"लोग उल्टी- सीधी चार पंक्तियाँ लिख कर नेट पे डाल देते है और फिर इंतज़ार शुरू हो जाता है नेट पे बने नकली मित्रों की टिप्पणियों का मेरे...
"लोग उल्टी- सीधी चार पंक्तियाँ लिख कर नेट पे डाल देते है और फिर इंतज़ार शुरू हो जाता है नेट पे बने नकली मित्रों की टिप्पणियों का
मेरे एब को भी बताये हुनर ,
मेरे यार तू भी ख़तरनाक है "
उफ़ ये झूठी वाह -वाह ........
भौतिकता के दौर में जहाँ नई नस्ल अदब से दूर होती जा रही है वहीं इंटरनेट पर कुकुरमुत्तों की तरह फ़ैल रही सोशिअल साइट्स और कुछ ब्लॉग लिखने वालों ने साहित्य से नए लोगों का रब्त तो कायम रखा है ! इंटरनेट के कारण बहुत से लोगों में साहित्य के प्रति रुझान पैदा हुआ है और उन्होंने क़लम उठाने की ज़हमत भी की है मगर एक दूसरे की झूठी वाह -वाही ने इन नए कवियों /शाइरों /कवियत्रियों/शाइरात को ख़ुशफ़हमी नाम की नई बीमारी भी लगा दी है !
ये लोग उल्टी- सीधी चार पंक्तियाँ लिख कर नेट पे डाल देते है और फिर इंतज़ार शुरू हो जाता है नेट पे बने नकली मित्रों की टिप्पणियों का , अगर कोई महिला लेखिका है तो टिप्पणियों की तादाद में इज़ाफा होना सौ फीसदी तय है ! नेट पे छाये हुए ये अदीब स्वयं पे मुग्ध होने की बिमारी से भी ग्रस्त हो गये है ! सोते - जागते बस इन्हें अपनी बे-सर पैर की रचना पे आने वाली टिप्पणियों का इंतज़ार रहता है ! इन अदीबों के किरदार भी मुख्तलिफ़- मुख्तलिफ़ किस्म के हैं !
इनमें से एक किरदार अपने आप को हिन्दी, उर्दू ,राजस्थानी, पंजाबी ,अंग्रेज़ी और भी कई विलायती भाषाओं का मेयारी कवि समझता है और अपने फेसबुक के नकली चहरे की वाल पे दिन में कई मरतबा बे-अदबी ज़ुबान में कुछ न कुछ लिख देता है ! शालीनता की ओट में थोड़ी अश्लीलता मिलाकर परोसना इन्हें और इनके तमाम दोस्तों को बहुत भाता है ! दिनभर में 20 -25 कमेन्ट आ जाते है और इनका भोजन आसानी से पच जाता है !इस तरह के किरदार अपने आप को शब्द का बहुत बड़ा सौदागर भी समझते है जबकि साहित्यकार को शब्द का साधक होना चाहिए !
इस तरह के किरदार वहम नाम के रोग से भी पीड़ित हो गये है ! इनको ये भी वहम है कि फेसबुक पे मेरे जो हज़ारों दोस्त है ये सब मेरे फैन है ! राहत इंदौरी साहब के दो मिसरे मुझे यहाँ बरबस याद आ रहें हैं :----
ज़मीं पे सात समन्दर सरों पे सात आकाश
मैं कुछ नहीं हूँ मगर एहतमाम क्या-क्या है
साहित्य की चद्दर ओढने -बिछाने वाले बहुत से लोग ब्लॉग लिखते हैं और इसमें भी कोई शक़ नहीं कि वे मेयारी नहीं लिखते मगर साहित्य के प्रति उनकी इमानदारी पे वहाँ शक़ होने लगता है जब वे किसी अन्य ब्लॉग पे जाकर किसी अन्य कवि/शाइर/कवियत्री की रचना पे अपनी कसीदानुमा टिप्पणी लिखते हैं ! ऐसे ही एक अदीब दोस्त के ब्लॉग पे साहित्य जगत की एक मक़बूल महिला लेखिका की कविता पढ़ रहा था , मैंने सोचा ये उनकी किसी विदेश यात्रा का यात्रा-वृत्तांत है मगर ऊपर लिखा था श्रीमती ......की चार कविताएँ ! यूरोप के किसी मुल्क की यात्रा का उनका आधा -अधूरा वृत्तांत मैं पढता चला गया मगर कविता नाम की शैय से मुलाक़ात नहीं हुई !
