मंसूर उस्मानी हमारा प्यार महकता है उसकी साँसों में बदन में उसके कोई ज़ाफ़रान थोड़ी है एक शख्सियत …. ......मंसूर उस्मानी आज़ादी से पहले हमारे...
मंसूर उस्मानी
हमारा प्यार महकता है उसकी साँसों में
बदन में उसके कोई ज़ाफ़रान थोड़ी है
एक शख्सियत….......मंसूर उस्मानी
आज़ादी से पहले हमारे मुल्क में ज़बानों का कोई झगड़ा नहीं था। सभी की एक ही ज़ुबान थी जिसका नाम था हिन्दुस्तानी। हिन्दी और उर्दू दोनों ज़बानों में सगी बहनों का सा रिश्ता था और अंग्रेज़ों को बाहर का रास्ता दिखाने में हमारी इस साझा तहज़ीब ने अहम् रोल अदा किया पर जाते - जाते अंग्रेज़ इन्तकामन मुल्क को बांटने के साथ - साथ ज़ुबानों को भी अलग करने में कामयाब हो गये और फिर दोनों ज़ुबानें मज़हबों में तब्दील हो गई। आज़ादी के बाद हिन्दी को हिन्दुस्तान की राष्ट्र भाषा का दर्जा मिल गया उधर पाकिस्तान में उर्दू कौमी ज़ुबान हो गई और धीरे - धीरे दोनों बहनों को फिरकापरस्तों की ऐसी नज़र लगी कि आज तक लाख शक्कर ख़ाने के बावज़ूद कड़वाहटें दूर नहीं हो पायी है। वक़्त ने अगर कड़वाहट के ये ज़ख्म धीरे-धीरे भरे तो हमारे मुल्क की बदचलन सियासत ने फिर से हरे कर दिये और हिन्दी को हिन्दू ,उर्दू को मुसलमान कर दिया। हमारा साहित्य , हमारा अदब मुद्दतों से इसी कोशिश में लगा है कि ज़बानें मज़हबी आकाओं की ज़ाती जागीर ना बने पर इस सच्चाई से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि इस इलाके में इमानदाराना कोशिशें ज़रा कम हुई है। हमारी गौरवशाली गंगा-जमुनी तहज़ीब अगर एक बहता दरिया है तो हिन्दी - उर्दू उसके दो ख़ूबसूरत किनारे है और इन दोनों भाषाओं में सामंजस्य बना रहे ,मुहब्बत बनी रहे ये दोनों यूँ गुंथी रहे कि कोई लाख जतन कर ले पर इन्हें अलग ना कर पाये इसके लिए एक पुल का काम कुछ कवि और शाइर कर रहे हैं। इसी सिलसिले में दोनों हिन्दुस्तानी ज़ुबानों को अपनी बांहों में कसके, दोनों को मिलाये रखने की मुसलसल कामयाब कोशिश करने वाली एक अज़ीम शख्सीयत का नाम है मंसूर उस्मानी। पिछले दिनों अजमेर में एक मुशायरे में उस्मानी साहब से मुलाक़ात हुई वे उस मुशायरे की निज़ामत कर रहे थे जिन बातों का ज़िक्र मैंने अभी किया उन्होंने वहां शुरुआत ही अपने एक मतले और दोहे से की :----
जहाँ - जहाँ कोई उर्दू ज़ुबान बोलता है
वहीं - वहीं मेरा हिन्दुस्तान बोलता है
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हिन्दी रानी देश की ,उर्दू जिसका ताज।
खुसरो जी की शाइरी ,इन दोनों की लाज। ।
मुशायरे में निज़ामत की (संचालन) अपनी अहम् भूमिका है और एक कामयाब मुशायरे की ज़मानत भी अच्छी निज़ामत होती है। हिन्दुस्तान या हिन्दुस्तान से बाहर मुशायरा कहीं भी हो अगर उसकी निज़ामत के लिए कोई नाम सबसे पहले कन्वीनर के ज़हन में आता है तो वो नाम है मंसूर उस्मानी। ये मुकाम ऐसे ही नहीं मिलता इसके पीछे कितनी साधना ,कितनी मेहनत ,कितना ज़बरदस्त मुतआला (अध्ययन )और अदब के प्रति कितना समर्पण रहा होगा तब जा कर मंसूर उस्मानी के नसीब में ये बलंदी और शुहरत आई है।
