एक शख्सियत….....हसन काज़मी : विजेंद्र शर्मा का आलेख

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हसन काज़मी ख़ूबसूरत हैं आँखें तेरी , रात को जागना छोड़ दे ख़ुद - ब - ख़ुद नींद आ जाएगी , तू मुझे सोचना छोड़ दे ए...

हसन काज़मी

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ख़ूबसूरत हैं आँखें तेरी, रात को जागना छोड़ दे

ख़ुद -- ख़ुद नींद जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे

एक शख्सियत….....हसन काज़मी

इसमें कोई शक़ नहीं कि मीडिया से जुड़े बहुत से लोग अदब में भी अपना दखल रखते हैं और ये भी सच है कि कुछ ने तो अदब की ख़िदमत भी दिल से की है मगर प्रतिस्पर्धा के इस दौर और ख़बर को जल्दी से जल्दी पहुँचाने की होड़ ने मीडिया से जुड़े अदीबों की तहरीर में हस्सास (संवेदना) की सियाही ज़रा कम कर दी है। शायद इसकी बड़ी वजह ये भी है कि मीडिया वाले वैसा लिखते हैं जैसा उन्हें नज़र आता है या अपनी सहूलियत के हिसाब से उसमें कुछ कम ज़ियादा कर के भी लिख देते हैं। जहाँ तक शाइरी का सवाल है शाइरी का राब्ता तो पूरा का पूरा एहसास से होता है अगर किसी दर्द को आप महसूस नहीं कर सकते तो फिर उसे काग़ज़ पे उतार भी नहीं सकते इसी लिए तो ख़बर वाले सिर्फ़ ख़बर ,सनसनी ,शौहरत ,पैसा , गैलेमर और इसकी चका-चौंध की चादर में ही लिपट के रह जाते हैं। जब से हिन्दुस्तान में टी.वी अपनी पूरी रवानी के साथ वजूद में आया तब से एक ऐसी शख्सीयत उससे जुड़ी है जो बाहर से तो अपने जिस्म पे मीडिया का चेहरा लगाये हैं मगर अन्दर से ख़ालिस शाइर है , इलेक्ट्रोनिक मीडिया की इस नामचीन शाइर मिज़ाज हस्ती का नाम है हसन काज़मी

7 अक्टूबर 1960 को हसन काज़मी साहब का जन्म गंगा के किनारे बसे उतरप्रदेश के सबसे बड़े कारोबारी शहर कानपुर में हुआ। सैयद क़मरुल हसन काज़मी का तअल्लुक़ वैसे तो इलाहाबाद से है मगर इनके वालिद सदरूल हसन काज़मी साहब कारोबार के सिलसिले में कानपुर में ही बस गये थे। हसन साहब की शुरूआती तालीम से लेकर एम्.ए तक की पढाई कानपुर में ही हुई। 1207 ईसवीं में प्रयाग के राजा कांती देव का बसाया ये तारीख़ी शहर वर्तमान में उतर प्रदेश की औद्योगिकी राजधानी है मगर कारोबार के साथ - साथ इस शहर ने अदब की ख़िदमत में भी कोई कमी नहीं छोड़ी यहाँ शाइरी की ख़ुशगवार फ़िज़ां में हसन काज़मी की तरबीयत हुई ,उनके ननिहाल में भी शाइरी का माहौल था ,जब से हसन साहब ने होश सम्हाला उन्होंने अपने इर्द-गिर्द नशिस्तें ,अदबी महफ़िलें और मुशायरे देखे। धीरे - धीरे ग़ज़ल की लय उनके ज़हन- ओ -दिल में बसने लगी ,जब हसन काज़मी कॉलेज में थे तो फ़िल्मी गानों और ग़ज़लों पे पैरोडी बनाने लगे इससे उन्हें कॉलेज में बड़े इनामात भी मिले। सत्तर के दशक के आख़िर में हसन साहब बाक़ायदा शे'र कहने लगे उनकी क़लम से निकला पहला शे'र मुलाहिज़ा करें :--

