख्यालय से यही चालीस किमी. दूर अनुविभागीय कार्यालय में किया जाता है। अब आप जा सकते हैं। आपके कार्यकाल और आपकी कार्यशैली से इस कार्यालय का सिर नीचा हुआ है। ओ.के.। '

सिर नीचा किए बिजूका बाबू पहले चेंबर से बाहर निकले, फिर अपनी टेबल को देखा। कम्यूटर ऑपरेटर कंप्यूटर चला रहा था। दफ्तर के कर्मचारी अपनी-अपनी कुरसियों पर बैठकर फाइलों में सिर गडाए काम कर रहे थे। हाँ, नीतिन वैद्य उठे। बिजूका बाबू को सहारा देकर दफ्तर के बाहर तक लाए, ढाढस बँधाया, समझाने की कोशिश की। चाय की गुमटी पर आकर बिजूका बाबू अपनी रोजवाली बेंच पर बैठे और बस दे गाली, दे गाली, दे गाली। कभी साइंस को तो कभी कम्पूटर को। आँखों में आँसू मुँह से फंसकर निरंतर बह रहा था। वे कंप्यूटर निर्माता को भला-बुरा कह रहे थे। नास पीट रहे थे बिजूका बनाना सिखानेवाले अपने बचपन के देहातियों पर।

वे बेंच से उठे, चले; पर खुद उन्हें पता नहीं था कि वे कहां जा रहे थे।

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COMMENTS

BLOGGER: 5
  1. Dharmendra Tripathi6:58 pm

    behatreen kahani.

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    उत्तर
    1. जी हाँ, और आपको सुखद आश्चर्य होगा कि बिजूका बाबू नामक कहानी संग्रह की तमाम कहानियों को यहाँ प्रकाशित करने की अनुमति आदरणीय श्री बालकवि बैरागी जी ने दे दी है, तो संग्रह की अन्य कहानियाँ भी हम यहाँ जल्द ही प्रकाशित करेंगे.

      हटाएं
    2. Dharmendra Tripathi6:37 pm

      aisi kahaniyan aur rachnaye net per aayen to nischit he ek brahat pathak varg judega. shreshth rachnaye prakashit karne ke liye sadhubad.

      हटाएं
  2. कहानी एक बार फिर पढकर अच्‍छा लगा।

    जवाब देंहटाएं
  3. काफी दिल हिलानेवाली कामचोरों को को नयी राह दिखाने वाली कहानी ! बहुत शिक्षप्रद !

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रचनाकार: बालकवि बैरागी की कहानी - बिजूका बाबू
बालकवि बैरागी की कहानी - बिजूका बाबू
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