भारत में वर्तमान समय के स्त्री-विमर्श को जन्म देने का श्रेय ताराबाई शिंदे (1850-1910) को जाता है। उन्होंने सबसे पहले अपनी कलम के माध्यम...
भारत में वर्तमान समय के स्त्री-विमर्श को जन्म देने का श्रेय ताराबाई शिंदे (1850-1910) को जाता है। उन्होंने सबसे पहले अपनी कलम के माध्यम से पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में स्त्री पर होनेवाले अन्याय को उजागर किया।
विजयालक्ष्मी नामक गुजराती ब्राह्मण विधवा महिला द्वारा किए गए भ्रूणहत्या के कारण जो विवाद उत्पन्न हुआ था। उसके प्रतिउत्तर में ताराबाई ने ‘स्त्री-पुरुष तुलना' नामक 37 पन्नों का निबंध लिखा और उसे 1982 में प्रकाशित किया।
उस समय (1800-1900) में पुनर्विवाह को अनुमति नहीं थी। इस कारण स्त्री की जो-जो समस्याएं उत्पन्न होती थी, या जो अघटित घटता था, विवाहित स्त्रियों का जो शोषण होता था। इसी प्रकार पुरुषों के भीतर के अनेक दुर्गुणों के प्रति उन्होंने कड़े शब्दों में लिखा। पुरुष को भगवान माननेवाले मानसिकता पर जोरों का हल्ला किया। पुरुषों से उन्होंने स्त्रियों के लिए न्याय की भीख नहीं मांगी बल्कि पुरुषों के नैतिकता को खुली चुनौती दी।
ताराबाई ने जब यह निबंध लिखा तब समाज में यह मान्यता थी की जो पढ़ेगा उसकी सात पीढ़ियां नर्क में जायेगी। ताराबाई के पहले लोकमान्य ज्योतिबा फुले के अलावा किसी भी समाज सुधारक ने इस विषय को हाथ नहीं लगाया था। पुरुषी मानसिकता वाले इस समाज में उनके इस निबंध का स्वागत नहीं किया जो स्वाभाविक था। किन्तु सौ साल बाद स्त्रियों में अपने हक्क और अधिकारों के प्रति जब चेतना आईवह समय 1975 का समय था। इसी समय से भारत में स्त्री मुक्ति आंदोलन की शुरुआत होती है तब यह निबंध सं. ग. मालशे द्वारा विद्वतापूर्ण प्रस्तावना के साथ पुनः प्रकाशित होता है जो आज के स्त्री-विमर्श का आधारस्तंभ माना जाता है।
इस समय के बाद स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, और वैश्वीकरण (1990) का दौर शुरु होता है। शिक्षा और साहित्य को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है। और इसी कारण वर्तमान समय में स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श और आदिवासी विमर्श महत्त्वपूर्ण हो जाते है। इन तीनों में स्त्री-विमर्श इसलिए महत्वपूर्णहै, क्योंकि स्त्रियों की जनसंख्या कुल आबादी के आधी है। जनसंख्या में महिला पुरुषों के बराबर होने के बावजूद उनको मिलने वाले अधिकार पुरुषों से मात्रा में बहुत कम है तथा उसके श्रम को पुरुषों जैसा सामान प्राप्त नहीं है। वे जीवन भर अपने परिवार के लिए श्रम करती है उस श्रम का कोई उसे वेतन नहीं मिलता ना उसका जिक्र होता है। वे सदियों से शोषण का शिकार हो रही है। वह जैसे-जैसे पढ़ती गई और अपने अधिकारों के प्रति उनमें चेतना आई वैसे अलग-अलग रुप में उनमें प्रतिरोध के संस्कृति ने जन्म लिया। स्त्री-विमर्श के तहत् आज जीन मुद्दों पर बहस चल रही है वह महत्वपूर्ण मुद्दों में लिंग अनुपात, कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, घरेलू हिंसा, महिला उत्पीड़न, दहेज प्रथा, महिला सशक्तीकरण, महिला आरक्षण, लिवइन रिलेशनशिप, और लडकियों को शिक्षा देने में आनाकानी करना आदि हैं।
