डॉ. प्रेम भण्डारी चाय की पहली प्याली पर दुनिया की बाबत जान लिया और ख़ुद अपने ही घर के हालात मुझे मालूम नहीं एक शख्सियत … . डॉ . प्रेम भण्ड...
डॉ. प्रेम भण्डारी
चाय की पहली प्याली पर दुनिया की बाबत जान लिया
और ख़ुद अपने ही घर के हालात मुझे मालूम नहीं
एक शख्सियत…. डॉ. प्रेम भण्डारी
हम अक्सर सुनते हैं कि फलां साहब लिखते बहुत अच्छा है , फलां साहब गाते बहुत अच्छा है और उन साहब का संगीत तो कमाल का है ये तीन अलग - अलग हुनर है जो तीन अलग - अलग शख्स में हो सकते है पर एक फ़नकार है जो लिखता भी खूब है , गाता भी खूब है और धुन भी कमाल की बनाता है। ऊपर वाले की किसी पे की गई इतनी ईनायत से इर्ष्या होने लगती है कि एक ही शख्स को इतने हुनर से उसने नवाज़ दिया। उस लाजवाब शख्सीयत का नाम है डॉ. प्रेम भण्डारी जो आज अदब और संगीत की दुनिया में किसी तअर्रुफ़ के मोहताज़ नहीं है।
डॉ प्रेम भण्डारी आम आदमी की ज़ुबान में ख़ूबसूरत शे'र कहते हैं , इनकी आवाज़ सुनकर यूँ लगता है जैसे की खुश्बू अज़ान दे रही हो और जहाँ तक संगीत का सवाल है डॉ .भण्डारी के ज़हन और उनकी उँगलियों की हारमोनियम पर हलचल से निकली धुन कानों में मिसरी सी घोल देती है।
डॉ प्रेम भण्डारी को पहली मरतबा सुनने का मौका 1995 में मिला जब आकाशवाणी बीकानेर ने अपने आँगन में एक ख़ूबसूरत मुशायरा मुनअकिद करवाया था। शीन काफ़ “निज़ाम “ साहब मुशायरे की निज़ामत कर रहे थे और बीकानेर के सामईन से उन्होंने कहा कि एक नए लबो-लहजे को आपसे मुखातिब करवाता हूँ। वो नया लहजा था डॉ .प्रेम भण्डारी ,मुझे आज भी याद है डॉ .भण्डारी ने अपनी दो ताज़ा गज़लें सुनाई जिन्हें सुनने के बाद मुझे ग़ज़ल से सच में मुहब्बत हो गई। उन दोनों ग़ज़लों के चंद अशआर मुलाहिज़ा फरमाएं :----
दरिया है अपने जोश में कच्चा घड़ा हूँ मैं
अपने वजूद के लिए फिर भी लड़ा हूँ मैं
सूरज कभी जो पुश्त पे आकर खड़ा हुआ
कहने लगा ये साया भी तुझसे बड़ा हूँ मैं
मैं हर्फ़े बेमिसाल हूँ मुझको बरत के देख
दिल की हर इक किताब में कब से गड़ा हूँ मैं
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मेरा हर लम्हा बीता है बिगड़ी बात बनाने में
आधी उम्र कटी झगड़े में आधी उम्र मनाने में
बादल ही काम नहीं था ,पांवों के छाले भी थे
तुम चाहे मानो ना मानो रेत की प्यास बुझाने में
आगज़नी का आया है इल्ज़ाम मुझी पे क्यूँ यारों
हाथ जले है मेरे तो बस्ती की आग बुझाने में
डॉ. प्रेम भण्डारी का जन्म झीलों की चादर में लिपटे शहर उदयपुर में 23 सितम्बर, 1949 को श्री दलपत सिंह जी के यहाँ हुआ। परिवार का संगीत और अदब से दूर- दूर का कोई वास्ता न था पर डॉ. भण्डारी की माता जी की रूचि भजनों में थी शायद माँ ने यही सब लोरी में सुनाया और बालक प्रेम के ज़हनो-दिल में यहीं से संगीत बस गया। डॉ भण्डारी के शौक़ के खिलाफ़ घर वालों ने उन्हें विज्ञान पढ़ने पे मजबूर किया। अपनी स्कूली पढाई के दौरान ही प्रेम भण्डारी साहब ने उर्दू भी सीखी।
