प्रो . वसीम बरेलवी उसूलों पर जहां आँच आये , टकराना ज़रूरी है जो ज़िन्दा हो, तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है एक शख्सियत …. ... प्रो ....
प्रो. वसीम बरेलवी
उसूलों पर जहां आँच आये , टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हो, तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
एक शख्सियत….... प्रो. वसीम बरेलवी
आज के दौर में चाहें कोई भी क्षेत्र हो इंसानी फ़ितरत ऐसी हो गई है कि वो उरूज (तरक्की/उन्नति ) पाने के लिए छोटे से छोटा रास्ता अख्तियार करना चाहती है न कि वो सही और तवील (लम्बा) रस्ता जिस पे बा-क़ायदा उसे अपनी मेहनत और लगन से सफ़र करना चाहिए। हमारी नई पीढ़ी इस बीमारी से अछूती नहीं है । शाइरी के इलाके में भी ये संक्रमण बड़ी रफ़्तार से फैलता जा रहा है। शे'र कहने कि सलाहियत एक दिन में नहीं आती , शाइरी का ताल्लुक तो मिज़ाज से है। नए - नए प्रयोग ,चौंकाने वाला रवैया चका- चौंध तो एक बार पैदा कर देता है पर उसकी उम्र बहुत छोटी होती है। वक़्त के साथ -साथ शाइरी ने अपना मिज़ाज और अपना रंग बदला है और इसी राह पे आज की ग़ज़ल ने भी अपने तेवर बदल लिए है मगर एक शख्सीयत है जिसने अपने तक़रीबन पचास साला अदबी सफ़र में रवायत का दामन कभी नहीं छोड़ा और हिन्दुस्तानी शाइरी की सदियों की तहज़ीब की दस्तार का वक़ार जिसने कभी कम नहीं होने दिया है। उस अज़ीम शख्सीयत का नाम है प्रो.वसीम बरेलवी। प्रगतिशीलता और इंक़लाब के नाम पे अदब पे चाहे कैसा भी वक़्त गुज़रा हो या नए ज़माने के साथ चलने की हौड़ में मोतबर अदीबों ने भी बहुत से समझौते किये हो पर वसीम बरेलवी हिन्दुस्तानी अदब के वो श्रवण कुमार है जो अपनी शाइरी के काँधे पर तहज़ीब और रवायत दोनों को पचास सालों से मुसलसल ढो नहीं रहे हैं बल्कि इन्हें एक ख़ूबसूरत सफ़र करवा रहे हैं। इस हसीन सफ़र की दास्तान इस मतले और शे'र से बयान होती है :---
क्या बताऊँ ,कैसा ख़ुद को दरबदर मैंने किया
उम्र -भर किस - किसके हिस्से का सफ़र मैंने किया
तू तो नफरत भी न कर पायेगा इस शिद्दत के साथ
जिस बला का प्यार तुझसे बे-ख़बर मैंने किया
ज़ाहिद हसन (वसीम बरेलवी) का जन्म 8 फरवरी 1940 को जनाब शाहिद हसन "नसीम" मुरादाबादी के यहाँ बरेली में हुआ। इनके वालिद का त-अल्लुक़ मुरादाबाद के ज़मीदार घराने से था मगर हालात् कुछ ऐसे हो गये कि उन्हें मुरादाबाद से अपनी ससुराल बरेली में आना पड़ा दरअसल बरेली वसीम साहब की ननिहाल है और वहीं ननिहाल में इनकी परवरिश हुई। इनके वालिद के ताल्लुक़ात रईस अमरोहवी और जिगर मुरादाबादी से बड़े अच्छे थे ,उनका घर आना जाना रहता था और घर में शाइरी की ही गुफ़्तगू रहती थी सो ज़ाहिद हसन साहब के ज़हन पर शाइरी का जादू छाने लगा। 