अनूठा तप-अनुष्ठान का पर्व : अक्षय तृतीया साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा अक्षय तृतीया का लौकिक और लोकोत्तर-दोनों ही दृष्टियों में महत्व है। प्रा...
अनूठा तप-अनुष्ठान का पर्व : अक्षय तृतीया
साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा
अक्षय तृतीया का लौकिक और लोकोत्तर-दोनों ही दृष्टियों में महत्व है। प्रागैतिहासिक काल से यह परम्परा रही है कि आज के दिन राजा अपने देश के विशिष्ट किसानों को राज दरबार में आमंत्रित करता था और उन्हें अगले वर्ष बुवाई के लिए विशेष प्रकार के बीज उपहार में देता था। लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि उन बीजों की बुवाई करने वाले किसान के धान्य-कोष्ठक कभी खाली नहीं रहते। यह इसका लौकिक दृष्टिकोण है।
लोकोत्तर दृष्टि से अक्षय तृतीया पर्व का संबंध भगवान ऋषभ के साथ जुड़ा हुआ है। तपस्या हमारी संस्कृति का मूल तत्व है, आधार तत्व है। कहा जाता है कि संसार की जितनी समस्याएं हैं तपस्या से उनका समाधान संभव है। संभवतः इसीलिए लोग विशेष प्रकार की तपस्याएं करते हैं और तपस्या के द्वारा संसार की संपदाओं को हासिल करने का प्रयास करते हैं।
वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन ऋषभ के जीवन का एक महत्वपूर्ण पृष्ठ है। उस समय ऋषभ के अभिनिष्क्रमण का एक वर्ष संपन्न हो चुका था, बल्कि पचीस दिन और बीत गए। इस काल में ऋषभ ने न कुछ खाया, न पीया। कई बार उन्होंने भोजन की इच्छा से परिभ्रमण भी किया, पर कुछ नहीं मिला। लंबे समय तक अन्न-जल ग्रहण न करने से उन्हें निराहार रहने का अभ्यास हो गया। अपने श्वासोच्छ्वास के माध्यम से सूर्य की रश्मियों और हवा से उन सब तत्वों को ग्रहण कर लेते, जो उनके शरीर के लिए आवश्यक थे। अब उन्हें प्रासुक और एषणीय आहार की खोज में घूमने की अपेक्षा नहीं थी। किन्तु, उनके सामने उन चार हजार तापसों के उद्विग्न चेहरे भी थे। उन्होंने सोचा-भविष्य में जो मुनि बनेंगे, वे भूखे नहीं रह सकेंगे-इसलिए मुझे भिक्षा-विधि का प्रवर्तन करना है। इस उद्देश्य से परिव्रजन करते हुए वे हस्तिनापुर पहुंचे। वहां राजमहल के गवाक्ष में राजकुमार श्रेयांस बैठे थे। वह राजमहल से नीचे उतरे और नंगे पांव ही राजपथ की ओर दौड़े। राजपथ पर बढ़ते हुए भगवान ऋषभ को रोककर राजकुमार श्रेयांस वहीं उनके चरणों में गिर पड़े। तीन बार प्रदक्षिणा पूर्वक नमन कर अपने प्रमाद के लिए क्षमायाचना की। ऋषभ ने अपना स्वाभाविक स्मित विर्कीण किया। ऋषभ मौन थे, पर उनके चरण राजप्रसाद की ओर मुड़ गए। श्रेयांस ने भिक्षा की प्रार्थना की। ऋषभ का वह परिव्रजन भिक्षा के लिए ही था, अतः उनकी मौन सहमति प्राप्त हो गई।
उस दिन प्रातःकाल ही ताजे इक्षुरस से भरे 108 कुंभ उपहार में प्राप्त हुए थे। भावना का प्रवाह बह रहा था। वह अपने जीवन में अपूर्वता का अनुभव कर रहा था। ऋषभ ने अपने हाथों से अंजलि बनाकर मुख पर टिका दी। श्रेयांस ने एक-धार इक्षुरस उड़ेलना शुरू किया। निश्छिद्र अंजलि ने एक बूंद रस नीचे गिरने दिया। ऋषभ की तपस्या का पारणा होते ही चारों ओर ‘अहोदानम्, अहोदानम्' की ध्वनियां निनादित होने लगीं। सब लोगों ने श्रेयांस के भाग्य की सराहना की।
