मैं कोई वकील नहीं, जज तो कतई नहीं। किन्तु बहस कई बार की है। और हर बार हारा हूँ, क्योंकि बहस में कोई नहीं जीतता। यह कहावत तो है ही, सच भी है...
मैं कोई वकील नहीं, जज तो कतई नहीं। किन्तु बहस कई बार की है। और हर बार हारा हूँ, क्योंकि बहस में कोई नहीं जीतता। यह कहावत तो है ही, सच भी है कि बहस में कभी कोई नहीं जीतता। वकील भी नहीं। और इस बात को वकील भी बखूबी जानते हैं। इसलिए सभी वकील पूरी जिरह के बाद अंत में जज महोदय से कहते हैं- मी लॉर्ड, मैं कोर्ट से दर्ख्वास्त करता हूँ, मैं अपील करता हूँ, मैं रिक्वेस्ट करता हूँ कि..। कोई वकील यह नहीं कहता कि मैं बहस करता हूँ, या मैं जिरह करता हूँ और मैं जिरह के माध्यम से दूसरे वकील को या जज को हराकर यह प्रमाणित करता हूँ....।
जीवन के हर प्रसंग में यही बात प्रमाणित होती है। अगर आपको आजमाना हो तो बहस करके देख लीजिए। और फिर देखिए कि उसका हश्र क्या होता है। बीवी से बहस की तो दो चार दिन का अबोला पक्का है। यदि बात को दिल से लगा बैठे तो समझिए कि खाने-पीने से भी गए। कार्य-स्थल पर भी बहस की चुड़ैल हैरान किए रहेगी। यानी रात की नींद और दिन का चैन हराम न हो गया तो मेरा नाम बदल दीजिए। यही बात मियाँ से बहस के बारे में सच है। बहस के बाद बीवी का भेजा फ्राई हो जाना बिलकुल लाजिमी है। फिर तो न घर में ठीक से खाना बनेगा, न बच्चों से ठीक से बर्ताव होगा। यह भी संभव है कि पत्नी महोदया किसी बच्चे की पिटाई-शिटाई ही कर बैठें। काम वाली से चिख-चिख होगी, दूध वाले से बहस होगी, प्रेस वाले से फालतू में उलझ जाएँगी। यानी एक बहस के चेन रियेक्शन से दूसरी फिर तीसरी और फिर इस प्रकार बहस दर बहस सिलसिला चल निकलेगा।
बहस का कोई अंत नहीं। ये स्वेटर की बुनाई या फिर होजरी के कपड़े के उधड़ने की तरह है। एक बार सिलसिला शूरू हुआ तो बस जब तक पूरी तरह तबाही न मच जाए, तब तक चलता ही चला जाता है। इसलिए घर में मियाँ-बीवी के बीच बहस बिलकुल नहीं होनी चाहिए और यदि कहीं से बहस के बारूद में चिनगारी भड़क ही जाए तो लपक कर उस पर एक दो बाल्टी पानी डाल देना चाहिए। समझदार लोगों का मानना है कि यदि दुर्दैव से मनमुटाव और बहस होने की नौबत आ ही जाए तो बेडरूम में उसे सुलटा लेना चाहिए, यानी बात अगली सुबह तक बिलकुल नहीं पहुँचनी चाहिए। लेकिन ये तो पति-पत्नी की बहस की बात हुई। हर बहस को सुलटाने के लिए बेडरूम तक तो नहीं ले जाया जा सकता। लब्बो-लुआब यह कि बहस को जितनी जल्दी हो सके खत्म करना चाहिए। पति-पत्नी का मामला हो तो बेडरूम में जाने से पहले और बॉस-अधीनस्थ का हो तो लंच पर जाने से पहले और लंचोत्तर बहस हो तो छुट्टी होने से पहले। यदि छुट्टी से पहले बहस का खुशनुमा समापन नहीं हुआ तो यह तय समझिए कि आपकी नाइट गुड नाइट के बजाय बैड नाइट हो जाएगी।
