इंसानों की संख्या पिछले कई वर्षों से लगातार घट रही है। और अब घटते-घटते बिल्कुल नगण्य हो गयी है। किसी को इस पर ताजुब्ब नहीं होना चाहिए। वैसे...
इंसानों की संख्या पिछले कई वर्षों से लगातार घट रही है। और अब घटते-घटते बिल्कुल नगण्य हो गयी है। किसी को इस पर ताजुब्ब नहीं होना चाहिए। वैसे यह घटना निश्चित ही उद्देलित करने वाली है। लेकिन सच तो यह है कि गिद्धों वाली दशा इंसानों की हो गई है। इसलिए रघुवरदास जी एक दिन इंसान की खोज में निकले। जब लौटकर आये तो इनके प्रिय शिष्य रामदास ने यात्रा के उद्देश्य के बारे में जानने की इच्छा प्रकट किया। रघुवरदासजी और रामदास के बातचीत के कुछ अंश निम्नवत हैं-
रघुवरदासजी के चरणों में प्रणाम करके उनके प्रिय शिष्य रामदास ने पूछा गुरुवर आप कई दिन बाद लौटे हैं। कृपा करके बताइए कि आप की इस यात्रा का क्या उद्देश्य था ? रघुवरदास बोले कि वेटा मैं इंसान की खोज में गया था। रामदास आश्चर्यचकित हो गया। वह सोचने लगा कि इंसान कोई खोजने वाली चीज थोड़े है। खोजा तो उसे जाता है जो दिखाई न पड़े। जो मिल न रहा हो। अथवा जिसकी कमी हो। तमाम लोग यहाँ-वहाँ दिखाई पड़ते हैं। और गुरूजी कहते हैं कि इंसान की खोज में गया था।
रामदास को भौचक्का देख रघुवर दास बोले कि मैं जीवित इंसान यानी मानव खोजने गया था। रामदास का आश्चर्य और बढ़ गया। क्योंकि वह अपनी समझ से रोज हजारों जीवित इंसान देखता था। ऐसे में जीवित इंसान खोजने का क्या मतलब है ?
रघुवरदास जी बोले वेटा ध्यान से सुनों आज पहले मैं तुम्हें मरे हुए इंसान के बारे में बताऊँगा। रामदास के कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि गुरु जी आज कैसी बातें कर रहे हैं। वह सोचने लगा कि मरे हुए इंसान के बारे में गुरु जी क्या बताएँगे ? बहुत कुछ तो मैं पहले से ही जानता हूँ। मरा हुआ इंसान न खाता है, न पीता है, न चलता है और न ही बोलता है। लोग उसे तुरंत घर से बाहर कर देते हैं। और यथा शीघ्र अग्नि के हवाले कर देते हैं। मरे हुए इंसान की यही गति है। हर इंसान की यही अंतिम गति है, चाहे वह जीवन भर अपने को भगवान ही क्यों न मानता रहा हो ?
गुरूजी बोले बेटा बहुत दुःख की बात है कि देश-समाज में दिन-प्रतिदिन मरे हुए इंसान बढ़ रहे हैं। रामदास सोचने लगा कि क्या मृत्युदर जन्मदर से बढ़ गई है। लेकिन ऐसा नहीं है। भारत की जनसंख्या देखकर विश्व के सभी देश नतमस्तक हो जाते हैं। फिर मरे हुए इंसान कैसे बढ़ रहे हैं। गुरूजी की कोई बात जल्दी समझ में नहीं आती है।
रघुवरदास ने कहा कि वेटा मैं तुम्हें ऐसे मरे हुए इंसान के बारे में बताने जा रहा हूँ जो खाता है , पीता है, गाता है, नाचता है, चलता है और बोलता है। आदि। रामदास बोला जो यह सब करता है वह मरा हुआ कैसे हो सकता है।
रघुवरदास बोले वेटा यह तुम्हारा भ्रम है। ऐसे कई लोग हैं जो समझते हैं कि वे जीवित हैं। दूसरे लोग भी उन्हें जीवित इंसान समझते हैं। लेकिन वे या तो ‘जीवत शव सम’ के अंतर्गत आते हैं अथवा ‘ते जानेहु निशचर सम प्रानी’ के। आज के समय में अधिकांश लोग इन्हीं दो श्रेणियों में आते हैं। इंसान तो दुर्लभ हो गए हैं। अब तुम्हारी समझ में आ रहा होगा कि जो तुम सोच अथवा समझ रहे हो वह तुम्हारा भ्रम ही है। रामदास बात को समझने लगा और रघुवरदास के चरण पकड़ लिये। और बोला गुरुवर क्या आपकी भेंट इंसान से हुई। कृपया बताएँ।
रघुवरदास बोले हमें कई लोग ऐसे मिले जिनकी हिंसा में प्रीति है। और वे बहुधा हिंसा में रत रहते हैं। इनके पापों की कोई सीमा नहीं है। ये दूसरे की हत्या करते हैं अथवा कराते हैं। इनमें एक वर्ग ऐसा भी है जो अधिक से अधिक लोगों की हत्या करने के लिए भीड़-भाड़ वाले स्थान का चयन करके अपनी करनी से भय का वातावरण बनाते हैं और अपनी क्रूरता का परिचय देते हैं। ऐसे लोग क्या इंसान हैं ? इनके अंदर का इंसान तो मर चुका है। और सदग्रन्थ मत से ये दूसरी श्रेणी के प्राणी का रूप ले चुके हैं।
एक दिन बड़े सुबह ही हम टहलने निकले। सड़क के किनारे झाड़ी थी। वहाँ से किसी बच्चे की रोने की आवाज आ रही थी। हम वहाँ गए। देखा- एक नवजात कन्या पड़ी थी। सोचने लगा कि किसने इसे जन्म देकर यहाँ फेंक दिया। ऐसा तो राक्षस भी नहीं करते थे। ऐसा तो कोई मरा हुआ इंसान ही कर सकता है। जिसकी सारी भावनाएं मर चुकी हैं। यानी जो ‘शव सम’ है। इंसान कहाँ मिलेगा ?
