आलम ख़ुर्शीद देख रहा है दरिया भी हैरानी से मैंने कैसे पार किया आसानी से एक शख्सीयत …. आलम ख़ुर्शीद हिन्दुस्तान में ग़ज़ल के लिए अस्सी...
आलम ख़ुर्शीद
देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैंने कैसे पार किया आसानी से
एक शख्सीयत…. आलम ख़ुर्शीद
हिन्दुस्तान में ग़ज़ल के लिए अस्सी का दशक बड़ा इन्क़लाबी रहा ये वो दौर था जब ग़ज़ल कहने वालों की एक पीढ़ी उम्र के उस ज़ीने पे आ गई थी जहाँ तक चढ़ते -चढ़ते उम्र ख़ुद भी थक जाती है ,एक वो पीढ़ी थी जो ग़ज़ल की दुनिया में मोतबर हो चुकी थी और एक वो जो उस वक़्त की नस्ले- नौ थी और जो आज ग़ज़ल के आलम में मोतबर हो चुकी है। अस्सी के उस दौर में ग़ज़ल को कुछ ऐसे आशिक़ मिले जो उस पर तरह- तरह की आजमाइशें करने लगे किसी ने ग़ज़ल के रवायती पैरहन को बदलने की कोशिश की किसी ने रवायत की घोड़ी पे सवार हो कर ही ग़ज़ल की दहलीज़ पे अपनी शाइरी की बरात ले जाना मुनासिब समझा तो किसी ने ऐसे प्रयोग ग़ज़ल पे किये कि फिर ग़ज़ल जगह- जगह से ज़ख़्मी हो गई । उसी दौर में एक मासूम सा ग़ज़ल-गो ग़ज़ल से चुपके -चुपके इश्क़ कर बैठा उसने अपने इश्क़ का इज़हार क्या किया कि ग़ज़ल ने भी फिर सरेआम एतराफ कर लिया कि "आलम ख़ुर्शीद " तुम मेरे लिए ही बने हो ...ग़ज़ल के दिल पे जो ज़ख्म लगे थे आलम ख़ुर्शीद की शाइरी ने उन ज़ख्मों लिए मरहम का काम किया ।
मोहम्मद ख़ुर्शीद आलम खान यानि"आलमख़ुर्शीद" का जन्म राजा मोरध्वज की राजधानी , भोजपुरी ज़ुबान का मरकज़ , गंगा और सोन नदियों के तक़रीबन साहिल पे आरण्य देवी की गोद में बसे बिहार के तारीख़ी शहर आरा में जनाब ए. आर खान साहब के यहाँ 11 जुलाई 1959 में हुआ । आलम ख़ुर्शीद साहब के वालिद बिहार सरकार के मुलाज़िम थे और शाइरी से इनके ख़ानदान का दूर का भी कोई रिश्ता न था । आलम ख़ुर्शीद साहब की शुरूआती पढाई आरा में हुई उन्होंने हिन्दुस्तान की प्राचीन भाषा संस्कृत पढ़ी और अपनी बी.कॉम की पढाई तक उन्हें उर्दू बस उतनी ही आती थी जितनी घर पे सीखा दी गई। 1980 में आलम भाई भारत सरकार के मुलाज़िम हो गये । अपने स्कूल के दिनों से फुटबाल के खिलाड़ी रहे आलम ख़ुर्शीद को भी शाइरी का शौक़ कोई ज़ियादा नहीं था मगर वे चुपके – चुपके अपनी डायरी में कुछ ना कुछ लिखते रहते थे। शाइर मिज़ाज लोगों और शाइरी की मज़ाक उड़ाने वाले आलम ख़ुर्शीद ने एकबार अपनी कही एक ग़ज़ल उस ज़माने के इलाहाबाद से छपने वाले मक़बूल रिसाले "शबखून" को भेजी जिसके सम्पादक मशहूर शाइर शम्सउर रहमान फ़ारूक़ी थे,उन्हें ख़ुद बड़ा ताज्जुब हुआ जब उनकी ग़ज़ल "शबखून" में छपी दुनिया से छिपके ग़ज़ल से मुहब्बत करने वाले इस आशिक़ की पहली ग़ज़ल का मतला और एक शे'र मुलाहिज़ा हों :--
तुम जिसको ढूंढते हो ये महफ़िल नहीं है वो