मंसूर उस्मानी का जन्म पीतल और जिगर मुरादाबादी के शहर मुरादाबाद में आबरू-ए-जिगर मरहूम गौहर उस्मानी साहब के यहाँ 01 मार्च 1954 को हुआ। जिगर मुरादाबादी के बाद मुरादाबाद में शाइरी की लौ को जिन शाइरों ने मद्धम नहीं होने दिया उसमे एक अहम् नाम है हज़रत गौहर उस्मानी। ख़ुदा की पहली मेहरबानी मंसूर उस्मानी साहब पर ये हुई कि उन्हें ऐसे ख़ानदान का चराग़ बनने का मौक़ा मिला जिसके लिए अदब की ख़िदमत किसी दीन -ओ -मज़हब से कम नहीं थी। मंसूर साहब की शुरूआती तालीम मुरादाबाद में हुई और अपने दादा के लाड़ प्यार और कुछ अमीरज़ादों की सोहबत की वजह से इंटर के बाद उन्होंने अपनी पढाई बीच में ही छोड़ दी। इनके वालिद चाहते थे कि ये आगे पढ़े पर दादा ने इनकी शादी भी उम्र के बीसवें सावन में ही करवा दी। हज़रत गौहर उस्मानी साहब मुरादाबाद कलेक्ट्रेट में अफसर थे और उनकी कोशिशों से मंसूर साहब मुरादाबाद नगर पालिका में मुलाज़िम हो गये। मुलाज़मत के दौरान मंसूर साहब को लगा कि आगे पढ़ना चाहिए। उस वक़्त तक बाक़ायादा उर्दू मंसूर साहब ने पांचवीं जमात तक ही पढ़ी थी। नौकरी में आने के बाद मंसूर साहब ने जामिया ,अलीगढ से पहले अदीब कामिल और फिर रूहेलखंड यूनिवर्सिटी ,बरेली से एम्.ए (उर्दू ) प्रथम श्रेणी से किया।
घर में शाइरी का माहौल था सो शाइरी से लगाव और जुड़ाव लाज़िम था। मंसूर साहब ने शे'र कहने 1970 से शुरू किये। मुशायरों में देर रात तक जाग - जाग के शाइरी सुनने के शौक़ ने मंसूर साहब के अन्दर सोये हुए शाइर को जगाया। जाँ निसार अख्तर और पाकिस्तान के शाइर अहमद नदीम कासमी की शाइरी ने मंसूर उस्मानी साहब पर गहरा असर छोड़ा और वे अपने वालिद के उस्ताद क़मर मुरादाबादी से इस्लाह लेने लगे। क़मर साहब का इस्लाह का ये तरीका कि "अपनी ग़ज़ल मेरे तकिये के नीचे रख जाओ और दो-तीन दिन बाद आकर वहीं से ले जाना " मंसूर साहब को अपने उस्ताद का इस्लाह देने का ये अंदाज़ अखरने लगा उन्हें लगा कि मेरे फलां मिसरे को काटा तो क्यूँ काटा ?उसमें ऐसी क्या कमी थी ? इन तमाम चीज़ों के तसल्लीबख्श जवाब न मिलने से मंसूर साहब ने क़मर साहब से इस्लाह लेना छोड़ दिया।
एक दिन मंसूर साहब ने हिम्मत जुटाकर अपने वालिद को अपना एक शे'र सुनाया उन्होंने पूछा कि किसका है ये शे'र तो मंसूर साहब ने कहा कि इस नाचीज़ का है। वो शे'र यूँ था :--
ज़िद पे आये तो क़दम रोक लिए है तेरे
हम से बेहतर तो तेरी राह के पत्थर निकले
अब्बा हुज़ूर के मुंह से निकला वाह - वाह और उस दिन से मंसूर साहब अपने वालिद से ही इस्लाह लेने लगे। ये बात भी मंसूर उस्मानी के नसीब के हिस्से में है कि उनके वालिद ने भी उनकी निज़ामत में मुशायरे पढ़े। मंसूर साहब पर ख़ुदा की ये भी मेहरबानी भी रही कि जिन अहमद नदीम कासमी साहब को सुन - सुन कर उन्होंने शे'र कहने शुरु किये उनके साथ अमेरिका में मुशायरों के सिलसिले में 1998 में तक़रीबन डेढ़ महीने साथ रहे और कासमी साहब ने भी इनकी निज़ामत में ग़ज़लें पढ़ी।
यूँ तो मंसूर उस्मानी की शनाख्त मुशायरे है पर जब उनकी शाइरी पढ़ने का मौक़ा मिला तो लगा कि काग़ज़ के धरातल पर भी वही कमाल उनकी क़लम में है जो जादू वो सामईन पर अपने लहजे से मुशायरों में करते है। निज़ामत के दौरान वे ख़ुद कहते है कि हमारे अहद की शाइरी में मीर के आंसू मीरा की आँखों से छलकते हैं :---