उस दिन से वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन, अक्षय-तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी की जीवंतता के लिए अक्षय तृतीया से अक्षय तृतीया तक एकान्तर उपवास के अनूठे तप-अनुष्ठान वर्षीतप और उसके पारणे की परम्परा आज भी प्रचलित है। अक्षय तृतीया का दिन एक पवित्र दिन है। किन्तु, हमने इसके एक पक्ष तीर्थंकर ऋषभ की तपस्या को तो पकड़ लिया लेकिन ऋषभ के समग्र जीवन पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। हमारे सामने ऋषभ ही ऐसे जैन तीर्थंकर हैं, जिनका जीवन समग्र है। ऋषभ ऐसे तीर्थंकर हैं, जिन्होंने समाज के लिए अपना जीवन लगाया और फिर बाद में साधना में भी अपना जीवन खपाया। उनके जीवन में समग्रता है।
ऋषभ का एक अर्थ है-बैल और दूसरा अर्थ है-ऋषभ तीर्थंकर। ऋषभ का जीवन एक समग्र जीवन है। उन्होंने भौतिक जगत का विकास किया, तो अध्यात्म का विकास भी किया। भारतीय संस्कृति में ‘आत्मा' को सर्वोपरि सत्य माना जाता है। आत्मा की खोज को एक महत्वपूर्ण खोज माना जाता है। अक्षय तृतीया का पर्व इस खोज का एक माध्यम है।
ऋषभ का जीवन एक महत्वपूर्ण अध्याय है, पर जैनों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। न समाज व्यवस्था के सूत्रों की ओर ध्यान दिया और न ‘अहिंसक समाज व्यवस्था' की ओर ध्यान दिया। ‘अहिंसा परमो धर्मः' का नारा तो बहुत लगाया जाता है, किन्तु जुलूस की समाप्ति के बाद यह नारा भी झंडों, बैनरों की तरह संभाल कर रख दिया जाता है। अक्षय तृतीया का दिन, वर्षीतप के ‘पारणे' का दिन है। भगवान ऋषभ की स्मृति के साथ जुड़ा हुआ दिन है। यदि हम गहराई से ऋषभ का अध्ययन करें तो वर्तमान की बहुत सारी समस्याओं का समाधान संभव हो सकता है। क्योंकि उन्होंने सर्वांगीण व्यवस्था का जीवन दिया, इसलिये उनका जीवन ‘अहिंसक समाज की व्यवस्था' के प्रथम कर्णधार का जीवन है और उनके जीवन का दूसरा भाग ‘आत्मोन्मुखी साधक' की उत्कृष्ट साधना का जीवन है।
हम ऋषभ को, उस महापुरुष की स्मृति को सामने रखें, जिसने समाज के सामने पहली बार समग्रता का दर्शन रखा। केवल पदार्थवादी होना जीवन की समग्रता नहीं है। और केवल आत्मवादी होना भी जीवन की समग्रता नहीं। पदार्थ के बिना जीवन का काम नहीं चलता और आत्मा के बिना जीवन पवित्र नहीं बनता। दोनों जब मिलते हैं, तो ही परिपूर्ण बात होती है। अक्षय तृतीया का दिन वर्षीतप करने वाले तवस्वियों के लिए तो ‘पारणे' का दिन है, साथ ही साथ कुंभकारों के लिए बड़े महत्व का दिन है। शिल्पकारों के लिए भी आज बहुत महत्व का दिन है। बैलों के लिए भी बड़े महत्व का दिन है, क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले जीवन को चलाने का साधन दिया था। यह ऐसा दिन है, जिसके एक-एक पक्ष पर विचार करना चाहिए। प्रस्तुतिः ललित गर्ग प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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sunder aalekh
जवाब देंहटाएंaalekkh se gyan me vradhi hoti hai.kai nai chij maloom hoti hai
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