1947 में बरेली के हालात् ज़रा नासाज़ हो गये और नसीम मुरादाबादी साहब अपने परिवार के साथ रामपुर आ गये। रामपुर का माहौल अदब के लिहाज़ से बरेली से ज़ियादा बेहतर था। उस वक़्त वसीम बरेलवी साहब की उम्र 8 -10 बरस रही होगी की इन्होंने कुछ शे'र कहे और वालिद साहब ने उन्हें जिगर मुरादाबादी साहब को दिखाए जिगर साहब ने शे'र सुन के कहा कि बेटे अभी तुम्हारी पढ़ने की उम्र है शाइरी के लिए तो उम्र पड़ी है बस वसीम साहब ने जिगर साहब का कहा माना और अपनी अकेडमिक तालीम को अंजाम देने में लग गये। बरेली कॉलेज ,बरेली से वसीम साहब ने एम्. ऐ उर्दू में गोल्ड मेडल के साथ किया । उस वक़्त शायद वसीम साहब ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन उसी कॉलेज में वो उर्दू विभाग के अध्यक्ष भी बनेंगे ।
साठ के दशक के शुरूआती साल में वसीम साहब बा-कायदा मुशायरों में पढ़ने लगे । वसीम साहब का शाइरी का शौक़ अब जुनून में तब्दील हो चुका था ,उस वक़्त मुशायरों में इन मोतबर शाइरों के साथ वसीम बरेलवी को पढ़ने का मौक़ा नसीब हुआ, फिराक़ गोरखपुरी , क़मर मुरादाबादी, जगन्नाथ आज़ाद ,जोश मलसियानी , अर्श मलसियानी ,फैज़ अहमद फैज़ , कुंवर महेंदर सिंह बेदी" सहर ",नरेश शाद ,प्रेम कुमार बर्टनी , सागर निज़ामी ,कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी और मज़रूह सुल्तानपुरी। वसीम बरेलवी साहब को फैज़ अहमद फैज़ की शाइरी में नयापन नज़र आया ,फिराक़ को पढ़ना उन्हें सुकून देने लगा मगर वे नशे से चूर हो जायेँ ऐसे क़लाम की तलाश उन्हे मुसलसल रही और ये ही तलाश उनसे उम्दा ग़ज़लें लिखवाती गई। 1972 में वसीम साहब के जश्न में फिराक़ गोरखपुरी भी शरीक़ हुए । फिराक़ गोरखपुरी ने कहा कि "मेरा महबूब शाइर वसीम बरेलवी है मैं उससे और उसके क़लाम दोनों से मुहब्बत करता हूँ , वसीम के ख़यालात भौंचाल कि कैफ़ियत रखते हैं "। आज लोग वसीम बरेलवी की शख्सीयत और फ़न पे पी-एच.डी. कर रहे है पर वसीम साहब ने शाइरी की बारीकियां और उसके साथ- साथ ज़िन्दगी जीने का सलीक़ा बरेली के जाने - माने वक़ील जनाब मुन्तकिम हैदरी साहब से सीखा। हैदरी साहब ने ज़ाहिद हसन नाम के संगे -मरमर को तराश कर वसीम बरेलवी नाम का शाइरी का ताज महल बना दिया।
वसीम बरेलवी मानते हैं कि शे'र लफ़्ज़ से पैदा नहीं होता शे'र एहसास से जन्म लेता है और उनका ये कौल उनके क़लाम से मेल भी खाता है :--
क्या दुःख है समन्दर को बता भी नहीं सकता
आंसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है तो ख़ता इसमें तेरी क्या
हर शख्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता
वसीम बरेलवी का ये कथन भी कितना सटीक है कि शाइरी कोई अखबार की ख़बर नहीं है ,ख़बर सुबह तक ही ब-मुश्किल ताज़ा रहती है, शाम तक तो बासी हो जाती है मगर शाइरी तो सदियों तक सफ़र करती है । वाकई उनके अशआर इस जुमले को सच साबित करते हैं :--
हादसों कि ज़द पे है तो मुस्कुराना छोड़ दें
ज़लज़लों के खौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें
तुमने मेरे घर न आने की क़सम खायी तो है
आंसुओं से भी कहो आँखों में आना छोड़ दें
*****
यह सोच कर कोई अहदे-वफ़ा करो हमसे
हम एक वादे पे उम्रें गुज़ार देते हैं
