"ग़ज़ल न तो उर्दू न फ़ारसी न अरबी और न हिन्दी की बपौती है ग़ज़ल तो उस ज़ुबान को अपने अन्दर समो लेती है जिसे भीख मांगने वाला भी समझे और भीख द...
"ग़ज़ल न तो उर्दू न फ़ारसी न अरबी और न हिन्दी की बपौती है ग़ज़ल तो उस ज़ुबान को अपने अन्दर समो लेती है जिसे भीख मांगने वाला भी समझे और भीख देने वाला भी।" - पद्मश्री डॉ. बशीर बद्र
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए
एक शख्सियत....... पद्मश्री डॉ. बशीर बद्र
2 जुलाई 1972 को शिमला समझौता हुआ और 3 जुलाई के अख़बारों में पकिस्तान के वजीरे- आज़म ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की हाथ मिलाते हुए तस्वीर छपी और नीचे एक शे'र लिखा था जो कि भुट्टो साहब ने श्रीमती गाँधी को समझौते के वक़्त सुनाया था :----
दुश्मनी जम के करो लेकिन ये गुंजाईश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हो
भुट्टो साहब ने ये शे'र लाहौर के एक अख़बार में पढ़ा था उसी दिन से अदब की दुनिया में एक नाम मशहूर हो गया वो नाम था बशीर बद्र जो इस शे'र के रचयिता थे और उस वक़्त अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे थे ।
ग़ज़ल के अगर पिछले तीन सौ साला अतीत के सफ़े पलट के देखें तो सब से मक़बूल शे'र कोई हुआ है तो वो ये है :---
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए
हिन्दुस्तान की साबका वजीरे- आज़म मोहतरमा इंदिरा गाँधी ने ये शेर अपनी एक राज़दार सहेली ऋता शुक्ला को ख़त में लिखा था ,यही शे'र मीना कुमारी ने एक अंग्रेज़ी फ़िल्मी रिसाले में अपने हाथ से लिखा था और इसी शे'र का इस्तेमाल हमारे पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपने आख़िरी भाषण में किया था। ये आवारा शे'र भी बशीर बद्र की क़लम का कमाल था।
हमारे एक और पूर्व राष्ट्रपति के .आर. नारायणन ने कुल- हिंद उर्दू सम्पादक कोंफ्रेंस में अपने भाषण के आख़िर में बशीर बद्र का शे"र पढ़ा :---
वो इत्रदान सा लहजा मेरे बुज़ुर्गों का
रची बसी हुई उर्दू ज़ुबान की ख़ुश्बू
हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर बस ले के गये उस बस के पीछे दो मिसरे लिखे थे :-
दुश्मनी का सफ़र एक कदम दो कदम
तुम भी थक जाओगे हम भी थक जायेंगे
ये मिसरे भी बशीर बद्र साहब ने कहे थे और वे इस बस के मुसाफ़िर भी थे। वो बस पाकिस्तान गई तो मुहब्बत का पैगाम ले के थी पर उसके बाद हमारी पीठ में कारगिल का खंजर घोंप दिया गया दोनों मुल्कों में फिर से तल्खियां पैदा हो गई। इस खंजर को निकालने का एक निरर्थक प्रयास मियाँ मुशर्रफ करने दिल्ली आये और जब वे वाजपेयी जी से मिले तो उन्होंने सिर्फ़ हाथ मिलाया गले नहीं मिले। शाम को नाहर वाली हवेली देखने के बाद एक मुख़्तसर सा मुशायरा हुआ जिसमे मियाँ मुशर्रफ को ये शेर सुनाने वाले भी बशीर बद्र ही थे :---
मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
अगले ही दिन आगरा में ताजमहल के ठीक सामने पंच सितारा जे. पी होटल में बैठक होनी थी मुशर्रफ साहब की शान में यहाँ इंडो-पाक मुशायरा रखा गया जिसमे बशीर बद्र ने दोनों मुल्कों के सदरों को मुखातिब हो ये शेर पढ़ा जो इतना सच साबित हुआ की आज तक दोनों मुल्क सिर्फ़ गुफ़्तगू तक ही महदूद हो कर रह गये है ;-
ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा
फ़िराक गोरखपुरी ने कहा था कि ग़ज़ल का कोई ख़ुदा है तो वो है मीर तकी मीर , मीर ने तक़रीबन 18000 शे'र कहे जिसमे से 80 -90 के करीब शेर आमफेम हुए यानी जो लोगों की ज़ुबान पे चढ़ गये। उसके बाद कहा जाता कि ग़ालिब ने उर्दू में तक़रीबन 1500 शे'र कहे और उनके 50 के करीब शे'र ज़िन्दा शे'र कहे जा सकते हैं उसके बाद जो भी बड़े नाम ग़ज़ल की दुनिया में आये चाहेफ़ैज़ हो, जिगर हो, इकबाल हो, फ़िराक़ हो ,कैफ़ी हो यामज़रूह हों किसी के भी हिस्से में 8 -10 शे'र से ज़ियादा ज़िन्दा शे'र नहीं आये मगर इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता कि इस सदी में सब से ज़ियादा आमफेम और ज़िन्दा शे'र कहने वाला कोई शाईर है तो वो है बशीर बद्र।
सुरमा बेचने वाले की पेटी से पान की दुकान तक , यूनिवर्सिटी में पढाई जाने वाली किताबों से लेकर अदब के बड़े-बड़े रसाइल तक ,शाइरी से मुहब्बत करने वालों की डायरी से लेकर ट्रकों के डाले पर अगर सब से ज़ियादा किसी के शे'र लिखे होते हैं तो वो होते हैं बशीर बद्र के शे'र।
इसमे कोई शक़ नहीं कि जदीद शाइरी में ग़ज़ल का दूसरा नाम बशीर बद्र है। 15 फ़रवरी 1869 को मुल्क से एक बहुत बड़ा शाइर चला गया था जिसे लोग मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जानते हैं और 15 फ़रवरी 1935 को इस सदी का एक बहुत बड़ा शाइर पैदा हुआ जिसका नाम है बशीर बद्र । बशीर बद्र के वालिद जनाब सयैद मोहम्मद नज़ीर यूँ तो अयोध्या के रहने वाले थे पर बशीर साहब का जन्म कानपुर में हुआ। इनके वालिद पुलिस महकमें में लेखाकार थे अपने वालिद के भावनात्मक रूप से बशीर साहब बहुत करीब थे। बशीर साहब ने अपनी शुरूआती पढाई कानपुर में की और अपना हाई स्कूल 1949 में इटावा से किया। अपने वालिद की सेहत ठीक न होने की वजह से बशीर साहब ने अपनी पढाई बीच में छोड़ दी और उतर प्रदेश पुलिस में नौकरी करने लगे। कई साल नौकरी करने के बाद बशीर बद्र ने उर्दू में एम्.ए अलीगढ यूनिवर्सिटी से गोल्ड मेडल के साथ किया और "आज़ादी के बाद उर्दू ग़ज़ल" विषय पर शोध कर पी.एच .डी भी उन्होंने अलीगढ यूनिवर्सिटी से की।
शायद बशीर बद्र अपने आप में एक मिसाल है जिन्होंने अपने कोर्स में अपनी लिखी हुई किताब पढ़ी भी और फिर बाद में उसे पढ़ाया भी। पहले कुछ बरस उन्होंने अलीगढ यूनिवर्सिटी में पढ़ाया फिर लगभग 17 साल मेरठ कालेज में पढ़ाया।
किसी ने ठीक ही कहा है कि शाइर बनता नहीं है पैदा ही शाइर होता है दस बरस की उम्र में बशीर बद्र ने अपना पहला शेर कहा जो यूँ था :---
तेरे इश्क़ में मैं मरा जा रहा हूँ
हवा चल रही है उड़ा जा रहा हूँ
इस से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है दस बरस की उम्र में क्या तेवर रहे होंगे बशीर बद्र के जो आज तक 75 सावन देखने के बाद भी ब-दस्तूर वही के वही कायम है।
बशीर बद्र के मक़बूल शे'रों की फेहरिस्त बहुत तवील है फिर भी उनमे से कुछ मुलाहिज़ा फरमाएं :-----
हम भी दरिया है हमे अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा
ज़िन्दगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है
