अल्पसंख्यकों का ओबीसी के कोटा के अंतर्गत 4.5 प्रतिशत आरक्षण देने की केंद्र सरकार की मंशा को करारा झटका लगा है। आंध्रप्रदेश उच्च न्याया...
अल्पसंख्यकों का ओबीसी के कोटा के अंतर्गत 4.5 प्रतिशत आरक्षण देने की केंद्र सरकार की मंशा को करारा झटका लगा है। आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय ने कड़ा रुख अपनाते हुए साफ किया है कि ‘धर्म के आधार पर' आरक्षण का लाभ संविधान के विरूद्ध है। वर्तमान में दिसम्बर 2011 के बाद से शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है। पिछले दिनों 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले केंद्र सरकार ने कुटिल चतुराई से ओबीसी के कोटे में ही खासतौर से मुस्लिमों को लुभाने के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रावधान कर दिया था। इसे उच्च न्यायालय ने अस्वीकारते हुए साफ किया कि कोटा के अंतर्गत उप कोटा दिए जाने का प्रावधान अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए दिया गया है। इसे कानूनी रूप देते हुए कहा गया है कि ‘अल्पसंख्यकों से संबंधित' और ‘अल्पसंखयकों के लिए' जैसे वाक्यों को जो प्रयोग किया गया है वह असंगत है, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। इस फैसले का व्यापक असर होना तय है क्योंकि यह प्रावधान आईआईटी जैसे केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में भी लागू हो गया था। बहरहाल कांग्रेस का मुस्लिमों को लुभाने वाले नुस्खे पर पानी फिर गया है।
वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों अथवा गरीब सवर्ण उनको बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत, अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती ? खाद्य की उपलब्धता से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं उनको हासिल करना मौजूदा दौर में केवल पूंजी और शिक्षा से ही संभव है। ऐसे में आरक्षण के सरोकारों के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अपरिहार्य योग्यता के दायरे में न आ पाने के कारण उपेक्षित ही रहेंगे। अलबत्ता आरक्षण का सारा लाभ वे बटोर ले जाएंगे जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं और जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों से पढ़े हैं। इसलिए इस संदर्भ में मुसलमानों और भाषायी अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की वकालत करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के भी कोई बुनियादी मायने नहीं रह गए ?
यह सही है कि हमारे देश में आज भी धर्म और जाति आधारित भेदभाव बदस्तूर हैं। जबकि संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर राष्ट्र किसी भी नागरिक के साथ पक्षपात नहीं कर सकता। इस दृष्टि से संविधान में विरोधाभास भी है। संविधान के तीसरे अनुच्छेद, अनुसूचित जाति आदेश 1950 जिसे प्रेसिडेन्शियल ऑर्डर के नाम से भी जाना जाता है, के अनुसार केवल हिंदू धर्म का पालन करने वालों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं माना जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में अन्य धर्म समुदायों के दलित और हिंदू दलितों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है, जो समता और सामाजिक न्याय में भेद करती है। इसी तारतम्य में पिछले पचास सालों से दलित ईसाई और दलित मुसलमान संघर्षरत रहते हुए हिंदू अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले अधिकारों की मांग करते चले आ रहे हैं। रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट इसी भेद को दूर करने की पैरवी करती है।
वर्तमान समय में मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध ही अल्पसंख्यक दायरे में आते हैं। जबकि जैन, बहाई और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैन समुदाय केन्द्र द्वारा अधिसूचित सूची में नहीं है। इसमें भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिसूचित किया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को नहीं। सुप्रि्रम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक माना गया है। परंतु इन्हें अधिसूचित करने का अधिकार राज्यों को है, केन्द्र को नहीं। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं। हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर सलमान खुर्शीद भी मानते है कि कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक हैं। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार के दौरान जैन धर्मावलंबियों को भी अल्पसंख्यक दर्जा दिया था, लेकिन अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं से ये आज भी वंचित हैं। इस नाते‘ अल्पसंख्यक श्रेणी' का अधिकार पा लेने के क्या राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक निहितार्थ हैं, इन्हें समझना मुश्किल है। यहां तक कि आर्थिक रूप से कमजोर जैन धर्मावलंबियों के बच्चों को छात्रवृत्ति भी नहीं दी जाती।
अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने का आधार जिस मिश्र आयोग को बनाया गया है उसका गठन ‘जांच आयोग के तहत' नहीं हुआ है। दरअसल इस रपट का मकसद केवल इतना था कि धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर व पिछडे़ तबकों की पहचान कर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण सहित अन्य जरूरी कल्याणकारी उपाय सुझाये जाएं। जिससे उनका सामाजिक स्तर सम्मानजनक स्थिति हासिल कर ले। इस नजरिये से सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का औसत अनुपात बेहद कम है। गोया संविधान में सामाजिक और शैक्षिक शब्दों के साथ ‘पिछड़ा' शब्द की शर्त का उल्लेख किये बिना इन्हें पिछड़ा माना जाकर अल्पसंख्यक समुदायों को 15 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसमें से 10 फीसदी केवल मुसलमानों को और पांच फीसदी गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दिए जाने का प्रावधान तय हो। शैक्षिक संस्थाओं के लिए भी आरक्षण की यही व्यवस्था प्रस्तावित है। यदि इन प्रावधानों के क्रियान्वयन में कोई परेशानी आती है तो पिछड़े वर्ग को आरक्षण की जो 27 प्रतिशत की सुविधा हासिल है, उसमें कटौती कर 8.4 प्रतिशत की दावेदारी अल्पसंख्यकों की तय हो। वैसे भी केरल में 12 प्रतिशत, तमिलनाडू 3.5, कर्नाटक 4, बिहार 3, पश्चिम बंगाल 10 और आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा 4 फीसदी मुस्लिमों को आरक्षण पिछड़ा वर्ग के आधार पर ही दिया गया है। केरल में तो आजादी के पहले से यह व्यवस्था लागू है। लिहाजा इस प्रावधान के तहत छह प्रतिशत मुसलमान और 2.4 प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को आरक्षण की सुविधा दी जा सकती है।
चूंकि सच्चर समिति की रिपोर्ट मिश्र आयोग के गठन से पहले आ गई थी इसलिए इस रिपोर्ट को विपक्ष सच्चर समिति को अमली जामा पहनाने के रूप में भी देखता चला आ रहा है। सच्चर और मिश्र रिपोटों में फर्क इतना है कि सच्चर का आंकलन केवल मुस्लिम समुदाय तक सीमित था, जबकि मिश्र आयोग ने सभी अल्पसंख्यक समुदायों और उनमें भी दलितों की बदहाल स्थिति का ब्यौरा दर्ज किया है।
यहां संकट यह है कि पिछड़ों के आरक्षित हितों में कटौती कर अल्पसंख्यकों के हित साधना आसान नहीं है। इस रिपोर्ट का क्रियान्वयन विस्फोटक भी हो सकता है। क्योंकि पिछड़ों के लिए जब मण्डल आयोग की सिफारिशें मानते हुए 27 फीसदी आरक्षण का वैधानिक दर्जा दिया गया था, तब हालात अराजक व हिंसक हुए थे। हाल ही में राजस्थान में आरक्षण के मुद्दे पर ही गुर्जरों और मीणाओं के हित परस्पर टकराये तो राजस्थान समेत कुछ समय के लिए समूचे देश में अस्थिरता का वातावरण निर्मित हो जाने की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। तय है सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ना तय है। इसलिए धर्म-समुदायों से जुड़ी गरीबी को अल्पसंख्यक और जातीय आईने से देखना बारूद को तीली दिखाना है। अलबत्ता अनुसूचित जाति की जो पहचान हिंदू धर्म की सीमा में रेखांकित है, उसे विलोपित करते हुए जिस धर्म में जो भी दलित हैं उन्हें अनुसूचित जाति के लाभ स्वाभाविक रूप में मिलना चाहिए। आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय ने आरक्षण का प्रावधान खारिज करके राजनीतिकों के सामने एक दलील पेश की है कि वे सतह ही फैसले लेकर लोगों का धर्मिक दोहन वोट की राजनीति के लिए न करें।
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प्रमोद भार्गव
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं।
जातिगत वोट बैंक की खातिर नेताओं ने आरक्षण के दैत्य को इतना उभार दिया है कि अब भारतीय जनता वर्ग संघर्ष की ओर तेजी से अग्रसर है.
जवाब देंहटाएंहाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रमोशन में आरक्षण को खारिज किए जाने पर मध्य प्रदेश में कर्मचारियों के दो वर्ग पैदा हो गए हैं, और दोनों ही एक दूसरे के विरूद्ध जुलूस, रैली निकाल रहे हैं और यहाँ तक कि अजा थाने में एफआईआर दर्ज कर रहे हैं! और इनमें तथाकथित आईएएस वर्ग के वरिष्ठ 'बाबू' वर्ग भी हैं!
अब तो भगवान ही बचाए!