मयंका सिंह का आलेख - अभिभावक बनना सीखिए

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  मयंका सिंह (शोधार्थी) वनस्‍थली विद्यापीठ,टोंक (राजस्‍थान) व्‍यक्‍ति जिस क्षेत्र में जाना चाहता है उसे उस क्षेत्र से सम्‍बन्‍धित ज्ञान एवं...

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मयंका सिंह (शोधार्थी)

वनस्‍थली विद्यापीठ,टोंक (राजस्‍थान)

व्‍यक्‍ति जिस क्षेत्र में जाना चाहता है उसे उस क्षेत्र से सम्‍बन्‍धित ज्ञान एवं कौशलों को प्राप्‍त करना आवश्‍यक है। कोई व्‍यक्‍ति डॉक्‍टर, इंजीनियर या प्रबंधक यूँ ही नहीं बन जाता है। इन व्‍यवसायों में जाने के लिए उसे इनसे सम्‍बन्‍धित विषयों का गहन अध्ययन करना पड़ता है और साथ ही साथ सम्‍बन्‍धित कौशलों में दक्ष भी होना पड़ता है। उदाहरणार्थ- प्रबन्‍धक जैसे प्रतिष्‍ठित पद को प्राप्‍त करने के पूर्व वह व्‍यक्‍ति विभिन्‍न विषयों, जैसे- अर्थशास्‍त्र, सांख्‍यिकी, श्रम-विधि, संगठनात्‍मक व्‍यवहार, संस्‍था-प्रबन्‍धन आदि का अध्‍ययन करता है। इन विषयों का ज्ञान प्राप्‍त करने के पश्‍चात ही इस पद को प्राप्‍त किया जा सकता है।

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ऐसा नहीं है कि चिकित्‍सा, इंजीनियरिंग, प्रबंधन, आदि जैसे जटिल व्‍यवसायों के लिए ही पूर्व तैयारी आवश्‍यक है। अपितु बढईगिरि और टंकण जैसे व्‍यवसायों हेतु भी पूर्व तैयारी आवश्‍यक है। क्‍योंकि टंकणकर्ता को भी क्रमबद्ध रूप से टंकण की तकनीकी को सीखने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है।

जिस प्रकार किसी व्‍यवसाय में प्रवेश से पूर्व उससे सम्‍बन्‍धित तैयारी आवश्‍यक है। उसी प्रकार जिम्‍मेदार अभिभावक बनने हेतु भी पूर्व तैयारी अनिवार्य है। यह बात थोडी अजीब लग सकती हैं पर अगर निम्‍नलिखित बातों पर विचार करें तो पायेंगे कि वास्‍तव में ऐसा नहीं है।

अभिभावकता का तात्पर्य बच्‍चों की देखभाल से है। समाज का प्रत्‍येक सदस्‍य चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, जीवन की किसी न किसी अवस्‍था में अपनी क्षमतानुसार बच्‍चों के प्रति अपने दायित्‍व का निर्वाह करता हैं। प्रारम्‍भ में यह भूमिका बड़े भाई, बड़ी बहन के रूप में हो सकती है। या विद्यालय में किसी रूप में । वयस्‍क होने पर व्‍यक्‍ति जैविकीय अभिभावक (माता-पिता) बनकर अपने बच्‍चों के पालन-पोषण और उन्‍हें विकसित करने की जिम्‍मेदारी निभाते हैं तो जीवन के उत्‍तरार्द्ध में यह भूमिका दादा-दादी, नाना-नानी के रूप में हो जाती है। संक्षेप में कहा जा सकता हैं कि

अभिभावकता जीवन पर्यन्‍त चलने वाली प्रक्रिया है।

माता-पिता बनने के लिए परिपक्‍व शरीर का होना अनिवार्य है, माता-पिता बनने का कार्य आकस्मिक सा सचेतन क्रिया हो सकती है और इसके लिए युगल की शारीरिक परिपक्‍वता आवश्‍यक हैं न कि मस्‍तिष्‍क की। लेकिन बच्‍चे की सही देखभाल के लिए अभिभावक में उत्‍तरदायित्‍व का भाव विकसित करना ऐसा कार्य है जिसे चेतन रूप में ही सीखा जा सकता है। इन्‍हीं कारणों से अभिभावक बनने के लिए भी पूर्व तैयारी आवश्‍यक है।