कुछ तो मजबूरियाँ रहीं होंगी
यूँ कोई बे-वफ़ा नहीं होता
बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फासला रखना
जहाँ दरिया समन्दर से मिला ,दरिया नहीं रहता
शौहरत की बलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो
बस गई है मेरे एहसास में ये कैसी महक
कोई ख़ुश्बू मैं लगाऊं तेरी ख़ुश्बू आए
1984 में दंगाइयों ने मेरठ में बशीर साहब के घर को आग लगा दी। बशीर बद्र के अन्दर का शाइर इतना आहत हुआ और उन्होंने एक मतला कहा जो आज भी बहुत सी जगह कोट किया जाता है :----
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
इस हादसे के बाद बशीर साहब ने मेरठ छोड़ दिया और भोपाल रहने लगे।
बशीर बद्र से मेरी मुलाक़ात दिल्ली में साहित्य अकादमी के एक समारोह में हुई ,मैंने पूछा कि आप का क़लाम बाकी सुख़नवरों से इतना मुख्तलिफ़ क्यूँ है और इतना मक़बूल कैसे हो जाता है तो उन्होंने कहा कि मैंने भी शुरूआती दौर में फ़ारसी /अरबी के कठिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कर शाइरी की जो किताबों में तो ज़िन्दा रही पर लोगों के ज़हनों में घर न कर सकी उन्होंने अपना एक शे'र सुनाया :--
हज़ारों शे'र मेरे सो गये काग़ज़ की क़ब्रों में
अजब माँ हूँ कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता
और फिर बड़ी इमानदारी से बताया कि मीर , ग़ालिब , कबीर , अमीर खुसरो ,जिगर इन सब के वो शे'र कामयाब हुए जो आम बोलचाल की ज़ुबान में थे सो मैंने भी आम आदमी की ज़ुबान में कहना शुरू कर दिया बस इसी चालाकी से आज मेरा क़लाम आपके ज़ेहन में ज़िन्दा है।
बशीर साहब मानते हैं कि ग़ज़ल न तो उर्दू न फ़ारसी न अरबी और न हिन्दी की बपौती है ग़ज़ल तो उस ज़ुबान को अपने अन्दर समो लेती है जिसे भीख मांगने वाला भी समझे और भीख देने वाला भी। शाइरी वही ज़िन्दा रहती है जो आम इन्सान के दिल तक पहुंचे और उसे शे'र समझने के लिए लुगत (शब्द -कोश) न देखना पड़े।
ग़ज़ल में आम बोल चाल के अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों को बशीर बद्र ने यूँ अपने मिसरों में बांधा जैसे वोलफ़्ज़ सिर्फ़ उसी शे'र के लिए बने हो। बशीर बद्र जब अलीगढ यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे तो उन्होंने इसी सिलसिले का एक शे'र कहा जो मिसाल के तौर पे किताबों में पढ़ाया जाता है :--
वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने ,तो दूसरा ही लगे
ग़ज़ल में कहन क्या है ?नए लोगों को बशीर बद्र के इन मिसरों से सीखना चाहिए
मैं हर लम्हे में सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ इक लम्हा बहुत है
बशीर बद्र का पहला ग़ज़ल संग्रह "इकाई" उर्दू में 1969 में आया ,दूसरा संग्रह "इमेज "1973 में और तीसरा "आमद"1986 में "आसमान" 1990 में और "आहट " 1994 में आया उसके बाद नागरी में बशीर बद्र की ग़ज़लों के बहुत से संकलन आये जिसमें 1999 में "आस" को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
उर्दू अदब में महत्वपूरण योगदान के लिए 1999 में बशीर बद्र को पद्मश्री से नवाज़ा गया। बहुत से अदबी संस्थानों ने बशीर बद्र को एज़ाज़ से नवाज़ा।
