मलिकज़ादा जावेद अमीरज़ादे जो ख़ुद को संभाल कर रखते हवेलियों का मुक़द्दर खंडर नहीं होता एक शख्सियत …. ....मलिकज़ादा जावेद अस्सी के दशक में हमार...
मलिकज़ादा जावेद
अमीरज़ादे जो ख़ुद को संभाल कर रखते
हवेलियों का मुक़द्दर खंडर नहीं होता
एक शख्सियत….....मलिकज़ादा जावेद
अस्सी के दशक में हमारे अहद में नई नस्ल के शाइरों ने ग़ज़ल पे अलग - अलग प्रयोग करने शुरू किये। उन्हें लगा कि ग़ज़ल को रवायत की क़ैद से इसी तरीके से निकाला जा सकता है। हालांकि बहुत से लोगों ने शाइरी पर नए तेवर की रिदा (चद्दर ) डालने के चक्कर में ग़ज़ल पे सितम भी बहुत ढाये मगर कुछ ऐसे सुख़नवरों ने भी उस दौर में शे'र कहने शुरू किये जिन्होंने रिवायत से सीखा ज़रूर पर बात कहने का ढंग ,शे'र कहने का सलीक़ा उन्होंने अपना ही इजाद किया और इस तरह जदीद शाइरी को कई नए लहजे मिल गये। ऐसे ही एक नए लहजे का नाम है मलिकज़ादा जावेद (दानिश महमूद )।
एक इल्मी और अदबी ख़ानदान में जन्म होना ख़ुदा की बहुत बड़ी नेमत होती है और उपरवाले की इसी रहमत की एक मिसाल है मलिकज़ादा जावेद। पिछले पचास बरसों से उर्दू दुनिया में बड़ा मक़बूल और मोतबर नाम है प्रो. डॉ. मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद। उर्दू से तअल्लुक़ रखनेवाला शायद ही ऐसा कोई शख्स हो जो मलिकज़ादा मंज़ूर साहब के नाम से वाकिफ़ ना हो ,मलिकज़ादा जावेद मलिकज़ादा मंज़ूर साहब के साहिबज़ादे हैं। उर्दू -अदब के इस रौशन ख़ानदान के चराग़ होने के बा-वजूद मलिकज़ादा जावेद ने अपने वालिद की रवायती शाइरी की ना तो राह पकड़ी और ना ही उनके नाम का कभी सहारा लिया इसी लिए उन्होंने ये शे'र भी कहा :--
मेरे वालिद भी है शाइर सच लेकिन
मेरी ग़ज़ल में मेरा ही लहजा होगा
मलिकज़ादा जावेद का जन्म 01 जनवरी 1960 को आज़मगढ़ में हुआ उस वक़्त इनके वालिद साहब यहाँ के कॉलेज में पढ़ाया करते थे। जावेद साहब की शुरूआती तालीम गोरखपुर में हुई और फिर इन्होने लखनऊ यूनिवर्सिटी से एम्.ए. उर्दू में किया।
अपने बचपन के दिनों से ही जावेद साहब ने अपने घर में शाइरी का माहौल देखा लिहाज़ा शाइरी की तरफ़ झुकाव लाज़मी था। लखनऊ में इनके घर पे उस दौर के बड़े- बड़े शाइरों फिराक़ गोरखपुरी, कैफ़ी आज़मी ,कैफ़ भोपाली ,जौन एलिया , वाली आसी और कृष्ण बिहारी नूर साहब जैसी हस्तियों का आना जाना लगा रहता था घर में नशिस्तें चलती थी। यहीं से अपने बुज़ुर्गों को सुन - सुन कर तक़रीबन बीस बरस की उम्र में मलिकज़ादा जावेद साहब ने शे'र कहने शुरू कर दिये। उस्ताद -शागिर्द परम्परा से जावेद साहब ने परहेज़ रखा पर वाली आसी ,कृष्ण बिहारी नूर , कैफ़ भोपाली और बशीर बद्र के क़लाम ने इन्हें मुतास्सिर (प्रभावित ) बहुत किया।
