अभी कुछ दिनों पहले हम बड़े सकते में आ गये थे। जब हमें कई दिनों डाकखाने जाकर भी अपना ही मुँह लेकर निराश लौटना पड़ा। मुँह लटकाकर लौटने के अला...
अभी कुछ दिनों पहले हम बड़े सकते में आ गये थे। जब हमें कई दिनों डाकखाने जाकर भी अपना ही मुँह लेकर निराश लौटना पड़ा। मुँह लटकाकर लौटने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं। दूसरे का मुँह लटका देने की ताकत हम में है ही कहाँ। न जाने क्या हो गया डाक को। खूब डाक आया करती थी हमारी। एकाएक डाक आना ही बन्द हो गयी। मुहल्ले में हमारी प्रतिष्ठा पर भारी आँच सी आने लगी हो जैसे। डाकिया आता और बिना रूके चला जाता। उसके आने पर हम रोज ना कुछ न कुछ कह सुनकर मुहल्ले वालों पर रूआब मार ही दिया करते थे। वैसे उसका रोजाना आना जारी था। लेकिन चुपचाप किनारा सा करके चले जाना बेहद अखरने लगा।
जिस दिन डाकिया नहीं आता। ऐसा लगता जैसे आज सवेरा होने में कहीं कसर रह गयी हो। वैसे रोजाना कहीं से किसी कहानी की स्वीकृति, कभी किसी लेख का पारिश्रमिक या कभी कभार संपादक के अभिवादन के साथ लौटी रचनाएँ। कुछ न कुछ जरूर आता। कभी कभी आकाशवाणी से कहानी का काँन्टेक्ट पा जाते तो तबियत निहाल हो जाती।
लेकिन, इधर कुछ दिनों से मेरी डाक पर अकाल सा पड़ गया है। कहीं से कोई चिट्ठी नहीं। कोई स्वीकृति नहीं। कोई नमूने की पत्रिका तक डाक में नहीं आ रही। लगता है डाकखानों वालों ने मेरे खिलाफ कोई अभियान छेड़ दिया है। ”डाक पचाओ अभियान“ जैसा। या फिर डाकखाने वाले भी हमारे स्थानीय अधकचरे कवि मित्रों की तरह, हमारी सफलता से चिढ़ने लगे हैं। खैर कुछ भी हो। घपला जरूर है, हमारी समझ में आ चुका था। आज हम स्वयं डाकखाने पहुँच गये। लेकिन डाकिये ने फिर हरी झंडी दे दी। ”डाक गड़बड़ी अनुसंधान“ के शोधार्थी की तरह हम पोस्ट मास्टर से मिले। तो वे गर्म हो पड़े।....”हाँ साहब! आप लेखकों को तो हर जगह गड़वड़ियाँ ही नजर आती हैं। एक यही विभाग बचा था, सो उस पर भी वैनर न्यूज देना शुरू कर दिया अखबारों ने।“
हमने उनका पारा गर्म होते देखा तो ठंडक पहुँचाने की गर्ज से पूछा- ...”खैर छोड़िये इन बातों को। आपको बीबी बच्चों की कुशलता का समाचार तो समय से मिल रहा है न ? या उसमें भी गड़बड़ है“ बेचारे अकेले रहते थे। हमारी आत्मीयता पर मुस्कराये।
.....”हाँ, हाँ क्यों नहीं। सुबह शाम फोन पर बात हो ही जाती है। डाक के न आने से काम भी कम रहता है आजकल। और फिर बैठे बैठे करें भी क्या। बच्चों से फोन पर ही दिल बहला लेते हैं।“
डाक के प्रति उनकी निश्चन्तता हमारे सामने टपक आयी। ठीक भी है। जब सरकारी जीप में बैठकर बड़े अधिकारी सिनेमा, होटल, क्लब जा सकते हैं। तो भला डाकखाने वाले टेलीफोन पर बात ही न करें। यह कैसे संभव है। पोस्ट आँफिस में बैठकर मेरी निगाहें इधर उधर सर्च करने में जुट गयीं। खस की टटियों की अच्छी ठंडक थी। काउन्टर पर क्लर्क हमेशा बदलते रहते। अबकी बार एक काउन्टर पर लड़की को काम करते देखा। तो पुतलियां टिक गयीं। दिमागी पुर्जे खड़खड़ाने लगे। चलो अब औरतों को पुलिस विभाग की तरह यहाँ भी महिला कर्मचारियों की सेवाएँ तो मिलेंगीं।