रवायती शाइरी की हिमायत वसीम साहब यूँ ही नहीं करते उनका कहना है कि इतने बरसों बाद भी आज मीर और ग़ालिब हमारे लिए हवाला बने हुए हैं। शाइरी कोई भड़कते हुए शोले का नाम नहीं है सच में शाइरी तो चट्टान पे लिखी हुई वो इबारत है जो आने वाली नस्लों की नस्लें भी पढ़ती रहें तभी तो वसीम बरेलवी के शे'र तीन पीढियां एक साथ गुनगुनाती हैं :---
किसी मजलूम कि आँखों से देखा
तो ये दुनिया नज़र आई बहुत है
तुझी को आँख भर कर देख पाऊं
मुझे बस इतनी बिनाई बहुत
नहीं चलने लगी यूँ मेरे पीछे
ये दुनिया मैंने ठुकराई बहुत है
***
परों में सिमटा ,तो ठोकर में था ज़माने की
उड़ा ,तो एक ज़माना मेरी उड़ान में था
***
दूर से ही बस दरिया दरिया लगता है
डूब के देखो कितना प्यासा लगता है
पिछले दिनों सुमन गौड़ साहिबा के काव्य संग्रह "माँ कहती थी" के विमोचन के मौके पे जब अपनी तनक़ीद में मलिकज़ादा "जावेद" ने कवियित्री से उदासी की फिज़ां से बाहर निकल कर ज़िन्दगी को देखने कि बात कही तो वसीम बरेलवी ने बतौर शाइर कवियित्री की क्या ख़ूब पैरवी अपने इस शे'र के साथ की :--
हँसी जब आये, किसी बात पर ही आती है
उदास होने का अक्सर सबब नहीं होता
वसीम साहब मानते हैं कि शाइर के अन्दर की टूट - फूट ही काग़ज़ पर उतरती है ,आख़िर अन्दर की टूटन भी तो एहसासात का हिस्सा है।
वसीम बरेलवी सलीक़े का दूसरा नाम है उनका मुशायरों में बैठने का अंदाज़ , बड़ी तन्मयता से दूसरे शाइरों को सुनना यहाँ तक कि तहज़ीब की जितनी भी शर्तें है वो उनकी शख्सियत के आगे कम पड़ जाती है नई नस्ल को समझाना भी कौन-सा आसान काम है । इसे वसीम साहब यूँ बयाँ करते हैं :--
नई उम्र की ख़ुदमुख्तारियों को कौन समझाये
कहां से बच के चलना है ,कहां जाना ज़रूरी है
और इस सलीक़े के साथ हिन्दुस्तानी नारी को ये मशविरा भी वसीम बरेलवी के अलावा और कौन दे सकता है :-
थके - हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीक़ामंद शाखों का लचक जाना ज़रूरी है
किसी को भरोसा दिलाने की ज़मानत देने वाला वसीम साहब का ये शे'र जब पहली मरतबा सुना तो बस सन्न रह गया इस मयार का शे'र इस मफहूम पर पहले न सुना न उनके अलावा कोई और कह सकता है :-
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इसके बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी एक बार पाकिस्तान किसी मुशायरे के सिलसिले में गये हुए थे तब उन्हें वहाँ एक टी.वी की लाइव बहस में बुलाया गया जिसमे उनके अलावा वहाँ के एक वजीर और कुछ साहित्यकार भी थे। वसीम साहब से दोनों मुल्कों के रिश्तों में अदब की भूमिका पे सवाल पूछा गया। वसीम साहब ने वहाँ जो बोला वो अपने आप में एक मिसाल है। उन्होंने कहा कि अदब दोनों मुल्कों के लिए अहमियत रखता है मगर आप अपने यहाँ हमारे मुल्क से जगन्नाथ आज़ाद , कृष्ण बिहारी "नूर" को बुला लेते हैं और हमारे यहाँ अहमद फ़राज़ , पीरज़ादा कासिम साहब बुलाये जाते हैं ,उर्दू अदब-उर्दू अदब से मिलता रहता है। हमारे यहाँ 20 -22 साल के उर्दू न जानने वाले नौजवान भी परवीन शाकीर और अहमद फ़राज़ के न जाने कितने शे'र आपको सुना सकते