एक दिन हमने एक नगर में देखा कि एक बूढ़े दम्पती के दो जवान बेटे उन्हें बुरा-भला कह रहे थे। उनमें से एक ने कहा कि निकल जाओ इस घर से। जहाँ जाना हो चले जाओ। हम तुम्हें पड़े-पड़े खिला नहीं पाएंगे। इतने में उनकी माँ बोली हमने तुम्हें जन्म दिया है। पाला पोसा है। भगवान के लिए हम पर ऐसा जुल्म मत करो। इतने में दूसरे बेटे ने उसे धक्का दे दिया और बोला कि सभी लोग सन्तान को जन्म देते हैं। न देना चाहें तो भी हो जाते हैं। पशु भी तो यह काम कर लेते हैं। लेकिन कभी अपनी सन्तान से इसका हिसाब नहीं माँगते। जा चली जा अपने भगवान के पास। कहाँ है तेरा भगवान ? हम वहाँ से तुरंत चल दिए और सोचा कि सदग्रन्थ मत से ‘मानहिं मात-पिता नहि देवा’ को चरितार्थ करने वाले ये भी ‘निशचर सम’ की श्रेणी में आयेंगे। इंसान कहाँ चला गया ?
आगे हमें कई लोग मिले जिसमें से किसी का रूपये से भरा हुआ थैला कोई ले उड़ा था। किसी के घर और जमीन पर कोई काबिज हो गया था तो किसी से रकम लेकर कोई मुकर गया था। किसी के घर से कोई सारा सामान चोरी करके ले गया था। हम और आगे बढ़े। कुछ दूरी पर एक युवती बेहोश मिली। हमने उसके ऊपर पानी छिड़का तो होश आने पर उसने आप बीती बताई। कुछ लोग उसके साथ व्यभिचार करके उसे यहाँ फेंक गए थे। वह बोली आज हम लोगों का बाहर निकलना मुश्किल होता जा रहा है। हमने सोचा ‘जे लंपट परधन परदारा’ वाले लोग सदग्रन्थ मत से ‘निशचर सम’ के ही श्रेणी में आते हैं। तो फिर इंसान कहाँ है ?
इस प्रकार हमने बहुत से दृश्य देखे। मुझे लगा हर तरफ त्राहि-त्राहि मची है। झूठ, छल, ठगी, धोखेबाजी, मक्कारी, गद्दारी, स्वार्थ आदि छाए हुए दिखे। तपसी धनवंत, लालची बैद्य, अज्ञानी गुरु और क्रूर व भ्रष्टाचारी शासक दिखे। आचार-बिचार और संस्कार कहीं न दिखे। क्योंकि इंसान तो मर चुका है। जो दिखते हैं उनमें से अधिकांश उपरोक्त दो श्रेणियों वाले लोग ही हैं।
हम थके-हारे दुखी और निराश होकर पत्थर की एक शिला पर बैठ गए। और बिचार करने लगे कि लोग समझते नहीं हैं लेकिन धरती इंसानों से लगभग खाली हो गई है। यही सब सोचते-सोचते हम जोर से चिल्ला पड़े कि दुनिया वालों मानो या न मानो धरती पर अब मानव या तो नहीं हैं अथवा बहुत कम हैं।
हमारा मन बहुत खिन्न हो चुका था। हमने लौटना उचित समझा। हमने वह मार्ग छोड़ दिया। दूसरे मार्ग में हमें एक सभा दिखी। मंच से एक आदमी भाषण दे रहा था। हम भी वहाँ रुककर उसकी बात सुनने लगे। वह जो कह रहा है, वैसा करेगा नहीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था। उसके भाषण में वाकपटुता तो थी। लेकिन कुटिलता उसमें कूट-कूट कर भरी थी। वह कहता था कि मैं सबके बारे में सोचता हूँ। लेकिन वह सिर्फ अपने बारे में ही सोचने वाला था। वह कहता था कि मैं सबके लिए काम करूँगा। परन्तु अपने आलावा दूसरे के लिए कुछ करने की उसे फुर्सत ही नहीं थी।
उसका पेट इतना बड़ा था, जो कभी भर ही नहीं सकता था। इसके बावजूद दिनों दिन उसका पेट बढ़ रहा था। उसी की तरह उसके कई संगी साथी थे। ऐसे में वह दूसरे के लिए क्या और कैसे कर सकता था ?
उसके कई साथी ऐसे थे जिनकी जगह जेल में होनी चाहिए थी। लेकिन पुलिस उन्हें सलाम ठोक रही थी। उनकी कृपा की पात्र बनी हुई थी। उनका कहना था कि हमारी कृपा तभी मिलेगी जब हमारे जैसे ही बनोगे। उनमें से कई ऐसे थे जिनकी कुल संपत्ति पिछले पाँच बर्ष में कई करोड़ बढ़ गई थी। गणना करने पर उनकी सम्पत्ति चार से पाँच करोड़ प्रति वर्ष के हिसाब से बढ़ी दिखती थी। हमारे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। हम वहाँ से भी चल दिए। हमारी खोज अधूरी रह गई।
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डॉ. एस. के. पाण्डेय,
समशापुर (उ.प्र.)।
ब्लॉग: श्रीराम प्रभु कृपा: मानो या न मानो
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