भटक गया जो कभी ज़िन्दगी की राहों में

तेरे ख़याल ने उस वक़्त रहबरी की है

1977 में जिगर अकादमी के एक कार्यक्रम में कुंवर महेंदर सिंह बेदी "सहर" कानपुर आये उन्हें हसन साहब ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की एक ग़ज़ल तरन्नुम में सुनाई जिसे सुनकर सहर साहब बड़े मुतासिर हुए उन्होंने कहा कि इसी ज़मीन पे मैंने भी कुछ शे'र कहें है ज़रा इन्हें भी सुनाओ हसन साहब ने उतने ही आत्म विश्वास से उनके शे'र भी पढ़ दिये सहर साहब ने उस वक़्त कहा कि इस बच्चे में मुझे शाइरी की लो नज़र आ रही है ,ये चराग़ एक दिन बड़ी रौशनी देगा।

इस वाक़ये के बाद हसन साहब को ग़ज़ल से और भी मुहब्बत हो गई और वे शायर फतेपुरी साहब के शागिर्द हो गये शायर फतेपुरी साहब का तअल्लुक़ जिगर स्कूल से था सो हसन काज़मी का भी राब्ता जिगर स्कूल से हो गया। जिगर मुरादाबादी के शागिर्द के शागिर्द होने का एज़ाज़ हसन काज़मी को क्या मिला कि उनके कहन में जिगर के अदबी कुनबे की सी महक आने लगी :---

क्या ज़माना है कभी यूँ भी सज़ा देता है

मेरा दुश्मन मुझे जीने की दुआ देता है

अपना चेहरा कोई कितना भी छुपाये लेकिन

वक़्त हर शख्स को आईना दिखा देता है

1977 में ही हसन काज़मी ने झाँसी में अपना पहला मुशायरा पढ़ा और उससे मिले 40 रुपये की क़ीमत उन्हें आज भी याद है जिसमें से 10 रुपये कानपुर से झांसी आने -जाने में और 10 रुपये ख़ाने - पीने में खर्च करने के बाद भी 20 रुपये बचा लाये थे।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ , निदा फ़ाज़ली , अहमद फ़राज़ और कृष्ण बिहारी "नूर" की शाइरी से हसन काज़मी बड़े मुतासिर हुए , अपनी एम्. ए (उर्दू) के दौरान उन्होंने फैज़ साहब पर एक मक़ाला भी लिखा जो सहेज के रखने वाला मक़ाला है।

1982 में हसन काज़मी लखनऊ दूरदर्शन में एंकर हो गये और 1990 तक एंकर रहे उसके बाद सन 2000 तक न्यूज़ रीडर रहे। लखनऊ दूरदर्शन पे हसन साहब का "आईना" प्रोग्राम उस वक़्त बहुत मशहूर हुआ जिसमें इन्होने क़तील शिफाई , ख़ुमार बाराबंकवी ,कैफ़ी आज़मी और कृष्ण बिहारी "नूर" सरीखे शाइरों से गुफ़्तगू की। 1992 में इन्होने दूरदर्शन से अपना नाता तोड़ लिया और सहारा ग्रुप से जुड़ गये। शुरू में तो हसन काज़मी सहारा ग्रुप में वित्तीय मैनेजर रहे पर बाद में सहारा ने उनके असली किरदार को पहचान लिया और फिर से उन्हें मीडिया से जोड़ दिया गया। उनके अन्दर के शाइर की धडकनें कभी थमी नहीं यही वजह रही कि उन्होंने अपनी नौकरी के साथ - साथ शाइरी से भी रिश्ता बनाए रखा।

अब कुछ हसन काज़मी के भीतर छिपे शाइर से भी आपको मिलवा दूँ , यूँ तो आँखों के हवाले से बहुत से शे'र कहे गये मगर हसन काज़मी ने अपने महबूब को ख़ूबसूरत आँखों का ख़याल रखने का मशविरा एक ग़ज़ल के हवाले से दिया कि वो ग़ज़ल स्टेज की कामयाब ग़ज़ल हो गई तलत अज़ीज़ ने जब ये ग़ज़ल वीनस के जैन साहब को सुनाई तो उन्होंने सुनते ही इसको शूट करने का फैसला कर लिया। आज भी अगर तलत अज़ीज़ का कोई ग़ज़ल कंसर्ट हो तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि सामईन उनसे इस ग़ज़ल की फरमाइश न करें। एक दिन ये ग़ज़ल मक़बूलियत की तमाम हदें तोड़ देगी इतना तो हसन साहब ने भी कभी नहीं सोचा होगा ,आप पहले ग़ज़ल समआत फरमाएं :---

