हिंदी का जलवाघर: एक निहायत सस्ता संस्करण हिंदी की चिरकुटइयों का अंत नहीं. कोई लेखक किसी विरोधी मंच पर विचार व्यक्त करता दीख जाए...
हिंदी का जलवाघर: एक निहायत सस्ता संस्करण
हिंदी की चिरकुटइयों का अंत नहीं.
कोई लेखक किसी विरोधी मंच पर विचार व्यक्त करता दीख जाए तो तत्काल बीस
प्रगतिशील कर्णधार हैं, लेखक से जवाबदेही शुरु कर देते हैं, कि महाशय, आप
ऐसे कैसे वहां पहुंच, नहीं, नहीं, जवाब दीजिए? बातचीत
करें, खूब करें, लेकिन इसी हमारे आपस के बीस लोगों के गुट में करें. कोई
दूसरा लेखक, किसी मंच पर जाकर पुरस्कार प्राप्त कर ले तो तत्काल कुछ
दूसरे कर्णधार हैं इस तरह से पुरस्कार-प्राप्ति के खिलाफ़ हस्ताक्षर
अभियान चलाने लगते हैं. अपने को सही और सामनेवाले को ग़लत कहने की तीव्र,
उत्कट, ज़रूरी इच्छा, जताये बिना, उसके विरुद्ध चट बाईस लोगों की गोलबंदी
किये बिना, हिंदी के इन प्रगतिशील साहित्यिकों का खाना हजम नहीं होता.
उनकी आंख में उंगली डालकर कोई उन्हें कोई दिखाये कि यह उनका अपने तरह का
जातिवाद है, तो भी अपनी थेथरई में उनको अपनी संकीर्णता, अपना जातिवादी होना
नहीं दिखता. नहीं दिखेगा. क्योंकि सच्चाई देखना चाहने लगने से ही उनके
साहित्य की हवा निकलना चालू हो जाएगी.
पहली
बात तो यही दिखेगी कि तीन सौ से ज़्यादा प्रकाशकों के शहर दिल्ली में,
छोटे शहरों को तो छोड़ ही दें, क्या वज़ह है कि हिंदी किताबों की तीन
अच्छी दुकानें नहीं हैं. इसलिए नहीं है कि हिंदी किताबें पाठकों को ध्यान
में रखकर छपती ही नहीं. थोक की सरकारी व पुस्तकालयी खरीद में सिफ़ारशी व
दलाली खिलाने के रास्ते कहां, कैसे खपाई जायें की समझ में छपती हैं. और
बौद्धिक, प्रवीण, तीक्ष्ण अनुशीलन की नज़र रखनेवाला इतना नहीं देखता,
समझता तो पता नहीं घंटा फिर क्या साहित्य और समाज समझता है. पचीस-पचीस
सालों से चल रही पत्रिकाएं, इतने अर्से के बावज़ूद दस और बारह हज़ार के
सर्कुलेशन से ऊपर कभी क्यों नहीं जातीं, और एक बनी-बनायी वही लीक उन
पन्नों पर क्यों पिटती चलती है, साहित्य का ‘बेस’ नहीं फैलता, पाठकों के
बूते कोई उसकी स्वायत्त दुनिया नहीं बनती; लोकप्रिय सिर्फ़ सिनेमा रहता
है, प्रगतिशील साहित्य की कहीं कोई जगह नहीं निकलती. मंच पर उर्दू के किसी
औसत शायर को खड़ा कर दिया जाए तो आज भी हिंदी के किसी बड़े कवि की
बनिस्बत उसकी बात ज़्यादा सहजता से दर्शकों तक पहुंचती है, ऐसा कैसे और
क्यों होता है इसे जानने, और समझकर सुधारने की चिंता अपने प्रगतिशील
साहित्यिक को नहीं है. क्योंकि सच पूछें तो- प्रकाशक की ही तरह- उसकी
चिंता के राडार में भी पाठक नहीं है. अंतत: आठ और नौ, बारह, बीस पुरस्कार
हैं, कुछ ख़ास दायरों व मंचों पर ‘पहचान’ लिया जाना और आदर पा लेना है, इन
दायरों से बाहर तो सच्चाई है, सब जानते हैं, कि उनके घर तक के बच्चों को
हैरी पॉटर और चेतन भगत से भले हो, हिंदी साहित्य से मतलब नहीं है!
किसी
भी पिछड़े समाज में, और उस भाषा में, साहित्यिक समृद्धि का पैमाना होता है
कि उसमें वैश्विक ज्ञान-संपदा के अनुवादों की कैसी उपस्थिति है, कहां-कहां
का और क्या–क्या लगातार उसमें जुड़ता चल रहा है. समाज विज्ञानी ज्ञान की
कैसी उपलब्धता है. हिंदी का प्रकाशक बाहरी मुल्क और विदेशी ज़बान की कोई
चीज़ छापता भी है तो यह देखकर और तय करके छापता है कि इसके पीछे संबंधित
दुतावास से इतने और कितने पैसे निकल जाएंगे, इसलिए नहीं कि समाज और पाठकों
के बीच इसकी ज़रुरत बनेगी. सामाजिक व पाठकीय ज़रुरत में नहीं, मुनाफ़े की
अपनी सहूलियत में उसके यहां किसी भी सीरीज़ की लिस्ट तैयार होती है. और यह
एक नहीं, छोटे-बड़े सब प्रकाशनों की कहानी है. इस हमाम में सब एक से हैं,
सब नंगे हैं. किताब के चौथे पृष्ठ पर किताब के मुद्रण की सिलसिलेवार,
व्यवस्थित सूचना (ज्ञानपीठ, व चंद सरकारी प्रकाशनों से अलग) हिंदी का कोई
प्रकाशक नहीं छापता, जो न केवल लेखक को उसकी रचना की छपाई व वितरण की
व्यवस्थित जानकारी के संबंध में अंधेरे में रखना हुआ, पुस्तकों की समाज
में क्या कैसी खपत है की सहज पाठकीय पुस्तक-संबंधी जिज्ञासा की भी सीधी
धांधली है. पचास-पचास लोगों के छै नेटवर्क हैं, छै आलोचक हैं और उसके गिर्द
बने छै प्रकाशकीय नेटवर्क हैं जिसकी पीठ पर हिंदी समाज व हिंदी साहित्य
का दारोमदार है और इन्हीं के मार्फ़त किताबें छपती और खपती हैं. किताब की
दुकानों से तो नहीं ही बिकतीं. दुकानों से बिकती होतीं तो समाज में हिंदी
किताबों की दुकानें दिखती भी होतीं.