इन सब के बा-वजूद बहुत से विवाद भी बशीर बद्र के साथ जुड़े रहे जिनकी चर्चा मैं यहाँ नहीं करूंगा क्यूंकि हर इन्सान में कुछ न कुछ ख़ामियाँ तो होनी ही चाहीये और ग़ज़ल की दुनिया के इतने बड़े शाइर को बहुत कुछ माफ़ भी है। ये बात तो बशीर बद्र के आलोचक भी कहते हैं कि जदीद शाईरी से अगर बशीर बद्र का नाम हटा दिया जाए तो ग़ज़ल अपने आप को बेवा समझने लगेगी।
बशीर बद्र का क़लाम आज हिन्दुस्तान के बहुत से विश्वविद्यालयों के कोर्स में पढ़ाया जाता है बहुत से लोगों ने बशीर बद्र की शाईरी पे शोध कर पी.एच.डी की है।
इस आलेख के लिए मुझे बहुत सी जानकारी "बशीर बद्र फ़न और शख्सीयत " पे शोध करने वाले भोपाल के डॉ. अंजुम बाराबंकवी ने मुहैया करवाई मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ।
मध्य प्रदेश के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बसंत प्रताप सिंह ने बशीर बद्र के पूरे क़लाम को संकलित कर एक किताब "कल्चर यकसां"तोहफे के रूप में ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों को दी है जो वाणी प्रकाशन से छपी है।
इक्कीसवीं सदी के इतने बड़े शाइर की शख्सियत को इस आलेख में बाँध पाना संभव नहीं है बशीर बद्र के आमफेम अशआर बहुत है और उनकी तमहीद के लिए हज़ार सफ़े भी कम पड़ते हैं।
मगर उनके कुछ ऐसे शे'र है जो मैं आप तक ज़रूर पहुंचाना चाहता हूँ :---
मैं चुप रहा तो और ग़लत फहमियाँ बढ़ी
वो भी सुना है उसने जो मैंने कहा नहीं
पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते
बड़ी आग है बड़ी आंच है ,तेरे मैकदे के गुलाब में
कई बालियाँ कई चूड़ियाँ ,यहाँ घुल रही शराब में
यारों ने जिस पे अपनी दुकानें सजाई है
ख़ुश्बू बता रही है हमारी ज़मीन है
चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं
ग़ज़ल के शे'र कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं
अभी सेहत बशीर बद्र से ज़रा ख़फा सी है अपनी यादाश्त का बहुत सा हिस्सा वो खो चुके है और भोपाल में सिर्फ़ अपनी ग़ज़लों और अपने दुःख -सुख की सच्ची हमदर्द अपनी हमसफ़र डॉ. राहत बद्र के साथ अपना वक़्त गुज़ार रहे है। इस सदी के बहुत बड़े शाइर पद्मश्री डॉ. बशीर बद्र को सलाम करता हूँ ....
उनके इसी शे'र के साथ इजाज़त चाहता हूँ अगले हफ्ते फिर मिलने का वादा :---------
मुसाफ़िर है हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पे फिर मुलाक़ात होगी
अल्लाह हाफीज़ ….
विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com
बहुत दिनों बाद कोई आलेख एक बार में पूरा पढ़ गई। बहुत ही अच्छा लगा बशीर साहब के बारे में जानकर। वाकई उनके शेर ज़बान पर तुरंत चढ़ जाते हैं और लोग उद्धरण के तौर पर उनके शेर खूब इस्तेमाल करते हैं।
जवाब देंहटाएंshukriyaa dipikaa ji ...
हटाएंregards
vijendra
Bashir Sahab ke bahut bade Fan ham log bhi hain , jinhe ghazal ka kahan sahan kuchh nahin pata .. mere kai dost unka koi sher kah dete hain , bina ye jaane ki shaayar kaun hai ... sahi kahte hain aap Bashir sahab kee shaayari aam aadmi ki shaayari hai , dil kee shaayari hai.
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