संजय आज भी देख रहा है․․․सुन रहा है․․․महसूस कर रहा है․․․और अंधे धृतराष्ट्र की दृष्टि बन कर उसे सबकुछ बता भी रहा है․․․लेकिन आज भी उसकी मजबू...
संजय आज भी देख रहा है․․․सुन रहा है․․․महसूस कर रहा है․․․और अंधे धृतराष्ट्र की दृष्टि बन कर उसे सबकुछ बता भी रहा है․․․लेकिन आज भी उसकी मजबूरी वही है․․․वह सही और गलत का फर्क भी कर रहा है,लकिन वो अपने आप को सर्व समर्थ होने का ख्वाब आज भी पाले हुए है,आखिर वो महाराज धृतराष्ट्र का सारथी जो है, उस काल में भी उसके पास जो सामर्थ्य था और वह जिस स्थिति पर था, उसके लिये कुछ भी अगम्य नहीं था। आज भी कमोबेश यही स्थिति उसकी है․․․ वो जानता भी है कि समर में कौन क्या कर रहा है,कहां गलत हो रहा है․․कहां बालक अभिमन्यु के लिये कुचक्र का चक्रव्यूह रचा जा रहा है․․․कहां और किस तरह इस अर्जुन पुत्र का वध कितने और कौन-कौन से योद्धा कर रहे हैं, लेकिन वो चुप भी नहीं रह सकता और इस सारे समर के जनक या यूं कहें कि प्रायोजक धृतराष्ट्र को हाल बतानें को मजबूर भी है और असहाय भी है क्यों कि वो हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
पौराणिक काल की दो जमातें आज भी इस धरा पर अपना अस्तित्व बता रही है। नारद और संजय के वंशज, आज भी अपने अपने कर्मां में व्यस्त है। उन्हें मान-सम्मान भी पूरा मिलता है। कौरवों से भी और पांडवों से भी। देवों से भी और दानवों से भी। उनके लिये योजनाएं भी बनती है और उन्हें उनका हिस्सा भी मिलता है। जब भी आम जन के द्वारा कोई यज्ञ किया जाता है तो इस नारद के अंश का भी एक भाग अवश्य होता है, इन्हें भी सम्मान के साथ आह्नान किया जाता है। वहीं संजय जो कि राजा के संग प्रतिपल रहता है, राजा की देख रेख में रहता है और राजकीय सम्मान के साथ-साथ जनता का भी अभिवादन पाता है और अपने प्रिय जनों और मित्रों के हित भी साध रहा है, लेकिन जब समर होता है तो वो असहाय भी इतना है कि देख और सुन के राजा को बताता भी है कि कहां गलत हो रहा है और आपको कहां और क्यूं हस्तक्षेप करना चाहिये, मगर राजा की इच्छा अनिच्छा पर निर्भर रह कर उससे कोई दुश्मनी भी मोल लेने की सामर्थ्य नहीं है या यूं कहें कि उस वक्त भी वो राजा की इच्छा के विरूद्ध जा सकता था, मगर उससे जाया नहीं गया और आज भी उसके हाथ स्वतंत्र होने के बावजूद बंधे हैं और वो एक बार फिर से असहाय है।
नारद और संजय दोनों देख रहे हैं, उनके पास छवियां हैं और सीडियां भी है। लोग उनके पास आ कर अपने कृत्य और कुकृत्य दोनों बताते हैं। नारद के पास देव और दानवों, दोनों लोकों में जाने की शक्तियां हैं और वों अपनी क्षमता के कारण देवों और दानवों दोनों में उनके जैसा बन कर जाता है और दोनों की ही जायज और नाजायज बातें अपने पास संग्रहित कर लेता है और बाद में दोनों में से जिसे चाहे, जब चाहे, जिस लोक में चाहे अपनी चतुरता का प्रमाण पेश कर दोनों ही दलों का प्रियजन या हितैषी बन जाता है और अपने निजी काम आसानी से करवा लेता है। लेकिन आम दिनों में होने वाले ये कार्य उन दिनों बड़े जटिल हो जाते है जब इनमें परस्पर संघर्ष की स्थिति आती है। यहां वो दोनों पक्षों के लिये डबल क्रास का भी काम करने लगता है, लेकिन उसकी मूल भावनाएं देवताओं के साथ होती है क्योंकि वो देवों के साथ अमृत पान कर चुका होता है तो वो अपने सूत्रों से दानवों के खिलाफ भी चला जाता है मगर दानवों को भी यह अहसास नहीं होने देता कि वो उनसे अलग हो रहा है। मगर उसकी समस्या है कि देवों के तरफ से चली जाने वाली कुचक्रपूर्ण राजनीति को वो असहाय हो कर देख मात्र सकता है। उसकें द्वारा देवों को प्रदान किये गये सूत्र भी दानवों के खिलाफ रचे जाने वाले षड़यंत्रों में शामिल हो जाते है,मगर वो उन्हे रोकने की हिमाकत नहीं कर सकता।
