शकील आज़मी परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है ज़मीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है एक शख्सियत …. ......शकील आज़मी जिस तरह वायुमंडल में प्राण ...
शकील आज़मी
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
ज़मीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है
एक शख्सियत….......शकील आज़मी
जिस तरह वायुमंडल में प्राण वायु ऑक्सीजन के साथ दूसरी कई नुक्सान पहुंचाने वाली गैसें मौजूद है ठीक उसी तरह आज दुनिया की ख़ुशगवार फ़िज़ां में दहशतगर्दी इतनी ज़ियादा घुल गई है कि इससे इंसानियत नाम की शय को ख़तरा पैदा हो गया है। दहशतगर्दी ने मज़हबों के साथ - साथ कौमों , ज़ातों, तारीख़ी शहरों और जगहों को भी अपनी गिरफ़्त में ले लिया है। हिन्दुस्तान की तारीख़ का एक अदबी शहर आज़मगढ़ सबसे ज़ियादा इस बीमारी का शिकार हुआ है। एक ज़माना था जब ये कहा जाता था की जहां - जहां आदमी है ...वहां - वहां आज़मी है। तमसा नदी के तट पर 1665 में आज़म खाँ ने इस शहर को बसाया। इस शहर ने राहुल सांस्कृत्यायन ,अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध ",मौलाना शिब्नी नोमानी , प्रो. खलीलुर्रहमान आज़मी और कैफ़ी आज़मी जैसी अज़ीम शख्सियात हिन्दुस्तान को दी मगर एक आध किरदार अब्बू सलेम जैसे भी इस शहर की कोख़ से पैदा हो गये और हिन्दुस्तान के नक़्शे में फिरकापरस्त सियासत ने ये मुहर लगवा दी कि ये शहर दहशतगर्दी की राजधानी है। एक वक़्त था जब मुंबई फिल्म उद्योग में कोई नया गीतकार आता था तो उस से सभी यही कह्ते थे कि भाई आप आज़मगढ़ से हैं क्या ?ऐसा ही एक वाकया तक़रीबन दस साल पहले हुआ जब एक नौजवान काग़ज़ और क़लम के साथ मशक करते -करते एक फिल्म के निर्देशक के पास पहुंचा उसे बताया कि मैं गीत लिखता हूँ आप मुझे एक मौक़ा दें। निर्देशक ने कहा कि कहाँ के हो ? नौजवान बोला जी आज़मगढ़ ,ये सुनते ही निर्देशक महोदय बोले कि यार ये आज़मगढ़ की मिट्टी में ऐसा क्या है कि कहीं से भी कोई पत्थर निकालो तो शाइर निकलता है। वही आज़मगढ़ का सीधा सा नौजवान आज हिन्दुस्तान का मक़बूल और मुमताज़ शाइर /गीतकार शकील आज़मी हो गया है। शकील आज़मी के बारे में जानने और उन्हें पढ़ने के बाद आज़मगढ़ की ज़मीं को चूमने का दिल करता है। शकील आज़मी गीतकार के साथ -साथ नई पीढ़ी के बेहतरीनशाइर भी है उनके क़लाम के मेयार का अन्दाज़ा उनके एक मतले और दो शे'रों से हो जाता है :-
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
ज़मीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है
कनीज़ हो कोई या कोई शाहज़ादी हो
जो इश्क़ करता है कब ख़ानदान देखता है
मिला है हुस्न तो इस हुस्न की हिफ़ाज़त कर
संभल के चल तुझे सारा जहान देखता है