वैसे हमारी मानें तो दफ्तर में बॉस या अधीनस्थ को और एक ही स्तर के सहयोगियों को भी आपस में बहस बिलकुल नहीं करनी चाहिए। बॉस से तो कतई नहीं। सच तो यह है कि हर बॉस को यह खुशफहमी रहती है कि वह अपने अधीनस्थों से बहुत अधिक समझदार और कुशाग्रबुद्धि है। इसलिए उसे यह क्योंकर गवारा होगा कि अधीनस्थ उससे कोई बहस करे और उसमें जीत भी जाए। यदि बचने की लाख कोशिशों के बाद भी बॉस से बहस हो गई हो और अधीनस्थ अपनी बदकिस्मती से बहस जीतने के कगार पर हो तो उसे कोई न कोई जुगत भिड़ाकर बहस हार जानी चाहिए और बॉस से कहना चाहिए कि मुझसे गलती हो गई जो बहस कर बैठा। आप जो कह रहे हैं वही ठीक है। मैं अपनी हार स्वीकार करता हूँ। सच मानें.. इस हार में भी आपकी जीत ही है। बॉस का अहंकार इससे तुष्ट हो जाएगा और आप हमेशा के लिए या जब तक आप दुबारा बहस जीतने की धृष्ट कोशिश नहीं करते तब तक के लिए उसकी कृपा पा जाएंगे। और पूरी दुनिया जानती है कि बॉस की कृपा से संसार का हर सुख मिल सकता है। इसीलिए तो जिन लोगों का इस भौतिक संसार में कोई बॉस नहीं होता उन लोगों ने भी जुगाड़ भिड़ाकर भगवान नाम का एक बॉस ईजाद कर लिया है उसकी कृपा से दुनिया का हर सुख भोग रहे हैं। और जिन्हें ईश्वर-कृपा से बॉस मयस्सर है उनका तो कहना ही क्या!
लाख बचाने की कोशिश के बाद भी कुछ लोग बात-बेबात बहस करने पर ही आमादा हो जाते हैं। उन्हें बिना बहस किए जैसे चैन ही नहीं पड़ता। बाजार में हों या बस में, रेले में हों या मेले में, संसद में हों या विधान सभा में वे बहस करने के लिए जैसे हर समय हाथ धोकर और सत्तू बाँधकर तैयार बैठे रहते हैं। कुछ लोग यह जानते हुए भी कि बहस का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकलेगा, तरह-तरह की बहसें आयोजित करते हैं। टेलीविजन के कई चैनल तो बस इसी गिज़ा के सहारे न केवल जिन्दा हैं बल्कि दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की भी कर रहे हैं। इसलिए टेलीविजन पर बात-बेबात बहस करते हुए लोगों के सीन देखने को मिल जाते हैं। किसी एक मुद्दे पर तीन-चार लोगों से सवाल-जवाब चल रहा हो तो जरा देखिए कि कैसे कोई एक व्यक्ति बोलना शुरू करता है तो बेलगाम घोड़े की तरह सरपट दौड़ता चला जाता है। कोई सुन रहा है या नहीं, किसी के पल्ले कुछ पड़ रहा है या नहीं, यह सब देखना वह जरूरी नहीं समझता। जैसे दीवाली के रात कोई खूब लंबी चटाई में आग छुआ दे और चटाई के हजारों पटाखे पड़-पड़ फूटना शुरू कर दें। बस वही हाल होता है। जब तक चटाई का आखिरी पटाखा फूट नहीं लेता, तब तक शांति नहीं होती है। ऐसी बहस में बोलनेवाले की वक्तृता-क्षमता की असली पहचान होती है। वह अपने अनर्गल प्रलाप से सामने वाले सभी श्रोताओं को आतंकित करके चुप कराने की कोशिश करता है। लेकिन मजा तो तब आता है जब एकाधिक वक्ता यही कोशिश करने लगते हैं। तब ऐसा लगता है जैसे जीवन भर का वैर रखनेवाले दो पड़ोसियों ने एक-दूसरे से होड़ में पटाखों की चटाइयाँ जला डाली हों। ऐसे में बहस का ऐंकर जबरन मुस्कुराता हुआ स्क्रीन पर दर्शकों के सामने आता है और घोषणा करता है कि फिलहाल वक्त हो चला है एक कमर्शियल ब्रेक का, मिलते हैं ब्रेक के बाद। अपने देश की हर राजनीतिक पार्टी में ऐसे बहस विशेषज्ञ हैं। उनका काम है हर बात पर बहस करना। जब मौका आता है पार्टियाँ ऐसे भाई लोगों को आगे कर देती हैं कि जाओ मैदान