संतुलित कहानी – मनोरंजन ( डा श्याम गुप्त ) [ संतुलित कहानी लघु कथा की एक विशेष धारा है जो अगीत ...
संतुलित कहानी – मनोरंजन
( डा श्याम गुप्त )
[ संतुलित कहानी लघु कथा की एक विशेष धारा है जो अगीत के प्रवर्तक डा रंग नाथ मिश्र द्वारा १९७५ में स्थापित की गयी। इन कहानियों में मूलतः सामाजिक सरोकारों को इस प्रकार संतुलित रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि उनके किसी कथ्य या तथ्यांकन का समाज व व्यक्ति के मन-मष्तिष्क पर कोई विपरीत अनिष्टकारी प्रभाव न पड़े .. अपितु कथ्यांकन में भावों व विचारों का एक संतुलन रहे। (जैसे बहुत सी कहानियों या सिने कथाओं में सेक्स वर्णन, वीभत्स रस या आतंकवाद, डकैती, लूटपाट आदि के घिनोने दृश्यांकन आदि से जन मानस में उसे अपनाने की प्रवृत्ति व्याप्त हो सकती है।) संतुलित कहानियों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ..यथा...संतुलित कहानी के नौ रत्न, संतुलित कहानी के पंचादश रत्न...सम्पादन डा रंगनाथ मिश्र सत्य। गिरिजाशंकर पाण्डेय,राजेन्द्रनाथ सिंह , सुरेन्द्र नाथ, मंजू सक्सेना, डा श्याम गुप्त आदि की संतुलित कथाएं उल्लेखनीय हैं।]
जोशी जी ने बड़ा सुन्दर सिनेमा का गीत सुनाया। सभी वाह! वाह ! कह उठे। खुराना जी तो पिक्चरों के गाने, गाने में माहिर थे ही ...एक के बाद एक सदाबहार, सुन्दर सुन्दर गाने ....। कुछ महिलाओं, बहुओं, युवा बेटियों ने भी सिनेमा के गीत सुनाये। मासिक गाने-बजाने की गोष्ठी परिसर के एक रूम में आयोजित थी। बेटियाँ, बहुएं, पत्नियां, बच्चे, नाती-पोते सभी उपस्थित थे।
‘आप भी कुछ सुनाइए डा.साहब।’ जोशी जी बोले।
डा श्रीनाथ जी कहने लगे, ’अरे ! बच्चों, बहुओं, बेटियों के सामने क्या ये गाने हम लोगों को सुहाते हैं ? कुछ और उच्चस्तर के, चिंतन के चेतना के गीत, बातें, कथ्य-तथ्य, मनन, विचार-मंथन ...बताए..कहे जायं तो क्या अधिक उचित नहीं होगा?’
‘आप भी कहाँ, किस युग की बातें कर रहे हैं’, जोशी जी बोले, ‘आजकल बहू- बेटियों, लड़के-लड़कियों में कहाँ फर्क है।’
हां... श्रीनाथ जी बोले, ‘एक झूठा नकाब ओढ कर जी रहा है आज समाज कि बेटे-बेटी, बहू-सास में कोई अंतर नहीं है, आपस में इंटरफीयर- रोक-टोक नहीं। वे स्वतंत्र हैं। माँ-बाप भी खुश कि उन्हें स्वतंत्रता-स्वच्छंदता मिल रही है। वे भी अपना उन्मुक्त जीवन जी सकते हैं। स्वतन्त्रता भी सापेक्षिक होती है। बेटा देर रात को घर आसकता है...बेटी नहीं, यह आप सब भी मानेंगे। वास्तव में टीवी, नेट, मोबाइल व सूचनाक्रांति के युग में व्यक्ति स्वकेंद्रित होता जारहा है। स्वयं के लिए जीना।
‘कहाँ आप भी रंग में भंग डालने लगे’, गिरीश जी बोले।
‘इसी बीच में चाय-नाश्ते के लिए मध्यांतर हो जाता है और चर्चा चलती रहती है।
‘हाँ, सच है, हम सब बस रंग जमाने में ही तो व्यस्त हैं।’ श्रीनाथ जी कहने लगे, ‘स्वयं के भौतिक-सुख, शारीरिक-सुख हेतु। समाज, देश, राष्ट्र, मानवता यहाँ तक कि स्वयं के ‘स्व’ के लिए भी जीने का कोई चिंतन नहीं है। बस केरियर व सुख जो व्यक्ति को जड़ व भोगवादी बना रहा है। अतः माँ-बाप भी उसी भाव में बहे जारहे हैं। यह बच्चों को स्वतन्त्रता रूपी स्वच्छंदता देना है और बचपन व युवाओं के साथ दुश्मनी निभाना।’