अभिभावकता का प्रारम्भ

अभिभावकता के सम्‍प्रत्‍यय के सन्‍दर्भ में दूसरा विचारणीय बिन्‍दु अभिभावकता के प्रारम्‍भ से सम्‍बन्‍धित है। अभिभावकता गर्भावस्‍था में देखभाल से नहीं बल्‍कि उससे भी पहले प्रारम्‍भ होती है। इसका प्रारम्‍भ उसी समय हो जाता है जब युगल संतानोत्‍पत्ति का निर्णय लेता है। यह बात उनके उपर लागू नहीं होती जिन्‍होंने आकस्‍मिक या बिना किसी तैयारी के गर्भ-धारण किया हो। अभिभावकता में प्रजनन और बच्‍चों की देखरेख शामिल है। छोटे बच्‍चे भी गुडिया के साथ खेलते हुए उसकी देखभाल में अपने माता-पिता की नकल करते हैं और अपनी अभिभावकता व्‍यक्‍त करते हैं। बच्‍चे का जन्‍म और अभिभावक बनना अधिकांश समाजों में शुभ कार्य माना जाता है। इस दृष्‍टि से अभिभावक बनना एक सामाजिक कार्य है।

अभिभावकता एक सामाजिक दायित्‍व के रूप में

युगल जब माता पिता बनते हैं तो समाज में उनका स्‍थान परिवर्तित हो जाता है। मात्र दूसरे ही उन्‍हें अलग दृष्‍टि से नहीं देखते वरन्‌ वे स्‍वयं को भी अलग रूप में देखने लगते हैं और उनका व्‍यवहार भी बदल जाता है। ब्रीम (1959) के अनुसार अभिभावक का समाज में विशेष स्‍थान होता है और इस के साथ विशेष भूमिका जुड़ी है जिसका निर्वाह बच्‍चों के प्रति करना पड़ता है। इस भूमिका को प्रभावि ढंग से निभाने हेतु आवश्‍यक है कि अभिभावक उस समाज में स्‍वीकृत मूल्‍यों परम्‍पराओं को सीखें।

अभिभावकों की श्रेणियाँ

अभिभावकों को तीन श्रेणियों में रखा गया है।

1․भाग्‍यवादी या प्रकृतिवादी-इसके अन्‍तर्गत उन लोगों को रखा जा सकता हैं जो भाग्‍य या प्रकृति पर विश्‍वास करते हैं। इनका मानना हैं कि बच्‍चा ईश्‍वर का उपहार हैं और देने वाला ही उसकी देखभाल करेगा। परिणामस्‍वरूप ये अभिभावकता के दायित्‍वों से परिचित नहीं होते। इस प्रकार के अधिकांश लोग गर्भधारण को रोकना ईश्‍वर के प्रति अपराध मानते हैं। इस श्रेणी के अधिकांश लोगों को बच्‍चे के जन्‍म की प्रक्रिया और इससे सम्‍बन्‍धित वैज्ञानिक ज्ञान की जानकारी नहीं होती। इनमे से अधिकांश सामाजिक-आर्थिक दृष्‍टि से पिछडे वर्गों से आते हैं। बच्‍चे की देख-सम्‍बन्‍धित आवश्‍यक ज्ञान के अभाव में इस वर्ग में बच्‍चों की मृत्‍यु-दर सर्वाधिक होती है। बच्‍चों की वृद्धि एवं विकास के लिए भी इस वर्ग के लोग समुचित वातावरण प्रदान नहीं कर पाते।

2․ संस्‍कृति- इसके अन्‍तर्गत वे माता पिता आते है। जो किन्‍हीं विशेष लक्ष्‍यों की पूर्ति हेतु बच्‍चों को आवश्‍यक मानते हैं। परिवार और समाज की वयस्‍कों से कुछ अपेक्षायें होती है। अपनी इच्‍छाओं जैसे -व्‍यवसाय, सम्‍पत्‍ति के उत्‍तराधिकार आदि के लिए ये संतान को आवश्‍यक मानते हैं। हिन्‍दू धर्म में तो अंतिम संस्‍कार की पूर्ति हेतु पुत्र अनिवार्य माना गया है। ऐसा भी होता है कि संतान के जन्‍म के पश्‍चात्‌ वैवाहिक सम्‍बन्‍ध और प्रगाढ़ हो जाते हैं। जब पहली संतान लड़का हो तो बहुएँ संयुक्‍त परिवार में आसानी से स्‍वीकृत हो जाती है।