शकील आज़मी का जन्म 20 अप्रेल 1971 को ग्राम सीधा सुल्तानपुर (आज़मगढ़) में वक़ील अहमद खान साहब के यहाँ हुआ। इनके वालिद ज़मींदारी करते थे सो घर में कोई शाइरी का माहौल नहीं था पर शकील साहब की अम्मी को शाइरी में रूचि थी और उसी वजह से शकील साहब का रुझान भी शाइरी की तरफ़ हो गया। शुरूआती पढाई शकील आज़मी ने आज़मगढ़ में की। पंद्रह बरस की उम्र से ही शाइरी की जानिब उनका झुकाव कुछ ज़ियादा हो गया , ग़ालिब,मीर , दाग़ , मोमिन फ़िराक़ ,नासिर काज़मी , मुहमद अल्वी, बशीर बद्र और निदा की शाइरी से मुतास्सिर हो शकील आज़मी ने शे'र कहने भी शुरू कर दिये। शकील आज़मी का बा-क़ायदा कोई उस्ताद नहीं रहा। जो सीखा उन्होंने अपने शौक़ ,अपने मुतआले (अध्ययन) और अपनी मशक्कत से सीखा। रोज़गार के सिलसिले में बहुत छोटी उम्र में शकील साहब ने आज़मगढ छोड़ दिया और बड़ौदा में सुपारी के कारोबार से जुड़ गये। बड़ौदा उन्हें ज़ियादा रास नहीं आया फिर दो साल भड़ूच और उसके बाद दस साल सूरत में सुपारी के कारोबार के साथ -साथ शाइरी भी करते रहे। एक तरफ़ आँखों में फिल्मों में गीत लिखने का सपना दूसरी तरफ़ सूरत में अपने पाँव जमाने की जद्दो-जहद और इन दोनों के बीच की कशमकश से जो अशआर हुए तो ऐसे हुए :--
मर के मिट्टी में मिलूंगा खाद हो जाऊंगा मैं
फिर खिलूँगा शाख़ पर आबाद हो जाऊंगा मैं
अपनी ज़ुल्फों को हवा के सामने मत खोलना
वरना ख़ुश्बू की तरह आज़ाद हो जाऊंगा मैं
तेरे जाने से खंडर हो जाएगा दिल का महल
छोड़ के मत जा मुझे बरबाद हो जाऊंगा मैं
एक दिन फिर किस्मत ने भी करवट बदली , शकील आज़मी की मेहनत रंग लाई रेमंड ग्रुप के विजयपत सिंघानिया साहब ने उनका क़लाम कहीं सुना और उन्हें अपनी फिल्म "वो तेरा नाम" में (2003) गीत लिखने के लिए कहा उस ब्रेक के बाद शकील आज़मी ने पीछे मुड़ के नहीं देखा। आज तक शकील आज़मी 16 -17 फिल्मों में गीत लिख चुके है और 5 -6 फ़िल्में उनकी आने वाली है। आज कल हिन्दी फिल्मों में गीतों का मेयार भी अपनी उम्र का आख़िरी सावन देख रहे बूढ़े आदमी की कमर की तरह झुक गया है। ऐसे में शकील आज़मी के गीत एक उम्मीद का दीदार इस ज़मानत के साथ करवाते हैं कि अगर क़लम में दम हो तो आज भी अच्छे गीत लिखे जा सकते हैं। अभी तक जिन फिल्मों के गीत शकील आज़मी ने लिखे उनमें से मुख्य है :- मदहोशी ,ज़हर ,वो लम्हे ,EMI,धोका ,ट्रम्प - कार्ड ,भेजा फ्राई -२, लाइफ एक्सप्रेस ,नज़र ,तेज़ाब, और होंटड़।
मायानगरी की माया शकील आज़मी के अन्दर के ख़ुलूस इन्सान को नहीं बदल सकी ,फिल्मों में गीत लिखने के साथ -साथ नज़्में और ग़ज़लों से मुहब्बत बराबर बनी रही। उनकी शाइरी में गाँव और शहर के दरमियान का बुनियादी फर्क़ साफ़ झलकने लगा उन्होंने गाँव की जानिब बढ़ते हुए बाज़ार को भी ग़ज़ल बनाया :--