डाक गड़बड़ी का जब कोई सुराग नहीं मिला तो हम उठ खड़े हुये। पोस्ट मास्टर ने फिर बिठा लिया। मुस्कराकर बोले -”डाक व्यवस्था तो आज की समाज व्यवस्था की वजह से बिगड़ गयी है। अब देखिये न! एक ही तारीख में थोक में शादियाँ होती है। हमें भी दस्तूर निभाना होता है। जाना ही पड़ता है। अब ऐसे में यदि डाक लेट हो जाये या न छट पाएँ तो इसमें हमारा क्या कसूर? सरकार को ही ऐसे कदम उठाने चाहिये जिससे थोक में होने वाली शादियों पर पाबन्दी लग सके। हम किसी के यहाँ नहीं जायेंगें तो हमारे यहाँ कौन आयेगा ? डाक तो लेट भी हो सकती है। आज का काम कल भी हो सकता है। लेकिन शादी का महूर्त्त तो नहीं टाला जा सकता न।“
वे विभाग की अपनी सफाई देते रहे। पोस्ट आँफिस से बाहर निकलने पर उनकी दिलाई बैनर न्यूज की याद फिर आ गयी। हमने पुराने अखबार खेजने की ठानी। ग्रंन्थालय में देखा। आश्चर्य होना स्वाभाविक था। एक पुराने अखबार में सचित्र विवरण छपा था। जिसमें डाक की गड़बड़ी पर अच्छा खासा समावार था। साथ में छपे चित्र में एक गाय डाक का थैला सूँघ रही थी। कई लाख पत्र दिखाई दे रहे थे। लगा जैसे हमारी सारी रचनाएँ गाय द्वारा सूँघे जा रहे डाक के थैले में बन्द हों। संपादक के सूँघे बिना ही ठिकाने लगने जा रही थी। कुछ भी करने को लाचार हम उस समय सोच रहे थे। डाक गड़बड़ी कैसे मिटे? चपला कैसे दूर हो ? शोध की धुन तो सवार थी ही। हमने कुछ नये तथ्य प्रकाश में लाने चाहे। एक अखबार में संपादक के नाम पत्र लिखा। कई पाठकों ने अपने अनुभव भेजे। मसलन डाकखाने वाले पत्रिकाएँ पार कर देते हैं। गाँव वालों के मनी आँर्डर पोस्टमैन जाली हस्ताक्षर कर जेब में डाल लेता है। पता चलने पर धीरे धीरे किश्तों में भुगतान करने लगता है। कई छोटे मोटे गाँव के डाकखाने की गिरफ्त में फँसे पाठकों ने लिखा कि लिफाफों पर से टिकट उखाड़ लिये जाते हैं। और वापिस लौटने वैरंग चिट्ठियाँ दूने दाम देकर हमें ही छुड़ाना पड़ती है। लेकिन यह सामग्री हमारे लिये ज्यादा उपयोगी न हो सकी। सवाल डाक
हम तक न पहुँचने का था। सभी पाठक मूल बिषय से भटककर रह गये। हमें शोधार्थी की जगह संचार मंत्री समझ बैठे। लिख भेजा शिकायतों का लम्बा चौड़ा पुलन्दा। हमारा मुद्दा तो डाक के आने जाने की गडवड़ियों पर प्रकाश डालना था।
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फिर कोई उपाय न दिखा तो अंत में यह निर्णय किया कि स्थानीय डाकखाने से ही डाक की गडबड़ी के बारे में जानकारी प्राप्त कर शोध को अंतिम रूप दिया जाये। भरी दोपहरी में डाकखाने में पहुँच गये। आज पोस्ट मास्टर साहब व्यस्त थे। मैंने इधर उधर देखा। लोगों की महीनों पुरानी डाक आना शुरू हो गयी थी। लोगों ने उत्तर देने के लिये और डाक तार विभाग की आर्थिक स्थिति को बरकरार रखने के लिये फिर से थोक में डाक सामग्री खरीदना शुरू कर दी थी। सभी कर्मचारी व्यस्त थे। हम पोस्ट मास्टर से जानकारी लेने की भूमिका बाँधने लगे। तभी बगल वाले काउन्टर से महीन आवाज सुनाई दी।