कुछ आंसू अपने प्यार की पहचान बन गये
कुछ आंसुओं ने प्यार को बदनाम कर दिया
जिसको बचाये रखने में अजदाद बिक गये
हमने उसी हवेली को नीलाम कर दिया
तुमने नज़र झुकाके जहाँ बात काट दी
हमने वहीं फ़साने का अंजाम कर दिया
(अजदाद -पूर्वज )
रिवायत और जदिदीयत (परम्परा और आधुनिकता ) की अलग -अलग दो नावों पर एक साथ सवारी करने का हुनर मंसूर उस्मानी के कहन में है और उनकी ये ख़ूबी उनके अशआर में साफ़ नज़र आती है :-
सुब्हों को शाम ,शब् को सवेरा नहीं लिखा
हमने ग़ज़ल लिखी है क़सीदा नहीं लिखा
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दामन बचा के लाख कोई मौत से चले
पाज़ेब ज़िन्दगी की खनकती ज़रूर है
छुपती नहीं है अपने छुपाने से चाहतें
सीने में आग हो तो भड़कती ज़रूर है
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जब मैंने सफ़ीने में तेरा नाम लिया है
तूफ़ान की बांहों से किनारे आए
हम जां तो बचा लाते ,मगर अपना मुक़द्दर
उस भीड़ में कुछ दोस्त हमारे निकल आए
अपने शाइरी से जुड़ाव के इब्तिदाई दौर से मंसूर साहब नज़ीर बनारसी , ख़ुमार बाराबंकवी ,कुंवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' .कृष्ण बिहारी 'नूर' ,बशीर बद्र , वसीम बरेलवी , निदा फ़ाज़ली से मुतास्सिर रहे यहाँ तक की इन सब के ऑटोग्राफ तक मंसूर साहब लिया करते थे और फिर ये दिन भी उनकी ज़िन्दगी में आये की इन तमाम शाइरों ने मंसूर उस्मानी साहब की निज़ामत में मुशायरे पढ़े। किसी शाइर के लिए इस से ज़ियादा नसीब की बात और क्या होगी कि जिन्हें तसव्वुर में सोच - सोच के वो शे'र कहता हो और वही उसकी निज़ामत में मुशायरा पढ़े। हिन्दुस्तान के अज़ीम शाइर अली सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी , मज़रूह सुल्तानपुरी और हसरत जयपुरी ने भी मंसूर उस्मानी की निज़ामत में अपना क़लाम सुनाया है। मंसूर उस्मानी गंगा -जमुनी तहज़ीब की वो मिसाल है जिन्होंने मुशायरों के साथ - साथ कवि सम्मेलनों में भी शानदार संचालन किया है।
मंसूर उस्मानी साहब की एक मकबूल ग़ज़ल का मतला जब पहली बार सुना तो उनसे पूछे बगैर न रह सका कि आपने ये मिसरे जब कहे तो ज़हन में क्या था ? वो मतला यूँ था :--
हमारे जैसी किसी की उड़ान थोड़ी है
जहां पे हम है वहां आसमान थोड़ी है
मेरे उस सवाल पे मंसूर भाई का जवाब ये था कि "जब मैंने ये मतला कहा तो मेरे ज़हन में ग़रीब के फ़ाके भी थे और पोकरण के धमाके भी थे ,हमारे मुल्क ने दुनिया से लेने के नाम पे बहुत कम लिया है मगर देने के नाम पे दुनिया को बहुत कुछ दिया है " उनका ये जवाब सुनकर मंसूर साहब को बा-वर्दी सेल्यूट करने का दिल किया। इसी ग़ज़ल के ये शे'र भी क्या खूब है :----
हमारा प्यार महकता है उसकी साँसों में
बदन में उसके कोई ज़ाफ़रान थोड़ी है
बस एक ख़ुलूस का धागा है ज़िन्दगी अपनी
बिखरते - टूटते रिश्तों में जान थोड़ी है
हमारे साथ हैं सदियों कि अज़्मतें 'मंसूर'
किसी की बख्शी हुई आन -बान थोड़ी है