लोगों के इस हुजूम में शामिल नहीं है वो
रास्तों के पेच-ओ-ख़म में कहीं और आ गये
जाना हमें जहाँ था ये मंज़िल नहीं है वो
ग़ज़ल से आलम ख़ुर्शीद का रिश्ता कुछ वक़्त बाद जग-ज़ाहिर हो गया, आलम साहब की पोस्टिंग उन दिनों पटना में थी वे ट्रेन में जब आना-जाना करते थे उनके साथ आरा के हीशाइर मरहूम शाहीद क़लीम साहब भी सफ़र किया करते थे रस्ते में उनसे ग़ज़ल के फ़न और अरूज़ पे चर्चा होती रहती थी इसी तरह उनकी सोहबत में आलम ख़ुर्शीद शाइरी की तमाम बारीक़ियों से वाकिफ़ हो गये। ग़ज़ल कहने का फ़न किसी कशीदाकारी से कम नहीं होता और एक दिन अपनी मेहनत और मशक्कत से आलम ख़ुर्शीद मंझे हुए कशीदाकार हो गये उन्होंने अपने इसी हुनर से शाइरी की ओढ़नी में लफ़्ज़ों के बेल- बूटे इस तरह टाँके कि ग़ज़ल उस ओढ़नीको ओढ़ अदब की महफ़िलों में बड़ी इज़्ज़त से जाने लगी तब से आज तक आलम ये है कि इस ओढ़नी को उतारने के लिए ग़ज़ल तैयार ही नहीं है। उस ओढ़नी के कुछ बेल- बूटे देखें ज़रा :---
देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैंने कैसे पार किया आसानी से
नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
कुछ रिश्ता है मेरा बहते पानी से
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बहुत चाहा कि आँखें बंद करके मैं भी जी लूँ
मगर मुझसे बसर यूँ जिंदगी होती नहीं है
मैं रिश्वत के मुसल्ले पर नमाज़ें पढ़ न पाया
बदी के साथ मुझसे बंदगी होती नहीं है
(मुसल्ले : नमाज़ पढ़ने की चटाई)
आलम ख़ुर्शीद ने सादा ज़ुबान का इस्तेमाल अपनी शाइरी में किया ,जिससे वो ग़ज़ल से मुहब्बत करने वाले आम आदमी के ज़हन -ओ- दिल तक पहुँचने में कामयाब हुए । रवायती ग़ज़ल साक़ी, शराब और महबूब की जुल्फों की क़फ़स से आज़ाद होना तो नहीं चाहती थी मगर आलम ख़ुर्शीद जैसे सुखनवरों ने ग़ज़ल को ये समझाया कि इस पिंजरे से उसे एक बार निकल कर देखना चाहिए आख़िरश ग़ज़ल ने कहा माना और ग़ज़ल फिर नए लफ़्ज़,नए मफहूम के पर लगाकर परवाज़ करने लगी। ग़ज़ल के इस नए मिज़ाज से ये अशआर बड़ी आसानी से मिलवा देतें है :---
किसी पुरानी अलमारी के खानों में
यादों का अनमोल खज़ाना होता है
बढ़ती जाती है बेचैनी नाख़ून की
जैसे जैसे ज़ख्म पुराना होता है
दिल रोता है चेहरा हँसता रहता है
कैसा कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है
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तोड़ के इस को बरसों रोना होता है
दिल शीशे का एक खिलौना होता है
बेमतलब की हरदम ये चालाकी क्या
हो जाता है,जो भी होना होता है
दो पल की शोहरत में भूले जाते हो
जो पाया है,उसको खोना होता है