तुम क्या मिले कि हम भी गज़लयार हो गये
दो चार शेर कह के ज़मींदार हो गये
सूरज से मैंने हाथ मिलाकर बुरा किया
साये सभी मकान के उस पार हो गये
खेतों में ईंट बोने का दस्तूर चल पड़ा
अब छोटे -मोटे गाँव भी बाज़ार हो गये
रिवायत की जानिब बह रही ग़ज़ल की कश्ती 80 के दशक में धीरे - धीरे अपने मिज़ाज बदलने लगी उसे ऐसे ना-ख़ुदा (मांझी) मिल गये जिन्होंने मुआफिक़ हवा न होने के बाद भी कश्ती को दूसरी सिम्त मोड़ दिया। शकील आज़मी भी ऐसे ही नाविक हो गये उन्होंने भी रिवायत का लिहाज़ ज़रा कम रखा , जो जी में आया और जो मन को भाया वो कहा मगर उनके कहन के इस अनूठे अंदाज़ से ग़ज़ल को कोई नुक्सान नहीं हुआ बल्कि ग़ज़ल को एक नया और ताज़ा चेहरा मिल गया। ग़ज़ल में लफ़्ज़ों की ऐसी बुनावट शकील आज़मी का तेवर बन गई :--
कोई भी रस्म हो सर पर नहीं उठाते हम
नमाज़ पढ़ते हैं टोपी नहीं लगाते हम
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इतनी छलकाई है महफ़िल में गुलाबी उसने
जो भी आता है मदहोश हुआ जाता है
कुछ तो रफ़्तार भी कछुए की तरह है अपनी
और कुछ वक़्त भी ख़रगोश हुआ जाता है
शकील आज़मी शाइरी में नई पीढ़ी कि नुमाइंदगी करते हैं और नस्ले-नौ से तनक़ीद(समीक्षक/आलोचक) वाले ऐसी तशबीह की उम्मीद ज़रा कम ही रखते हैं पर शकील आज़मी ने अपने एक शे'र में ख़्वाब की फ़स्ल को घास से और बहते हुए आंसुओं को बाढ़ से उपमा दे कर ये जता दिया कि वो फ़न के एतबार से कितने खरे हैं :--
मेरी बहती हुई आँखों में तेरे ख़्वाब की फ़स्ल
बाढ़ के पानी में ये घास मर न जाय कहीं
आके ले जा। कि बहुत शोर है दिल में मेरे
तेरी तन्हाई मेरे पास न मर जाय कहीं
शकील आज़मी का हर शे'र हुस्ने मानी और हुस्ने बयां का आइनादार होता है तभी शकील आज़मी का क़लाम दिलो-जां को सुरूर और आँखों को नूर की दौलत अता करता है। उनके ये अशआर मेरी इस सच बयानी पर मुहर लगाते हैं :--
अपनी मंज़िल पे पहुंचना भी ,खड़े रहना भी
कितना मुश्किल है बड़े होके बड़े रहना भी
काश मैं कोई नगीना नहीं, पत्थर होता
क़ैद जैसा है अंगूठी में जड़े रहना भी
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कुछ इस तरह से मिलें हम कि बात रह जाये
बिछड़ भी जायें तो हाथों में हाथ रह जाये
अब इसके बाद का मौसम है सर्दियों वाला
तेरे बदन का कोई लम्स साथ रह जाए
मैं सो रहा हूँ तेरे ख़्वाब देखने के लिये
ख़ुदा करे मेरी आँखों में रात रह जाये
(लम्स =स्पर्श)
छोटी उम्र में रोज़गार के लिए अपना घर छोड़ देना ,घर-बार होने के बा-वजूद अपने ही मुल्क में अपने आप को मुहाजिर बना लेना ये तमाम ग़म अपने सीने में साथ लेकर जब कोई खुद्दार क़लम लिखेगी तो ज़ाहिर है शाइरी के साथ इन्साफ़ ही होगा और शे'र होंगे तो इस मेयार के होंगे :--
किसी भी खेत पे बरसे ,कहीं का हो जाये
