मयंका सिंह का आलेख - परिवार नियोजन और स्त्रियों के अधिकार क्षेत्र

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परिवार नियोजन स्‍त्रियों के अधिकार क्षेत्र मयंका सिंह (शोधार्थी) वनस्‍थली विद्यापीठ , टोंक (राजस्‍थान) परिवार का स्‍वरूप उसकी सदस्‍...

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परिवार नियोजन स्‍त्रियों के अधिकार क्षेत्र

मयंका सिंह (शोधार्थी)

वनस्‍थली विद्यापीठ,टोंक (राजस्‍थान)

परिवार का स्‍वरूप उसकी सदस्‍य संख्‍या उत्‍पन्‍न करती है। अतः परिवार नियोजन एक आवश्‍यक प्रक्रिया के रूप मे अपना स्‍थान रखता है। परिवार नियोजन से तात्‍पर्य केवल जन्‍म नियंत्रण तथा उनके जन्‍म में समयांतर देने के अर्थ तक ही समिति नहीं है। बल्‍कि इसका उद्‌देश्‍य परिवार को समाज की एक इकाई के रूप में विकसित करना है, जिससे उन दशाओं की पूर्ति हो सके जो परिवार कल्‍याण के लिए आवश्‍यक है। तृतीय पंचवर्षीय योजना में यह स्‍वीकार किया गया कि देश की परिस्‍थिति को देखते हुए परिवार नियोजन कार्यक्रम को न केवल एक विशाल विकास के कार्यक्रम के रूप में ही चलाना है अपितु एक ऐसे राष्‍ट्रव्‍यापी आंदोलन के रूप में कार्यान्‍वित भी करना है जिसके अन्‍तर्गत व्‍यक्‍ति परिवार तथा राष्‍ट्र के कल्‍याण की बुनियादी भावनाएँ निर्मित हों।

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परिवार नियोजन के अतंर्गत बच्‍चे बंद करने के विषय में ही नहीं बतलाया जाता है बल्‍कि जिनके बच्‍चे नहीं होते, उन्‍हें परिवार नियोजन के केंद्रों से उचित जाँच तथा सलाह भी दी जाती है। जच्‍चा-बच्‍चा के अच्‍छे स्‍वास्‍थ्‍य के लिए बच्‍चों के जन्‍म, समयांतर तथा कमजोर माताओं को विटामिन की गोलियाँ और दूध का प्रबंध किया जाता है। बच्‍चों को मुफत ट्रिपुल डाइजेन और टिटनेस की सुइयाँ लगाई जाती हैं। इस तरह मातृ-शिशु और जन स्‍वास्‍थ्‍य को भी परिवार नियोजन के अतंर्गत सम्‍मिलित कर लिया गया है, जिससे परिवार की वृद्धि और उन्‍नति हो और आर्थिक, सामाजिक और साँस्‍कृतिक दृष्‍टि से सामूहिक कल्‍याण के लिए आवश्‍यक परिस्‍थितियों का निर्माण हो।

विश्‍व में जनसंख्‍या की दृष्‍टि से भारत का दूसरा स्‍थान है। फिर भी किसी समाज की प्रजनन दर बहुत सीमा तक सामाजिक और आर्थिक कारकों से संचालित होती है। भिन्‍न-भिन्‍न समाज के लिए ये सामाजिक और आर्थिक कारक भी अलग-अलग होते हैं। भारतीय परिवेश में जाति को प्रजनन दर का एक निर्धारक माना जाता है लेकिन पश्‍चिमी देशों में इस प्रकार के जातीय स्‍तरीकरण का अस्‍तित्‍व नहीं है।

रूस में महिलाओं को नौकरी के लिए स्‍वतंत्रता प्रदान करने में बच्‍चों की देखभाल करने वाली सरकारी संस्‍थाएँ महत्‍तवपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। इस प्रकार की सुविधा, उदाहरणार्थ अफ्रीकी देशों में नहीं है। अतः किसी समाज में प्रजनन दर को नियंत्रित करने वाले सामाजिक, साँस्‍कृतिक तथा आर्थिक कारण उस समाज की संरचना और संस्‍थाओं के साथ अभिन्‍न रूप से जुडे रहते हैं।