मंसूर उस्मानी ने अपने क़लाम को किताब की शक्ल भी दी जिससे अदब से मुहब्बत करने वालों को मेयारी शाइरी पढ़ने को मिली है। 1990 में नागरी में उनका एक ग़ज़ल संग्रह "मैंने कहा" आया ,1998 में उर्दू में उनका मज़्मुआ - ए क़लाम "जुस्तजू " आया ,फिर 2004 में नागरी में "ग़ज़ल कि खुश्बू "2007 में उर्दू में "कशमकश "और फिर 2010 में नागरी में ग़ज़ल संग्रह "अमानत" मंज़रे -आम पे आया। इसके अलावा मंसूर उस्मानी साहब बेहतरीन अदबी रिसाले "ग़ज़ल इंटरनेशनल" के सम्पादन को भी बख़ूबी अंजाम दे रहे हैं।
मंसूर उस्मानी की शाइरी में कलासिकी रूमानियत और जदीद तर्ज़े - इज़हार एक दूजे से यूँ लिपटे रहते है जैसे चमन में किसी गुल से तितली लिपटी हो। तश्बीह बाँधना शाइरी में हर किसी के बस की बात नहीं है मगर मंसूर भाई ने इश्क़ और दिल को किस सलीक़े के साथ शाह लफ़्ज़ के साथ बांधा है उनके इस फ़न को सलाम।
दिल में मेरे क़याम किसी ने नहीं किया
इस शाह को ग़ुलाम किसी ने नहीं किया
कांधों पे सब ख़ुदा को उठाए फिरे मगर
बंदों का एहतराम किसी ने नहीं किया
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इश्क़ इज़हार तक नहीं पहुंचा
शाह दरबार तक नहीं पहुंचा
मेरी क़िस्मत कि मेरा दुश्मन भी
मेरे मेयार तक नहीं पहुंचा
मुनव्वर राना साहब ने दुरुस्त फरमाया है कि मंसूर उस्मानी की शाइरी महबूब के हाथ पर रखा हुआ रेशमी रुमाल नहीं है मज़दूर की हथेलियों के वो छाले हैं ,जिनमे मेहनत और इमानदारी की ख़ुश्बू आती है।
मंसूर उस्मानी अपनी ग़ज़ल में शाइरी की हिफ़ाज़त हर हाल में करते है चाहे कोई ख़याल उन्हें रस्ता बदलने पे लाख मजबूर करे। उनकी एक ग़ज़ल के अशआर इसकी मिसाल है :--
हर रोज़ नई तरह के ग़म टूट रहे हैं
महसूस ये होता है कि हम टूट रहे हैं
इक दिल ही ज़माने के हवादिस से बचा था
उस पर भी मुहब्बत में सितम टूट रहे हैं
और कर्नल गद्दाफी को ज़हन में रखके कहा उनका ये शे'र ..
थी जिनके इशारों पे कभी गर्दिशे दुनिया
इस दौर में उनके भी भरम टूट रहे हैं
मंसूर उस्मानी दो पंक्तियों में पूरी सदी की दास्तान बयान करने वाले दूसरे फ़न दोहे में भी महारथ रखते हैं। उनके दोहे नसीहत के साथ -साथ मुहब्बत का पैगाम भी देते है :---
बच्चों को सिखलाइए ,बूढ़ों का सम्मान।
हो जाएगी आपकी, हर मुश्किल आसान। ।
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ख़ुदा और भगवान् में , नहीं ज़रा भी फ़र्क़।
जो माने वो पार है , ना माने तो ग़र्क़। ।
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पुरखों की पहचान था ,पुश्तैनी संदूक।
बेटा जिसको बेचकर,ले आया बन्दूक। ।
इस वक़्त दुनिया में जहां - जहां मुशायरे होते हैं वहां - वहां मंसूर उस्मानी अपने बोलने के अंदाज़ और शहद जैसी ज़ुबान से बड़े से बड़े मजमें को अपने सम्मोहन में कर लेते हैं फिर उनका जादू ऐसा सर चढ़ कर बोलता है कि मंसूर साहब अगर अपने लबों को हिला भर दे तो भी भीड़ उनके इशारे समझने लगती है। ये जादूगरी यूँ ही नहीं आती इसके लिए पहले अन्दर के अहम् को अपने से दूर करना पड़ता है और ख़ुद को नफरत की जगह मुहब्बत से भरपूर करना पड़ता है। अपने इन मिसरों में मंसूर साहब ने यही सन्देश भी दिया है :--