जिस तरह मन का भी एक मन होता है उसी तरह कविता का भी अपना एक मन होता है ,कविता की रूह होती है अगर कोई कवि पाठक को अपनी कविता की रूह का दीदार नहीं करवा सकता तो उसकी कविता फिर कविता की कसौटी पे खरी नहीं उतरती ! उनकी तथाकथित कविताएँ जैसे ही समाप्त हुई तो लोगों की टिप्पणियाँ प्रारम्भ हो गई मैंने सोचा ज़रूर ये पढ़ने को मिलेगा कि , महोदया इसमें काव्य वाली कौनसी बात है , आप विदेश गई ,आपके खट्टे -मीठे अनुभव है ,आप इसपे अच्छा -खासा आलेख लिख सकती थी मगर ऐसी टिप्पणी एक भी पढ़ने को नहीं मिली ! पढ़ने को मिला तो सिर्फ़ कसीदा ,वाह -वाह ...फलानी जी आपने क्या बिम्ब उतारा है , आपकी ये कविताएँ तो संवेदना का दस्तावेज़ है ....जबकि उन कविताओं का संवेदनाओं से कोई दूर -दूर का रिश्ता भी नहीं था !
महोदया ने लिखा कि आज मेरी आँख देरी से खुली , आज मुझे ब्रेकफास्ट नहीं मिला , मेरा पैर फिसल गया .....क्या यही होती है कविता ? क्या यही है संवेदना का दस्तावेज़ ? मोहतरमा लिखने के लिए स्वतंत्र है , जैसा उनके मन में आये वे लिख सकती है ...पर तनक़ीद के बड़े -बड़े बादशाह जिन पर अदब भी फख्र करता है ,वे भी ऐसी गद्य-नुमा कविता की तारीफ़ के पुल बांधते हुए नहीं थकते, कारण एक ही है किसी को नाराज़ क्यूँ किया जाए ,ऊपर से महिला लेखिका को तो कदापि नहीं !
नेट पे आपस में जुड़े ये साहित्यिक मित्र क्यूँ एक-दूसरे को नाराज़ नहीं करना चाहते ? क्यूँ सही मायने में जानकार लोग किसी रचना पे अपनी ईमानदाराना टिप्पणी नहीं देते ? इन प्रश्नों का उत्तर शायद इन अदीबों के पास भी नहीं है क्यूंकि ये लोग भी तो थोड़ा -थोड़ा कसीदा सुनने के रोग से ग्रसित हो गये है ! मुझे लेखिका की साहित्य सेवा से ,उनके लेखन से कोई शिकायत नहीं है , जैसा उनके मन में आया उन्होंने लिखा पर उनकी रचना पे टिप्पणी करने वाले इन बड़े- बड़े साहित्यकारों से इस तरह की उम्मीद कतई नहीं थी कि ये लोग भी झूठी वाह- वाही की कश्ती में सवार हो जायेंगे !
मैंने कई मरतबा इस तरह की कविताओं और ग़ज़लों पे अपनी समझ के अनुसार ईमानदारी से टिपण्णी की मगर टिप्पणी को छापने से पहले ही क़त्ल कर दिया गया क्यूंकि ब्लॉग चलाने वाले को ये अधिकार है कि वो कौनसा कमेन्ट रखे कौनसा मिटा दे ! अपने इसी मिज़ाज की वजह से मैंने नेट पे अपने बहुत से नकली वाले दोस्त भी खो दिये , बहुत से लोग मुझ से ख़फा भी हो गये बहरहाल , यही सोच के खुश हूँ कि मन में ये तो तसल्ली है कि हमने कम से कम झूठी वाह -वाह तो नहीं की सच को अगर सच कहा तो कौनसा गुनाह किया है ..तभी तो ये दोहा हो गया :---
इक सच बोला और फिर , देखा ऐसा हाल !