संजय और नारद, दोनों जानते है कि देवों में भी दानवों के मन है और दानवों में भी देवताओं सरीखी सज्जनता पाई जाती है। हो भी क्यों नहीं, दोनों पक्षों में जो कॉमन है वो है- नारद। और कौरवों और पांडवों, दोनों के स्नेह और आदर के पात्र जो है उनमें से संजय का नाम प्रमुखता से आता है। इसका कारण भी है कि कौरवों के मुखिया के सर्वाधिक नजदीक और हितचिंतकों में सबसे पहला नाम संजय का ही है। पांडवों में भी इसका नाम इस लिये आदर से लिया जाता है कि वो विदुर के बाद सबसे ज्यादा ज्ञानी और नितिज्ञ है। उसने पांडवों को बचपन से अपना सानिध्य भी दिया था और दुर्योधन के कई कुचक्रों से उनकी रक्षा भी की थी और करवाई भी थी। वो आज भी पांडवों का हितचिंतक है,मगर धृतराष्ट्र के सानिध्य में बैठा यह संजय अब सिर्फ उसे सारे युद्ध से अवगत ही करवा सकता है और उसकी मजबूरी है कि वो ना तो युद्ध में भाग ले सकता है और न ही इस निर्णायक युद्ध में हस्तक्षेप कर सकता है। यद्यपि वो भली भांति जानता भी है कि इस युद्ध की परिणिती क्या होगी और यह भी जानता है कि कृष्ण की नीतियां, मामा शकुनि के कुचक्रों पर भारी पड़ेगी। उसे खुशी भी है कि न्याय संगत पक्ष की विजय प्रबल है,मगर वो वयोवृद्ध भीष्म को शर सैया पर गिरा देखता है, युधिष्ठिर को षड़यंत्रपूर्वक झूंठ बुलवाना भी देख रहा है और इस झूंठ की परिणिती में गुरू द्रो्रण का पतन भी देख रहा है। वो चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु के चेहरे मे बहता पसीना और उसकी अकेले पड़ जाने की अकुलाहट भी देख रहा है। उस अल्पवय बालक का दुर्दान्त वीरों द्वारा अन्याय पूर्ण वध भी देख रहा है और बाद में अर्जुन द्वारा जयद्रथ के वध को भी देखता है। शिखड़ी की आड़ ले कर भीष्म का वध भी देख रहा है। घटोत्कच्छ का शौर्य भी देखा और अर्जुन के वध के लिये कर्ण के द्वारा इंद्र से प्राप्त इंद्रास्त के द्वारा घटोत्कच्छ को मारा जाना देख खुश भी होता है कि अर्जुन अब अवध्य है। बर्बरीक के शिरोच्छेदन और वो भी सुदर्शन चक्र द्वारा देखता है,मगर खुश हो सकता है,हस्तक्षेप नहीं कर सकता। दुःखी हो सकता है मगर रो भी नहीं सकता और अंत में सर्वविनाश देखने को भी मजबूर है।
आज के वक्त में भी वो यही सब देख रहा है। द्रोपदी का वस्त्र हरण भी देख रहा है। आधुनिक स्त्री द्वारा अपना स्वयं की इच्छा से वस्त्रहरण करवाना और वो भी रोज रोज। और न जाने कितने लोलुप दुःशासनों और दुर्योधनों को आमंत्रित करके। कितने राजाओं द्वारा अपनी ही जनता का खून चूसना भी देख रहा है। कितने मदमस्तों द्वारा चलती कारों में अबलाओं और बालिकाओं को जबरन घसीटे जाने को भी देख रहा है। मयखानों में गरीबी और भूख से त्रस्त उन अबलाओं को बिकते देख रहा है और उनके पिताओं की उम्र के अधेड़ों को भी देख रहा है जो उनकी अस्मत से खेल रहे हैं। पंचतारा होटलों में और सरकारी मेहमान खानों में आज के राजाओं को कभी किसी को नौकरी तो कभी किसी को ट्रांसफर के लिये तो कभी किसी को राजनैतिक नियुक्ति के लिये आश्वासन देते हुए उनके साथ वासना का खेल करते हुए भी देख रहा है। मगर वो है कि अंधे धृतराष्ट्र के मुख की मुस्कान और उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें भी देख रहा है और अपना बोलना जारी रखता है- देखिये! हमारे समाज के हैवानों को․․․․․ मगर हस्तक्षेप करने में असमर्थ है और वो भी इस लिये कि उसी का अन्नदाता भी वहीं पास ही में किसी कमरे में अपनी बेटी या पोती की वय की बालिकाओं को नौकरी या प्रमोशन का झांसा दे कर उसकी अस्मत का सैादा कर रहा हैं। आखिर यह संजय की नियति ही है कि वो देख रहा था,बता रहा था․․उस वक्त भी,आज भी और भविष्य में भी․․․․․मगर हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा था न कर सक रहा है और न कर सकेगा․․․उसे तो देखना है․․देखते रहना है और देखे जाना है यही नारद कर रहा है और यही संजय भी․․․दोनों ही अवध्य है,दोनों ही अजर और अमर है․․․दोनों ही एक दूसरे के पूरक भी है और आलोचक भी है․․मगर दोनों को रहना इन्हीं दोनों वर्गों में है और अनंतकाल तक का सफर तय करना है․․․․․․
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संक्षिप्त परिचय;
नाम-मधुप वशिस्थ
स्थाई पता-गोस्वामी चौक,बीकानेर
वर्तमान-४/१४७,लक्ष्मी अपार्टमेन्ट,चित्रकूट,जयपुर
व्यवसाय- सम्पादक-अथ: रक्षाम मासिक समाचार पत्रिका,जयपुर
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