ख़ुदा करे कि ये बादल ज़मीं का हो जाये
मैं उसके जिस्म का सब ज़हर पी के मर जाऊँ
अगर वो सांप मेरी आस्तीं का हो जाये
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फूल सूखे हुए गुलदान से कब निकलेंगे
ज़िन्दगी। हम तेरे अहसान से कब निकलेंगे
शकील अपनी बात कहने के लिए नए -नए प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि मुहब्बत और सियासत को वो एक ही तराज़ू में एक मंझे हुए पंसारी की तरह तौल देते हैं और अगर कहीं पर किसी की श्रद्धा में उन्हें ज़रा सी कमी नज़र आती है तो उसे भी शाइरी बनाने से नहीं चूकते हैं :--
कई आँखों में रहती है कई बांहें बदलती है
मुहब्बत भी सियासत की तरह राहें बदलती है
इबादत में न हो गर फ़ायदा तो यूँ भी होता है
अक़ीदत हर नई मन्नत पे दरगाहें बदलती है
मुंबई के ग्लैमर की चका-चौंध में घिरे रहने के बाद भी शकील आज़मी सादगी की रिदा (चादर) से अपने पाँव बाहर नहीं निकालते हैं। उनकी जड़ें आज भी अपने क़स्बे की तहज़ीब से जुड़ी हुई है। पिछले दिनों का एक छोटा सा वाकया है ,अपने ग़ज़ल संकलन के सिलसिले में मैंने उन्हें फोन किया उस वक़्त वे दिल्ली के किसी सिनेमा हाल में कोई फिल्म देख रहे थे उन्होंने कहा की भाई फिल्म में हूँ निकलते ही काल करता हूँ। वही हुआ बीस मिनट बाद उनका फोन आ गया ,बोले भाई बस निकला हूँ फिल्म से और चाय पी रहा हूँ ,अचानक उनकी आवाज़ आई " यार ज़रा वो करारी सी एक तंदूर वाली रोटी देना साथ में " मैंने पूछा भाई आप किसी रेस्तरां में है क्या ? उन्होंने कहा नहीं भाई बस फुटपाथ पे खड़ा हूँ, तंदूर की रोटी सिकती देख गाँव की याद आ गई गाँव में ऐसे ही चाय के साथ करारी रोटी खाते थे। मुझे लगा कि इस आदमी ने अपने अतीत को कितना सहेज के रखा है। शोहरत , नाम ,पैसा ये तमाम खिलौने मिलने के बाद भी शकील आज़मी के अन्दर का बच्चा आज भी गाँव के नीम में अटके चाँद की तलब रखता है। उस दिन से मेरे मन में शकील आज़मी के प्रति आदर का भाव और बढ़ गया। ऐसे सीधे -सादे हैं शकील आज़मी तभी तो इस तरह के शे'र वे बड़ी आसानी से कह जाते हैं :---
फरेबें - ज़िन्दगी खाकर भी चालाकी नहीं आयी
कि पानी में भी रह के हमको तैराकी नहीं आयी
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आँख कान में आ जाते हैं
हम पहचान में आ जाते हैं
पहले ज़ख्म ग़ज़ल बनते हैं
फिर दीवान में आ जाते हैं
शकील आज़मी की तीन किताबें अभी तक मंज़रे-आम पर आ चुकी है जिसमें सब से पहले "धूप दरिया" (1996 ) में , " एशट्रे" (2000 ) में ,"रास्ता बुलाता है "(2005 ) में ,"खिजाँ का मौसम रुका हुआ है "( 2010 ) में और एक किताब "मिट्टी में आसमान" अभी प्रकाशनाधीन है जो 2012 के शुरू में पाठकों के हाथ में होगी। ये सभी किताबें उर्दू में हैं।