वाली आसी साहब के दफ़्तर मख्तबा दीनो - अदब में जावेद साहब घंटो बैठे रहते थे और शाइरी के तमाम दांव पेचों को बड़ी बारीकी से देखते -सुनते थे। वाली आसी साहब को जावेद साहब में शाइरी की एक ऐसी ल़ो नज़र आयी की उन्हें लगने लगा कि जावेद के पास नई फ़िक्र है और शे'र कहने का अपना अंदाज़ है। बनारस के पास खमरिया में एक मुशायरे में वाली आसी साहब मलिकज़ादा जावेद को अपने साथ मुशायरा पढ़ने के लिए ले गये उस मुशायरे में कैफ़ी आज़मी साहब भी शिरक़त - फरमा थे और निज़ामत अनवर जलालपुरी साहब कर रहे थे। अनवर साहब को ये इल्म नहीं था कि नौजवान जावेद ने भी ग़ज़ल पढनी है उन्होंने एक - एक करके सब शाइर पढवा दिये यहाँ तक कि वाली। जावेद साहब ने अपने तेवर यूँ दिखाए कि कैफ़ी आज़मी साहब भी कह उठे कि ये लहजा भीड़ में अलग नज़र आयेगा। वो अलग लहजा ये था ;-----
इन फ़सादात को मज़हब से अलग ही रखो
क़त्ल होने से शहादत नहीं मिलने वाली
तालिबे - इल्म हूँ उर्दू का ,ख़ता मेरी है
नौकरी अब किसी सूरत नहीं मिलने वाली
मलिकज़ादा जावेद अपने दौर के ऐसे शाइर है जिन्हें फिराक़ गोरखपुरी ,कैफ़ी आज़मी ,ख़ुमार बाराबंकवी , मजरुह सुल्तानपुरी ,जौन एलिया ,कैफ़ भोपाली से लेकर बशीर बद्र , निदा फाज़ली, वसीम बरेलवी ,मुनव्वर राना ,राहत इन्दौरी और नस्ले - नौ के साथ भी शाइरी करने का मौका मिला है। अपने बुज़ुर्गों से उन्होंने बहुत सीखा है और उसे फिर अपने कहन में भी ढाला है ;----
अगर ये राह में बूढ़ा शजर नहीं होता
शदीद धूप में मुझसे सफ़र नहीं होता
अमीरज़ादे जो ख़ुद को संभाल कर रखते
हवेलियों का मुक़द्दर खंडर नहीं होता
ऐसा कहा जाता है कि शाइर की उम्र जब तक ढ़लान पर न आ जाए तब तक उसका क़लाम एतबार के काबिल नहीं होता पर अपनी शाइरी के इब्तिदाई दौर में भी जावेद भाई ने ऐसे शे'र कहे कि इस धारणा को बदलने के अलावा कोई चारा फिर तनक़ीद वालों को नज़र नहीं आया।
वो हर जुमला अधूरा बोलता है
फिर उसके बाद चेहरा बोलता है
जहन्नुम नाम लिखवा लेगा अपने
बुज़ुर्गों से जो ऊँचा बोलता है
वो तहतुल-लफ़्ज़ हो या हो तरन्नुम
ग़ज़ल किस की है लहजा बोलता है
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सुखन में दस्तकारी बढ़ रही है
ग़ज़ल के कारखाने लग रहे हैं
मलिकज़ादा जावेद की ग़ज़लों का पहला मज़्मुआ- ए -क़लाम "खंडर में चराग़ " 1992 में उर्दू में शाया हुआ जिसे उतर प्रदेश उर्दू अकादमी ने एज़ाज़ से नवाज़ा। ऐसे लोगों की तादाद हमारे मुल्क में कम नहीं है जिन्हें उर्दू लिपि तो नहीं आती पर वे इस शीरीं ज़बान से मुहब्बत बहुत करते हैं उन्हें जावेद भाई ने 2005 में एक ग़ज़ल संग्रह "धूप में आईना " बतौर तोहफा दिया। इसके बाद इनका एक और ग़ज़लों का मजमुआ ए क़लाम उर्दू में "ज़ुल्फ़ में उलझी धूप " 2008 में मंजर ए आम पे आया। मलिकज़ादा जावेद ने बशीर बद्र साहब के साथ ग़ज़ल 2000 "धूप जनवरी की फूल दिसंबर के" के सम्पादन में भी सहयोग किया।
मलिकज़ादा जावेद की शाइरी लखनऊ जैसे तहज़ीबी शहर में परवान चढ़ी , ज़ाहिर है लखनऊ की छाप उनके अशआर के रंगों में दिखेगी ज़रूर :--
रंजिशें खत्म कर दुश्मनी छोड़ दे
खिड़कियाँ अपने दिल की खुली छोड़ दे
उसको रहना है सूरज तो उस से कहो
कुछ दियों के लिए रौशनी छोड़ दे
तेरे बिन यूँ सुलगती रही ज़िन्दगी
जैसे लकड़ी कोई अधजली छोड़ दे
मलिकज़ादा जावेद की शाइरी ग़ज़ल की तीन नस्लों का एक साथ त-आर्रुफ़ करवाती है कभी उनकी शाइरी में कैफ़ी आज़मी सी कैफियत नज़र आती है कभी कृष्ण बिहारी नूर का नूर तो कभी शकील जमाली से तेवर। जावेद साहब की एक ग़ज़ल जो उनका हवाला भी बन गई है और ये ग़ज़ल इन तमाम रंगों का दीदार एक ही तस्वीर में करवाती है :--