कला, साहित्य, संस्कृति, शिक्षा, रोजगार और राजनीत में महिलाओं ने अपने कार्य के बदौलत इतिहास बनाया हैं। आगे भी बनाएंगी, किन्तु मनु जैसे राजा ने ‘मनुस्मृती' जैसे ग्रंथ में महिलाओं के बारे में लिखे कटू वचन से बनी भारतीय और विदेशी पुरुषों की मानसिकता में आज भी खास बदलाव नहीं है । कुछ अपवाद जरूर मिलते हैं। जो महिलाओं के प्रति उदार रवैया अपनाते है तथा साथ खडे़ होते नज़र आते है।वर्तमान समय के समाज की यह सच्चाई है कि, अपने आप को पढ़ा-लिखा, प्रगतिशील, उदार विचारों वाला, समझने वाला यह समाज लड़की के जन्म को ही नकारने में सबसे आगे हैं। यह कन्या भ्रूण हत्याओं के मामले में किए गए अनेक सर्वेक्षणों से साफ होता है। दूसरी और कुछ अपवादों को छोड़कर यह सफेदपोश पुरुषी समाज प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से अपने ही, माँ, बहन, पत्नी, भाभी, चाची, आदि का शोषण, दोहन, उत्पीड़न करता दिखाई देता हैं। जैसे- एक पति अपनी पत्नी से उसके स्वास्थ और सुख-दुःख की बहुत ज्यादा चिंता न करते हुए घर के सभी दैनंदिन कार्यों को करने के लिए बाध्य करता है तो एक भाई स्वयं प्रेम विवाह करता है किन्तु बहन के प्रेम विवाह को कड़ा विरोध करता है आदि-आदि उदाहरण समाज में मिलते हैं। इन असमान व्यवहार के कारणों से ही स्त्रियों में प्रतिरोध की संस्कृति का जन्म हुआ जो स्वाभाविक है। ‘साहित्य समाज का दर्पण है' यह हम बड़े गर्व से कहते है किन्तु स्त्रियों के बारे में या उनके द्वारा लिखा साहित्य कितना है यह विचारणीय प्रश्न है। जबकि स्त्री समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। उसके अपने प्रश्न है, विचार है। जो साहित्य महिलाओं के संदर्भ में लिखा गया है उसमें ज्यादातर पितृसत्तात्मक मानसिकता से लिखा गया है यह साहित्य के अध्ययन से दिखाई देता है।
पुरुषी समाज द्वारा किए गए स्त्री उत्पीड़न के निम्नलिखित आकडों का निष्कर्ष यह बताता हैं कि, पुरुष आज भी यानी भारतीय संविधान में स्त्रियों के शोषण को रोकने के लिए कानूनन प्रावधान होने के बावजूद स्त्रियों का उत्पीड़न, शोषण लगातार करता रहा है जैसे- ‘‘भारत में हर 34 मिनट में एक बलात्कार, हर 42 मिनट में एक यौन उत्पीडन, और हर 93 मिनट में एक महिला को जला कर मार दिया जाता है''(संदर्भ - डॉ. मनोहर अगनानी, कहॉ खो गई बेटियाँ ..... पृ. 27) यह उपर्युक्त आंकड़े मात्र वही आंकड़े हैं जिनकी महिलाओं द्वारा शिकायत दर्ज हो चुकी है। ऐसे अनेक मामले है जो पुलिसथाने में दर्ज नहीं हो पाए या दर्ज न हो इसलिए दबाव डाला गया है। तो दूसरी और महिलाओं में अपनी इज्जत बचाने के नाते या सरकार के द्वार में जो तमाशा या कोर्ट में न्याय मिलने तक जो वैचारिक यातना दि जाती है और न्याय मिलना मात्र एक सपना हो जाता इसलिए भी अपने उपर किए गये उत्पीड़न और शोषण को सहती है। वह मजबूर है। किन्तु कलम चलाकर अपने अनेक कृतियों के माध्यम से उत्पीड़न के प्रति उत्पन्न प्रतिरोध को व्यक्त करती हैं।