.....हाथ तो दो ही हैं। जरा रूक नहीं सकती क्या ? हाल ही में इस डाकखाने से आई क्लर्क लड़की काउन्टर पर खड़ी किसी महिला से कह रही थी। महिला शायद काफी देर से खड़ी थी। वह भी खीझ गयी। ....”अरे डाकखाने वारी बिन्नू (बहिन) ! तुम तो इतने धीरे धीरे हाथ चला रही हो इस उम्र में। अभी से जल्दी जल्दी हाथ चलाने की आदत डालोगी तो पूरा परेगी।“
....”चुपचाप खड़ी रहो। जल्दी जल्दी कुछ नहीं होता।“
....”रसीद तो काट ही दी। शील का ठप्पा ही तो लगना है। जरा जल्दी से लगा दो।“ महिला फिर तुनकी।
....”तुम्हारी जल्दी के चक्कर में क्या अपनी चूड़ियाँ तोड़ लूँ।“ कहते हुये सचमुच ही लड़की ने खीझकर रजिस्ट्री की रसीद पर ठप्पा लगाया कि उसकी एक चूड़ी टूट गयी। ताव में रसीद महिला को दे दी। महिला ने रसीद हाथ में लेते हुये फिर सीख दी ।....”चूड़ियाँ फूटने को डरती हो तो घर में बैठो। डाक का काम जल्दी का होता है जल्दी का। मर्दों जैसा। तभी तो डाक धीरे धीरे पहुँचती है देर से।“
डाक क्यों देर से आ रही है ? मेरी समझ में कुछ आना शुरू हो गया था। स्पष्ठ था डाक अब पहले जैसी जल्दी क्यों नहीं आती जाती। गड़वड़ियाँ क्यों चल रहीं हैं ? और मैं बिना कुछ कहे सुने ही वहाँ से वापिस चल दिया। अपने शोध को अन्तिम रूप देने के लिये।
जैसे ही हमने अपने कमरे का दरवाजा खोला। दंग रह गये। ढेर सारी चिट्ठियों का अंबार लगा था। कुछ समझ में नहीं आया। श्रीमती जी ने बतलाया पड़ौसी का लड़का बबलू ये चिट्ठियाँ दे गया है। कोई नया पोस्टमैन बीच में आया करता था। वह तमाम चिटि्ठियाँ उसे दे जाता था। अब तक वे इनसे डाकिये का खेल खेलते रहे। अब उनका खेल बन्द हो गया है। इसलिये चिटि्ठियाँ दे गये। हमने माथा ठोक लिया। महीने पुरानी चिटि्ठियाँ छाँटने बैठ गये। समझ में नहीं आ रहा था। किससे क्या कहें ? बेचारी डाकखाने वारी बिन्नू कहाँ दोषी थी। खामखां हम उसके खिलाफ लिखने पर आमादा हो रहे थे। अब नए सिरे से फिर शोध करना होगा। ये गड़वाड़ियाँ कब तक चलेगी। हमारे सामने चिटि्ठियाँ तड़प रहीं थी। हम उन्हें सीने से लगाने के लिये झुक गये।
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बीरेन्द्र कुमार कुढ़रा
3/14 रिछरा फाटक दतिया म.प्र.
पिन. 475661
vkudhra3@gmail.com
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जवाब देंहटाएंis rachna ko padkar laga ki purane lamhe v kitne suhane rhe honge
जवाब देंहटाएंrealy nice
जवाब देंहटाएंkya baat hai,, Maza aa gya..
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