भारत वर्ष में सन्‍तानोत्‍पत्‍ति एक सबसे बडा कुटीर उधोग बन गया है। ये सभी कथन भारत जैसे आर्थिक व्‍यवस्‍था वाले देश में जन संख्‍या वृद्धि की समस्‍या में अंतर्निहित खतरों की ओर संकेत करते हैं। इंदिरा गॉधी ने कहा था, जनसंख्‍या के तीव्र गति से बढ़ते रहते आयोजित विकास करना बहुत कुछ ऐसी भूमि पर मकान खड़ा करने के समान है जिसे बाढ़ का पानी बराबर बहा ले जा रहा है। मैं कहूंगी यह बालू पर मकान खड़ा करने जैसा है। आयोजन और औद्योगिक तथा कृषि विकास द्वारा जो कुछ भी उन्‍नति होती है, वह आबादी की वृद्धि में डूब जाती है। फलतः जनता के रहन-सहन के स्‍तर में कोई उल्‍लेखनीय उन्‍नति नहीं दिखाई पड़ती है।

योजना आयोग ने भी प्रायः इसी प्रकार व्‍यक्‍त किया है, भारत जैसी स्‍थिति वाले देश में जनसंख्‍या की वृद्धि की दर का आर्थिक विकास एवं प्रति व्‍यक्‍ति जीवन-स्‍तर पर निश्‍चय ही विपरीत प्रभाव पडेगा। व्‍यापक निर्धनता, खाद्य समस्‍या की गंभीरता, बढती हुई बेरोजगारी आदि हमें बाध्‍य करती है कि हम जनसंख्‍या नीति का निर्माण करें।

इस प्रकार जनसंख्‍या की समस्‍या को सर्वप्रथम 1951में अनुभव किया गया। इसके उपरान्‍त 1951-61 के दशक में विभिन्‍न प्रकार के परीक्षण किए गए। परिवार कल्‍याण कार्यक्रम को केवल वैधानिक विचार के रूप में अपनाया गया। सन 1961-62 में परिवार कल्‍याण को व्‍यापक रूप में अपनाने हेतु आधारभूत ढाँचा तैयार किया गया और लोगों को उनके घर के समीप ही परिवार कल्‍याण की विभिन्‍न सुविधाओं की व्‍यवस्‍था की गई। उसके बारें में भारत में जो परिवार कल्‍याण कार्यक्रम अपनाया गया है, उसमें निम्‍न बातों को सम्‍मिलित किया गया है-

1- बच्‍चों के जन्‍म में फासला रखना।

2- बच्‍चों की संख्‍या को सीमित रखना।

3- बंध्‍याकरण या नसबंदी कराना।

4- विवाह के बारे में सलाह देना।

5- पारिवारिक जीवन से संबंधित शिक्षा प्रदान करना।

संक्षेप में, परिवार नियोजन सामाजिक परिवर्तन का एक महत्‍वपूर्ण साधन है। इसकी सहायता से सुशिक्षित माँ-बाप, स्‍वस्‍थ बच्‍चों, अच्‍छे घरों तथा दंपत्‍तियों के उत्‍तरदायित्‍व (समाज के प्रति) को विकसित किया जा सकता है।

भारत जैसे अर्द्ध विकसित देश में परिवार कल्‍याण की आवश्‍यकता को समय की सबसे प्रमुख आवश्‍यकता कहा जा सकता है, क्‍योंकि प्रतिदिन सैकड़ों बच्‍चों का आगमन चिंता का विषय बन गया है। यदि जन्‍म दर में कमी नहीं लाई गई तो देश में जनसंख्‍या का ज्‍वालामुखी का भयंकर विस्‍फोट टाला नहीं जा सकता है। इसके लिए संतति निरोध की उचित विधियों को अपनाना आवश्‍यक है।

पुरूष और स्‍त्री निर्माण के दो परस्‍पर पूरक तत्‍व है। समाज तथा इसकी व्‍यवस्‍था को संचालित करने वाली दो मुख्‍य आधारशिला अथवा पहिए-स्‍त्री तथा पुरूष, जिनका समाज मे समान महत्‍व, समान उत्‍तरदायित्‍व तथा समान अधिकार निर्दिष्‍ट है।