महिलाओं को हेय दृष्टि से देखने को प्रवृत्त करने तथा महिला एक उपभोग्य वस्तु है इस मानसिकता का विकास करने में हमारे यहॉ के धर्म ग्रंथों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन सभी धर्म ग्रंथों के खिलाप समय-समय पर महिलाओं ने अपना प्रतिरोध अलग-अलग रुप में व्यक्त किया है।
धर्मं ग्रंथो में महिलाओं का जो वर्णन है, वह पितृसत्तात्मक मानसिकता का है यह साफ-साफ दिखता है। खासकर हिन्दू धर्म ग्रंथ के समस्त ग्रंथों में स्त्रियों के प्रति पक्षपाती भूमिका नज़र आती है। जैसे - ‘रामायण' में यह उल्लेख है कि, ‘‘ऋषि अत्रि की पत्नी सती अनसूया ने सीता को पति के संबंध में परामर्श दिया था कि, पति चाहे सच्चरित्र हो या पापी, दयालु हो या क्रूर, धनवान हो या निर्धन, इच्छाओं का दास हो या निष्ठावान पत्नी को उसकी भली-भाँति सेवा अर्चना करनी चाहिए।''(संदर्भ - वही- पृ. 29)
दूसरी और ‘महाभारत' में द्रौपदी के वस्त्रहरण का वर्णन है। इसी ग्रंथ में यह भी उल्लेख मिलता है कि, ‘‘गांधारी को अपनी आँखों पर पट्टी बाँध कर रहना पड़ा था। क्योंकि उसका पति धृतराष्ट्र नेत्रहीन था।'' इसके आगे ‘रामचरित मानस' में तुलसीदास अपनी एक चौपाई में स्त्री के बारे में यह लिखते है कि,
‘‘ढोल गँवार, शूद्र, पशु, नारी।ये सब ताड़न के अधिकारी।''
यह बड़े दुःख और विडम्बना की बात है कि, भारतीय समाज और खासकर महिलाएँ ‘रामचरित मानस' जैसे ग्रंथ को पूज्यनीय ग्रंथ मानकर उसकी पूजा करती है। उसका पाठ करती है। अपने बारे में इस ग्रंथ में क्या लिखा है यह जाने बगैर। या जो जानती है वह खुले तौर पर प्रतिरोध नहीं कर सकती क्योंकि उसके उपर धर्म एवं परिवार का दबाव होता है।
प्रेम का संदेश देनेवाला ईसाई धर्म जिसका पवित्र ग्रंथ है ‘बाइबिल'। स्त्री के बारे में लिखता है, ‘‘मैं तुम्हारे दुःखों को और तुम्हारे गर्भाधान को बहुत बढ़ाऊँगा, दुःख में तुम बच्चों को जन्म देगी, और तुम्हारी इच्छाएँ तुम्हारे पति के लिए होंगी और वह तुम पर राज करेगा।'' (संदर्भ - वही- पृ.30)
उपरोक्त ग्रंथों के कथनों से यह निष्कर्ष निकलता है कि, कोई भी धर्म ग्रंथ स्त्री के स्वतत्र अधिकार, शोषण से मुक्ति की बात नहीं करता। जब की वह जन्मदात्री है। इस संसार का फैलाव उसके द्वारा प्रसव के समय सही गई यातनाओं के कारण संभव हुआ है। किन्तु इस यातनाओं के लिए धर्मं ग्रंथों में कोई सम्मान न होना अपने आप स्त्री-साहित्य या स्त्री विमर्श को जन्म देता है। और यहीं से प्रतिरोध के तेवर तेज हो जाते है।
आजादी के 60 साल बाद भी महिलाओं मे शिक्षा का अभाव दिखता है, उनका संगठन मजबूत नहीं है उनमें एकता की आवाज कमजोर दिखाई देती है। साहित्य, कला, संस्कृति और रोजगार में अपना अस्तित्व सिद्ध करने के लिए वर्तमान समय में भी स्त्रियों को संघर्ष करना पड़ रहा है। स्त्री पुरुषों की तुलना में किसी भी मायने में कम नहीं है, यह राष्ट्रपति और प्रंतप्रधान जैसे देश के महत्त्वपूर्ण पदों पर बहुत अच्छा कार्य करके उन्होंने सिद्ध किया है। इसके बावजूद स्त्री आज भी अपनों से ज्यादा प्रताड़ित है, अन्याय अत्याचार का शिकार हो रही है। अपने ऊपर होने वाले समस्त उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ रही है। अपने हक और अधिकारों को पाने के लिए वह आगे आ रही है। उन्हें हक और अधिकार संविधान ने दिए है। किन्तु पुरुषी मानसिकता के जाल में अटके इन हक और अधिकारों को पृथक करना आवश्यक है यह वह समझ गई है और इसीलिए वह इस मानसिकता के विरोध में खड़ी है। तथा प्रतिरोध कर रही है।