ख़ूबसूरत हैं आँखें तेरी, रात को जागना छोड़ दे

ख़ुद -- ख़ुद नींद जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे

तेरी आँखों से कलियाँ खिलीं, तेरे आँचल से बादल उड़ें

देख ले जो तेरी चाल को, मोर भी नाचना छोड़ दे

तेरी अंगड़ाईयों से मिलीं ज़हन--दिल को नई रोशनी

तेरे जलवों से मेरी नज़र ,किस तरह खेलना छोड़ दे

तेरी आँखों से छलकी हुई जो भी इक बार पी ले अगर

फिर वो मयख़ार साक़िया जाम ही मांगना छोड़ दे

ग़ज़ल को लखनऊ अपने महबूब का घरसा लगता है। ये अवध का वो तहज़ीबी शहर है जहाँ के ज़र्रे -ज़र्रे में सलीक़ा इस तरह घुला है जैसे उर्दू ज़ुबान में मिसरी की डली घुली है। हसन काज़मी के अन्दर के शाइर को शाइरी की तमाम गहराइयों से गले मिलने का मौक़ा इसी शहर में मिला। मरहूम वाली आसी साहब अपने आप में ग़ज़ल का एक मख्तबा थे,उनकी दहलीज़ में दाख़िल भर होने से ही बदन शाइरी की ख़ुश्बू से महकने लगता था। वाली आसी साहब की सरपरस्ती में हसन काज़मी की शाइरी परवान चढ़ने लगी। वाली साहब हसन काज़मी के उस्ताद तो न थे पर उस्ताद से कम भी ना थे। दुनिया के सबसे मुक्कदस लफ़्ज़ "माँ" पे सबसे ज़ियादा शे'र कहने वाले मुनव्वर राना के उस्ताद भी वाली साहब थे ,हसन काज़मी को यहाँ मुनव्वर राना की सोहबत भी मिली और नतीजा ये हुआ कि हसन काज़मी साहब ने भी "माँ" पे बेपनाह शे'र कहे। "माँ" पर इतने ख़ूबसूरत अशआर जिस शख्स ने कहे हैं उसके लिए ये ज़मीं भी किसी जन्नत से कम नहीं है मगर ये भी सौ फीसदी तय है कि उनका एक पट्टे -शुदा प्लाट जन्नत में भी आरक्षित है। माँ से मुतालिक उनके कुछ अशआर :--

हमने सुना है नीलगगन पे कुदरत रहती है

लेकिन माँ के पाँव के नीचे जन्नत रहती है

रुखी सूखी खाकर पूरा कुनबा पलता है

माँ रहती है जब तक घर में बरकत रहती है

उनके आगे चाँद ,सितारे ,सूरज सब फीके

जिन आँखों में अपनी माँ की सूरत रहती है

माँ कि दुआ का साथ छोडो,इनही दुआओं से

दुनिया से टक्कर लेने कि हिम्मत रहती है

****

दोस्ती की कोई क़ीमत नहीं मिलने वाली

बेवफ़ा तुझसे मुहब्बत नहीं मिलने वाली

माँ के क़दमों के तले ढ़ूंढ़ ले जन्नत अपनी

वरना तुझको कहीं जन्नत नहीं मिलने वाली

हसन काज़मी की ग़ज़लों का संग्रह 1990 में मंज़रे आम पे "तेरी याद के जुगनू " की शक्ल में आया इस किताब की तमहीद (भूमिका ) कैफ़ी आज़मी साहब ने लिखी इनका दूसरा मज़्मुआ- ए -क़लाम भी बहुत जल्द आनेवाला है। अपनी मुलाज़्मत का बहुत सा वक़्त इन्होंने लखनऊ में गुज़ारा है सो लखनवी इत्र की ख़ुश्बू हसन काज़मी की ज़ियादातर ग़ज़लों में से आती है मिसाल के तौर पे उनकी ये ग़ज़ल :--

आयी रास ख़ुल्द की आबो-हवा मुझे

फिर भेज दे ज़मीन पे मेरे ख़ुदा मुझे

तौबा के अंग - अंग में होने लगी कसक

आवाज़ देने आई जो काली घटा मुझे

जब सहारा परिवार ने उन्हें लखनऊ से सहारा चैनल की बड़ी ज़िम्मेदारी देकर दिल्ली भेजा तो ज़ाहिर है कि दिल्ली में दिल का लगना मुश्किल था। उन्होंने अपनी इसी ग़ज़ल के एक शे'र में अपने दिल की बात यूँ कही :--