बाद में डॉ. प्रेम भण्डारी ने संगीत और समाज शास्त्र में एम्.ए किया और 1991 में 'हिन्दुस्तानी संगीत में ग़ज़ल गायकी' विषय पर शोध कर पी-एच. डी. की। जब डॉ. भण्डारी ने ये शोध किया तो हिन्दुस्तान के मशहूर शाईर डॉ .राही मासूम 'रज़ा' ने कहा कि "ये मक़ाला लिखकर प्रेम भंडारी ने ग़ज़ल और ग़ज़ल गायकी दोनों पर एहसान किया है " पाकिस्तान के मकबूल शाईर माजिद -उल-बाक़री ने कहा था "ये ग़ज़ल और ग़ज़ल गायकी पे पहली किताब है जो हवाले के तौर पे इस्तेमाल की जाती रहेगी।
डॉ.प्रेम भण्डारी ने अपने एहसासात को ज़ाहिर करने का ज़रिया चुना "ग़ज़ल "। इन्होने शे'र कहने सत्तर के दशक में शुरू किये। शाईरी की राह पे सबसे पहले उंगली पकड़ कर जिसने डॉ भण्डारी को चलना सिखाया वो थे जनाब ख़ुर्शीद नवाब फिर अदब के जिन दरख्तों का साया डॉ. भण्डारी को मिला वे थे जनाब कैफ़ भोपाली, जनाब कैसर -उल जाफरी , जनाब काली दास गुप्ता 'रिज़ा',जनाब जमील कुरैशी और जनाब ख़लील तनवीर।
अपने कॉलेज के दिनों में डॉ भण्डारी की मुलाक़ात बंगाली परिवार से त-अल्लुक रखने वाली मोहतरमा "पुरोबी" से हुई जो बहुत बाद में इनकी हमसफ़र बनी पर ये ख़ूबसूरत सफ़र आज तक मुहब्बतों के साथ जारी है।
ग़ज़ल कहना जितना आसान लगता है ,उतना है नहीं, शाइरी का जहां तक सवाल है डॉ .प्रेम भण्डारी ने सादी ज़ुबान में आपबीती को जगबीती और जगबीती को आपबीती बना कर कहा है। उनके शे'र सीधे -सीधे सुनने वाले के दिल तक उतर जाते हैं। उनके अशआर ख़ुद इस बात की तस्दीक करते हैं :------
मान लिया हम फूल नहीं थे
ये भी सच है शूल नहीं थे
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मेरे देश का आम आदमी जब भी घर बनवायेगा
नींव में होगी खरी कमाई क़र्ज़ा छत पर आयेगा
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आओ इक दूजे से होकर दूर ज़रा हम भी देखें
रूहों को नज़दीक सुना है जिस्म की दूरी करती है
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दिल से दिल कि बात हुई तो होंठों से क्या कहना है
काग़ज़ पर होंठों को रख दे फिर ख़त में क्या लिखना है
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मुझसे मिलना है ,मिल खुले दिल से
क्यूँ अना दरमियान रखता है
उसके घर में भी धूल ही देखी
दर पे जो पायदान रखता है
डॉ. प्रेम भण्डारी का पहला ग़ज़ल संग्रह "झील किनारे तन्हा चाँद" 1990 में मंज़रे -आम पे आया उसके बाद एक यादगार मक़ाला "हिन्दुस्तानी संगीत में ग़ज़ल गायकी " 1992 में और एक और ग़ज़ल संग्रह "खुशबू रंग सदा के संग" 2003 में उर्दू और नागरी में एक साथ प्रकाशित हुआ।
डॉ . भण्डारी की गाई हुई ग़ज़लों और गीतों के बहुत से एल्बम आये जिनमें मुख्य है shadows ,ख़ामोशी के बाद ,creations , dreams ,reflection , भजन और मीरा।