‘माँ –बाप स्व के लिए जीने लगे हैं। उनके पास अब समय नहीं है बच्चों के लिए। स्कूलों-पुस्तकों में आदमी की बजाय करियर की बातें है... हम सब-कुछ कर सकते हैं....के अहं के उत्थान की बातें। इसी तरह कुछ बातें और भी हैं जैसे ...आजकल बोर्ड आदि की परीक्षा में.. पास होने वाले, प्रथम दस, पोजीशन होल्डर्स आदि के हफ़्तों तक अखबारों में फोटो, साक्षात्कार, विचार,आगे क्या बनाने का इरादा है...डाक्टर, इंजीनियर, आई ए एस ऊंचे-ऊंचे स्वप्न ... व प्रशस्तियां छपती रहती हैं। यह सब बच्चों में प्रारम्भ से ही यह भाव भर देता है कि हम अति-महत्वपूर्ण हैं, विशिष्ठ हैं, हमने कुछ बहुत बड़ा कार्य करलिया है, हम भी कुछ हैं ..एक अहं-भावना के पोषण की राह बनती है कोमल अपरिपक्व मस्तिष्क में । जब यह सब नहीं हो पाता, मिल पाता तो तनाव- डिप्रेशन, विश्रिन्खलता आदि ...और फिर हर ऐरा-गेरा जो भी थोड़ा-बहुत सीख लेता है ..गुरू बन जाता है और सिखाने लगता है।
शास्त्रों, ग्रंथों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। मानव, मानवीय चेतना व जीवन की चर्चा कोई नहीं करता।’
‘तो क्या हम लोगों को अपनी मर्जी से अपनी स्वयं की ज़िंदगी जीने का कोई अधिकार नहीं है।’ मि.राय कहने लगे।
‘पर आप तो अपनी ज़िंदगी के रंग जी चुके’, श्रीनाथ जी बोले, ‘आपके समय में समयानुसार जो उपलब्ध श्रोत थे उनके अनुसार सारे रंग। अब आप आज के भौतिक सुख के श्रोतों का उपयोग नव-पीढ़ी को ज्ञान देने हेतु करें न कि स्वयं सुख-भोग हेतु। यदि लडके-लड़की, बहू-पुत्री में अंतर न होने और अडवांस होने के राह में, आपके उचित परामर्श के अभाव में यदि आज की पीढ़ी के माता-पिता, अच्छे चेतनायुक्त माँ-बाप नहीं बनते तो आप उनके ही दुश्मन नहीं अपितु आने वाली पूरी पीढ़ी के भी।’
बच्चे मानते भी हैं आजकल आपकी बातें, खुराना जी बोले।
'हाँ सच है', श्रीनाथ जी ने कहा.' परन्तु हमें तो उचित मंच, समय व इसी प्रकार के सामाजिक कार्यक्रमों में अपनी बात रखते ही जाना चाहिए, न कि थक-हार कर स्वयं उसी में लिप्त हो जाना। भई..कहावत है .." रस्सी आवत जात ते सिल पर होत निशान "
‘ठीक है पर क्या करें मनोरंजन भी तो आवश्यक है’, शर्मा जी बोले।
‘हाँ वह तो है, पर मनोरंजन का मूल अर्थ व ध्येय ही यह है कि खेल-खेल में कुछ ज्ञानार्जन भी हो जाय।’ श्रीनाथ जी ने कहा।
‘पर सभी तो आपकी भांति साहित्यिक, सांस्कृतिक व उच्च-अभिरुचि वाले नहीं हो सकते, मि राय बोले।
पर यहाँ तो सभी पढ़े-लिखे, उच्चपद से निवृत्त या आसीन विज्ञजन हैं। अभिरुचि को ऊपर उठाने का प्रयत्न करने में क्या हानि है। हम सिर्फ सामान्य मनोरंजन से ऊपर तो उठें। अभिरुचि तो उत्पन्न हो ही जायगी धीरे धीरे। हम प्रारम्भ तो करें कीं से भी, और वह भी अपनी पीढ़ी के हितार्थ तो करना ही चाहिए।
‘ मैं दोहे सुनाना चाहती हूँ‘, आनंद जी की बहू झिझकते -झिझकते बोली।
‘दोहे !’ कुछ युवा व कुछ अन्य के मुख से भोंहें सिकोडते हुए निकला।
‘हाँ..हाँ क्यों नहीं,यह तो अच्छा है’, कुछ लोग बोले, ‘सुनाओ बेटा, कुछ तो नया हो।’
‘लीजिए श्रीनाथ जी, आपकी बातों का प्रभाव शुरू भी हो गया’, एक तरफ से कुछ आवाजें आईं।
धन्यवाद रवि जी...
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