शकील आज़मी ने फिल्मों में गीत लिखने के साथ- साथ टी.वी धारावाहिकों के लिए भी गीत लिखे हैं जिसमें पिया का आँगन, जीना इसी का नाम है , सावन आया रे और मिस्टर &मिस मुख्य हैं। इसके अलावा शकील आज़मी ने बहुत से प्राइवेट अल्बम्स के लिए भी लिखा है जिन्हें सुखविंदर, रूप कुमार ,सोनाली राठौड़ ,हरिहरन ,वीवा ग्रुप और निर्मल उदास ने गाया है।
शकील आज़मी बरती हुई ज़मीन पे ग़ज़ल कहने से परहेज़ करते हैं उनके रदीफ़ ,उनके काफिये और उनका लफ़्ज़ों का चयन उन्हें भीड़ से अलहदा रखता है। उनके शे'रों में मिसरा -ए -उला (किसी शे'र की पहली पंक्ति ) और मिसरा -ए -सानी (शे'र की दूसरी पंक्ति ) में पैदा होने वाला राब्ता (सम्बन्ध) भी एक ऐसा कोण बनाता है कि जब शे'र खुले तो यूँ लगे कि किसी ने ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा चट्टान पे लिख दिया हो। मेरा ये कहना कितना दुरुस्त है उनके अशआर ख़ुद बोलते हैं :--
ख़ुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें हो तो भीग जाया कर
दर्द सोना है दर्द मोती है
दर्द आँखों से मत बहाया कर
चाँद लाकर कोई नहीं देगा
अपने चेहरे से जगमगाया कर
धूप मायूस लौट जाती है
छत पे कपड़े सुखाने आया कर
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इश्क़ में कुछ सरो - सामान नहीं होता है
फिर भी इस काम में नुकसान नहीं होता है
कैसे समझाऊं तुझे पार उतरने वाले
डूब जाना कोई आसान नहीं होता है
भेड़िया आके चला जाए ,करे कुछ भी नहीं
ऐसा हर रोज़ मिरी जान नहीं होता है
आदमी की ये फ़ितरत है कि वो जल्द से जल्द मंज़िल पर पहुंचना चाहता है वो ये भी चाहता है कि इसके लिए उसे मेहनत भी ना करनी पड़े मगर शकील आज़मी न जाने ऐसे मफहूम कहाँ से निकाल लेते है वे अपनी मंज़िल से कह्ते हैं कि तुम कुछ और दूर हो जाओ ताकि मैं रस्ते का लुत्फ़ ले सकूँ और सूरज को प्रतीक बनाकर ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बयान करने का हुनर भी उनकी क़लम कि किस्मत में है :--
चाँद में ढलने सितारों में निकलने के लिए
मैं तो सूरज हूँ बुझूंगा भी तो जलने के लिए
मैं वो मौसम जो अभी ठीक से छाया भी नहीं
साज़िशें होने लगी मुझको बदलने के लिए
मंजिलों तुम ही कुछ आगे की तरफ़ बढ़ जाओ
रास्ता कम है मेरे पाँव को चलने के लिए
मरहूम कैफ़ी आज़मी साहब जब पहली मरतबा शकील आज़मी के इन तेवरों से रु -ब-रु हुए तो उन्होंने कहा कि "शकील आज़मी वहाँ से शाइरी शुरू कर रहें है जहाँ पहुँच कर मेरी शाइरी दम तोड़ने वाली है " इस से बड़ा एज़ाज़ शकील आज़मी के लिए और क्या हो सकता है।
परम्परागत शाइरी को खूंटी पे टांग कर अपने लहजे के शे'र कहने वाले शाइर शकील जमाली कह्ते हैं कि 1980 के बाद की ग़ज़ल का अगर ज़िक्र हो तो मैं शकील आज़मी को सबसे ज़ियादा इज़्ज़त -ओ- एहतराम देता हूँ क्यूंकि शकील आज़मी ज़िन्दगी और ज़मीन कि बात करता है।