डॉ. भण्डारी ने ग़ज़ल की रिवायत में प्राय:लुप्त होती हमरदीफ़ ग़ज़लें भी कही जिसमे कैफ़ी आज़मी की ग़ज़ल "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो" क्या ग़म है जिसको छिपा रहे हो " के हमरदीफ़ ग़ज़ल के उनके ये मिसरे सुनकर तो कैफ़ी आज़मी साहब भी जन्नत से दाद देते होंगे :---
है कौन सच्चा ,है कौन झूठा
क्यूँ तुम ये मसला उठा रहे हो
फ़लक हो तुम इस ज़मीं से मिलकर
क्यूँ अपने क़द को घटा रहे हो
क्यूँ मैक़दा बन्द कर रहे हो
क्यूँ अपनी पलकें झुका रहे हो
एक और हमरदीफ़ ग़ज़ल के दो शे'र :-
तीर है ना कमान है प्यारे
उसकी तीखी ज़बां है प्यारे
जाम खाली है आधा ,आधा भरा
दोनों ही सच बयान है प्यारे
इन्सान ऊपर से कुछ होता है और अन्दर से कुछ ,पर अपने अन्दर के सच और टूट-फूट को भण्डारी साहब ने बड़ी बे-बाकी से सादी ज़ुबान में शाइरी की शक्ल में ढाला है :--
दुनिया से छुपके कर लूँ भले ही कोई ख़ता
लेकिन ये जानता हूँ के उसकी नज़र में हूँ
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तू जो रोज़ मिला मुझसे तो
देख तबीयत भर जाएगी
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रंजो ग़म से जो बेख़बर होता
काश ऐसा भी कोई घर होता
ये ज़लालत न झेलनी पड़ती
बाहुनर से जो बे-हुनर होता
डॉ. प्रेम भण्डारी को बहुत सी अदबी तंजीमों ने एज़ाज़ से नवाज़ा है जिनमे से मुख्य है , मेवाड़ फिल्म अकादमी सम्मान 1984 में ,1994 में राजस्थान उर्दू अकादमी अवार्ड , तामीर सोसाइटी द्वारा ग़ालिब अवार्ड ,सुर नंदन भरती कोलकत्ता सम्मान ,संगीत नाटक अकादमी सम्मान और मीरा संगीत सुधाकर सम्मान।
हाल ही में बनी फिल्म "महाराणा प्रताप " के गीत डॉ.भण्डारी ने लिखे हैं और इस फिल्म का संगीत भी डॉ.भण्डारी ने ही दिया है इस फिल्म में मरहूम जगजीत सिंह ,भूपेंद्र ,साधना सरगम और रूप कुमार राठौड़ ने भी गाया है। उदयपुर में शाम के वक़्त होने वाले लाइट एंड साउंड शो का संगीत भी डॉ . भण्डारी ने दिया है।
एक आम शख्स से संगीत और ग़ज़ल की ऐसी शख्सीयत बनने का सफ़र आसान नहीं होता ,अपने आप को रियाज़ की भट्टी में तपाना पड़ता है, लफ़्ज़ों को बरतने में लहू तक थूकना पड़ता है , ख़ाकसारी की चाशनी में अपने मिज़ाज को घोलना पड़ता है और इन तमाम मशक्कतों के बाद जाकर कहीं डॉ. प्रेम भंडारी जैसी शख्सीयत की तामीर होती है । डॉ. प्रेम भण्डारी की शख्सीयत के बारे में एक और बात ये भी है कि जो भी शख्स उनसे मिलता है या तो वो डॉ. भण्डारी का हो जाता है या वो उसे अपना बना लेते हैं।
डॉ . भण्डारी ने लेखन में आई गिरावट के इस दौर को ख़ुद पे तारी नहीं होने दिया है उन्होंने गीत लिखे हैं तो मयारी लिखे हैं और शे'र कहे तो ऐसे कि जिससे तहज़ीब का कभी दामन न छूटे :--
दिल में है रहमो करम ,लब पे दुआ रखी है