जिधर देखो सितमगर बोलते हैं
मेरी छत पर कबूतर बोलते हैं
ज़रा सा नाम और शुहरत को पाकर
हम अपने क़द से बढ़कर बोलते हैं
खंडर में बैठकर एक बार देखो
गये वक्तों के पत्थर बोलते हैं
सम्हल कर गुफ़्तगू करना बुज़ुर्गों
के बच्चे अब पलटकर बोलते हैं
जो घर में बोल दें तो रह न पाये
जो हम सब घर के बाहर बोलते हैं
कुछ अपनी ज़िन्दगी में, मर चुके है
कुछ ऐसे है जो मर कर बोलते हैं
ग़ज़ल कहने के लिए मलिकज़ादा जावेद शास्त्रीय रास्तों का इस्तेमाल नहीं करते वे अपनी राह नई पगडंडियों पे तलाश करते हैं। शाइरी को समझने और उसपे चलने की न जाने कितनी नई सड़कें जावेद साहब ने अपने कहन के हुनर से बनाई है। इन दिनों उनकी ये ग़ज़ल इसी बात की एक ताज़ा मिसाल है :---
मुझे सच्चाई की आदत बहुत है
मगर इस राह में दिक्क़त बहुत है
किसी फुटपाथ से मुझको खरीदो
मेरी शौरूम में क़ीमत बहुत है
समझकर सोच कर हमसे उलझना
दबे-कुचलों में ताक़त बहुत है
हम आपस में लड़ें,लड़कर मरें क्यूँ
तबाही के लिए कुदरत बहुत है
मुशायरों की मक़बूलियत ने शाइरी को टी.वी के ज़रिये आम लोगों तक पहुंचाया तो है मगर कुछ ऐसे लोग भी मंचों पे आ गये है जो किसी और से क़लाम लिखवा के अपनी ख़ूबसूरत आवाज़ में पढ़ते हैं। ऐसे लोग हमारे अदब को दीमक की तरह चाट रहे है। इस तरह के नकली किरदारों पर जावेद साहेब ने अपने चुटकी लेने वाले लहजे से यूँ कहा है :--
जो दूसरों से ग़ज़ल कहलवा के लाते हैं
ज़ुबां खुली तो तलफ्फुज़ से मार खाते हैं
उठाओ कैमरा तस्वीर खींच लो इनकी
उदास लोग कहाँ रोज़ मुस्कुराते हैं
ज़रा सा नरम हो लहजा ज़रा सा अपनापन
शरीफ़ लोग मुरव्वत में टूट जाते हैं
अपने जज़बात के इज़हार के लिए मलिकज़ादा जावेद आम बोल- चाल के जो लफ़्ज़ चुनते हैं और ये आज वक़्त की ज़रूरत भी है। जावेद ग़ज़ल पढ़ते वक़्त हँसते - हँसते इतने गहरे शेर कह जाते हैं कि सुनने वाला बाद में उनके मिसरों में घूमता रह जाता है। ये हौसला हर किसी में नहीं होता ,शाइरी में जोख़िम उठाना आसान काम नहीं है और मलिकज़ादा जावेद इन ख़तरात के शौकीन है :---
सियासत को लहू पीने की लत है
नहीं तो मुल्क में सब खैरियत है
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अजब सीली हुई माचिस है घर में
ज़रूरत पर कभी जलती नहीं है
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बिजली ,पानी .राशन और बच्चों की फीस
ज़िन्दा रहने में कितनी दुश्वारी है
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लहरों के साथ साथ बहुत दूर तक गये
दरिया से गुफ़्तगू की इजाज़त नहीं मिली
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खिड़की के बाहर मत झाँक
अपने घर के अन्दर देख
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उनकी क़िस्मत में बलंदी ही लिखी है "जावेद"
कभी सरकार से लड़कर कभी सरकार के साथ