कुछ ने नज़रें फेर ली,कुछ की आँखें लाल !!
झूठी तारीफों का ये आलम फेसबुक ,ऑरकुट, ब्लोग्स के अलावा धरातल पे भी बहुत है ! जिस अदबी शहर की आबो-हवा में सांस ले रहा हूँ वहाँ का और ये कहूँ तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की तक़रीबन सभी जगह का यही हाल है ! एकल काव्य -पाठ के नाम पे नशिस्तें रखीं जाती है ,जिसका एकल -पाठ होता है वो तमाम ख़ाने -पीने का इंतज़ाम करता है ! इतवार के दिन शहर के कुछ साहित्यकार एक जगह एकत्रित होते है कुछ आपसी गिले -शिकवे कुछ चुगली-बाज़ी फिर कवि /शाइर साहब को सुनते है !जब क़लाम सुनाया जा रहा होता है तो सब आपस में काना-फूसी करते रहते है कि क्या बकवास लिखा है, इसमें शाइरी वाली कौनसी बात है , ये तो काफ़िये से खारिज़ है मगर जब चर्चा शुरू होती है और तनक़ीद(आलोचना ) का वक़्त आता है तो सभी कसीदा पढ़कर बैठ जाते है ! ये सब क्या ड्रामा है ? अदब के ये स्वयम्भू ठेकेदार ऐसा क्यूँ करते हैं ? किसी नए कवि /शाइर को ये लोग ख़ुशफ़हमी की दवा क्यूँ पीला देते है ? उसे साफ़ -साफ़ क्यूँ नहीं कह्ते कि तुम्हारी ग़ज़ल में शेरियत वाली कोई बात नहीं है , तुम्हारी ग़ज़ल बहर की पटरी पे नहीं चल पा रही है , तुम अपना वक़्त और काग़ज़ दोनों को बरबाद कर रहे हो , जाओ पहले ख़ुद को तपाओ फिर कहो ग़ज़ल ! मगर ऐसा कहने का हौसला इन अदीबों में नहीं है और ना ही ऐसा सुन ने का मादा नई नस्ल के लेखकों में है ! मैंने अगर अपने एक मज़मून में इस बात का ज़िक्र किया तो बहुत से लोग मुझे देख के रस्ता बदलने लगे और आख़िर विवश हो यही लिखना पड़ा :----
उल्टे - सीधे काफ़िये , उस पे ग़लत रदीफ़ !
कह दी सच्ची बात तो , शायर को तकलीफ़ !!
आलोचना करने वाले माहिर लोग भी सिर्फ़ ये सोच के कि हम क्यूँ बे-वजह बुरे बने और अपनी तनक़ीद में तारीफ़ के पुल बाँधने लग जाते है ! इन क्रिया -कलापों से यह तो तय है कि अदब इस माहौल में महफूज़ नहीं रह सकता !
नए क़लमकारों को भी थोड़ा मनन करना चाहिए कि अगर आपकी कृति की कोई आलोचना कर रहा है तो आप उस पे अमल करें , पहली बात तो अपने क़लाम को स्वयं एक आलोचक की निगाह से देखें ! एक और अहम् बात कि झूठी तारीफ़ करने वालों को अपना मित्र नहीं शत्रु समझे ! पवन दीक्षित साहब का एक शे'र है :____
मेरे एब को भी बताये हुनर ,
मेरे यार तू भी ख़तरनाक है
अपनी तारीफ़ सुनने और स्वयं पे मुग्ध होने की कुछ बीमारी तो निश्चित तौर पे नेट की इन सोशिअल साइट्स की देन है मगर एक बहुत बड़ी वजह है इन दिनों में उस्ताद - शागिर्द की रिवायत का लुप्त हो जाना ! एक ज़माना था जब शागिर्द अपना लिखा उस्ताद के सामने लेकर जाता था तो ये नहीं कहता था कि उस्ताद मेरा शे'र देखें ज़रा , वो यही कहता था कि उस्ताद दो मिसरे हुए है ज़रा आपकी निगाह फरमाई हो जाए ! शागिर्द अपनी पंक्तियों को तब तक शे'र नहीं मानता था जब तक कि उस्ताद की मोहर ना लग जाए !पर आज तो ऐसों की तादाद दिन ब दिन बढ़ती जा रही है जो अदब के मख्तबे में ख़ुद ही शागिर्द हैं और ख़ुद ही अपने उस्ताद !चाहे हिन्दी साहित्य की कोई विधा हो या शाइरी का मु- आमला अपने आप को तालीबेइल्म समझना बे-हद ज़रूरी है !