आलम ख़ुर्शीद ने 1992 में बनारस से उर्दू में एम् .ए किया और फिर पत्रकारिता में डीग्री मगध विश्विद्यालय,पटना से की । आलम ख़ुर्शीद की शाइरी पहली मरतबा 1988 में"नए मौसम की तलाश " किताब की शक्ल में मंज़रे-आम पे आई और फिर ठीक दस साल बाद उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह "ज़हरे- गुल " कारयीन(पाठकों ) के हाथों में आया ।2003 में उनका तीसरा मज़्मुआ -ए -क़लाम " ख़यालाबाद " चौथा नागरी में"एक दरिया ख़्वाब में"2005 में और पांचवां ग़ज़ल संग्रह2008 में "कारे ज़िया" मंज़र- ए -आम पे आया इसके अलावा परवेज़ शाहिदी पे 35 सफ़ों का उनका मज़मून "हयात और कारनामें" अपने आप में पढ़ने वालों के लिए एक तोहफा है । हिन्दुस्तान और बाहर के मुल्कों में जहाँ-जहाँ ग़ज़लें पढ़ी - सुनी जाती है ऐसा कोई रिसाला नहीं होगा जिसमें आलम ख़ुर्शीद की ग़ज़लें ना छपीं हो।आलम ख़ुर्शीद की तमाम किताबों को बिहार उर्दू अकादमी ने एज़ाज़ से नवाज़ा और बिहार उर्दू अकादमी ने2006 में आलम ख़ुर्शीद साहब को लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया । हिन्दुस्तान की बहुत सी अदबी तंजीमों ने आलम खुर्शीद को अदब की ख़िदमत के लिए सम्मानित किया।
आलम ख़ुर्शीद नए ज़माने में भी पुरानी कद्रों के शाइर है उनका लहजा रिवायत को किस तरह छू के निकल जाता है ख़ुद रिवायत को भी पता नहीं चलता उनके ये शे'र तो यहीं बयान करते है:--
तेरे ख़याल को ज़ंजीर करता रहता हूँ
मैं अपने ख़्वाब की ताबीर करता रहता हूँ
तमाम रंग अधूरे लगे तेरे आगे
सो तुझ को लफ़्ज़ में तस्वीर करता रहता हूँ
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जलेगा सुबह तलक या हवा बुझा देगी
ये सोचता ही नहीं मैं दिया जलाते हुए
सताने लगता है तर्के-तअल्लुकात का खौफ़
बहुत ज़ियादा किसी के करीब जाते हुए
झुकूं न इतना कभी मैं कि सर उठा न सकूँ
ख़याल रहता है मुझ को ये सर झुकाते हुए
जहां कुछ शाइर आसान बात को कहने के लिए मुश्किल लफ़्ज़ तलाशते है वहीं आलम खुर्शीद साहब मुश्किल बात को आसानी से कहने के फ़न से भी ख़ूब वाकिफ़ हैं । आप मेरी इस बात की हाँ में हाँ मिला सकते है उनके ये अशआर पढ़कर :---
दरियाओं पर अब्र बरसते रहते हैं
और हमारे खेत तरसते रहते हैं
बाहर से कब हमको ख़तरा होता है
अपनी जेब के बिच्छू डसते रहते है
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कुछ फ़र्ज़ मेरा रास्ता रोके खड़े रहे
वरना ज़मीं पे रहना गवारा कभी न था
हम जिस के साथ-साथ थे उसके कभी न थे
जो साथ था हमारे,हमारा कभी न था
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इश्क़ में तहज़ीब के हैं और ही कुछ फ़लसफ़े
तुझ से हो कर हम ख़फ़ा ख़ुद से ख़फ़ा रहने लगे