समाज
को दीक्षित करने का माथे पर सेहरा बांधे व हस्ताक्षर अभियानों के निपुण
सिपाही किसी दिन मन बांधकर बड़े, चंद स्वनामधन्य प्रकाशकों का फिर घेराव
करते दिखते कि महाशय, सरकारी व पुस्तकालय वाली खरीद रहने दीजिए, पाठकों के
बीच सीधी किताबों की कितनी बिक्री है, तीन या चार कितना जितना भी परसेंट
है उसका हिसाब दीजिए, नहीं, नहीं, उसके बिना आज हम आपके दरवाज़े से
हिलनेवाले नहीं हैं, चलिए, चलिए?
चक्कर
है साहित्य की, भाषा और पाठक और समाज की यह सहज चिंता किसी धड़े, गोलबंदी
की नहीं है. और किन्हीं क्षीण, मद्धिम सूरतों में वह व्यक्त होती भी
हैं तो आपस में कभी घबराये से ज़ाहिर किये विचार की तरह ही होती है,
साहित्यिक सामाजिक मंचों पर उसका वास्तविक क्रियान्वयन कैसे किया जाए की
रणनीति सुझाने व तैयार करने में नहीं होती. गोलबंदियों का स्टेटस-क्वो
बना रहे, मंचीय सक्रियता का एक मजमा चलता दिखे और उसके केंद्र में हम दीखते
रहें, उससे बाहर की कोई चिंता है, न विचार का विस्तार. इसीलिए मुझे यह
निहायत हास्यास्पद लगता है कि ज्ञानपीठ, या अन्य किसी भी प्रकाशक को
निशाना बनाकर कोई शहादत का पोज़ अख्तियार करे. अरे, दुनिया आपको तभी नज़र
आती है जब आपके खुद के पिछाड़े लात लगे? कल तक फलाने और ढिकाने आपके कंधे पर बांह धरे थे तब तक आपको उस दुनिया से शिकायत न थी, सब रंगीन था, आज हाय-हाय होने लगी है, अरे?
ज्ञानपीठ में इस तरह का, और किस तरह का आदमी बैठा हुआ है, और सही है कि
किसी भाषा और साहित्य के लिए यह सम्मानजनक स्थिति नहीं है, मगर आप कृपया
मुझे बतायें किस प्रकाशन में आपको सुशिक्षित, वैश्विक साहित्यिक संस्कारों
में दीक्षित, प्रवीण प्रकाशक दीख गया?
सब कहीं वही अर्द्धशिक्षित, मुनाफ़े की चिंता में गल रहे बनिया बैठे हैं,
जेनुइन साहित्य-रसिक कोई कहीं नहीं बैठा. ज्ञानपीठ कम से कम (मेरी जानकारी
में) पैसे लेकर तो किताबें नहीं छापता, बहुत सारे प्रकाशक हैं मंच पर
सार्वजनिक रुप से चाहे जो कहें, धंधा वह पैसे लेकर किताब छापने का ही कर
रहे हैं. प्रगतिशीलता की आरती घुमा रहे किसी सिपाही ने ऐसे प्रकाशकों की
जाकर कभी गरदन थामी, उनका सामाजिक बॉयकाट किया?
सच्चाई
है ऐसे बॉयकाट के लिए भी पाठकीय-सामाजिक स्पेस होना चाहिए, वह तो है
नहीं, विचार विचार, विचारों की ढेरों अगरबत्तियां हैं, पाठक तो कहीं है
नहीं, इस पूरे संसार में पाठक की कहीं कोई उपस्थिति नहीं है, तो ऐसे में
किसी प्रकाशक की तरफ़ उंगली उठाकर उससे संबंध बिगाड़ने का क्या फ़ायदा.
किताबें ठिल-ठिलाकर किसी तरह छप जायें, छपती रहें, भले कुछ ही महीनों बाद
असाहित्यिक घरों के धूल और गर्द में गुमनाम हुईं जायें, बस चार जगह
कविजी-कहानीकारजी जान लिये जायें, ढाई पुरस्कारों का तमगा और पुरची घर की
दीवार पर मढ़वाकर चिपका लें, उतने में साहित्य को समाज और सार्थकता
प्राप्त हुई जाएगी.
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मूलतः अजदक (http://azdak.blogspot.in/2012/05/blog-post_13.html) में प्रकाशित
क्या बात है...एक दम सच कहा है..१०० फ़ीसदी...आजकल सब दरबारी-राग वाले हैं.... हिन्दी, समाज का सरोकार वाले कहां...
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