दुश्मनी के लिए सोचना है ग़लत
देर तक सोचिए दोस्ती के लिए
अदब कि ख़िदमत के लिए मंसूर उस्मानी साहब को बहुत सी अदबी तंजीमों ने एज़ाज़ से नवाज़ा है। उतर प्रदेश ,मध्य प्रदेश और बिहार कि उर्दू अकादमियों ने उन्हें नवाज़ा है उन्हें ग़ालिब अवार्ड ,फानी शकील अवार्ड भी मिले हैं। इसके अलावा संस्कार भारती सम्मान,भारतीय दूतावास ,सउदी अरब द्वारा सम्मान ,गहवारा ए अदब ,अमेरिका द्वारा भी मंसूर साहब को नवाज़ा गया है। फिलहाल मंसूर साहब मुरादाबाद नगर निगम में कार्यालय अधीक्षक है।
मुशायरों में निज़ामत के दौरान मंसूर साहब के बोले हुए जुमलों को लोग जगह - जगह कोट करते हैं। एक मुशायरे में अपने वालिद को ज़हमते सुखन देने के लिए जो उन्होंने कहा , उनके उस अंदाज़ को आज भी लोग याद करते हैं-- "जिनके क़दमों से उड़ी हुई धूल कभी मेरे बदन को छू गई थी और मुझे बात कहने का थोड़ा बहुत सलीका आ गया अब मैं हर्फे- इल्तिमात लेकर उस शख्सीयत के हुज़ूर पहुंचता हूँ "
जहां तक शाइरी का सवाल है मंसूर उस्मानी ने मुहब्बत भरा ख़त भी खुद्दारी कि क़लम से लिखा है। नस्ले - नौ (नई पीढ़ी ) को शे'र कहने की सलाहियत मंसूर उस्मानी की शाइरी से सीखनी चाहिए। मंसूर उस्मानी के शे'र इस तरह अपना सफ़र करते है जिस तरह दरिया बहने के लिए अपना रस्ता ख़ुद बना लेता है। अलग अलग ज़ाविये के उनके ये शे'र मेरी इस बात की पुरज़ोर वक़ालत करते है :--
बाज़र्फ़ दुश्मनों ने नवाज़ा है इस क़दर
कमज़र्फ़ दोस्तों की ज़रूरत नहीं रही
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मुहब्बत का मुक़द्दर तो अधूरा था,अधूरा है
कभी आंसू नहीं होते, कभी दामन नहीं होता
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ख़ुद को साक़ी की निगाहों से गिराते क्यों हो
डगमगाते हो तो मयखाने में आते क्यों हो
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तंग आकर ग़लत बयानी से
हम अलग हो गए कहानी से
आदमी आदमी का दुश्मन है
इस सियासत की मेहरबानी से
****
हमको मिटाने वाले ही दुनिया से मिट गए
हम आज भी ख़ुदा की क़सम खैरियत से हैं
सच पूछिये तो उनको भी हैं बेशुमार ग़म
जो सब से कह रहे हैं कि हम खैरियत से हैं
मैंने जितना मंसूर साहब को पढ़ा और समझा मैं इतना ज़रूर कहूंगा कि मंसूर उस्मानी इस डुप्लीकेट अदब के दौर में ग़ज़ल को तहज़ीब के प्याले में लेकर उबड़-खाबड़ रास्तो पर अपना सफ़र मुसलसल जारी रखे हुए है और कमाल ये है कि उनकी इस मुसाफ़त के हुनर ने ग़ज़ल को तहज़ीब के प्याले से छलकने भी नहीं दिया है। ग़ज़ल की आबरू यूँ ही महफूज़ रहे, आमीन।
आख़िर में मंसूर उस्मानी साहब के इन्ही मिसरों के साथ :---
ज़िन्दगी भर की कमाई है ग़ज़ल की ख़ुश्बू
हमने मुश्किल से बचाई है ग़ज़ल की ख़ुश्बू
तुमने दुनिया को अदावत के तरीक़े बांटे
हमने दुनिया में लुटाई है ग़ज़ल की ख़ुश्बू
ख़ुदा हाफीज़।
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विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gamil.com
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