मुंबई शकील आज़मी का सपना था और वो सपना पूरा भी हुआ पर जिस मुकाम पे आज शकील आज़मी है ये मुकाम ऐसे तो नहीं आया इसके लिए न जाने उन्होंने अपनी कितनी रातों का क़त्ल किया होगा और अपने ज़ेहन में आये न जाने कितने ख़यालों को मशक की आंच पे उबाला होगा। अपने संघर्ष के तमाम तजुर्बात को फिर जब ग़ज़ल बनाया होगा तब जाकर हुई होगी ऐसी ग़ज़ल :---
अपनी आवाज़ के रस्ते पे निकल चलिए कि अब
आसमां से कोई पैगाम नहीं मिलने का
भीड़ में निकलो ,नुमाइश करो अपने सर की
घर पड़े रहने से कुछ नाम नहीं मिलने का
सोचते रहने से ये भूख नहीं मिटने की
बैठे रहने से कोई काम नहीं मिलने का
*****
कमा के पूरा किया जितना भी ख़सारा था
वहीं से जीत के निकला जहां से मैं हारा था
फ़सादात से त्रस्त एक आम आदमी के दर्द को भी शकील साहब ने क्या खूब बयान किया है :-
न मेरे चेहरे पे दाढ़ी न सर पे चोटी थी
मगर फ़साद ने पत्थर मुझे भी मारा था
आज के इस प्रतिस्पर्धा के दौर में अपने फ़न की बदौलत ही कोई बलंदी पे टिका रह सकता है। शकील आज़मी इस बात से वाकिफ़ है पर सुर्ख़ियों में रहने के लिए ,बाज़ार में बने रहने के लिए लोग क्या- क्या नहीं करते ,किस हद तक गिर जाते हैं, इस सच्चाई को शकील आज़मी अपने लहजे की ग़ज़ल यूँ बनाते हैं :--
हर घड़ी चश्मे ख़रीदार में रहने के लिये
कुछ हुनर चाहिए बाज़ार में रहने के लिये
अब तो बदनामी का शोहरत से वो रिश्ता है के लोग
नंगे हो जाते है अखबार में रहने के लिये
मैंने देखा है जो मर्दों की तरह रहते थे
मसखरे बन गये बाज़ार में रहने के लिए
शकील आज़मी को बहुत से अदबी एज़ाज़ मिले हैं जिनमें कैफ़ी आज़मी अवार्ड लखनऊ , उतर प्रदेश उर्दू अकादमी अवार्ड ,गुजरात उर्दू अकादमी अवार्ड और बिहार उर्दू अकादमी सम्मान मुख्य है। शकील आज़मी के गीतों वाली पांच फिल्में रिलीज होने वाली हैं जिनमें एक -एक फिल्म विक्रम भट्ट , इन्दर कुमार ,टिन्नू वर्मा और सुधीर मिश्रा की है।
शकील आज़मी ज़ुबान का इस्तेमाल अलग ज़ाविये से करते है इस काम में ख़तरे तो बहुत है पर उन्होंने अपनी इस ख़तरात उठाने की ज़िद से गिरे-पड़े लफ़्ज़ों को मोतबर कर दिया है :--
सरों कि भीड़ में ख़ुद को छुपा के रख वरना
बुलंद होने से पैमाना लगने लगता है
किसी के लम्स को महसूस कर के देख ज़रा
तमाम जिस्म ही मयखाना लगने लगता है
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फूल सूखे हुए गुलदान से कब निकलेंगे
ज़िन्दगी। हम तेरे एहसान से कब निकलेंगे
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दिल में रख ले मुझे अरमान बना ले मुझको
जिस्म मिट्टी है तेरा ,जान बना ले मुझको