महिलाओं को कितने भी अधिकार क्‍यों न मिले,परन्‍तु व्‍यावहारिक स्‍तर पर स्‍थिति ठीक इसके विपरीत है। इस स्‍थिति के लिये परम्‍परागत रूढिगत मान्‍यताएं, अशिक्षा, स्‍त्रियों की परम्‍परागत निम्‍न स्‍थिति आदि महत्‍वपूर्ण कारक उत्‍तरदायी हो सकते हैं, परन्‍तु वर्तमान समसामयिक परिवेश में जब हम एक नई दुनिया के सृजन एवं विकास में सतत्‌ प्रयत्‍नशील हैं, ऐसे में आवश्‍यक है कि हम महिलाओं को स्‍वतन्‍त्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार प्रदान करें, तभी हम स्‍वतन्‍त्रता एवं समानता के सिद्धान्‍त को व्‍यवहारिक स्‍तर पर भी सत्‍यापित कर सकेंगे।

इस दुरूह स्‍थिति से छुटकारा पाने के लिए कुछ सुझाव लाभप्रद सिद्ध हो सकते हैं-

1- व्‍यावहारिक स्‍तर पर लैंगिक विषमता को समाप्‍त करने का प्रयास किया जाए।

2- किसी भी लिंग के प्रति एकपक्षीय दृष्‍टिकोण के प्रति कटिबद्धता न बरती जाए।

3- दूरदर्शन आदि संचार माध्‍यमों के द्वारा ऐसे धारावाहिकों और प्रसारणों पर रोक लगाई जाए जो लिंग के प्रति (महिला एंव पुरूष) एकापक्षीय दृष्‍टिकोण को प्रस्‍तुत करते हों।

4- अन्‍य मामलों (पारिवारिक, आर्थिक, शैक्षणिक, आदि कार्यों से संबंधित) में जिस प्रकार महिलाएँ समझौतावादी एवं सरलता की नीति से पुरूषों से अपनी बात पूर्ण करा लेती हैं, उसी प्रकार इस संदर्भ में भी सौहार्दपूर्ण प्रयास करें।

5- यदि पुरूष की ही केवल निर्णायक भूमिका होती है तो ऐसी स्‍थिती में महिला को अपने अस्‍तित्‍व और अस्‍मिता की रक्षा हेतु प्रयास करना चाहिए।

6- विध्‍वंसक स्‍थिति आने महिला चिकित्‍सकीय परामर्श एवं परिवार नियोजन सुरक्षा और संरक्षण प्राप्‍त करें।

7- इसके अतिरिक्‍त महिलाओं को परिवार और समाज में ऐसी मानसिकता बनाने का प्रयास किसी भी छोटे -बडे औपचारिक माध्‍यमों से करना चाहिए जिससे स्‍त्री को भोग्‍या एवं वस्‍तु मानने की मानसिकता समाप्‍त हो। इसके लिए शिक्षित और जागरूक महिलाओं को स्‍वयं आगे आना होगा और अपना अस्‍तित्‍व किसी महिला अथवा पुरूष के रूप में कायम न रख कर एक मानव के रूप में अपनी पहचान बनाने के प्रति कटिबद्ध होना पड़ेगा, तभी लैंगिक विषमता और उससे संबंधित विभिन्‍न प्रकार की समस्‍याओं से मुक्‍ति मिल पाएगी।

परिवार नियोजन जैसे सामाजिक और साथ ही व्‍यक्‍तिगत विषय पर आज की नारी स्‍वतन्‍त्र निर्णय लेने में कितनी सक्षम है? क्‍या केवल स्‍त्री की इच्‍छा और सहमति बच्‍चों की संख्‍या को नियंत्रित करने में पर्याप्‍त है? यदि नही तो आज के आधुनिक समाज में लैंगिग समानता की दुहाई देने वाले समाज के कर्णधारों के अस्‍तित्‍व के बाद भी गर्भधारण करने का निर्णय गर्भधारण करने वाली महिला के पास सुरक्षित क्‍यों नहीं?

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. मंयका जी,परिवार नियोजन के अतंर्गत बच्‍चे बंद करने के विषय में ही नहीं बतलाया जाता है पर देश में एक भी ऐसा सेन्‍टर नही हैं जहां जिनके बच्‍चे नहीं होते, उन्‍हें उचित जाँच तथा सलाह भी दी जाती है।पर लूटमार हैं .. सतीश कूमार चौहान भिलाई

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  2. बेनामी9:06 am

    frend ur artcal so good congrat....

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रचनाकार: मयंका सिंह का आलेख - परिवार नियोजन और स्त्रियों के अधिकार क्षेत्र
मयंका सिंह का आलेख - परिवार नियोजन और स्त्रियों के अधिकार क्षेत्र
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