अब भी पुरखों की ये तहज़ीब बचा रखी है
अब भी आते हैं कई सुलह के आसार नज़र
हमने दिल में कहाँ दीवार उठा रखी है
अजीबो-गरीब मफ़हूम को भी डॉ. भण्डारी इतने आसान लफ़्ज़ों और सादगी से शाइरी का जामा पहना देते हैं कि उनका कायल होने के अलावा फिर कोई चारा नज़र नहीं आता।
एक पल में छा गये हो जो मेरे वजूद पे
तुम धीरे - धीरे दिल से उतर तो न जाओगे
भाने लगी है दिल को तुम्हारी शरारते
कुछ दिन के बाद बोलो सुधर तो न जाओगे
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किसने पूजा, किसने चाहा, किसने मुझसे नफरत की
किस किस के ख़्वाबों में रहा कल रात मुझे मालूम नहीं
चाय की पहली प्याली पर दुनिया की बाबत् जान लिया
और ख़ुद अपने ही घर के हालात् मुझे मालूम नहीं
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प्यार कहाँ अब समझोता है
कुछ दिन बाद यही होता है
इक लम्हे का ग़लत क़दम ही
सदियों पे भारी होता है
मुलाज़मत से डॉ. भण्डारी को फ़ुरसत 2009 में मिली वे मोहन लाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी उदयपुर में संगीत विभाग के विभागाध्यक्ष थे। सेवानिवृति के बाद भी सुखाड़िया यूनिवर्सिटी उनकी सेवाएँ ले रही है। डॉ. भण्डारी स्पिक मैके ,उदयपुर के सदर है। भण्डारी साहब जयपुर दूरदर्शन और जवाहर काला केंद्र ,जयपुर की सलाहकार समिति के सदस्य भी है।
एक बात और डॉ. प्रेम भण्डारी के बारे में बताना चाहूँगा कि इन्होंने अपने कॉलेज के ज़माने में बालीबाल में राजस्थान का प्रतिनिधित्व किया और ये बालीबाल के अन्तर्राष्ट्रीय रेफरी भी है।
विनम्रता इन्सान का ज़ेवर होती है और डॉ. प्रेम भण्डारी के मिज़ाज का दूसरा नाम ही ख़ाकसारी है ,उनका रहन - सहन उनके जीने का अंदाज़ कलंदराना है उनकी ज़िन्दगी का एक सिरा फ़कीरी से मिलता है और उनके ये मिसरे इस बात को बड़ी पुख्तगी से बयान करते हैं :----
चाहत नहीं है कोई पशेमान क्या करे
मेरे लिबास से मेरी पहचान क्या करे
मैं हो के भी फ़क़ीर अमीरों से कम नहीं
मेरी बराबरी कोई सुल्तान क्या करे
डॉ. प्रेम भण्डारी जैसे किरदार ऐसे ही नहीं बनते , ख़ुदा एक आदमी में इतने हुनर ऐसे ही नहीं देता वो भी जानता है कि ये शख्स अपनी ख़ुदी को बुलंद रखता है , अपने बुज़ुर्गों की इज़्ज़त करता है, अपने से छोटों से मुहब्बत करता है , किसी पे करम करके जताता नहीं है ,अपने आप को हर वक़्त तालिबे-इल्म समझता है और जब भी दुआ करता है तो बस यही करता है :-----
मेरी आँखों को सदाक़त का नगीना देना
मेरे माथे पे मशक्कत का पसीना देना
बात अपनी मैं कभी ढंग से कह पाऊं
मुझको लफ़्ज़ों को बरतने का करीना देना
अगले हफ्ते फिर हाज़िर होता हूँ ..एक और शख्सीयत के साथ ...अल्लाह हाफ़िज़
विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com
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