आलम ख़ुर्शीद की शाइरी ने ग़ज़ल को एक नया लहजा दिया है ,नए-नए ज़ाविये दिये है लगता है उनके दिल में एक ख़यालाबाद है जो उन्हें हर शे'र के लिए नए – नए ख़याल मुहैया करवाता रहता है । आलम भाई में इक मासूम सा बच्चा भी कभी – कभी नज़र आता है जो छोटी- छोटी बातों पे ज़िद करने लगता है वो ज़िद चाहें लफ़्ज़ों को बरतने की हो या जानबूझ के टेढ़े – मेढ़े रस्ते पे चलने की हो ।
सुलगती हुई सिगरेट का सफ़र तो राख़दान पे जाकर ख़त्म हो जाता है मगर आलम ख़ुर्शीद के अशआर ख़यालों के रोशनदान से निकल कर क़लम के रस्ते पे चलते है तो अपना सफ़र फिर काग़ज़ पर ख़त्म नहीं करते वे तो कारी के ज़हन में अपना आशियाना बना लेते है । मिसाल के तौर पे उनके ये शे'र :---
हमारे घर पे ही क्यूँ वक्त की तलवार गिरती है
कभी छत बैठ जाती है , कभी दीवार गिरती है
क़लम होने का ख़तरा है अगर मैं सर उठाता हूँ
जो गर्दन को झुकाऊँ तो मेरी दस्तार गिरती है
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हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं
भीड़ बहुत है, इस मेले में खो सकता हूँ मैं
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कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है
ऐसों वैसों का एहसान उठाना पड़ता है
मुशायरों की दुनिया में आलम ख़ुर्शीद की तबीयत ज़रा कम लगती है और न ही वे इसके आदाब से वाकिफ़ होना चाहते हैं ।वे मानते हैं कि अपने दिल का लिखने और लोगों की माँग ,उनकी तालियों के लिए लिखने में बड़ा फ़र्क है । अदब को दीमक की तरह चाट रही खेमे - बाजी से आलम ख़ुर्शीद कोसों दूर रहते हैं और अपने दिल का कहा मान शाइरी के ऐसे चिराग़ जलाते है जो मुसलसल जलते रहते हैं और आंधियां सिर्फ़ हाथ मलती रह जाती हैं ।
सियाह रात के बदन पे दाग़ बन के रह गये
हम आफ़ताब थे मगर चिराग़ बन के रह गये
किसी को इश्क़ में भी अब जुनूँ से वास्ता नहीं
ये क्या हुआ की सारे दिल दिमाग़ बन के रह गये
यूँ तो आलम भाई अपने एहसास के साथ लफ़्ज़ों को बड़ी नरमी से गूंथते है मगर फिर भी बात कभी - कभी नुकीली हो ही जाती है :--
वक़्त बदन के ज़ख्म तो भर देता है लेकिन
दिल के अन्दर कुछ तबदीली हो जाती है
मुद्दत में उल्फत के फूल खिला करते हैं
पल में नफरत छैल -छबीली हो जाती है
इन दिनों जो फिज़ां बनी हुई है उसे आलम ख़ुर्शीद साहब अदब के लिए ख़ुशगवार मानते है उनका कहना है कि उर्दू न जानने वाले भी उर्दू से मुहब्बत करने लगे हैं इंटरनेट ने जहां हमारी तहज़ीब का नुक्सान किया है वहाँ दूसरी और ग़ज़ल से युवाओं को जोड़ा भी है और यही वजह है कि आज जो ग़ज़ल की तस्वीर है उसमे उन्हें सुनहरी मुस्तक़बिल नज़र आता है । ग़ज़ल से राब्ता रखने वाली नई पीढ़ी को आलम भाई सिर्फ़ एक ही मशविरा देते है कि ग़ज़ल के प्रति इमानदार रहें ,झूठी वाह-वाही से बचें और जो भी कहें दिल से कहें , पूरी तरह मुन्हमिक (तन्मयता ) हो कर कहे ।