पश्चिमी दुनिया को हम एक प्रगतिशील, वैज्ञानिक सोच वाली दुनिया कहते है, वहाँ भी स्त्री को अधिकारों से कई सदियों तक वंचित रखा गया। उससे गुलामों के तरह श्रम लिया जाता रहा। पश्चिमी देशों के स्त्रियों कों अपने मताधिकार के लिए लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी यह इतिहास है।
पश्चिमी देशों में बड़े पैमाने पर फैला इस्लाम धर्म है। जिसमें नारी के प्रति एक नकारात्मक विचार मिलता है। वह यह की इस्लाम में यह मान्यता है कि, ‘‘नारी नर्क का द्वार है।'' इस्लाम का प्रवित्र ग्रंथ ‘कुरान' इसमें इसकी अनेक व्याख्याए दी हैं। इसी करण इस्लाम में महिलाओं का स्थान सम्मान जनक नहीं है। वर्तमान समय में भी उन्हे बुरका पहनकर घर में भी रहना पडता है और शिक्षा के प्रति परिवार तथा समाज का नकारात्मक रवैया है। बाहर की बात तो अलग।
महिलओं में प्रतिरोध की संस्कृति विकसित होने के अन्य महत्वपूर्ण कारणों में जो कारण प्रमुख है, उनकी यहाँ संक्षिप्त में चर्चा की जा रही हैं। जैसे - आधुनिक और तकनीक के कारण जन्म के पहले ही लिंगनिदान कर उनके साथ भेदभाव प्रारंभ होना, जन्म के बाद अपने भाई की तुलना में सभी सुविधाओं में माता-पिता द्वारा भेदभाव करना, शादी के बाद दहेज के लिए शोषण किया जाना, या लड़का न हो रहा हो तो उसके लिए उसे पति, परिवार और समाज द्वारा दोष देना आदि।
इन तमाम पहलुओं की चर्चा करने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि, आखिर स्त्री क्यों नहीं सोचेंगीं कि पुरुषों, समाज, और धर्मग्रंथों का भेदभाव मेरे प्रति ही क्यों ? क्यों पुरुषों को कही पर भी कटघरे में खड़ा नहीं किया जाता ? घर के सारे के सारे काम मेरे ही जिम्मे क्यों हैं ? मेरी भी पुरुषों जैसे भावनाएँ है उसके बारे में क्यों नहीं सोचा जाता ? पुरुषों को आराम की जरूरत है क्या मुझे नहीं है ? मेरे विचार का कोई महत्व क्यों नहीं ? आदि अनेक प्रश्न उसे प्रतिरोध की संस्कृति को आगे ले जाने के लिए प्रवृत करते हैं। सविधान अगर उन्हे समानता का अधिकार प्रदान करता है तो उसके क्रियान्वयन के लिए माँग करना गलत नहीं है।
स्वतंत्रता के 60 साल बाद भी स्त्री अकेली सुरक्षित नहीं है। उसके संरक्षण हेतु अनेक कानून होने के बावजूद कौन सी ऐसी मजबूरी है जो उसे भय से मुक्ति नहीं देता। वह आज भी निड़र होकर अपना सामान्य व्यावहार तक नहीं कर सकती उसके साथ कुछ अनहोनी घटित होती है। स्त्री अकेली सब कुछ करने के लिए काबिल होने के बावजूद उसे क्यों आज भी ‘‘बचपन में अपने माता-पिता पर निर्भर रहना पडता है, विवाह के बाद अपने पति के और विधवा या वृद्ध हो जाने पर अपने पुत्रों पर''(संदर्भ-वही-पृ.35)इसका