जीत कर आओ। ये बिलकुल ऐसे ही है जैसे हॉकी या फुटबॉल में पेनल्टी मारना। लेकिन चूंकि राजनेताओं में स्वस्थ खेल-भावना का प्रायः अभाव होता है, इसलिए वे सब के सब एक साथ ही पेनल्टी मारकर फट्टा खड़काने पर आमादा हो जाते हैं। लिहाजा कोई भी गोल नहीं कर पाता और मैच, मैच न रहकर हो-हल्ले में तबदील हो जाता है। बहस का यह बिलकुल स्वाभाविक-सा अंजाम है, जिसका फायदा एक ही पक्ष को मिलता है- कमर्शियल ब्रेक को।
दुर्भाग्य से वास्तविक जीवन में ऐसे कमर्शियल ब्रेक नहीं आते और बहस में उलझ जानेवाले यदि जरा भी नादान हों तो उनके संबंधों के वास्तविक ब्रेक-अप यानी टूटने की ही नौबत आ जाती है। शायद इसीलिए एक दूसरी कहावत प्रचलित है कि जब मूर्ख बोलना शुरू करें तो समझदार आदमी को वहाँ से कल्टी मारकर निकल लेना चाहिए। इसमें दो फायदे हैं। एक तो यह कि आप बहस की विभीषिका से बच निकले और दूसरा यह कि जिसे बहस जीतने का (झूठा) अहसास आपने कराया वह गरीब यह कभी समझ ही नहीं पाएगा कि आपने उसे मूर्ख सिद्ध कर दिया और खुद समझदारी का तमगा जीत लाए। इसीलिए अपनी तो जब भी किसी से बहस की नौबत आती है, बस धीरे से खिसक लेते हैं- लो बच्चू, कुछ कहा भी नहीं और तुम्हीं को उल्लू सिद्ध कर दिया।
किन्तु ऐसा करते समय इतना ध्यान रहे कि सामने वाले को यह आभास कतई न हो कि आप बस हर बात में उसकी हाँ में हाँ मिलाए जा रहे हैं। इससे तो उसके अहं को और भी चोट पहुँचेगी और आपकी ओर से कोई भी चुनौती न मिलने पर उसे लगेगा कि आप फूल्स सेल्डम डिफर, यानी मूर्ख लोगों में कभी मतभेद नहीं होता की कहावत पर अमल कर रहे हैं। इसलिए कभी-कभी अपनी बात कहकर और थोड़ा-बहुत जोड़-जाड़कर आग को जिलाए रहें, ताकि ज्यादातर समय सामनेवाले को ही बोलने का मौका मिलता रहे। फिर देखें कि वह शेख-चिल्ली बनकर कितना खुश होता है और कैसे चने के झाड़ पर चढ़ जाता है! इससे उसके अहं की तुष्टि होगी और बहुत संभव है कि वह आपका मुरीद हो जाए। यदि सामने वाला आपका बॉस ही हुआ तो कहना ही क्या! कहते हैं कि अच्छा वक्ता बनने के लिए पहले अच्छा श्रोता बनना पड़ता है। लेकिन यह दिव्य ज्ञान बहुत कम लोगों को है। इसलिए वे बोलना शुरू करते हैं तो यह नहीं देखते कि सामने वाले पर क्या बीत रही है और वह आगे की बात सुनने के लिए जीवित भी बचा है या नहीं। ऐसे में बस हाँ-हूँ, और नहीं तो क्या, अरे वाह, अच्छा, जी-जी कहकर हुंकारा भरते जाइए। हुंकारा भरना ऐसे ही है जैसे चाभी वाले खिलौने में लगातार चाभी भरते जाना। चाभी भरिए और खिलौने की उछल-कूद, क्याँ-कूँ का आनन्द लीजिए। बहस नहीं। आनन्द की साध है तो बहस करना वर्जित है। बस द्रष्टा भाव से देखिए कि कैसे सामनेवाले मूर्खानन्दजी महाराज आपको परम मूर्ख और स्वयं को सर्वथा समझदार समझकर बोले जा रहे हैं, बोले जा रहे हैं और आपकी ओर से बहस के तनिक भी लक्षण न दिखाई देने पर अपनी विद्वत्ता के सद्यःप्रसूत सनातन बोध से आत्म-मुग्ध हो रहे हैं।
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डॉ. रामवृक्ष सिंह
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