छाई हुई है ज़हन पे शामे अवध की याद

रास आये कैसे दिल्ली की आबो-हवा मुझे

और इस शे'र के हवाले से ये दावा, दलील में तब्दील हो जाता है कि हसन काज़मी की शाइरी ख़ुद को लखनऊ से अलग हरगिज़ नहीं कर सकती

जाने मेरे गुनाह में कैसी है सादगी

ज़ाहिद समझ रहा है अभी पारसा मुझे

हमारे मुल्क के बहुत बड़े हिस्से में जो आम बोल चाल की ज़बान बोली जाती है उसके 70 फीसदी लफ़्ज़ उर्दू के है ,हमारी फिल्मों का माज़ी और हाल भी उर्दू के सहारे है इस चाशनी जैसी मीठी ज़ुबान के बिना हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान नहीं वो सिर्फ़ इंडिया नज़र आता है फिर भी ये इस दौर का दुर्भाग्य ही है कि इसे बोलने वाले तो बहुत है पर लिखने -पढ़ने वालों की तादाद ऐसे कम होती जा रही है जैसे शहरों के मकानों में से आँगन कम हो रहें है ,जैसे एक इन्सान की दूसरे इन्सान से मुरव्वत कम हो रही है। ख़ुद को इशारा बना के हसन काज़मी ने मुल्क में उर्दू के इसी दर्द को जो शाइरी बनाया है ,लोग इसकी मिसाल देते हैं :--

मैं तेरी आँख में आँसू कि तरह रहता हूँ

जलते बुझते हुए जुगनू कि तरह रहता हूँ

सब मेरे चाहने वाले हैं, मेरा कोई नहीं

मैं भी इस मुल्क़ में उर्दू की तरह रहता हूं

हसन काज़मी की शाइरी की एक ख़ासियत ये भी है कि उनका क़लाम पढ़ने /सुनने वाले के दिलो - दिमाग पे तारी तो होता है मगर बोझ नहीं बनता उनका लहजा जटिल बात को आसानी से बयान करने का हुनर रखता है। हुस्न की तारीफ़ का सबसे बेहतरीन ज़रिया ग़ज़ल है इस बात की वकालत भी हसन साहब का ये मतला और शे'र सुनकर बड़ी आसानी से की जा सकती है :-

चाँद चेहरा है लब फूल है ,चाँदनी है बदन आपका

आपके नाम इक फूल क्यूँ ,है ये सारा चमन आपका

रंग सजते हैं सब आप पर ,जो भी चाहें पहन लीजिए

धानी -धानी ज़मीं आपकी नीला -नीला गगन आपका

फिलहाल हसन काज़मी आलमी सहारा चैनल के मुखिया है , शाइर बिरादरी के लिए ये बड़े फ़ख्र की बात है। हसन काज़मी सही मायने में अदब और उर्दू दोनों की ख़िदमत कर रहें है ,आठों पहर शौहरत और चका -चौंध से घिरे रहने के बावजूद भी उन्होंने अपने पाँव ज़मीन से कभी हवा में नहीं रखें है। अपने बुज़ुर्गों से आशीर्वाद के रूप में जो तहज़ीब उन्होंने सीखी उसे हमेशा ताबीज़ की तरह अपने आप से बाँध कर रखा है तभी तो हसन काज़मी ग़ज़ल के सर से रिवायत का दुपट्टा कभी उतरने नहीं देते और अपने अन्दर घूमड़ रहें जज़्बात को आसानी से शे'र के सांचे में ढाल देते हैं :--