नेट की दुनिया के कुछ तथाकथित कवि/शाइर/ कवयित्री/शाइरा अगर वाकई अदब की जानिब संजीदा हैं तो इन्हें छपने से पहले थोडा तपना पडेगा और मन को अच्छी लगने वाली टिप्पणियों से परहेज़ करना पडेगा तभी अदब का भला होगा ! एक और बात जो वाकई जानकार लोग है उन्हें भी अपनी ज़िम्मेवारी समझनी होगी , अपने ज़ाती मरासिम से हटकर उन्हें भी नए लोगों को सही राह दिखानी होगी न कि इस तरह की टिप्पणी कि क्या बात है , आपने तो बस कमाल लिख दिया , आपमें तो सुभद्रा कुमारी चौहान नज़र आ रही है ..वैगैरा -वैगैरा !
जो लोग सोशिअल साइट्स पे अपनी मक़बूलियत को ही अगर मक़बूलियत का असली पैमाना समझते है तो उन्हें भी इस वहम की गुफा से बाहर खुले आकाश में आना होगा ,वहम तो यथार्थ से कौसों दूर होता है ! आख़िर में एक और गुज़ारिश कि मेरा ये सब लिखने का मक़सद किसी को नीचा दिखाना नहीं बल्कि सिर्फ़ ये बताना है कि आप झूठी वाह-वाही से पेहेज़ करें ...जो भी लिखें सार्थक लिखें , लिखने के बाद इस्लाह ज़रूर लें और जो भी आपके लिखे पे सच्ची टिप्पणी करे उस पे दिल से अमल करें न कि उस शख्स से दूर भागें ! ताहिर फ़राज़ के इन्ही मिसरों के साथ ...:----
नज़र बचा के गुज़रते हो गुज़र जाओ ,
मैं आईना हूँ मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है
ख़ुदा हाफ़िज़....
विजेंद्र शर्मा
बिलकुल सही लिखा है...रचनाएँ अच्छी होनी चाहिए...कमेन्ट्स में सच्चाई होनी चाहिए.
जवाब देंहटाएंतू सच न कह ए यार वो हो जायंगे नाराज़।
जवाब देंहटाएंक्या है हुज़ूर दम उन्हें कर पायंगे नाराज़।
सभी पहलुओं पे गौर करते हुए लिखा गया सार्थक आलेख।
जवाब देंहटाएंसृजन की हर विधा को...हर दौर में....इस संक्रमण से निकलना पड़ता है...ऐसे रचनाकारों और ऐसे सृजन की उम्र ज़्यादा नहीं होती...आप ने जिस तरह आगाह किया है...यही प्रतिक्रिया...दशा और दिशा को दुरुस्त रकह्ती है। सच्ची और अच्छी बात के लिए शुक्रिया आपका।
जवाब देंहटाएंसृजन की हर विधा को...हर दौर में....इस संक्रमण से निकलना पड़ता है...ऐसे रचनाकारों और ऐसे सृजन की उम्र ज़्यादा नहीं होती...आप ने जिस तरह आगाह किया है...यही प्रतिक्रिया...दशा और दिशा को दुरुस्त रकह्ती है। सच्ची और अच्छी बात के लिए शुक्रिया आपका।
जवाब देंहटाएंjanab khoob farmaya aap ne;
जवाब देंहटाएं'shayri sher tabhi bnti hai, jb vh poori trh tpti hai'
es liye shayar ko apni shayri main roomaniyat lane ke liye tapna pdta hai - ye aap ne vajib farmaya.
नज़र बचा के गुज़रते हो गुज़र जाओ ,
जवाब देंहटाएंमैं आईना हूँ मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है
आपका तो जवाब ही नही है।