शकील साहब अपना हर काम अपनी शर्तों पे करते है चाहे ग़ज़ल में किसी लफ़्ज़ के इस्तेमाल की ज़िद हो या गीत में किसी मुखड़े को लेकर निर्माता ,निर्देशक के दवाब को ना मानना हो अपने इस अनापसंद किरदार को उन्होंने शे'र भी बनाया है :-
हम मुलाज़िम है मगर थोड़ी अना रखते है
हमसे हर हुक्म कि तामील नहीं हो पाती
इसमें कोई शक नहीं कि शकील आज़मी मुहब्बत के शाइर है और अपने अहसासात को काग़ज़ पे उकेरने के लिए चालाकी का कोई तड़का अपने शे'र में नहीं लगाते बल्कि अपनी बात सलीक़े से कह जाते हैं :-
पलक भिगोते है दिल से नमी निकालते हैं
हम अपनी आँख से तेरी कमी निकालते हैं
मुनव्वर राना साहब ने सही कहा है कि "लड़ाई में तो जानें तक गई है और सच है कि मुहब्बत में कोई ख़तरा नहीं है "किसी मसअले का हल लड़ाई झगड़ा नहीं है इस बात को शकील आज़मी ऐसे कह जाते है जैसे ईद के रोज़ कोई अपने दुश्मन को ईद मुबारक कहता है।
लड़ाई करके बहुत ज़ख्म खा चुके हैं हम
चलो के शक्ल कोई मरहमी निकालते हैं
शकील आज़मी शाइरी का वो शजर (पेड़) है जिसमें बहुत से इमकान (संभावनाएं ) छिपे है जो ग़ज़ल के मुसाफ़िर को साया देता है ,कभी ख़ूबसूरत अशआर के फल और मामूली समझे जाने वाले लफ़्ज़ों के परिंदों को आशियाना भी देता है। शकील कभी अपनी शुहरत का इश्तहार नहीं लगाते क्यूंकि उनके चाहने वाले उन्हें अपने होंठों पे सजाये रखते हैं। ग़ज़ल शकील आज़मी के साथ चलती हुई इठलाती है ,वो नाज़ करती है कि शकील आज़मी उसे नए -नए ज़ावियों से सजाते हैं। अपने क़स्बे से बिछड़ने की कसक शकील साहब को हर वक़्त सताती है मगर वे इसे भी शाइरी बना कर अपना ग़म हल्का कर लेते हैं। मुस्तक्बिल में मैं वो दिन भी देख रहा हूँ जिस दिन आज़म गढ़ पे सवाल उठाने वाले आज़म गढ़ को बड़े फख्र से सलाम करेंगे क्यूंकि आज़म गढ़ शकील आज़मी का आज़म गढ़ है। आख़िर में शकील आज़मी के एक मतले और शे'र के साथ विदा लेता हूँ :-
कहीं खोया ख़ुदा हमने, कहीं दुनिया गँवाई है
बड़े शहरों में रहने की बड़ी क़ीमत चुकाई है
कभी तो नूर फैलेगा तेरे काग़ज़ से दुनिया में
लिखे जा जब तलक तेरे क़लम में रोशनाई है
--
विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com
विजेंदर जी, एक अरसे बाद आपको पढ़कर अच्छा लगा, मौजूदा दौर में शकील आज़मी बेहरतरीन हैं...
जवाब देंहटाएंbehad khubsurat alekh aur shakeel azmi sb. ki shairi ka koi jawab hai hi nahi....
जवाब देंहटाएंشکیل اعظمی بہترین شاعر ایک اچھے انسان ہیں واہ شکیل اعظمی صاحب آپ کا جواب نہیں
जवाब देंहटाएंशाहिद जी की टिप्पणी - गूगल उर्दू - हिंदी अनुवाद के सौजन्य से -
जवाब देंहटाएंशकील आज़मी सर्वश्रेष्ठ कवि एक अच्छे इंसान हैं वाह शकील आज़मी साहब आपका जवाब नहीं
आपका आलेख पढकर ऐसा लगा जैसे किसी शायरी के समंदर से गुजर आया हूँ।
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