हैं मगर आप बाताये आपके यहाँ कितने लोग है जिन्होंने प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद , मीरा ,निराला , दिनकर को पढ़ा है ? आप भी अपने दरीचे खोलिए हमारे यहाँ के हिन्दी साहित्य को जानिये हम लोग भाषा की सतह पर न जाने कितने मसाइल हल कर सकते हैं। हथियारों पे होने वाले खर्च को हम इंसानी ख़िदमत में लगा सकते हैं और फिर उनकी इस बात का नतीजा ये हुआ कि उसके बाद से पाकिस्तान में हिन्दी के कवि भी बुलाये जाने लगे। ये पहली मरतबा हुआ जब किसी उर्दू के शाइर द्वारा वो भी पाकिस्तान में हिन्दी साहित्य की बात रखी गयी। हिन्दी -उर्दू दोनों ज़बानों से ज़ियादा वसीम साहब हिन्दुस्तानी अदब के ख़िदमतगार है और तहज़ीब के मुहाफ़िज़ है तभी तो वसीम बरेलवी परम्परा के धागे में शाइरी के मोती पिरोते हैं :--
तुम्हारा प्यार तो सांसों में सांस लेता है
जो होता नशा तो इक दिन उतर नहीं जाता
एक बार गुजरात दंगो के बाद दुबई के एक मुशायरे में पाकिस्तान के एक शाइर ने वसीम साहब से तन्ज़ लहजे में कहा कि आपके यहाँ ये सब क्या हो रहा है ? तब वसीम साहब ने उनसे कहा कि ये हमारे घर के मसअले है और हम इसे अपने घर में निबटाना जानते हैं। हमारे यहाँ साझा संस्कृति है 95 फीसदी लोग अमन चाहते हैं बाकी बचे फ़िरकापरस्त हमारी तहज़ीब की दीवार नहीं ढहा सकते।
मुहब्बत के यह आंसू है ,इन्हें आँखों में रहने दो
शरीफ़ों के घरों का मसअला बाहर नहीं जाता
वसीम बरेलवी के हर मिसरे पे वसीम बरेलवी की मुहर लगी होती है उनका हर मिसरा ऐसे लगता है कि ये 300 साल पहले का भी है ,आज का भी और आने वाले 300 साल बाद का भी :---
उस ने क्या लाज रखी है मेरी गुमराही की
कि मैं भटकूँ तो भटक कर भी उसी तक पहुँचूँ
*****
कहां क़तरे की ग़मख्वारी करे है
समन्दर है अदाकारी करे है
नहीं लम्हा भी जिसकी दस्तरस में
वही सदियों की तैयारी करे है
***
उसी को जीने का हक़ है, जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाये
वसीम बरेलवी की अभी तक ये किताबें मंज़रे - आम पे आ चुकीं है तब्स्सुमे - ग़म (1965 ),आंसू मेरे दामन तेरा (1972 ),मिज़ाज(1990 ),आँख आंसू हुई (2000 ),मेरा क्या (2000),आँखों आँखों रहे (2007 ),और मौसम अन्दर बाहर के(2007 )।
वसीम बरेलवी ने समाज के हर हिस्से के मसाइल को अपनी अहसास की क़लम से उकेरा है चाहे वो वतन पे शहीद हो चुके किसी जाबांज का दर्द ही क्यूँ न हो :--
कभी लफ़्ज़ों से गद्दारी न करना
ग़ज़ल पढ़ना ,अदाकारी न करना
मेरे बच्चों के आंसू पोंछ देना
लिफ़ाफ़े का टिकट जारी न करना
एक आम आदमी को जीने के लिए रोज़ाना न जाने कितनी मरतबा अपने मन को मारना पड़ता है कितने समझौते उसे सुब्ह से शाम तक करने पड़ते हैं इस अंतर-मन की पीड़ा को वसीम साहब ऐसे शाइरी बनाते हैं :--
शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं
टी. वी ने किस तरह हमारी संस्कृति पे हमला किया है ,आजकल हर घर की सच्चाई क्या हो गई है अपने मिज़ाज से हटकर इस सच से भी वसीम साहब यूँ रु -ब -रु करवाते हैं :--