निष्कर्ष यह निकलता हैं कि, नारी को हमने आजीवन पराधीन रहने को आज भी विवश किया है और इस पराधीन मानसिकता का बार- बार अहसास कराया है। वर्तमान समय में स्त्री अर्थिक रुप से स्वतंत्र होकर भी पुरुषों जैसा अपने मन से खर्च नहीं कर सकती या राजनीति में वह एक पद धारण करने के बावजूद उसे संचालित करने वाला पुरुष होता है। अनेक महिलाओं का स्थान राजनीति में एक रबडी शिक्के केबराबर है। कुछ अपवादों को छोडकर।
वर्तमान समय में इन तमाम परिस्थितियों के विरोध में स्त्री संघर्ष कर रही है, प्रतिरोध कर रही है। इसी संघर्ष, प्रतिरोध के विरोध में उसके खिलाफ स्वयं का परिवार, समाज, सरकार, और कानून व्यवस्था हावी होती नज़र आ रही है। या उँगली उठा रही है यह दिखाई देता है।
यह भी सत्य है कि, खूद पुरुष अपने से उच्च वर्ग के शोषण को झेलते है। एक राजनैतिक कार्यकर्ता मंत्री का सेवक या शोषित व्यक्ति होता है किन्तु घर में अपने स्त्री पर रोष जमाता है। अपने ही स्त्री को यातना देता है। तो दूसरी और एक स्त्री ही स्त्री का शोषण कर रही है। जैसे- एक सास अपनी बहू को एक नौकरानी समझकर उसपर अपना हुक्म चलाती है जो खुद अपने पति की नौकरानी होती है। या पति का हुक्म झेलने को मजबूर है।
समाज में राजाओं जैसी सामंती मानसिकता आज भी मौजूद है। उसका स्वरुप जरूर बदल गया है। इतिहास में ऐसे अनेक संदर्भ मिलते है कि, ‘‘युद्ध में किसी राजा की पराजय के बाद वहॉ की रानियाँ तथा सभी कुलीन महिलाओं को राज्य के सम्मान के खातिर जौहर करने या स्वयं को अग्नि में समर्पित करने के लिए प्रेरित किया जाता था ताकि शत्रु उन्हें युद्ध में जीती अन्य वस्तुओं के साथ लूट कर न ले जा सकें।''(संदर्भ - वही-पृ.36)
वर्तमान समय में स्त्री को एक उपभोग्य वस्तु के रुप में देखा जा रहा है। पैसों के बल पर उनका शोषण किया जा रहा है। यह इसी का नतीजा है कि, कॉलगर्ल, बार बाला, बड़े-बडे़ होटलों, मसाज केन्द्रों में स्त्रियों को शोषण की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है।
स्त्री पुरुषों द्वारा अपने पर लादे गए सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आदि वर्चस्व से पूर्णतः मुक्त होना चाहती है। वह पुरुषी वर्चस्व के दबाव में नहीं जीना चाहती वह यह सिद्ध करना चाहती हैकि, मैं अपने निर्णय खूद ले सकती हूँ। मुझे किसी के दया और भीख पर नहीं जीना। मुझे स्वाभिमान से जीना है। मेरी भावनाओं की कद्र करने वाले पुरुषों का मैं हमेशा समान करती हूँ। मुझे पढ़-लिख आगे बढ़ने दो।
संदर्भ ः-
1) डॉ. मनोहर अगनानी, कहॉ खो गई बेटीया ...., वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2007
2) भारत सरकार, जनगणना - 2001, महापंजीयक, जनगणना, भारत सरकार, नई दिली, 2001
3) गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन निषेध) अधिनियम, 1994
4½ www.mohfw.in
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शैलेश मरजी कदम
सहायक प्रोफेसर,
म. गा. दूरस्थ शिक्षा केन्द्र,
म.गां.अ.हि.वि., वर्धा
मो. 9423643576
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