भीगी भीगी सी तन्हाईयाँ जब महकती है बरसात में

रक्स करता है ये दिल मेरा,तेरी यादों कि बरात में

साज़ बूंदों के बजने लगे ,फूल शाखों पे खिलने लगे

चूड़ियाँ गुनगुनाने लगी, तेरी मेहंदी लगे हाथ में

ये हवा की शरारत भी है और चरागों की आदत भी है

हुस्न वालों की फितरत भी है,रूठना बात ही बात में

हम शायर फनकार हैं ,हाँ मगर बात इतनी सी है

जो भी महसूस करते हैं हम ,ढाल देते हैं नगमात में

आज मुशायरों का वक़ार गिरता जा रहा है। कुछ सुखनवरों को तो सुनाने का शऊर भी नहीं है और न ही कुछ लोग सुनने के आदाब से वाकिफ़ है। हसन काज़मी साहब का मानना है कि जिन्हें अदबी महफिलों में बैठने तक का सलीका नहीं था वे लोग आज मुशायरों में अदबी माफियाओं की वजह से अच्छा -खासा पैसा ले रहें है और ऐसे लोगों की इस बढ़ी हुई क़ीमत ने शाइरी का नुक्सान किया है। उन्हें उम्मीद है अगर सुनने वाले और सुनाने वाले दोनों खरे हो जायेँ तो मुशायरों का वही मेयार फिर से लौट आयेगा जो फिराक़ , शक़ील,ख़ुमार बाराबंकवी ,मज़रूह और कैफ़ी आज़मी के ज़माने में हुआ करता था। हसन काज़मी ये भी मानते हैं कि आज वे जिस मकाम पे है वो सिर्फ उर्दू से मुहब्बत की वजह से है उन्होंने उर्दू -अदब का परचम वहाँ भी ऊंचा रखा है जहां सिर्फ सनसनी को तवज्जो मिलती है। अदब से जुड़ी बहुत सी तंजीमों ने अदब की ख़िदमत के लिए इन्हें सम्मान भी दिया है जिसमे , उर्दू अकादमी (उतरप्रदेश) अवार्ड , उर्दू अकादमी (दिल्ली ) अवार्ड , नरेश कुमार शाद अवार्ड और हिन्दुस्तान से बाहर की भी बहुत सी अदबी संस्थाओं ने इन्हें अवार्ड से नवाज़ा है। हसन काज़मी की ग़ज़लों को हरिहरन, तलत अज़ीज़ और जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ दी है ,जिन दिनों जगजीत साहब के बेटे का इंतकाल हुआ था उन दिनों जगजीत साहब हसन काज़मी की ये ग़ज़ल बहुत गाते भी थे और तन्हाई में गुनगुनाते भी थे।

कोई निशान कोई नक़्शे - पां नहीं मिलता

वो आस पास है लेकिन पता नहीं मिलता

ख़बर परोसने वालों के लिए किसी भी चीज़ को सुर्खी बना देना कोई मुश्किल काम नहीं होता पर हसन काज़मी सुर्खी का इस्तेमाल सिर्फ ग़ज़ल के लबों पे लगाने के लिए करते हैं। हालांकि दो कश्तियों पे सफ़र करना आसान नहीं है पर हसन काज़मी ने मीडिया और शाइरी दोनों के साथ वफ़ा की है। हसन काज़मी नाम की किताब पढ़ने के बाद लगता है की मीडिया को अभी ऐसी और किताबों की ज़रूरत है। ख़बर को सनसनी बनाने वालों के बीच रह कर भी अपने अन्दर के शाइर को ज़िंदा रखना, अपने हस्सास को ज़िंदा रखना एक ऐसा दुश्वार्तरीन काम है जिसे सलाम करने को दिल करता है। हसन काज़मी ने टी. वी के ज़रिये ग़ज़ल को वहाँ की भी सैर करवाई है जहां ग़ज़ल कभी पहुँचने की सोच भी नहीं सकती थी इसके लिए ग़ज़ल तो क्या पूरा अदब हसन काज़मी का एहसानमंद रहेगा। आख़िर में इसी दुआ के साथ कि हसन काज़मी मीडिया और शाइरी दोनों की अपनी अलग-अलग ज़िम्मेदारियों के साथ यूँ ही इंसाफ़ करते रहें। ..आमीन।

गाँव लौटे शहर से तो सादगी अच्छी लगी

हमको मिट्टी के दिये की रौशनी अच्छी लगी

बांसी रोटी सेक कर जब नाश्ते में माँ ने दी

हर अमीरी से हमें ये मुफ़लिसी अच्छी लगी

दे पाई बाल बच्चों को जो रोटी क्या हुआ

सुनने वालों को तो मेरी शायरी अच्छी लगी

--

विजेंद्र शर्मा

विजेंद्र शर्मा

vijendra.vijen@gmail.com

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: एक शख्सियत….....हसन काज़मी : विजेंद्र शर्मा का आलेख
एक शख्सियत….....हसन काज़मी : विजेंद्र शर्मा का आलेख
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