मलिकज़ादा जावेद हिन्दुस्तान और विश्व में जहाँ जहाँ उर्दू बोली -समझी जाती है में होने वाले मुशायरों में बड़ी इज़्ज़त ओ एहतराम के साथ बुलाये जाते हैं। उतर प्रदेश उर्दू अकादमी ने जावेद साहब को एज़ाज़ से नवाज़ा है। इन्हें लता मंगेशकर सम्मान स्वयं लता जी ने अपने कर कमलों से दिया है ,कुंवर महेंद्र सिंह बेदी सहर सम्मान भी मलिकज़ादा जावेद साहब को मिला है इसके अलावा बहुत सी अदबी तंजीमों ने एज़ाज़ से इन्हें नवाज़ा है। फिलहाल मलिकज़ादा जावेद साहब उतर प्रदेश अलपसंख्यक वित्तीय एवं विकास निगम में मंडलीय अधिकारी है और नोयडा में रहते हैं।
ज़ियादातर जावेद साहब को छोटी बहर में शे'र कहना रास आता है। छोटी बहर में बात कहने का उनका अंदाज़ यूँ है :--
सब कुछ कुछ पाकर खोना है
ये सच है सच होना है
हम सब एक मद्दारी है
दुनिया जादू टोना है
अपने अशआर की दीवार पर समाज के तमाम मोज़ूआत के पोस्टर मलिकज़ादा जावेद ऐसे चस्पा करते हैं कि फिर लगने लगता है कि ये दीवार इन्ही पोस्टरों के लिए बनी हो। ग़ज़ल कहना शुरू करने वालों को अपने मुतआले में एक नाम ज़रूर जोड़ना चाहिए वो है मलिकज़ादा जावेद। ज़बान का रख -रखाव, अंग्रेज़ी ज़ुबान के उन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल जो रोज़ - मर्रा की ज़िन्दगी में काम आते हैं , तन्ज़ को सादगी से ऐसे कह देना जैसे आपने कुछ कहा ही नहीं ये सब हुनर मलिकज़ादा जावेद से सीखे जा सकते हैं। उनका कहन वाकई भीड़ से उनको अलग करता है उनके ये अशआर इसी बात की तस्दीक करते हैं :---
मुझको दुनिया कहे अगर अच्छा
ये बुरे वक़्त की निशानी है
अपने बच्चों पे क्यूँ करूं ग़ुस्सा
हर कमी उनमें ख़ानदानी है
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जो अकेला ही एक लश्कर था
दुःख हुआ उसके हार जाने पर
ज़लज़ले ,हादसे ,सुनामी, बम
सब तुले है हमे मिटाने पर
छाँव के साथ धूप भी रोई
आज एक पेड़ सूख जाने पर
मलिकज़ादा जावेद मशहूर होने के लिए तमाशों के हुनर का इस्तेमाल नहीं करते उनके सुलगते हुए ज़हन में शिद्दत भी बहुत है और उनके हर शेर में जिद्दत भी बहुत है। बुज़ुर्गों के पाँव दबा कर अपनी मेहनत और मशक्कत के बाद उन्होंने सलीक़े के साथ शाइरी केफ़न को बतौर आशीर्वाद हासिल किया है। तभी वो ऐसे गहराई वाले शे'र कह पाते हैं :--
कभी दालान में कभी दर पर
एक बूढ़ा चराग है घर पर
मलिकज़ादा जावेद हमारे अहद के एक मारुफ़ शाइर है और ये मेरा दावा है की उनका क़लाम आपको ये सोचने पे तो मजबूर करेगा कि ये शख्स इतनी संजीदा बात को इतनी आसानी से कैसे कह जाता है। ये हुनर भी आते -आते ही आता है। बड़े सादा लफ़्ज़ों में मलिकज़ादा जावेद ग़ज़ल का वो श्रंगार करते हैं कि ग़ज़ल अपने आपको मलिकज़ादा जावेद के आईने में देखती है तो शरमाने लगती है। ग़ज़ल का ये हुस्न बना रहे इसी दुआ और जावेद साहब के इन मिसरों के साथ :---
दिल में किरायेदार न रखना
मुश्किल से हिजरत होती है
फ़न पर जब फ़नकार हो हावी
तब जाकर शौहरत होती है
ख़ुदा हाफ़िज़ ..
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विजेंद्र शर्मा
bahut khoob.
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुंदर लेख
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