3․ जागरूक - अभिभावकों की यह उभरती हुई श्रेणी है। ये अभिभावकता को मात्र भावनात्‍मक रूप से संतोष देने वाला या कुछ सामाजिक लक्ष्‍यों की पूर्ति के रूप में नहीं देखकर बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी मानते हैं। इस श्रेणी के लोगों की संख्‍या काफी कम हैं लेकिन इनमें अधिकांश शिक्षित होते हैं। इनके अभिभावकता आकस्‍मिक नहीं होती बल्‍कि ये चेतन रूप से निर्णय लेकर और पूर्व तैयारी के साथ माता-पिता बनते हैं। ये बच्‍चों कि देख-भाल से सम्‍बन्‍धित विभिन्‍न पक्ष जैसे- शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, सांवेगिक आदि पर विचार करने के पश्‍चात ही गर्भधारण धारण का निर्णय लेते हैं।

क्‍या दूसरों का निरीक्षण करके हम अभिभावक बन सकते हैं?

हम में से सभी ने अपने आस पास माता पिताओं को अपने बच्‍चों का लालन पालन करते देखा है। विभिन्‍न परिस्‍थितियों में बालक के व्‍यवहारों के प्रति वे उचित प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हैं। उदाहरणार्थ एक माता बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के भी रोते हुए बच्‍चे को आरामदेह ढंग से गोद में लेकर या दूध पिलाकर या किसी अन्‍य तरीके से उसे शान्‍त करती है। कई बार अभिभावक विभिन्‍न तरीकों के द्धारा बच्‍चों को सही कार्य, जैसे प्रतिदिन स्‍नान करने, समय से विद्यालय जाने हेतु कुशलतापूर्वक प्रेरित करते हैं। उपरोक्‍त उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है। कि जब बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के ही अभिभावक बच्‍चों के प्रति समुचित व्‍यवहार करते हैं तो अभिभावकता के विषय में अलग से ज्ञान प्राप्‍त करने और प्रशिक्षण की क्‍या आवश्‍यकता है।

हाँ, यह सही हैं कि दूसरों का निरीक्षण करके हम अभिभावकता को सीख सकते हैं। लेकिन हमारा सामाजिक एवं भौतिक वातावरण मात्र तेजी से परिवर्तित ही नहीं हो रहा हैं वरन दिन प्रतिदिन जटिल भी होता जा रहा है। इसीलिए अभिभावकता को औपचारिक रूप से सीखना आवश्‍यक है। इसे सीखने मे शरीर क्रिया विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्‍त्र, पोषण विज्ञान एंव चिकित्‍सा शास्‍त्र हमारी मदद कर सकते हैं।

निष्‍कर्ष

अन्‍त में हम यह कह सकते हैं कि अभिभावकता जीवन की एक महत्‍वपूर्ण भूमिका है और क्रमबद्ध रूप में इसका अध्ययन आवश्‍यक है। इस भूमिका के निर्वाह अर्थात बच्‍चों की देख-भाल के लिए पूर्व तैयारी आवश्‍यक है। माता-पिता बनने के पूर्व बच्‍चों के लालन-पालन के विभिन्‍न पक्षों पर विचार आवश्‍यक है।

हमारा समाज एवं वातावरण तेजी से परिवर्तित हो रहा है। कोई आवश्‍यक नहीं कि प्राचीन ज्ञान आज की परिस्‍थिति में प्रासंगिक हो। बहुधा अभिभावक द्धारा किया गया सहज व्‍यवहार पर्याप्‍त नहीं होता । कभी- कभी यह हानिकारक भी हो सकता है। वैज्ञानिक ज्ञान बच्‍चों के व्‍यवहारों को समझने और इस कारण से अभिभावकता को सही आधार देने में सक्षम है। बच्‍चों के व्‍यवहार का स्‍वयं निरीक्षण करके और इसे वैज्ञानिक ज्ञान के साथ समन्‍वित करके हम बेहतर अभिभावक बन सकते हैं।

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रचनाकार: मयंका सिंह का आलेख - अभिभावक बनना सीखिए
मयंका सिंह का आलेख - अभिभावक बनना सीखिए
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