घर में एक शाम भी जीने का बहाना न मिले
सीरियल ख़त्म न हो जाए तो खाना न मिले
इराक में एक घटना घटित हुई एक पत्रकार ने बुश साहब पे जूता फैंका ,इस वाकिये को बहुत शाइरों ने ग़ज़ल बनाया पर जूते का इस्तेमाल शाइरी में एब माना जाता है मगर वसीम बरेलवी ने इस रिवायत को क्या ख़ूब निभाया जूते का इस्तेमाल उन्होंने किया भी नहीं और किया भी तो इस तरह :--
ये ज़ुल्म का नहीं मज़लूमियत का गुस्सा था
के जिसने हौसलामंदी को लाजवाल किया
हज़ार सर को बचाया मगर लगा मुंह पर
ज़रा से पाँव के तेवर ने क्या कमाल किया
इस अहद में इन्सान के बाज़ूओं में ईमान की ताक़त ज़रा कम हो गयी है और हुकूमत से लेकर रिआया तक पूरी प्रणाली भ्रष्टाचार से फालिज़ हो चुकी है तब वसीम साहब कुछ इस तरह अपनी बात कह्ते है :-
तलब की राह में पाने से पहले खोना पड़ता है
बड़े सौदे नज़र में हो तो छोटा होना पड़ता है
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ग़रीब लहरों पे पहरे बिठाये जाते हैं
समन्दरों की तलाशी कोई नहीं लेता
अदब की ख़िदमत के लिए यूँ तो वसीम बरेलवी साहब को अनेकों एज़ाज़ मिले हैं पर उनमें से कुछ ये हैं :--इम्तियाज़े मीर अवार्ड ,लखनऊ ,ग़ज़ल अवार्ड ,लखनऊ ,हिन्दी उर्दू साहित्य अवार्ड ,लखनऊ , अंजुमन-ए - अमरोहा कराची द्वारा सम्मान , नसीम-ए-उर्दू अवार्ड , शिकागो ,सारस्वत सम्मान (हिन्दी साहित्य सम्मलेन ,प्रयाग) ,गहवार -ए -अदब अमेरिका द्वारा सम्मान , सम्मान में नागरिकता ह्यूस्टन सिटी काउन्सिल टेक्सास ,अमेरिका द्वारा फिराक इंटरनेशनल अवार्ड और जाफ़री इंटरनेशनल साहित्य अवार्ड, अमेरिका। वसीम बरेलवी की बहुत सी ग़ज़लों को जगजीत सिंह ने अपनी मखमली आवाज़ से सजा कर दुनिया के हर गोशे में पहुंचाया और वे गज़लें इतनी मकबूल हुईं कि सुनने वालों के ज़हन –ओ- दिल में उन्होंने अपना हमेशा के लिए घर बना लिया ।
वसीम बरेलवी ने अपनी शाइरी से अदब में वो इज़ाफा किया है जिससे आने वाली नस्लें फायदा उठाती रहेंगी उनके इसी योगदान के कारण हुकूमते -हिंद ने उर्दू ज़बान को बढ़ावा देने वाली भारत की सबसे बड़ी संस्था (NCPUL) की कमान वसीम साहब के हाथ में सौंपी है।
मुशायरों में जहां कभी शे’रो-सुखन का आलम रहता था वहां अब अदब के नाम पर अदबी माफियाओं ने कब्ज़ा कर लिया है फिर भी वसीम बरेलवी नाम की एक शमा है जो शाइरी की लो को मद्धम नहीं होने देती हैं मगर तकलीफ़ ये है कि साल में 365 दिन होते हैं, 365 मुशायरे मुनअक़ीद होते हैं और वसीम बरेलवी एक है।
वसीम बरेलवी का एक मशविरा आज के मीडिया जगत के लिए बड़ा क़ाबिले - गौर है कि मीडिया का मंडप सियासत ,फ़िल्में और खेल के पिलर पर टिका है और लड़खड़ा रहा है। अगर ये साहित्य को अपना चौथा स्तम्भ बना ले तो ये पांडाल हर आंधी तूफ़ान का सामना कर सकता है। वसीम साहब ये भी मानते हैं कि इस दौर में नेट और मीडिया के ज़रिये ग़ज़ल अपना सफ़र तेजी से तय कर रही है ,हमारे कॉलेज के लड़के -लड़कियाँ शाइरी से जुड़ रहे है तो फिर ग़ज़ल को उदास होने की ज़रूरत नहीं है हाँ ज़रूरत है तो बस शाइरी में इमानदाराना कोशिशों की। लफ़्ज़ और एहसास के बीच के फासले को तय करने की कोशिश ही शाइरी है। आज के नौजवानों को वसीम साहब के कहन से सीखना चाहिए कि बात सलीक़े से कैसे कही और सुनी जाती है :--
कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
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दूरी हुई ,तो उनसे करीब और हम हुए
ये कैसे फ़ासिले थे ,जो बढ़ने से कम हुए
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चाहे जितना भी बिगड़ जाए ज़माने का चलन
झूठ से हारते देखा नहीं सच्चाई को
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ये जायदादों की तक़सीम भाइयों में हुई
के जायदादों में तक़सीम हो गये भाई
**
किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़ कर देखो
तो ये रिश्ते निभाना किस क़दर आसान हो जाये
वसीम बरेलवी जदीद शाइरी का वो घना दरख्त है जो एक मुद्दत से अपनी शाइरी के साये से हमारी सदियों की तहज़ीब को पश्चिमी संस्कृति की शदीद धूप से बचाये हुए है। ये दरख्त अदब की राह से भटकने वाले मुसाफिरों को राह भी दिखाता है और इसकी जड़े हमारी शानदार रिवायत की तरह मज़बूत है। जिसे आधुनिकता की आँधी गिरा तो क्या हिला भी नहीं सकती। सच तो ये है कि शाइरी की इतनी बड़ी शख्सियत पे हज़ारों सफ़े लिख दूँ तो भी कम है मगर एक पंक्ति में अपनी बात को अंजाम देता हूँ कि ग़ज़ल बड़ी क़िस्मत वाली है जिसे वसीम बरेलवी मिले है और जिसे वसीम बरेलवी मिल जाए तो फिर उसका इतराना वाज़िब है । हमारे अहद की ग़ज़ल यूँ ही इतराती रहे। हम भी एक दिन अपनी आने वाली पौध को बड़े फख्र से बताएँगे कि हमने वसीम बरेलवी को देखा था ,सुना था और उन्हें छुआ भी था। आख़िर में वसीम बरेलवी के इसी मतले के साथ कि शायद ये इशारा हिन्दी -उर्दू को बांटने वालों के ज़हन तक पहुंचे :--
छोटी-छोटी बातें करके बड़े कहाँ हो जाओगे
पतली गलियों से निकलो तो खुली सड़क पर आओगे
ख़ुदा हाफ़िज़़ ...
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विजेंद्र शर्मा
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, आपकी ग़ज़ल के प्रति दिलचस्पी गज़ब है । आप काफी अच्छे व्यक्तित्वों को प्रकाश में ला रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंडॉ.मोहसिन ख़ान
अलीबाग ( महाराष्ट्र )
ji dr saahab shukriyaa
हटाएंvijendra
bahut sundar. bemisaal
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात विजेन्द्र भाई
जवाब देंहटाएंशायर ज़नाब बरेलवी साहब की एक ग़ज़ल आपने पढ़वा दी
शुक्रिया
बराए मेहरबानी एक और पढ़वा दीजिये
य़े ग़ुज़ारिश है आपसे
really very nice presentation
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार बौस, गजब रुबरु करवाया शायर साहेब से। आपका कहे दिल से शुक्रीया।
जवाब देंहटाएंHindi aur Urdu me bas fark kai itna, ik khwab dekti hai ik dekhti hai sapna..
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