आलम ख़ुर्शीद शाइरी की मुश्किल राह पर चलने वाले वो मुसाफ़िर है जो अपने चलने की रफ़्तार ख़ुद तय करते हैं और किस सिम्त जाना है ये भी उनकी मर्ज़ी के अख्तियार में आता है । हवा के साथ चलना मसाफ़त का एक हुनर ज़रूर है मगर ऐसा हुनर आलम भाई को मर जाने के बराबर लगता है । आलम ख़ुर्शीद साहिल पर पहुँचने के लिए कश्ती और पतवार की बनिस्पत अपने बाजू की ताक़त पर एतबार ज़ियादा करते है । आलम साहब की क़लम से निकले अशआर फव्वारे से उछलते हुए पानी की माफ़िक नहीं है जो एकबार तो उछलते हैं मगर फिर ज़मीं पे आकर गिर जाते है बल्कि इनके शे'र तो उस उपग्रह की तरह है जो बलंदी के कक्ष में एकबार स्थापित हो जायेँ तो फिर वापिस नहीं आते । भोजपुरी की मिठास, खड़ी बोली का भोलापन और उर्दू की चाशनी के मिश्रण से बड़ी कारीगिरी से आलम ख़ुर्शीद जब ग़ज़ल बनाते हैं तो वो दिलवालों के दिल में तो घर करती ही है बल्कि बड़े- बड़े आलिम - फ़ाज़िल भी उसकी सताइश करने पे मजबूर हो जाते हैं । पिछले तीस - पैंतीस सालों के अपने अदबी सफ़र में आलम ख़ुर्शीद ने अदब को बहुत कुछ दिया है मगर ये विडम्बना ही है कि एज़ाज़ के लिए हर बार इनका नाम मुल्क की बड़ी अकादमियों की फेहरिस्त से आख़िर में जाकर कट जाता है , ये भी सच्चाई है कि इन ख़्वाबों की ताबीर मुमकिन नहीं है मगर आलम खुर्शीद ख़्वाबों से मुंह नहीं मोड़ते है वे जानते है कि उनके ख़्वाब कोई गुब्बारे नहीं है जो हवा के दवाब में आ जायेँ उनके ख़्वाब तो खुली आँखों से देखे जाने वाले वो सपने हैं जिनकी ताबीर सिर्फ़ उनका साकार होना है । आलम भाई को हर शय में कुछ न कुछ इमकान नज़र आते हैं वे जब भी कोई ख़्वाब देखते है तो उन्हें ज़मीन शादाब नज़र आती है और उनकी नज़रें ये कमाल भी रखती है कि उन्हें आसमान पे दिन में भी चाँद नज़र आता है ।
दरिया से आलम ख़ुर्शीद का कोई पुराना रिश्ता है लहरें उनसे मिलने के लिए हमेशा बेताब रहती है तभी तो अपनी छोटी सी नाव में दोस्ती ,नेकी,शराफ़त,वफ़ा और आदमीयत का सामान लेकर बड़ी आसानी से वे दरिया पार कर जाते हैं ।
आलम खुर्शीद साहब के बारे में इतना तो यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि ग़ज़ल की तस्वीर का जो फ्रेम आलम खुर्शीद ने बनाया है उस फ्रेम में आने के बाद ग़ज़ल की ख़ूबसूरती और बढ़ी है और अदब अपने कमरे की दीवार पे इस फ्रेम को टांग कर मुतमईन है ।
आख़िर में इसी दुआ के साथ कि ग़ज़ल से बे-इन्तेहा मुहब्बत करने वाले आलम खुर्शीद अपनी आँखों में ख़ूबसूरत ख़्वाब बोते रहें जिससे कि दुनिया उन्हें बे-रंग न लगे और अपनी शाइरी के नए- नए ज़ावियों से हमे दुनिया दिखाते रहें।.....आमीन
अब ज़मीं को सलाम करना है
आसमाँ पर कयाम करना है
दो घड़ी की मुसाफ़रत के लिए
किस क़दर एहतिमाम करना है
विजेंद्र शर्मा
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